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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार संख्यानि, तान्येव सर्वसमुदायेन पुनरेकोनपञ्चाशत्प्रमितानि । पटलानि कोऽर्थः ? प्रस्तारा इन्द्रका अन्तर्भूमय इति । तत्र रत्नप्रभायां सीमन्तसंज्ञे प्रथमपटल विस्तारे नृलोकवत् यत्संख्येययोजनविस्तारवत् मध्यबिलं तस्येन्द्रकसंज्ञा। तस्यैव चतुर्दिग्विभागे प्रतिदिशं पंक्तिरूपेणासंख्येययोजनविस्ताराग्येकोनपञ्चाशदबिलानि । तथैव विदिक्चतुष्टये प्रतिदिशं पंक्तिरूपेण यान्यष्टचत्वारिशद्बिलानि तान्यप्यसंख्यातयोजनविस्ताराणि । तेषामपि श्रेणीबद्धसंज्ञा। दिग्विदिगष्टकान्तरेषु पंक्तिरहितत्वेन पुष्पप्रकरवत्कानिचित्संख्येययोजनविस्ताराणि कानिचिदसंख्येययोजनविस्ताराणि यानि तिष्ठन्ति तेषां प्रकीर्णकसंज्ञा। इतीन्द्रकश्रेणीबद्धप्रकीर्णकरूपेण त्रिधा नरका भवन्ति । इत्यनेन क्रमेण प्रथमपटलव्याख्यानं विज्ञेयम् । तथैव पूर्वोक्तकोनपञ्चाशत्पटलेष्वयमेव व्याख्यानक्रमः किन्त्वष्टश्रेणिष्वेकैकपटलं प्रत्येकैकं हीयते यावत्सप्तमपृथिव्यां चतुर्दिग्भागेष्वेकं बिलं तिष्ठति। रत्नप्रभादिनरकदेहोत्सेधः कथ्यते प्रथमपटले हस्तत्रयम् ततः क्रमवृद्धिवशात्त्रयोदशपटले सप्तचापानि हस्त त्रयमङ्गलषट्कं चेति । ततो द्वितीयपृथिव्यादिषु चरमेन्द्रकेषु द्विगुणद्विगुणे क्रियमाणे सप्तमपृथिव्यां चापशतपञ्चकं भवति । उपरितने नरके य उत्कृष्टोत्सेधः सोऽधस्तने नरके विशेषाधिको जघन्यो भवति, तथैव पटलेषु च ज्ञातव्यः। आयुःप्रमाणं कथ्यते । प्रथमपृथिव्यां ग्यारह, तीसरीमें नव, चौथीमें सात, पांचवीमें पाँच, छठीमें तीन और सातवीं पृथिवीमें एक; ऐसे ये सब समदायसे उनचास (४९) संख्या प्रमाण पटल हैं। यहाँ ‘पटल' शब्दका अर्थ प्रस्तार (तह) इन्द्रक अथवा अन्तर्भूमि है। उनमें रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवीमें सीमन्त नामक पहले पटलके विस्तारमें जो ढाई द्वीपके समान संख्येय ( ४५००००० ) योजन विस्तारका धारक बीचका बिल है उसकी इन्द्रक संज्ञा है । उस इन्द्रककी चारों दिशाओं में प्रत्येक दिशामें असंख्येय योजन विस्तारके धारक उनचास बिल हैं। और इसी प्रकार चारों विदिशाओंमें प्रत्येक विदिशामें पंक्तिरूप ( कतारदार ) जो अडतालीस (४८) बिल हैं वे भी असंख्यात योजन प्रमाण विस्तारके धारक हैं, इन दोनों प्रकारके बिलोंकी ही "श्रेणीबद्ध" यह संज्ञा है अर्थात् इन्द्रकको दिशा और विदिशाओं में जो पंक्तिरूप बिल हैं वे श्रेणीबद्ध कहलाते हैं। चारों दिशा और चारों विदिशा इन आठोंके बीच में जो पंक्ति ( सिलसिले ) के बिना होनेसे बिखरे हए पुष्पोंके समान कितने ही संख्यात योजन विस्तारके धारक और कितने ही असंख्यात योजन विस्तारके धारक बिल हैं, उनका "प्रकीर्णक" यह नाम है। ऐसे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकरूपसे तीन प्रकारके नरक होते हैं। इस पर्वोक्त क्रमसे प्रथम पटलका व्याख्यान जानना चाहिये । इसी प्रकार पर्वोक्त जो सातों पथिवियोंमें उनचास पटल हैं उनमें भी यही व्याख्यानका क्रम है। परन्तु विशेष यह है कि, आठों दिशाओंकी जो आठों बोणियाँ हैं उनमें प्रत्येक पटलमें एक-एक बिल घटता है, सो यहाँ तक कि, सप्तम पृथिवीमें चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है ।। अब रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें जो नारक निवास करते हैं उनके देहकी ऊँचाईका कथन करते हैं-प्रथम पटलमें तीन हाथका उत्सेध है और यहाँसे क्रम-क्रम बढ़नेके वशसे तेरहवें पटलमें सात धनुष, तीन हाथ और ६ अंगुलका उत्सेध है। इसके अनंतर द्वितीय आदि पृथिवियोंके अन्तके इन्द्रक विमानोंमें दूनादूना वृद्धिरूप करनेसे सप्तम पृथिवीमें पाँचसौ धनुषका उत्सेध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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