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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्व्यसंग्रहः ९३ प्रथमे पटले जघन्येन दशवर्षसहस्राणि तत आगमोक्तक्रमवृद्धिवशादन्तपटले सर्वोत्कर्षेणैकसागरोपमम्। ततः परं द्वितीयपृथिव्यादिषु क्रमेण त्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपममुत्कृष्टजीवितम् । यच्च प्रथमपृथिव्यामुत्कृष्टं तद्वितीयायां समयाधिकं जघन्यं, तथैव पटलेषु च । एवं सप्तमपृथिवीपर्यन्तं ज्ञातव्यम् । स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणनिश्चयरत्नत्रयविलक्षणैस्तीवमिथ्यात्वदर्शनज्ञानचारित्रैः परिणतानामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियसरठपक्षिससिंहस्त्रीणां क्रमेण रत्नप्रभादिषु षट्पथिवीषु गमनशक्तिरस्ति सप्तम्यां तु कर्मभूमिजमनुष्याणां मत्स्यानामेव । किञ्च यदि कोऽपि निरन्तरं नरके गच्छति तदा पृथिवीक्रमेणाष्टसप्तषट्पञ्चचतुस्त्रिद्विसंख्यवारानेव । किन्तु सप्तमनरकादागताः पुनरप्येकवारं तत्रान्यत्र वा नरके गच्छन्तीति नियमः । नरकादागता जीवा बलदेववासुदेवप्रतिवासुदेवचक्रवतिसंज्ञाः शलाकापुरुषाः न भवन्ति । चतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमनरकेभ्यः समागताः क्रमेण तीर्थकरचरमदेहभावसंयतश्रावका न भवन्ति । तर्हि किं भवन्ति ? “णिरयादो णिस्सरदो णरतिरिएकम्मसण्णिपज्जत्तो। गव्वभवे उप्पज्जदि सत्तमणिरयादु तिरिएव । १।"॥ इदानीं नारकदुःखानि कथ्यन्ते। तद्यथा--विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्व ऊपरके नरकमें जो उत्कृष्ट उत्सेध है उससे कुछ अधिक नीचेके नरक में जघन्य उत्सेध होता है। इसी प्रकार पटलोंमें भी जानना चाहिये। अब नारकोंके आयुका प्रमाण वर्णन करते हैं। प्रथम पृथिवीके प्रथम पटलमें जघन्यतासे दश हजार वर्षकी आयु है, उसके पश्चात् आगममें कही हुई क्रमानुसार वृद्धिसे अन्तका जो तेरहवाँ पटल है उसमें सर्वोत्कृष्टतासे एक सागर प्रमाण आय है। इसके अनन्तर क्रमसे दूसरी पृथिवीमें तीन सागर, तीसरीमें सात सागर, चौथी में दश सागर, पाँचवीमें सत्रह सागर, छठीमें बाईस सागर और सातवीमें तैंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है। जो प्रथम पृथिवीमें उत्कृष्ट आयु है, वह दूसरीमें कुछ समय अधिक जघन्य आयु है । एवमेव जो प्रथम पटलमें उत्कृष्ट आयु है सो दूसरे में समयाधिक जघन्य है । ऐसे सप्तम पृथिवीतक जानना चाहिये। निजशुद्ध आत्माके ज्ञानरूप लक्षणका धारक जो निश्चयरत्नत्रय है उससे विलक्षण जो तीव्र मिथ्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र है इनसे परिणत असंज्ञी पंचेन्द्रिय सरठ, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री पर्यायके धारक जो जीव हैं उनके क्रमसे रत्नप्रभादि षट पथिवियोंमें गमन करनेकी शक्ति है अर्थात् असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमिमें, सरठ दूसरीमें, पक्षी तीसरीमें, सर्प चौथीमें, सिंह पाँचवीं में तथा स्त्रीका जीव छठी भूमिमें जाकर नारक हो सकता है और सातवीं पृथिवीमें कर्मभूमिके उत्पन्न हुए मनुष्य और मगरमच्छ ही जा सकते हैं। और भी विशेष यह है कि यदि कोई जीव निरन्तर नरकमें जाता है तो प्रथम पृथिवीमें क्रमसे आठ बार, दूसरीमें सात बार, तीसरीमें छ: बार, चौथीमें पाँच बार, पाँचवीमें चार बार, छटीमें तीन बा और सातवीमें दो बार ही जाता है। और सातवें नरकसे आये हुए जीव फिर भी एक बार उसी वा अन्य किसी नरकमें जाते हैं, यह नियम है । सातवें नरकसे आये हुए जोव बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवतिसंज्ञक शलाकापुरुष नहीं होते । और चौथे नरकसे आये हुए तीर्थंकर, पाँचवेसे आये हुए चरमशरीरी, छठेसे आये हुए भावलिंगी मुनि और सातवेंसे आये हुए श्रावक नहीं होते हैं । तो क्या होते हैं ? सो कहते हैं--"नरकसे आये हुए जीव मनुष्य, तिर्यंच, कर्मभूमिमें संज्ञीपर्याप्त तथा गर्भज होते हैं और सातवें नरकसे आये हुए तिर्यग् गतिमें ही उत्पन्न होते हैं।" अब नारक जीवोंके दुःखोंका कथन करते है। वह इस प्रकार है-विशुद्ध ज्ञान तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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