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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानभावनोत्पन्न निर्विकार परमानन्दैकलक्षणसुखामृत रसास्वादरहितैः पञ्चेन्द्रियविषयसुखास्वादलम्पटैमिथ्यादृष्टिजीवैर्यदुपार्जितं नरकायुर्न रकगत्यादिपापकर्म तदुदयेन नरके समुत्पद्य पृथिवीचतुष्टये तीव्रोष्णदुःखं पञ्चम्यां पुनरुपरितनत्रिभागे तीव्रोष्णदुःखमधोभागे तीव्रशीतदुःखं, षष्ठीसप्तम्योरतिशीतोत्पन्न दुःखमनुभवन्ति । तथैव छेदनभेदनक्रकच विदारणयन्त्रपीडनशूला रोहणादितीव्रदुःखं सहन्ते । तथा चोक्तं - "अच्छिणिमोलणमित्तं णत्थि सुहं दुःखमेव अणुबद्ध । णिरये रयियाणं अहोणिसं पञ्चमाणानं । १ । प्रथमपृथिवीत्रय पर्यन्तमासुरोदीरितं चेति । एवं ज्ञात्वा नारकदुःखविनाशार्थं भेदाभेदरत्नत्रय भावना कर्त्तव्या । संक्षेपेणाधोलोकव्याख्यानं ज्ञातव्यम् ॥ ९४ अतः परं तियंगुलोकः कथ्यते -- जम्बूद्वीपादिशुभनामानो द्वीपाः, लवणोदादिशुभनामानः समुद्राश्च द्विगुणद्विगुणविस्तारेण पूर्वं पूर्व परिवेष्ट्घ वृत्ताकाराः स्वयम्भूरमणपर्यन्तास्तिर्यग्विस्तारेण विस्तीर्णास्तिष्ठन्ति यतस्तेन कारणेन तिर्यग्लोको भण्यते, मध्यलोकञ्च । तद्यथा - तेषु सार्द्धतृतीयोद्धारसागरोपमलोमच्छेदप्रमितेष्वसंख्यातद्वीपसमुद्रेषु मध्ये जम्बूद्वीप स्तिष्ठति । स च जम्बूवृक्षोपलक्षितो मध्यभागस्थित मेरुपर्वतसहितो वृत्ताकारलक्षयोजनप्रमाणस्तदृद्विगुणविष्कम्भेण योजनलक्षद्वयप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे लवणसमुद्रेण वेष्ठितः । सोऽपि लवणसमुद्रस्तदृद्विगुण दर्शनरूप स्वभावका धारक जो निजशुद्ध परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणकी भावनासे उत्पन्न जो विकाररहित परम आनंदमय सुखरूपी अमृत उसके आस्वादसे रहित और पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके सेवनमें लम्पट ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवोंने जो नरक आयु तथा नरक गति आदि रूप पाप कर्म उपार्जन किया उसके उदयसे वे नरकमें उत्पन्न होते हैं । वहाँपर पहलेकी जो चार पृथिवियाँ हैं उनमें तीव्र उष्णता (गर्मी) का दुःख, और पाँचवीं पृथिवीमें ऊपर के त्रिभाग में अर्थात् पंचम पृथिवीके पहले तीसरे हिस्से में तीव्र उष्णताका दुःख और नीचेके दो त्रिभाग हैं उनमें तीव्र शीत ( ठंड वा जाड़े ) का दुःख तथा छुट्टी और सातवीं पृथिवीमें अत्यन्त शीतसे उत्पन्न हुए दुःखका अनुभव करते हैं । और इसी प्रकार छेदने, भेदने, करोतीसे चीरने, घानीमें पेरने और शूली पर चढ़ाने आदिरूप तीव्र दुःखको सहन करते हैं । सो ही कहा है कि "नरक में रातदिन दुःखरूप अग्निमें पचते हुए नारकोंके नेत्रोंके टिमकार मात्र भी सुख नहीं है, किन्तु सदा दुःख ही लगा रहता है । १ ।" और पहली तीन पृथिवियोंतक असुरकुमार जातिके देवोंसे प्रकट किये हुए दुःखको भी सहते हैं । ऐसा जानकर, नरकसम्बन्धी दुःखके नाशके लिये भेद तथा अभेद रूप जो रत्नत्रय है उसकी भावना करनी चाहिये। ऐसे संक्षेप रीति से अधोलोकका व्याख्यान समाप्त हुआ । अब इसके अनंतर तिर्यग् लोक अर्थात् मध्यलोकका वर्णन करते हैं | अपने दूने दू विस्तार से पूर्वपूर्व द्वीपको समुद्र और समुद्रको द्वीप इस क्रमसे बेढ़ करके, गोल आकारवाले जंबूद्वीप आदि शुभ नामोंके धारक द्वीप और लवणोद आदि शुभ नामोंके धारक समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त तिर्यक् विस्तारसे विस्तृत होकर ( फैल कर ) स्थित हैं; इस कारणसे इसको तिर्यक् लोक कहते हैं और मध्यलोक भी कहते हैं । वह इस प्रकार हैसाढेतीन उद्धार सागर समान लोमोंके टुकड़ोके बराबर जो असंख्यात द्वीप समुद्रके मध्य ( बीच ) में जंबू द्वीप स्थित है वह जंबू ( जामुन ) के वृक्षसे चिह्नित तथा मध्य भाग में स्थित जो मेरु है उससे सहित है । तथा गोलाकार लाख योजनप्रमाण है । और गोलाकार दो लाख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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