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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः विस्तारेण योजनलक्षचतुष्टयप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे धातकीखण्डद्वोपेन वेष्टितः । सोऽपि धातकीखण्डद्वीपस्तद्विगुणविस्तारेण योजनाष्टलक्षप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे कालोदकसमुद्रेण वेष्टितः । सोऽपि कालोदकसमुद्रस्तद्विगुणविस्तारेण षोडशयोजनलक्षप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे पुष्करद्वीपेन वेष्टितः। इत्यादिद्विगुणद्विगुणविष्कम्भः स्वयम्भूरमणद्वीपस्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्तो ज्ञातव्यः। यथा जम्बूद्वीपलवणसमुद्रविष्कम्भद्वयसमुदयाद्योजनलक्षत्रयप्रमितात्सकाशाद्धातकीखण्ड एकलक्षणाधिकस्तथैवासंख्येयद्वीपसमुद्र विष्कम्भभ्यः स्वयम्भूरमणसमुद्रविष्कम्भ एकलक्षणाधिको ज्ञातव्यः । एवमुक्तलक्षणेष्वसंख्येयद्वीपसमुद्रेषु व्यन्तरदेवानां पर्वताद्युपरिगता आवासाः, अधोभूभागगतानि भवनानि, तथैव द्वीपसमुद्रादिगतानि पुराणि च, परमागमोक्तभिन्नलक्षणानि । तथैव खरभागपङ्कभागस्थितप्रतरासंख्येयप्रमाणासंख्येयव्यन्तरदेवावासाः, तथैव द्वासप्ततिलक्षाधिककोदिसप्तप्रमितभवनवासिदेवसंबन्धिभवनान्यकृत्रिमजिनचैत्यालयसहितानि भवन्ति । एवमतिसंक्षेपेण तिर्यग्लोको व्याख्यातः॥ ___अथ तिर्यग्लोकमध्यस्थितो मनुष्यलोको व्याख्यायते तन्मध्यस्थितजम्बूद्वीपे सप्तक्षेत्राणि भण्यन्ते । दक्षिणदिग्विभागादारभ्य भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतसंज्ञानि सप्तक्षेत्राणि भवन्ति । क्षेत्राणि कोऽर्थः ? वर्षा वंशा देशा जनपदा इत्यर्थः । तेषां क्षेत्राणां विभागकारकाः षट् योजनप्रमाण अपनेसे दूने विष्कंभ ( परिधि ) का धारक जो बाह्य भागमें लवण समुद्र है उससे वेष्टित ( बेढ़ा हुआ ) है । वह लवण समुद्र भी अपने विस्तारसे दूने विस्तारवाला जो चार लाख योजन प्रमाण गोलाकार बाह्य भागमें धातकी खंड नामक द्वीप है उससे वेष्टित है। वह धातकी खंड द्वीप भी अपनेसे दूने विस्ताररूप आठ लाख योजन प्रमाण जो बाह्य भागमें कालोदक समुद्र है उससे वेष्टित है। वह कालोदक समुद्र भी अपने दूने विस्ताररूप सोलह लाख योजनप्रमाण गोलाकार बाह्य भागमें जो पुष्कर द्वीप है उससे वेष्टित है। इसको आदि ले, यह दूना-दूना विष्कंभ स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभरमण समद्रपर्यन्त जानना चाहिये । और जैसे जंबूद्वीपका विष्कंभ एक लाख योजन, लवण समुद्रका विष्कंभ दो लाख योजन, इन दोनोंके समुदायरूप जो तीन लाख योजन प्रमाण है, उससे धातकी खंड एक लाख योजन अधिक अर्थात् चार लाख योजन है। इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रोंका जो विष्कंभ है उससे एक लाख योजन अधिक स्वयंभूरमण समुद्रका विष्कंभ जानने योग्य है। ऐसे पूर्वोक्त लक्षणके धारक असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें व्यन्तर देवोंके पर्वत आदिके ऊपर प्राप्त आवास ( स्थान ), अधोभूभाग (नीचेकी पृथिवीके भाग) में प्राप्त भवन और द्वीप तथा समुद्र आदिमें मिले हुए पुर हैं। ये आवास, भवन तथा पुर परमागममें कहे हुए जो भिन्न-भिन्न लक्षण हैं, उनके धारक हैं। और इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमिके खर भाग और पंक भागमें स्थित प्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण संख्यात व्यन्तर देवोंके आवास हैं और सात करोड़ बहत्तर लाख ज्याके धारक भवनवासी देवों सम्बन्धी भवन हैं वे सब अकृत्रिम जिन चैत्यालयोंसहित हैं । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेपसे तिर्यग् लोक (मध्यलोक) का व्याख्यान किया गया। __ अब तिर्यग् लोक ( मध्यलोक ) के मध्यमें स्थित जो मनुष्य लोक ( ढाई द्वीप ) है उसका व्याख्यान करते हैं। उसमें प्रथम ही तिर्यग लोकके बीच में स्थित जो जंबूद्वीप है उसमें जो सात क्षेत्र हैं उनका कथन करते हैं । दक्षिण दिशाके भागसे आरम्भित होकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत इन नामोंके धारक सात क्षेत्र हैं। यहाँ क्षेत्र शब्दसे वर्ष, वंश, देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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