SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १०९ ये तु मनुष्यक्षेत्रादहिर्भागे ज्योतिष्क विमानास्तेषां चलनं नास्ति । ते च मानुषोत्तरपतादवहिर्भागे पञ्चाशत्सहस्राणि योजनानां गत्वा वलयाकारं पंक्तिक्रमेण पूर्वक्षेत्रं परिवेष्टच तिष्ठन्ति । तत्र प्रथमवलये चतुश्चत्वारिंशदधिकशतप्रमाणाश्चन्द्रास्तथादित्याश्चान्तरान्तरेण तिष्ठन्ति । ततः परं योजनलक्षे लक्षे गते तेनैव क्रमेण वलयं भवति । अयन्तु विशेषः - वलये वलये चन्द्रचतुष्टयं सूर्यचतुष्टयं च वर्धते यावत्पुष्करार्धबहिर्भागे वलयाष्टकमिति ततः पुष्करसमुद्रप्रवेशे वेदिकायाः सकाशात्पञ्चाशत्सहस्र प्रमितयोजनानि जलमध्ये प्रविश्य यत्पूर्वं चत्वारिंशदधिकशतप्रमाणं प्रथमवलयं व्याख्यातं तस्माद् द्विगुणसंख्यानं प्रथमवलयं भवति । तदनन्तरं पूर्ववद्यो - जनलक्ष लक्षे गते वलयं भवति चन्द्रचतुष्टयस्य सूर्यचतुष्टयस्य च वृद्धिरित्यनेनैव क्रमेण स्वयम्भूरसमुद्र बहिर्भागवेदिकापर्यन्तं ज्योतिष्कदेवानामवस्थानं बोद्धव्यम् । एते च प्रतरासंख्येयभागप्रमिता असंख्येया ज्योतिष्कविमाना अकृत्रिम सुवर्णमय रत्नमयजिन चैत्यालयमण्डिता ज्ञातव्याः । इति संक्षेपेण ज्योतिष्कलोकव्याख्यानं समाप्तम् ॥ अथानन्तरमूर्ध्वलोकः कथ्यते । तथाहि - सौधर्मेशानसनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्त कापिष्टशुक्र महाशुक्रशता र सहस्रारानतप्राणतारणाच्युतसंज्ञाः षोडश स्वर्गास्ततोऽपि नवग्र वेयकसंज्ञास्ततश्च नवानुदिशसंज्ञं नवविमान संख्यमेकपटलं ततोऽपि पञ्चानुत्तरसंज्ञं पञ्चविमानसंख्यमेकपटलं चेत्युक्तक्रमेणोपर्युपरि वैमानिकदेवास्तिष्ठन्तीति वात्तिकं संग्रहवाक्यं समुदायकथनमिति और जो मनुष्य क्षेत्र ( ढाई द्वीप) से बहिर्भाग में ज्योतिष्क विमान हैं उनका चलन ( गमन ) नहीं है; तथा वे मानुषोत्तर पर्वतके बाह्य भाग में पचास हजार योजन गमन कर, वलयाकार (गोलाकार) पंक्तिरूप क्रमसे पूर्वं (पहिले) क्षेत्रको बेढ़ (घेर) कर रहते हैं । उनमें जो प्रथम वलय है उसमें एकसौ चवालीस (१४४) चन्द्रमा तथा सूर्य अन्तरान्तर ( दूर-दूर से निवास करते हैं । उसके पश्चात् एक-एक लाख योजन चले जानेपर इसी पूर्वोक्त क्रमानुसार वलय होता है । और विशेष यह है कि वलय- वलय ( हर एक वलय) में चार चन्द्रमा तथा चार सूर्य बढ़ते हैं सो ये पुष्करार्ध के बाह्य भागमें जो आठ वलय हैं वहाँतक बढ़ते हैं । उसके पश्चात् पुष्कर समुद्र के प्रवेशमें जो वेदिका है उससे पचास हजार योजन प्रमाण जलभाग में जाकर, जो पहले प्रथम वलय में एकसौ चवालीस चन्द्र तथा सूर्योका कथन किया है उससे द्विगुण अर्थात् दो सौ अट्ठासी चंद्रमा और सूर्योका धारक प्रथम वलय है । उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार एक एक लाख योजन चले जानेपर वलय हैं और प्रत्येक वलय में चार चन्द्रमा और चार सूर्योकी वृद्धि होती है। सो इसी क्रम से स्वयंभूरमण समुद्रकी अन्तकी वेदिका पर्यन्त ज्योतिष्क देवों का निवास जानना चाहिये । और ये सब प्रत्तरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात ज्योतिष्क विमान अकृत्रिम सुवर्णं तथा रत्नमय जो जिनचैत्यालय हैं उनसे भूषित हैं ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार संक्षेपसे ज्योतिष्क लोकका वर्णन समाप्त हुआ || अब इसके अनंतर ऊर्ध्वलोकका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन नामोंके धारक सोलह स्वर्ग हैं । वहाँसे आगे नव ग्रैवेयक नामवाले विमान हैं, और इनके भी अनन्तर नव विमानोंकी संख्याका धारक नवानुदिश नामक एक पटल है, तथा इसके भी अनन्तर पाँच विमानोंकी संख्यावाला पञ्चानुत्तर संज्ञक एक पटल है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy