SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार यावत् । आदिमध्यान्तेषु द्वादशाष्टचतुर्योजन वृत्तविष्कम्भा चत्वारिंशत्प्रमितयोजनोत्सेधा या मेरुचूलिका तिष्ठति तस्योपरि कुरुभूमिजमर्त्यवालाग्रान्तरितं पुनर्ऋजुविमानमस्ति । तदादि कृत्वा चूलिका सहितलक्षयोजनप्रमाणं मेरुत्सेधमानमर्द्धाधिकैकरज्जुप्रमाणं यदाकाशक्षेत्रं तत्पर्यन्तं सौधर्मेशानसंज्ञं स्वर्गयुगलं तिष्ठति । ततः परमर्द्धाधिकैकरज्जुपर्यन्तं सनत्कुमार माहेन्द्रसंज्ञं स्वर्गयुगलं भवति, तस्मादर्द्धरज्जुप्रमाणाकाशपर्यन्तं ब्रह्मब्रह्मोत्तराभिधानं स्वर्गयुगलमस्ति, ततोऽप्यर्द्धरज्जुपर्यन्तं लान्तवकापिष्ट नामस्वर्गयुगलमस्ति, ततश्चार्द्धरज्जुपर्यन्तं शुक्र महाशुक्राभिधानं स्वर्गद्वयं ज्ञातव्यम्, तदनन्तरमर्द्धरज्जुपर्यन्तं शतारसहस्रारसंज्ञं स्वर्गयुगलं भवति, ततोऽप्यर्द्धरज्जुपर्यन्तमानतप्राणतनाम स्वर्गयुगलं, ततः परमर्द्धरज्जुपर्यन्तमाकाशं यावदारणाच्युताभिधानं स्वर्गद्वयं ज्ञातव्यमिति । तत्र प्रथमयुगलद्वये स्वकीयस्वकीयस्वर्गनामानश्चत्वार इन्द्रा विज्ञेयाः, मध्ययुगलचतुष्टये पुनः स्वकीयस्वकीयप्रथमस्वर्गाभिधान एकेक एवेन्द्रो भवति, उपरितनयुगलद्वयेऽपि स्वकीयस्वकीयस्वर्गनामानश्चत्वार इन्द्रा भवन्तीति समुदायेन षोडशस्वर्गेषु द्वादशेन्द्रा ज्ञातव्याः । षोडशस्वर्गादूर्ध्वमेक रज्जुमध्ये नवग्रैवेयकनवानुदिशपञ्चानुत्तरविमानवासिदेवास्तिष्ठन्ति । ततः परं तत्रैव द्वादशयोजनेषु गतेष्वष्टयोजनबाहुल्या मनुष्यलोकवत्पञ्चाधिकचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तारा मोक्षशिला भवति । तस्योपरि घनोदविघनवाततनुवातत्रयमस्ति । तत्र तनुवातमध्ये इस प्रकार पूर्वोक्त क्रमसे वैमानिक देव निवास करते हैं । यह वार्त्तिक अर्थात् संग्रह वाक्य अथवा समुदायसे कथन है । आदिमें बारह, मध्यमें आठ और अन्तमें चार योजन प्रमाण गोल विष्कंभ ( व्यास ) की धारक, चालीस योजन प्रमाण ऊँची जो मेरुकी चूलिका है; उसके ऊपर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न जो मनुष्य हैं उनके बालके अग्रभाग जितने अन्तर (फासले) पर ऋजुविमान है। उस ऋजुविमानको आदिमें करके चूलिकासहित एक लाख योजनप्रमाण मेरुकी ऊँचाईका प्रमाण है, और वहाँसे डेढ़ रज्जुप्रमाण जो आकाशक्षेत्र है वहाँ तक सौधर्म तथा ईशान नामक दो स्वर्ग हैं । इनके अनन्तर डेढ़ रज्जुपर्यन्त सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँसे अर्ध रज्जुप्रमाण आकाशतक ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर संज्ञक स्वर्गीका युगल है | वहाँसे भी आधे रज्जुतक लांतव और कापिष्ट नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ भी आधे रज्जुप्रमाण आकाश में शुक्र तथा महाशुक्र नामक स्वर्गोंका युगल जानना चाहिये । उसके अनन्तर आधे रज्जुतक शतार और सहस्रार नामक स्वर्गीका युगल है । तत्पश्चात् आधे रज्जुपर्यन्त आकाशतक आरण और अच्युत नामक दो स्वर्ग जानने चाहिये। उनमें पहलेके जो दो युगल हैं उनमें तो अपने-अपने स्वर्गके नामके धारक चार इन्द्र हैं अर्थात् पहले चार स्वर्गो में स्वर्गों के नामवाले ही (सौधर्म, ईशान आदि) चार इन्द्र हैं । और बीचके जो चार युगल हैं उनमें अपने-अपने प्रथम स्वर्गके नामका धारक एक-एक ही इंद्र है अर्थात् ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गका एक इन्द्र है और ब्रह्म स्वर्गका इन्द्र कहलाता है । ऐसे बारहवें स्वर्गतक आठ स्वर्गीमें चार इन्द्र जानने चाहिये । और इनके ऊपर जो दो युगल हैं उनमें भी अपने अपने स्वर्गके नामके धारक ( आनत, प्राणत आदि) चार इन्द्र होते हैं । इस प्रकार समुदायसे सोलह स्वर्गो में बारह इन्द्र जानने चाहिये | सोलह् स्वर्गोसे ऊपर एक रज्जुमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में निवास करनेवाले देव हैं। उसके आगे इस एक रज्जुमें ही बारह योजन चले जानेपर आठ योजन प्रमाण मोटाईको धारक और मनुष्यलोक (ढाईद्वीप) के समान पैंतालीस लाख (४५००००० ) योजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy