SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार मज्झिमा सेसा । १।" इति गाथाकथित क्रमेण यानि जघन्योत्कृष्टमध्यनक्षत्राणि तेषु मध्ये कस्मिन्नक्षत्रे कियन्ति दिनान्यादित्यस्तिष्ठतीति । "इंदुरवीदो खिखा सत्तट्ठियपंचगयणखंड हिया । अहिहिदरिक्खखंडा इंदुरवी अत्थण्णमुहुत्ता । १।" इत्यनेन गाथासूत्रेणागमकथितक्रमेण पृथक् पृथगानीय मेलापके कृते सति षडधिकषष्टितत्रिशतसंख्यदिनानि भवन्ति । तस्य दिनसमूहार्धस्य यदा द्वीपाभ्यन्तराद्द क्षिणेन बहिर्भागेषु दिनकरो गच्छति तदा दक्षिणायनसंज्ञा, यदा पुनः समुद्रात्सकाशादुत्तरेणाभ्यन्तरमार्गेषु समायाति तदोत्तरायणसंज्ञेति । तत्र यदा द्वोपाभ्यन्तरे प्रथममार्गपरिधौ कर्कट संक्रान्तिदिने दक्षिणायनप्रारम्भे तिष्ठत्यादित्यस्तदा चतुर्णवतिसहस्र पञ्चविंशत्यधिकपञ्च योजनशतप्रमाण उत्कर्षेणादित्यविमानस्य पूर्वापरेणातपविस्तारो ज्ञेयः । तत्र पुनरष्टादशमुहू तेंदिवसो भवति द्वादशमुहूर्त्ते रात्रिरिति । ततः क्रमेणातपहानौ सत्यां मुहूर्त्तद्वयस्यैकषष्टिभागीकृतस्यैको भागो दिवसमध्ये दिनं प्रति हीयते यावल्लवणसमुद्रेऽवसानमार्गे माघमासे मकरसंक्रान्तावुत्तरायणदिवसे त्रिषष्टिसहस्राधिकषोडशयोजनप्रमाणो जघन्येनादित्यविमानस्य पूर्वापरेणातपविस्तारो भवतिं । तथैव द्वादशमुहूर्त्तेदिवसो भवत्यष्टादशमुहूत्र्त्ते रात्रिश्चेति । शेषं विशेषव्याख्यानं लोकविभागादौ विज्ञेयम् । विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । इनके अतिरिक्त शेष जो नक्षत्र हैं वे मध्यम हैं । १ ।" इस गाथामें कहे हुए क्रमके अनुसार जो जघन्य, उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र हैं, उनमें किस नक्षत्रमें कितने दिन सूर्य ठहरता है सो कहते हैं" एक मुहूर्त में चंद्र १७६८ सूर्य १८३० और नक्षत्र १८३५ गगनखंडों में गमन करते हैं इसलिये अधिकभागोंसे नक्षत्रखंडोंके भाग देनेसे जो मुहूर्त्त प्राप्त होते हैं, उन मुहूर्त्तोको चंद्र और सूर्य के आसन्न मुहूर्त्त जानने चाहियें । अर्थात् उतने मुहूर्तों तक चंद्रमा और सूर्यकी एक नक्षत्र पर स्थिति जाननी चाहिये ।" इस प्रकार इस गाथामें कहे हुए क्रमसे भिन्नभिन्न दिनोंको लेकर, उनको जोड़ने से तीनसौ छयासठ (३६६) दिन होते हैं। जब द्वीपके भीतर से दक्षिण दिशाके बाह्य मार्गों में सूर्य गमन करता है तब तीनसौ छ्यासठ दिनके आधे जो एकसौ तिरासी (१८३) दिन हैं उनकी दक्षिणायन संज्ञा होती है, और इसी प्रकार जब सूर्य समुद्रसे उत्तर दिशाके अभ्यन्तर मार्गों में आता है तब शेष जो १८३ दिन हैं उनका उत्तरायण यह नाम होता है । उनमें जब द्वीपके अभ्यन्तर भाग में कर्कट संक्रान्तिके दिन दक्षिण अयनसे प्रारंभ में सूर्यं प्रथम मार्गकी परिधि में स्थित होता है तब चौरानवे हजार पाँचसौ पचीस योजन प्रमाण सूर्यके विमानका पूर्व पश्चिमसे आतप ( धूप ) का विस्तार ( फैलाव ) होता है यह जानना चाहिये । और उस समय अठारह मुहूतोंसे दिन और बारह मुहूत्तोंसे रात्रि होती है । फिर यहाँसे क्रम क्रमसे आतपकी हानि होनेपर दो मुहूर्तों के इकसठ भागों में से एक भाग प्रतिदिन दिवससे घटता है । यह तबतक घटता है जबतक कि लवणसमुद्रके अन्तके मार्ग में माघमासमें मकर संक्रान्ति में उत्तरायण दिवसके प्रारंभ में जघन्यतासे सूर्यके विमानका आतप विस्तार त्रेसठ हजार सोलह योजनप्रमाण होता है । उस समय उसी प्रकार बारह मुहूत्तोंसे दिन और अठारह मुहूतोंसे रात्रि होती है । इसके अतिरिक्त अन्य जो विशेष वर्णन है सो लोकविभाग आदिमें जानना चाहिये || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy