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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार
परमात्मादितत्त्वपरिज्ञानविषये संशयविमोहविभ्रमास्तंश्च्युता रहिता दोषसंचयच्युताः । पुनरपि कथम्भूताः ? "सुदपुण्णा" वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्यश्रुतेन तथैव तदाधारोत्पन्ननिविकारस्वसम्वेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन च पूर्णाः समग्राः श्रुतपूर्णाः । कं शोधयन्तु ? "दव्वसंगहमिणं” शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मादिद्रव्याणां संग्रहो द्रव्यसंग्रहस्तं द्रव्यसंग्रहाभिधानं ग्रन्थमिमं प्रत्यक्षीभूतम् । कि विशिष्टं ? " भणियं जं" भणितः प्रतिपादितो यो ग्रन्थः । केन कर्तृभूतेन ? "णेमिचंदमुणिणा" श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवाभिधानेन मुनिना सम्यग्दर्शनादिनिश्चयव्यवहाररूपपञ्चाचा रोपेताचार्येण । कथम्भूतेन ? “तणुसुत्तधरेण" तनुश्रुतधरेण तनुश्रुतं स्तोकं श्रुतं तद्धरतीति तनुश्रुतधरस्तेन । इति क्रियाकारकसम्बन्धः । एवं ध्यानोपसंहारगाथात्रयेण, औद्धत्य परिहारार्थं प्राकृतवृत्तेन च द्वितीयान्तराधिकारे तृतीयं स्थलं गतम् ||५८ ||
इत्यन्तराधिकारद्वयेन विंशतिगाथाभिर्मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीयोऽधिकारः समाप्तः ||३||
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अत्र ग्रन्थे 'विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति वचनात्पदानां सन्धिनियमो नास्ति, वाक्यानि च स्तोकस्तोकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिङ्गवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमासविशेषणवाक्य समाप्त्यादिदूषणं तथा च शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादनविषये विस्मृतिदूषणं च विद्वद्भिर्न ग्राह्यमिति ।
प्रधान अर्थात् आचार्य हैं, कैसे हैं वे आचार्य ? “दोससंचयचुदा" दोषरहित परमात्मासे भिन्न लक्षणके धारक जो राग आदि दोष हैं उनके, तथा निर्दोष परमात्मा आदि तत्त्वोंके जाननेमें जो संशय, विमोह और विभ्रमरूप दोष हैं उनके संचयसे रहित हैं, फिर कैसे हैं ? "सुदपुण्णा" इस समय विद्यमान परमागम ( शास्त्र ) नामक जो द्रव्यश्रुत है उससे तथा उस परमागमके आधारसे उत्पन्न जो निर्विकार-निज आत्माके जाननेरूप भावश्रुत है उससे परिपूर्ण हैं । वे आचार्य किसको शुद्ध करें ? " दव्वसंगहमिणं" शुद्ध-बुद्ध एकस्वभावका धारक जो परमात्मा है उसको आदि ले जो पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालरूप छः द्रव्य हैं उनका जिसमें संग्रह है ऐसे इस प्रत्यक्षमें विद्यमान द्रव्यसंग्रह नामक शास्त्रको शुद्ध करें । कैसे द्रव्यसंग्रहको शुद्ध करें ? "भणियं जं" जिस शास्त्रको कहा है । किन कर्त्ताने कहा है ? "णेमिचंद मुणिणा" श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव नामक मुनिने अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि जो निश्चय और व्यवहार भेदसे पाँच प्रकारका आचार है उस आचारसहित आचार्यने । कैसे नेमिचन्द्र आचार्यने ? “तणुसुत्तधरेण" अल्पश्रुतज्ञानके धारकने | इसप्रकार क्रिया और कारकों का संबन्ध है । इस प्रकार ध्यानके उपसंहाररूप तीन गाथाओंसे तथा औद्धत्यके परिहारके लिये एक प्राकृत छन्द से द्वितीय अन्तराधिकार में तृतीय स्थल समाप्त हुआ || ५८ || ऐसे दो अन्तराधिकारों द्वारा बीस गाथाओंसे मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीय अधिकार समाप्त हुआ || ३ ||
इस ग्रन्थ में 'वक्ताको जहाँ संधि करनेकी इच्छा हो वहाँ संधि होती है' इस नियम के अनुसार पदोंकी सन्धिका नियम नहीं है अर्थात् किसी स्थलमें सन्धि की गई है और किसी स्थल में नहीं । और मन्दबुद्धियोंको सुखसे बोध होनेके लिये वाक्य भी छोटे-छोटे दिये गये हैं । तथा लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सम्बन्ध, समास, विशेषण और वाक्यसमाप्ति आदि दूषण और शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों के प्रतिपादन में विस्मृति (भूलना) आदि रूप जो दूषण इस ग्रन्थ में होवे उनको ज्ञानी पुरुष ग्रहण न करें ।
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