SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १८७ जीवो भवति, तदैकजीवस्य सुखदुःखजीवितमरणादिके प्राप्ते तस्मिन्नेव क्षणे सर्वेषां जीवितमरणादिकं प्राप्नोति न च तथा दृश्यते । अथवा ये वदन्ति यथैकोऽपि समुद्रः क्वापि क्षारजलः क्वापि मिष्टजलस्तथैकोऽपि जीवः सर्वदेहेषु तिष्ठतीति । तदपि न घटते । कथमिति चेत् - जलराश्यपेक्षया तत्रैकत्वं न च जलपुद्गलापेक्षया तत्रैकत्वम् । यदि जलपुद्गलापेक्षया भवत्येकत्वं तर्हि स्तोकजले गृहीते शेषजलं सहैव किन्नायाति । ततः स्थितं षोडशवणिकासुवर्ण राशिवदनन्तज्ञानादिलक्षणं प्रत्येकं जीवराशि प्रति न चैकजीवापेक्षयेति । अध्यात्मशब्दस्यार्थः कथ्यते । मिथ्यात्व रागादिसमस्त विकल्पजालरूपपरिहारेण स्वशुद्धात्मन्यधि यदनुष्ठानन्तदध्यात्ममिति । एवं ध्यानसामग्रीव्याख्यानोपसंहाररूपेण गाथा गता ॥५७॥ अथौद्धत्यपरिहारं कथयति ; दव्वसंग मिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा । सोधयंतु तणुसूतधरेण णेमिचन्दमुणिणा भणियं जं ॥ ५८ ॥ द्रव्यसंग्रहं इमं मुनिनाथाः दोषसंचयच्युताः श्रुतपूर्णाः । शोधयन्तु 'तनुश्रुतधरेण नेमिचन्द्रमुनिना भणितं यत् ॥५८॥ व्याख्या - "सोधयंतु " शुद्धं कुर्वन्तु । के कर्त्तारः ? " मुणिणाहा" मुनिनाथा मुनिप्रधानाः । कि विशिष्टा: ? " दोससंचयचुदा" निर्दोषपरमात्मनो विलक्षणा ये रागादिदोषास्तथैव च निर्दोष शरीरोंमें एक ही जीव हो तो जब एक जीवको सुख, दुःख जीवित और मरण आदि प्राप्त होवें तब उसी क्षण में सत्र जीवोंको सुख, दुःख, जीवित और मरण आदि प्राप्त होवें और ऐसा देखने में नहीं आता है। अथवा जो ऐसा कहते हैं कि, जैसे एक ही समुद्र कहीं तो खारे जलवाला है, कहीं मीठे जलका धारक है, उसी प्रकार एक ही जीव सब देहों में विद्यमान है' सो यह कहना भी घटित नहीं होता । क्यों नहीं घटता ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि, समुद्र में जलराशिकी अपेक्षासे एकता है और जलके पुद्गलों की अपेक्षासे एकता नहीं है । यदि जलपुद्गलों की अपेक्षासे एकता होती है तो समुद्रमेंसे अल्प (थोड़ा ) जल ग्रहण करनेपर शेष (बचा हुआ ) जो जल है वह भी साथ ही क्यों नहीं आ जाता है ? इसकारण सोलह वानीके सुवर्णकी राशिके समान अनन्तज्ञान आदि लक्षणों के प्रति जीवराशिमें एकता है और एक जीवकी अपेक्षासे जीवराशिमें एकता नहीं है । अव अध्यात्म शब्दका अर्थ कहते हैं । मिथ्यात्व, राग आदि जो समस्त विकल्पोंके समूह हैं उनका त्याग करके जो निज शुद्ध आत्मामें अनुष्ठान ( प्रवृत्तिका करना ) है उसको अध्यात्म कहते हैं । इसप्रकार ध्यानकी सामग्री के व्याख्यानके उपसंहाररूपसे यह गाथा समाप्त हुई ||१७|| अब ग्रंथकार अपने औद्धत्य (अभिमान) को दूर करनेके लिये अग्रिम छन्द कहकर शास्त्रको समाप्त करते हैं; काव्यभावार्थ - अल्पज्ञानके धारक मुझ ( नेमिचन्द्र मुनि ) ने जो यह द्रव्यसंग्रह कहा है इसको दोष रहित और ज्ञानसे परिपूर्ण ऐसे आचार्य शुद्ध करे || ५८ ॥ व्याख्यार्थ - " सोधयंतु " शुद्ध करें, शुद्ध करनेवाले कौन हैं ? " मुणिणाहा " मुनियोंमें १. पाठान्तर - तनुसूत्रधरेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy