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________________ १०६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार चतुष्टयं तिर्यग्लोके तु नन्दीश्वरकुण्डलरुचकाभिधानद्वीपत्रयेषु क्रमेण द्विपञ्चाशच्चतुष्टयचतुष्टयसंख्याश्च कृत्रिमाः स्वतंत्र जिनगृहा ज्ञातव्याः || अत ऊर्ध्व ज्योतिर्लोकः कथ्यते । तद्यथा- - चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्राणि प्रकीर्णतारकाश्चेति ज्योतिष्कदेवाः पञ्चविधा भवन्ति । तेषां मध्येऽस्माद्भूमितलादुपरि नवत्यधिकसप्तशतयोजनान्याकाशे गत्वा तारकविमानाः सन्ति, ततोऽपि योजनदशकं गत्वा सूर्यविमानाः, ततः परमशीतियोजनानि गत्वा चन्द्रविमानाः, ततोऽपि त्रैलोक्यसारकथितक्रमेण योजनचतुष्टयं गते अश्विन्यादिनक्षत्रविमानाः, ततः परं योजनचतुष्टयं गत्वा बुधविमानाः, ततः परं योजनत्रयं गत्वा शुक्रविमानाः, ततो योजनत्रये गते बृहस्पतिविमानाः, ततो योजनत्रयानन्तरं मङ्गलविमानाः, ततोऽपि योजन त्रयानन्तरं शनैश्चर विमाना इति । तथा चोक्तं "णउदुत्तरसत्तसया दश सीदी चउदुगं तु तिचक्कं । तारारविससिरिक्खा बुहभग्गव अगिरारसणी । १ ।” ते च ज्योतिष्कदेवा अर्धतृतीयद्वीपेषु निरन्तरं मेरोः प्रदक्षिणेन परिभ्रमणगत कुर्वन्ति । तत्र घटिकाप्रहरदिवसादिरूपः स्थूलव्यवहारकालः समय निमिषादि सूक्ष्मव्यहारकालवत् यद्यप्यनादिनिधनेन समयघटिकादिविवक्षित विकल्परहितेन काला द्रव्यरूपेण निश्चयका लेनोपादानभूतेन जन्यते तथापि चन्द्रादित्यादिज्योतिष्क देव विमानगमनागमनेन कुम्भकारेण निमित्तभूतेन मृत्पिण्डोपादानजनितघट इव व्यज्यते प्रकटीक्रियते ज्ञायते तथा रुचकद्वीपमें चार, इस प्रकार सब मिलकर मध्यलोकमें चारसौ अट्ठावन ( ४५८ ) अकृत्रिम स्वतंत्र चैत्यालय जानने चाहिये || अब इसके अनन्तर ज्योतिष्कलोकका वर्णन करते हैं । वह इस प्रकार है - चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णकतारा ऐसे ज्योतिष्क देव पाँच प्रकारके होते हैं । उनके मध्य में इस पृथ्वीतलसे ऊपर सातसो नब्बे (७९०) योजन आकाशमें जाकर तारोंके विमान हैं, और वहाँसे दश योजन ऊपर जाकर सूर्योंके विमान हैं। उसके पश्चात् ८० योजन ऊपर जाकर चन्द्रमाके विमान हैं। उसके अनंतर " त्रैलोक्यसार" में कहे हुए क्रमानुसार चार योजन ऊपर जाकर अश्विनी आदि नक्षत्रों के विमान हैं। उसके पश्चात् चार योजन ऊपर जाकर बुधके विमान हैं। उसके अनन्तर तीन योजन ऊपर जाकर शुक्र के विमान हैं । और वहाँसे तीन योजन ऊपर चलकर बृहस्पति के विमान हैं। उसके पश्चात् तीन योजनपर मंगलके विमान हैं । और वहाँ से भी तीन योजनके अनन्तर शनैश्चर के विमान हैं । सो ही कहा है- "सातसौ नब्बे, दस, अस्सो, चार, चार, तीन तीन, तीन, और तीन योजन ऊपर क्रमसे तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर इनके विमान हैं |१| " वे ज्योतिष्कदेव ढाई द्वीपमें निरन्तर ( सदा ) मेरुकी प्रदक्षिणापूर्वक परिभ्रमण ( गमन ) करते हैं । उन ढाई द्वीपोंमें घटिका, प्रहर दिवस आदिरूप स्थूल ( मोटा ) व्यवहार काल है । समय निमिष आदि सूक्ष्म कालके समान यद्यपि यह काल अनादिनिधन ( आदि और अतरहित ) और समय घटिका आदि विवक्षित भेदोंसे रहित जो कालाणुद्रव्यरूप उपादानभूत निश्चयकाल है उससे उत्पन्न होता है; तथापि जैसे निमित्तभूत कुंभकारद्वारा मृत्तिकापिंड है उपादानकारण जिसका ऐसा घट प्रकट किया जाता है, उसीप्रकार चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्कदेवों के विमानोंके गमनागमन ( जाने आने ) से यह काल जाना जाता है, इस कारण उपचारसे "व्यवहार काल ज्योतिष्कदेवों का किया हुआ है" ऐसा कहा जाता है । और जो निश्चयकाल है वह तो जैसे कुंभकारके चक्र (चाक) के भ्रमणमें उस चक्रके नीचेकी शिला (कीली) बहिरंग सहकारी कारण है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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