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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १०५ च। मेरुसमीपगजदन्तेषु शतपञ्चकं, नदीसमीपे वक्षारेषु चान्त्यनिषधनीलसमीपे चतुःशतं च, शेषपर्वतानां च मेरुं त्यक्त्वा यदेव जम्बूद्वीपे भणितं तदेवार्धतृतीयद्वीपेषु च विज्ञेयम् । तथा नामानि च क्षेत्र पर्वतन दोदेशनगरादीनां तान्येव । तथैव क्रोशद्वयोत्सेधा पञ्चशतधनुविस्तारा पद्मरागरनमयी वनादीनां वेदिका सर्वत्र समानेति । अत्रापि चक्राकारवत्पर्वता आरविवरसंस्थानानि क्षेत्राणि ज्ञातव्यानि । मानुषोत्तरपर्वतादभ्यन्तरभाग एव मनुष्यास्तिष्ठन्ति न च बहिर्भागे । तेषां च जघन्यजीवितमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम्, उत्कर्षेण पल्यत्रयं मध्ये मध्यमविकल्पा बहवस्तथा तिरश्चां च । एवमसंख्येयद्वीपसमुद्र विस्तीर्णतिर्यग्लोकमध्येऽर्धतृतीयद्वीपप्रमाणः संक्षेपेण मनुष्यलोको व्याख्यातः ॥ अथ मानुषोत्तर पर्वत सकाशादबहिभांगे स्वयम्भूरमणद्वीपार्ध परिक्षिप्य योऽसौ नागेन्द्रनामा पर्वतस्तस्मात्पूर्वभागे ये संख्यातीता द्वीपसमुद्रास्तिष्ठन्ति तेषु यद्यपि व्यन्तरा निरन्तरा इति वचनाद् व्यन्तरदेवावासास्तिष्ठन्ति तथापि पल्यप्रमाणायुषां तिरश्चां संबन्धिनी जघन्य भोगभूमिरिति ज्ञेयम् । नागेन्द्रपर्वताद्वहिर्भागे स्वयम्भूरमणद्वीपार्धे समुद्रे च पुनवदेहवत्सर्वदेव कर्मभूमिश्चतुर्थकालश्च । परं किन्तु मनुष्या न सन्ति । एवमुक्तलक्षणतिर्यग्लोकस्य तदन्तरं मध्यमभागर्वात्तनो मनुष्यलोकस्य च प्रतिपादनेन संक्षेपेण मध्यमलोकव्याख्यानं समाप्तम् । अथ मनुष्यलोके द्विहीनशत भाग में भी इसी प्रकार उत्सेध प्रमाण हैं। मेरुके समीप भागमें जो गजदंत हैं उनमें पाँचसौ योजनकी ऊँचाई है । नदीके निकटवर्ती जो वक्षार पर्वत हैं उनमें तथा अन्तिम नील और निषध पर्वतके पास चारसो योजनकी ऊँचाई है । और मेरुको छोड़कर जो शेष ( बाकीके ) पर्वत हैं उनमें जो जंबूद्वीपमें कही है सो ही ढाई द्वीप में जाननी चाहिये । तथा क्षेत्र, पर्वत, नदी, देश, नगर आदि नाम भी वे ही हैं जो कि जंबूद्वीप में हैं । और इसी प्रकार दो कोश ऊँची पाँचसौ धनुष चोड़ी पद्मराग रत्ननिर्मित जो वन आदिकी वेदिका है वह सब द्वीपों में समान है । इस पुष्करार्धद्वीप में भी चक्र आकार समान पर्वत हैं और आरोंके छिद्रोंके समान क्षेत्र हैं, यह समझना चाहिये । मानुषोत्तरपर्वत के अभ्यन्तर ( अंदर ) के भाग में ही मनुष्य निवास करते हैं और बाह्य भागमें नहीं; और उन मनुष्योंका जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्तके तथा उत्कृष्ट आयु तीन पल्यके बराबर है। मध्य में मध्यम विकल्प बहुत से हैं । तिर्यंचोंका आयु भी मनुष्योंके आयुके सदृश ही है । इस प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रोंसे विस्तारको प्राप्त जो तिर्यग्लोक है, उसके मध्य में ढाई द्वीप प्रमाण जो मनुष्यलोक है, उसका संक्षेपसे व्याख्यान किया || अब मानुषोत्तर पर्वतसे बाह्य भागमें स्वयंभूरमण नामा द्वीपके अर्धभागको बेढ़कर जो नागेन्द्र नामक पर्वत है उस पर्वतके पूर्व भागमें जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं उनमें यद्यपि व्यन्तर देव निरन्तर रहते हैं इस वचनसे व्यन्तर देवोंके आवास हैं तथापि एक पल्य प्रमाण आयुके धारक तिर्यंचों संबंधिनी जघन्य भोगभूमि है ऐसा जानना चाहिये । तथा नागेन्द्रपर्वत से बाह्य भाग में जो स्वयंभृरमण नामक आधा द्वीप और पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र है उसमें विदेह क्षेत्रके समान सदा ही कर्मभूमि और चतुर्थ काल रहता है । परन्तु विशेष यह है कि वहाँपर मनुष्य नहीं । इसप्रकार पूर्वोक्त लक्षण के धारक तिर्यग् लोकके तथा उसके पश्चात् उस तिर्यक् लोकके मध्य में विद्यमान जो मनुष्य लोक है उसके संक्षेपसे निरूपणद्वारा मध्यलोकका व्याख्यान समाप्त हुआ । और मनुष्यलोक में तीन सौ अट्ठानवे (३९८ ) और तिर्यक्लोक में नन्दीश्वरद्वीपमें बावन, कुण्डलद्वीपमें चार ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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