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________________ [ १९ ] " तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहनेका तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर ।” (पुष्पमाला - १५) “दुनिया मतभेदके बन्धनसे तत्त्व नहीं पा सकी । " ( पत्रांक २७ ) “जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है । मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा । " ( पत्रांक ३७ ) श्रीमद्जीने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंकी वाणीको जहाँतहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तत्त्वप्राप्तिके योग्य आत्मा) कहा है । फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है ‘“श्रीमत् वीतराग भगवन्तोंका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखका निःसंशय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवन्त वर्तो, त्रिकाल जयवन्त वर्तो । उस श्रीमत् अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है ।" (पत्रांक ८४३ ) परम वीतरागदशा श्रीमद्जीकी परम विदेही दशा थी । वे लिखते हैं " एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसम्पत्ति सिवाय हमें कुछ रुचिकर नहीं लगता, हमें किसी पदार्थमें रुचिमात्र रही नहीं है; हम देहधारी हैं या नहीं यह याद करते हैं तब मुश्केलीसे जान पाते है । ( पत्रांक २५५ ) "देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योंकि हम भी अवश्य उसी स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डतासे कहता है और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है । " ( पत्रांक ३३४) 44 मान लें कि चरमशरीरीपन इस कालमें नहीं है, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नहीं, अपितु सिद्धत्व है; और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमें हम खुद नहीं है, ऐसा कहने तुल्य है । " ( पत्रांक ४११ ) अहमदाबादमें आगखानके बँगलेपर श्रीमद्जीने श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी मुनिको बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा था- "हमारेमें और वीतरागमें भेद न मानियेगा ।” एकान्तचर्या, परमनिवृत्तिरूप कामना मोहमयी (बम्बई) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमद्जी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंकी शंकाओंका समाधान करते रहते थे; फिर भी बीचबीचमें पेढीसे विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतोंमें पहुँच जाते थे। मुख्यरूपसे वे खंभात, वडवा, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो, रालज और ईडरमें रहे थे । वे किसी भी स्थान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी । अनेक जिज्ञासु भ्रमर उनके सत्समागमका लाभ पानेके लिए पीछे-पीछे कहीं भी पहुँच ही जाते थे । ऐसे प्रसंगों पर हुए बोधका यत्किंचित् संग्रह 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें 'उपदेशछाया', 'उपदेशनोंध' और 'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है । यद्यपि श्रीमद्जी गृहवास - व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहीवत् थे, फिर भी उनका अन्तरङ्ग सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्थदशाके लिए छटपटा रहा था । एक पत्रमें वे लिखते हैं- “भरतजीको हिरन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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