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[ ७ ] ४. मराठी' भाषाके तत्त्वप्रसारक नामक समाचार पत्रमें जो श्रवणबेलगोलाका इतिहास नामक लेख छपा है, उसमें स्थलपुराणके आधारसे यह लिखा हुआ है
"दक्षिण मथुराका राजा चामुण्डराय जैनी था । वह क्षत्रियकुलके प्रसिद्ध पांडुवंशमें उत्पन्न हुआ था । एक बार वह अपने परिवारसहित राज्यचिह्नोंको धारण किये हुए पोदनपुरके गोमटेश्वरकी वन्दनाके लिये चला । और उस समय उसने मार्गमें मिलनेवाले १२५४ जिनदेवोंके दर्शन करनेका भी निश्चय किया । तदनुसार जब वह अनेक क्षेत्रोंकी वंदना करके मार्गातिक्रम कर रहा था, उस समय उसने श्रवणबेल्लिगोलक्षेत्रके गोमटेश्वरकी एक चमत्कारिक कथा सुनी । जिससे उत्तेजित होकर वह वहाँ गया और बडे उत्साहके साथ उसने श्रीगोमटेश्वर भगवान्का साभिषेक पूजन किया । अपना नाम स्थिर रखनेके लिये कई मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया। और एक स्वधर्मीय मठ स्थापन करके श्रीमत्सिद्धान्ताचार्यको उस गुरुस्थानके अध्यक्ष कर दिये । और १९६००० मुद्रा (जो उस समय सिक्का प्रचलित था) की वार्षिक आमदनी वाली जागीर, उस क्षेत्रके लिये लगा दी । इसके पश्चात् कलियुग सं. ६०५ विभवसंवत्सरके चैत्र महीनेमें ४ दिशाओंमें ४ शालाशासन नामक संस्थाओं की स्थापना भी इसी नरपतिने की । चामुण्डरायके पीछे जो राजा हुए, उन्होंने १०९ वर्षतक उक्त व्यवस्था चलाई । शक सं. ७७७ में चामुण्डराय राजाके द्वारा स्थापन किया हुआ, वह राज्य हयशालदेशके स्वामी बल्लालवंशीय एक राजाके आधीन हो गया ।"
५. शककी ८वीं शताब्दीमें भारतको पवित्र करनेवाले श्रीभगवज्जिनसेनाचार्यजीने आदिपुराणके मंगलाचरणमें श्रीनेमिचन्द्रके समकालीन श्रीसिंहनन्दी आचार्यका निम्नलिखित श्लोकसे स्मरण किया हैयस्य जटा प्रबलवृत्तयः । अर्थान् स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥”
“काव्यानुचिन्तने
इन सब प्रमाणोंसे श्रीनेमिचन्द्रका द्राविडदेशीय प्रतापीराजा चामुण्डरायके साथ अतिशय धार्मिक सम्बन्ध और शक सं. ६०५ अस्तित्व निर्विवाद सिद्ध होता है ।
अब टीकाकारने बृहद्द्रव्यसंग्रह पृष्ठ १ में जो द्रव्यसंग्रहके कर्त्ता आदिका निरूपण किया है, उसको स्थूल दृष्टिसे देखते हैं तो स्थान, समय और निमित्तकी असमानतासे द्रव्यसंग्रहके कर्त्ता पूर्वोक्त श्रीनेमिचन्द्र से भिन्न प्रतीत होते हैं । और
" मग्गपभावण
पवयण भत्तिप्पबोहिदेण मया ।
भणिदं गंथं पवरं सोहंतु बहुसुदाइरिया ॥”
इस त्रिलोकसारके अन्तकी गाथाके और द्रव्यसंग्रहस्थ 'दव्वसंगहमिणं" इस अन्तिम काव्यके आशय और शब्दरचनाकी समानतासे तथा लोकप्रतीतिसे त्रिलोकसारादिके कर्त्ता जो हैं, वे ही द्रव्यसंग्रहके कर्त्ता भी सिद्ध होते हैं । ऐसी दशामें हम टीकाकारके कथनको अप्रमाण न कहकर, उसको युक्तिबलसे पूर्वोक्त श्रीनेमिचन्द्रके विषयमें ही सिद्ध कर डालना उचित समझते हैं ।
यद्यपि मालवदेशस्थ धारानगरीका राजा भोजदेव विक्रमकी ११वीं शताब्दीमें हुआ है, परन्तु हमने सुना है, कि इतिहासकारोंको इस एक भोजके माननेसे सन्तोष नहीं होता है । अतः वे कभी कभी 'इस भोजके पहिले
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(१) इस चतुर्थ प्रमाणसे पूर्वोक्त कथाके कई अंशोंमें विरोध आता है । परन्तु इन दोनोंमें कौन सत्य है, इसका निर्णय करनेके लिये अभी हमारे पास कोई साधन नहीं है ।
(२) शास्त्रोंमें आगरेके पास जो मथुरा है वह उत्तर मथुरा और द्राविड देशकी मथुरा दक्षिण मथुराके नामसे प्रसिद्ध है । (३) सिद्धान्ताचार्यसे श्रीनेमिचन्द्रका ही ग्रहण करना चाहिये ।
(४) आदिपुराणकी टिप्पणीमें जटाचार्यके स्थानमें सिंहनन्दी लिखा हुआ है । और एक संस्कृत गुर्वावली ( आचार्यपट्टावली) में 'नेमिचन्द्रो भानुनन्दी सिंहनन्दी जटाधरः । वज्रनन्दी वज्रवृत्तिस्तार्किकाणां महेश्वरः ॥ १ ॥' इस प्रकार सिंहनन्दीके साथ जटाधर विशेषण देनेसे 'जटाचार्य' यह श्रीसिंहनन्दीका ही दूसरा नाम विदित होता है ।
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