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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः दिचतुर्दशगाथाभिर्नवभिरन्तरस्थलैर्जीवद्रव्यकथनरूपेण प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥१४॥ अतः परं यद्यपि शुद्धबुद्धकस्वभावं परमात्मद्रव्यमुपादेयं भवति तथापि हेयरूपस्याजीवद्रव्यस्य गाथाष्टकेन व्याख्यानं करोति । कस्मादिति चेत्-हेयतत्त्वपरिज्ञाने सति पश्चादुपादेयस्वीकारो भवतीति हेतोः । तद्यथा अज्जीवो पुण णेओ पुग्गलधम्मो अधम्म आया । कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा हु ।।१५।। अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः अधर्मः आकाशम् । कालः पुद्गल: सूर्तः रूपादिगुणः अमूर्ताः शेषाः तु ॥ १५ ॥ व्याख्या- "अज्जीवो पुण णेओ' अजीवः पुनर्जेयः । सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनद्वयं शुद्धोपयोगः मतिज्ञानादिरूपो विकलोऽशुद्धोपयोग इति द्विविधोपयोगः, अव्यक्तसुखदुःखानुभवनरूपा कर्मफलचेतना, तथैव मतिज्ञानादिमनःपर्ययपर्यन्तमशुद्धोपयोग इति, स्वेहापूर्वेष्टानिष्ट विकल्परूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमनं कर्मचेतना, केवलज्ञानरूपा शुद्धचेतना इत्युक्तलक्षणोपयोगश्चेतना च यत्र नास्ति स भवत्यजीव इति विज्ञेयः । पुनः पश्चाज्जीवाधिकारानन्तरं "पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं कालो" स च पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्यभेदेन पञ्चधा।पूरणगलनस्वभावत्वात्पुद्गल इत्युच्यते। नमस्कार गाथाको आदि ले चौदह गाथाओंसे नव अन्तर (मध्य) स्थलोंद्वारा जीव द्रव्यके कथनरूपसे प्रथम अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ॥१४॥ ____ अब इसके पश्चात् यद्यपि शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारक परमात्मद्रव्य ही उपादेय है तथापि हेयरूप जो अजीवद्रव्य है उसका आठ गाथाओं द्वारा व्याख्यान ( निरूपण ) करते हैं। क्योंकि, पहले हेयतत्त्वका ज्ञान होनेपर पीछे उपादेय पदार्थका स्वीकार होता है। वह इस प्रकार है गाथाभावार्थ- और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन पाँचोंको अजीव द्रव्य जानना चाहिये। इनमें पुद्गल तो मूतिमान् है। क्योंकि, रूप आदि गुणोंका धारक है । और शेष (बाकी) के चारों अमूर्त हैं ॥१५॥ व्याख्यार्थ-अब जीवाधिकारके अनन्तर "अज्जीवो पुण णेओ" अजीव पदार्थको वक्ष्यमाण प्रकारका जानना चाहिये। सम्पूर्ण रूपसे विमल अर्थात् सम्पूर्ण द्रव्य पर्यायका प्रकाशक केवल ज्ञान तथा दर्शन ये दोनों शुद्ध उपयोग है और मतिज्ञान आदिरूप विकल अशुद्ध उपयोग है, इस रीतिसे शुद्ध तथा अशुद्ध भेदसे उपयोग दो प्रकारका है, अव्यक्त (अस्पष्ट) सुखदुःखानुभव स्वरूप कर्मफलचेतना तथा मतिज्ञानसे आदि लेके मनःपर्यय पर्यन्त चारों ज्ञानरूप अशुद्ध उपयोग तथा निजचेष्टापूर्वक इष्ट तथा अनिष्ट रूपसे सम्पूर्ण रागद्वेष रूपसे जो परिणाम हैं वह कर्मचेतना है, केवल ज्ञानरूप शुद्ध चेतना है इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणका धारक उपयोग तथा चेतना ये जिसमें नहीं हैं वह अजीव है इस प्रकार जानना चाहिये । “पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं कालो' और वह अजीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यके भेदसे पाँच प्रकारका है। पूरण तथा गलन स्वभाव सहित होनेसे पुद्गल कहा जाता है, अर्थात् पूर्ण करने और छीजनेका स्वभाव जिसमें है वह पृथिवी आदि सब पुद्गल पर्याय है। तथा क्रमसे गति, स्थिति, अवगाह और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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