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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ चूलिका शुद्धद्रव्याथिक येन यद्यपि बन्धमोक्षद्रव्यभावरूप पुण्यपापघटपटादीनामकर्त्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणतः सन् पुण्यपापबन्धयोः कर्त्ता फलभोक्ता भवति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मद्रव्यस्य सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन तु परिणतः सन् मोक्षस्यापि कर्त्ता तत्फलभोक्ता चेति । शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वम् । वस्तुवृत्त्या पुनः पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव । " सव्वगदं" लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते । लोकव्याप्यपेक्षया धर्माधर्मौ च । जीवद्रव्यं पुनरेकजीवापेक्षया लोकपूरणावस्थां विहायासर्वगतं, नानाजीवापेक्षया सर्वगतमेव भवति, पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपम हास्कन्धापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति, कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति, लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति । "इदरंहि यपवेसे" यद्यपि सर्वद्रव्याणि व्यवहारेणकक्षेत्रावगाहेनान्योन्यप्रवेशेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयनयेन चेतनादिस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति ॥ अत्र षद्रव्येषु मध्ये वीतरागचिदानन्दैकादिगुणस्वभावं शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयमिति भावार्थ: ॥ ६२ पाँच द्रव्य कारण हैं, और जीवद्रव्य यद्यपि गुरु, शिष्य आदि रूपसे परस्पर एक दूसरेका उपकार करता है तथापि पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंके प्रति यह जीव कुछ भी उपकार नहीं करता इसलिये अकारण है । "कत्ता" शुद्ध पारिणामिक - परमभावका ग्राहक जो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है उसकी अपेक्षा यद्यपि बंध मोक्षके कारणभूत द्रव्य-भाव रूप जो पुण्य, पाप, घट पट आदि हैं उनका कर्त्ता जीव नहीं है तथापि अशुद्ध निश्चयनयसे शुभ और अशुभ उपयोगोंसे परिणत हुआ पुण्य तथा पाप बंधका कर्त्ता और उनके फलका भोक्ता होता है । तथा विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावका धारक जो निज शुद्ध आत्मा द्रव्य है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूप शुद्धोपयोगसे परिणत हुआ यह जीव मोक्षका भी कर्त्ता और उस मोक्षके फलका भोक्ता ( भोगनेवाला ) होता है । यहाँ सब जगह शुभ, अशुभ तथा शुद्ध परिणामोंका जो परिणमन है उसीको कर्त्ता जानना चाहिये । और पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंके तो अपने-अपने परिणामसे जो परिणमन है वही कर्तृत्व है तथा यथार्थ में तो पुण्य पाप आदि रूपसे अकर्तृता ही है । " सव्वगदं" लोक और अलोक इन दोनोंमें व्याप्तिकी अपेक्षासे आकाशको ही सर्वगत कहते हैं तथा लोक में व्याप्तिकी अपेक्षा धर्म और अधर्मं सर्वगत हैं । एवं जीव द्रव्य जो है सो एक जीवकी अपेक्षासे लोकपूरणरूप जो अवस्था है उसके सिवाय असर्वगत है और अनेक जीवोंकी अपेक्षा से सर्वगत ही होता है, तथा पुद्गलद्रव्य है सो लोकरूप महास्कन्धकी अपेक्षासे तो सर्वगत है और शेष पुद्गलोंकी अपेक्षासे असवंगत है; पुनः एक काला द्रव्यकी अपेक्षासेतो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है और लोकप्रदेशप्रमाण नाना कालाणुओंकी अपेक्षासे कालद्रव्य लोक में सर्वगत है । "इदरंहि यपवेसे" यद्यपि व्यवहारनयसे सब द्रव्य एक क्षेत्र में अवगाह (रहने) से परस्पर प्रवेश द्वारा तिष्ठते हैं तथापि निश्चयनयसे चेतना आदि जो अपना-अपना स्वरूप है उसको नहीं छोड़ते हैं इस कारण परस्पर प्रवेशरहित है । इस उपर्युक्त कथनका तात्पर्य यह है कि इन छहों द्रव्यों में वीतराग, चिदानन्द, एक शुद्ध, बुद्ध आदि गुण ही है स्वभाव जिसके ऐसा, और शुभ तथा अशुभ जो मन, वचन और कायके व्यापार हैं उनसे रहित जो निज शुद्ध आत्मा द्रव्य है वही उपादेय है || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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