Book Title: Bhattarak Ratnakirti Evam Kumudchandra Vyaktitva Evam Kirtitva Parichay
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/090103/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर प्रन्य अकादमी-चतुर्ष पुरु भट्टारक रत्नकीर्ति एवं परिचय व्यक्तित्व एवं कृति एक ऐसी भाषा ' लिखा है । वे होंने प्रबन्ध । और 'मा। [ संवत् १६३१ से १७०० तक होने वाले ६८ कवियों का परिचय, मूल्यांकन तथा उनकी कृतियों का मूल पाठ ] लेखक एवं सम्पादक : डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल प्रकाशक: श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी-एक परिचय प्राकृत एवं संस्कृत के पश्चात् राजस्थानी एवं हिन्दी भाषा ही एक ऐसी भाषा है जिसमें जैन आचार्यों, भट्टारकों, सन्तों एवं विद्वानों ने सबसे अधिक लिखा है । वे गत 100 वर्षों से उसके भण्डार को समृद्ध बनाने में लगे हुए हैं। उन्होंने प्रबन्ध काम लिखे, खण्ड काम लिसे, चरित लिखे, रास, फागु एवं वलियां लिखी। और न जाने कितने नामों से काव्य निम्न हिन्दी शान्ति मार को समद्धना: राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, एवं देहली के सैकड़ों जैन शास्त्र भण्डारों में जन कवियों की रचनायों का विशाल संग्रह मिलता है । जिसमें से किन्हीं का नामोल्लेख राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूचियों के पांच भागों में हम है । इधर थी महावीर क्षेत्र से संथ सूचियों के अतिरिक्त, राजस्थान के जन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व, महाकवि दौलतराम कासलीवाल तथा टोडरमल स्मारक .वन से महापंडित टोडरमल पर गत कुछ वर्षों में पुस्तके प्रकाशित हुई हैं लेकिन हिन्दी के विशाल साहित्य को देखते हुए ये प्रकाशन बहुत थोहे लग रहे थे । इसलिये किसी सी संस्था की कमो खटक रही थी जो जैन कवियों द्वारा निबद्ध समस्त हिन्दी कृतियों को उनके मूल्यॉकन के साथ प्रकाशिप्त कर सके । जिससे हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन कवियों को उचित स्थान प्राप्त हो तथा हाईस्कल एवं कालेज के पाठ्यक्रम में इन कवियों की रचनामों को भी कहीं स्थान प्राप्त हो सके। स्वतन्त्रता संस्था की योजना-- ___ इसलिये सम्पूर्ण हिन्दी जन कवियों की कृतियों को 20 मागों में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन 1977 में श्री महावीर ग्रन्थ भकादमी नाम से एक स्वतन्त्र संस्था की स्थापना की गयी | साथ में यह भी निश्चय किया गया कि हिन्दी कवियों के 20 भागों की योजना पूर्ण होने पर संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रश के आचार्यों पर भी इसी प्रकार की सिरीज प्रकाशित की जावे । जिससे समस्त जनाचार्यों एवं कवियों को साहित्यिक सेवाओं से जन सामान्य परिचित हो सके तथा देश के विश्व-विद्यालयों में जैन विद्या पर जो शोध कार्य प्रारम्भ हुया है उसमें और भी गति आ सके। श्री महावीर मन्य अकादमी की हिन्दी योजना के अन्तर्गत निम्न २० भाग प्रकाशित करने की योजना बनायी गयी । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ महाकवि ब्रह्मा रायमल एवं भट्टारक त्रिभुवनकीति (प्रकाशित) २. कविवर अचराज एवं उनके समकालीन कवि ३. महामवि ब्रह्म जिनदास व्यक्तित्व एवं ऋतिख ४. भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र ५. प्राचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यशोधर प्रेस में ६. महाकवि बीरचन्द एवं महिचंद ७. विधाभूषण, ज्ञानसागर एवं जिनदास पाण्डे ८. कविवर रूपचन्द, जगजीवन एवं ब्रह्म कनू रचन्द ६. महाकवि भूधरदास एव बुलाकीदास १०, जोधराज गोदीका एवं हेमरान ११. महाकवि द्यानतराय १२. पं० भगवनीदास एवं भाउ कवि १३. कविवर खुशालचन्द काना एवं प्रजयराज पाटनी १४. कविवर किशनसिंह, नथमल बिलाला एवं पाण्डे लालचन्व १५. कविवर बुधजन एव उनके समकालीन कवि १६. कविवर नेमि चन्द्र एवं हर्ष कीर्ति १७. भैय्या भगवतीदास एवं उनके समकालीन कवि १८, करियर दौलतराम एवं छत्तदास १६. मनराम, मन्नासाह, लोहट कवि २०. २०वीं शताब्दि के जैन कवि योजना तैयार होने को पश्चात उसके त्रियान्वय का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया । एक ओर प्रथा भाग 'महाकनि ब्रह्मरायमल एवं भट्टारका विभवनकोति" के लेखन एवं सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया गया तो दूसरी ओर प्रकादमी की योजना एवं नियम प्रकाशित करवा कर समाज के साहित्य प्रेमी महानुभाकों के पास संस्था सदस्य बनने के लिये भेजे गये । कितने ही महानुभावों से साहित्य प्रकाशन की योजना के सम्बन्ध में विचार विमर्श किया गया। मझे यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि समाज के सभी महानुभावों ने अकादमी की स्थापना एवं उसके माध्यम से साहित्य प्रकाशन योजना का स्वागत किया है और अपना प्रार्थिक सहयोग देने का आश्वासन दिया । सर्व प्रथग अकादमी की प्रकाशन योजना को जिन महानुभावों का (ii) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थन प्राप्त हुया उनमें सर्व श्री स्व: साह शान्तिप्रसाद जी जन, श्री गुलाबचन्द जी मंगवाल रेनवाल, श्री अजितप्रमाद जी जैन ठेकेदार देहली, श्रीमती सुदर्शन देवी जी छाबड़ा अयपुर, प्रोफेसर अमृतलालजी जैन दर्शनाचार्य एवं लाल दरबारीलाल जी कोठिया वाराणसी, श्रीमती कोकिला सेठी जयपुर, श्रीमान हनुमान बक्सजी गंगवाल कुली, पं० अनुपचन्द जी न्यायतीर्थ जयपुर के नाम उल्लेखनीय है। योजना की क्रियान्विति, प्रथम भाग के लेखन एवं प्रकाशन एवं अकादमी के प्रारम्भिक सदस्य बनने के अभियान में कोई शा वर्ष निकल गया और हमारा सबसे पहिला भाग जून १९७८ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के शुभ दिन प्रकाशित होकर सामने आया । उस समय तक अकादमी के करीब १०० सदस्यों को स्वीकृति प्राप्त हो चुकी थी। "महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक निभवनकोति" के प्रकाशित होते ही अकादमी की योजना में और भी अधिक महानुभावों का सहयोग प्राप्त होने लगा। जुलाई १९७९ में इसका दुसरा भाग 'कविवर वच राज एवं उनके समकालीन कवि" प्रकाशित हुया जिसका विमोचन एक भव्य समारोह में हिन्दी के वरिष्ठ विद्वान् डा० सत्येन्द्र जी द्वारा किया गया गया : प्रस्तुत भाग में ब्रह्म बूच राज, ठक्कुरसी, छीहल, गारबदास एवं चतरूमल का जीवन परिचय, मूल्यांकन एवं उनकी ४४ रचनामों के पूरे मूल पाट दिये गये है। अकादमी का तीसरा भाग महाकवि ब्रह्म जिनदास व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विमोचन मई ८० में पांचवां (राजस्थान) में प्रायोजित पंच कल्याण प्रतिष्ठा समारोह में पूज्य क्षु० सिद्धसागर जी महाराज लाइन वालों ने किया था। इस भाग के लेखक हा प्रेमचन्द रायको है जो युवा विद्वान हैं तथा साहित्य सेवा में जिनकी विशेष रूचि है। तीसरे भाग का समाज में जोरदार स्वागत हुश्रा और सभी विद्वानों ने उसकी एवं अकादमी के साहित्य प्रकाशन मोजना की सराहना की। अकादमी का चतुर्थ भाग मट्टारक रलकीति एवं कुमुदचन्द्र" पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इस भाग में संवत् १६३१ से १५०० तक होने वाले भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र के अतिरिक्त ६६ अन्य हिन्दी कवियों का भी परिचय एवं मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है । यह युग हिन्दी का स्वर्णयुग रहा और उसमें कितने ही ख्याति प्राप्त विद्वान हुये । महाकवि बनारसीदास, रूपचन्द, ब्रह्म गुलाल, ब्रह्म रायमल्ल, मट्टारक, अभय चन्द, समयसुन्दर जैसे कवि इसी युग के कवि थे ।। पंचम भाग अकादमी का पंचम भाग प्राचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर "प्रेस में प्रकाशनार्थ दिया जा चुका है। तथा जिसके नवम्बर ५१ तक प्रकाशन की संभावना (iii) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। सोमकीनि एवं यशोधर दोनों ही १६ वीं शताब्धि के उद्भट विद्वान तथा रास्थानी को कट्टर समर्थक थे। सम्पादन में सहयोग लकदमी के प्रत्येक भाग वो सम्पादन में लेखक एवं प्रधान सम्पादक के प्रति रिक्त तीन-तीन विद्वानों का सहयोग लिया जाता है। प्रस्तुत भाग के सम्पादक तीर्थंकर के यशात्री मम्पादक हात नेगीचन्द जन इन्दौर, यूबा विहान डा० भाग चन्द भागेन्दु दमोह एवं उदीयमान विदुषी श्रीमती सुशीला वाकलीवाल हैं । इस भाग के सम्पादन में तीनों विद्वानों का जो सहयोग मिला है, उसके लिए हम उनके पूर्ण प्रभारी है। अब तक अकादमी को जिन विद्वानों का सम्पादन में सहयोग प्राप्त हो चुका है उनमें डा० सत्येन्द्र जी, १० दरबारीलालजी कोठिया वाराणसी, 4 अनप चन्द जी न्यागतीर्थ जयगुर, डा. ज्योतिप्रसाद जी लखनऊ, डा० हीरालाल जी महेश्वरी जयपुर, 2 i a ; जा र..२ जयपुर, डा. नरेन्द्र भानावत जयपुर, प० पांवरलाल जी न्यायतीर्घ जयपुर के नाम उल्लेखनीय हैं। नवीन सवस्यों का स्वागत __अब तक अकादमी के ३०० सदस्य बन चुके हैं । जिनमें ७० सत्चालन समिति में तथा २३० विशिष्ट सदस्य हैं। नीसरे भाग के प्रकाशन के पाचात सम्माननीय श्री रमेश चन्द्र जी सा० जैन पी०एस० मोटर कम्पनी देहली एवं पादरणीय श्री वीरेन्द्र हेगड़े धर्मस्थल ने अकादमी संरक्षक बनने की कृपा की है। श्री रमेशचन्दजी उदीयमान युवा उद्मोगपति हैं । ये उदारमना है तथा समाज सेवा में खूब मनोयोग से कार्य करत है । समाज' को जनरो विशेष याशाए हैं। उन्होंने अकादमी का संरक्षक बन प्राचीन साहित्य के प्रकाशन में जो योग दिया है उसके लिये हम उनके पूर्ण आभारी हैं। अकादमी के नौ संरक्षक धस्थल के प्रमुख धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगड़े है। जो बीसवीं शताब्दि के अभिनव चामुडराय हैं, तथा समाज एवं साहित्य को सेवा करने में जिनकी विशेष रूचि रहती है। जो दक्षिण एवं उत्तर भारत की जैन समाज के लिये सेनु का कार्य करते हैं। उनके संरक्षक मानने से अकादमी गौरवान्वित इसी तरह गया ।बिहार) के प्रमुख समाज सेवी श्री रामचन्द्र जी जैन ने उपाध्यक्ष वन कर साहित्य प्रकाशन में जो गहयोग दिया है उसके लिये हम उनके विशेष प्रामारो है। इनमें अतिरिक्त संगीत रत्न श्री ताराचन्दजी प्रेमी फिरोजपुर झिरका, श्री हीरालालजी रानीवाले जयपुर, राजस्थानी भाषा समिति के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री नालाल जी जैन एडवोकेट श्री नन्दकिशोर जी जैन जयपुर, पं० गुलाब Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द जी दर्शनाचार्य जलपुर ने रांचालन समिति का सदस्य बन वार अकादमी के के कार्य संचालन में जो सहयोग दिया है उसके लिये हम इन सभी महानुभावों के प्राधारी है। इसी तरह करीब ५० से भी अधिक महानुभायों ने अकादमी की विशिष्ट सदस्यता स्वीकार की है। उन सब महानुभावों के भी हम पूर्ण प्राभारी है । आशा है भविष्य में सदस्य बनाने की दिशा में और भी तेजी श्रावेगी जिससे पुस्तक प्रकाशन रहे कार्य में और भी गति अधिवा पा सके । सहयोग अकादमी के सदस्य बनाने में वैसे तो सभी महानुभावों का सहयोग मिलता रहता है लेकिन यहां हम श्री ताराचन्द जी प्रेमी के विशेष रूप से आभारी है जिन्होंने अकादमी के साहित्यिक गतिविधियों में रूचि लो हुए नवीन सदस्य बनाने के अभियान में पूरा सहयोग दिया है। इनके अतिरिकपं० मिलाप चन्द जी शास्त्री जयपुर, डा० दरबारीलाल जी कोठिया वाराणसी, पं० सत्यन्धर कुमार जी सेठी उज्जन, डा० भागचन्द जी भाग पनाह आदि म. जशे सहयोग प्राप्त होता रहता है जिनके हम विशेष रूप से प्रभारी हैं। सन्तों का शुभाशीर्वाद अकादमी को सभी जैन साता का शुभाशीर्वाद प्राप्त है ! परम पूज्य गाचार्य विद्यासागर जी महाराज, एलाचामं श्री विद्यानन्दजी महाराज, काचार्य कल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज, १०८ गुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज, पूजा क्ष ल्लक श्री सिद्धसागर जी महाराज लाडनू वाले, भट्टाक जी श्री चारूकीति जी महाराज मूडबिंदी एवं श्रवणबेलगोला आदि सभी सम्तों का शुभाशीर्वाद प्राप्त है। अन्त में समाज के सभी साहित्य प्रेमियों से अनुरोध है कि श्री श्री महावीर ग्रंथ अकमी के स्वयं सदरम बन कर तना अधिक से अधिक संख्या में दूसरों को सदस्य बनाकर हिन्दी जन साहित्य के प्रकाशन में अपना योगदान देने का कष्ट करें। सा० कस्तूरचन्द कासलीवाल निदेयाक एवं प्रधान संपादक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्याध्यक्ष की कलम से श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी के चतुर्थ भाग-भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र को मनियमों के हाथों में देते हुए मुझे असीव प्रसन्नता है। प्रस्तुत भाग में प्रभुन दो राजस्थानी कवियों का परिचव एवं उनकी कृतियों के पाठ दिये गये हैं लेकिन उनके माघ साठ से भी अधिक तत्कालीन कवियों का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है। हममे पता चलता है कि संवत् १६३१ से १७०० तक जैन कवियों ने हिन्दी में कितने विधाल साहित्य की सर्जना की थी। प्रस्तुत भाग के प्रकाशन से इतने अधिक कविनों का एक साथ परिचय हिन्दी साहित्य के इतिहास के लिये एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जावेगी। इस प्रकार जिस उद्देश्य को लेकर अकादमी की स्थापना की गई थी उसकी ओर वह प्रागे बढ रही है । सन् १९८१ के अन्त तक इराके अतिरिक्त दो भाग और प्रकाशित हो जावेंगे ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है । २० भाग प्रकाशित होने के पश्चात् सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के अधिकांश अज्ञात, अल्प ज्ञात एवं महत्त्वपूर्ण जैन कवि प्रकाश में ही नहीं आदेंगे विन्तु सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास भी तैयार हो सकेगा जो अपने आप में एक महान् उपलब्धि होगी। प्रस्तुत भाग के लेखक मा० कास्नुर चन्द कासलीवाल हैं जो अकादमी के निदेशक एवं प्रधान सम्पादवा भी हैं। डा० कासलीवाल समाज के सम्मानीय विद्वान् है जिनका समस्त जीवन साहित्य सेवा में समर्पित है। यह उनकी ४१वीं कृति है। अकादमी की सदस्य संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है 1 तीसरे भाग के प्रकाशन पश्चात् श्रीमान् रमेशचन्द जो सा० जैन देहली ने प्रकादमी के संरक्षक बनने की महती कृपा की है उनका हम हृदय से स्वागत करते हैं। श्री रमेशचन्द ज समाज एवं साहित्य विकास में जो अभिरुचि ले रहे हैं अकादमी उन जैसा उदार संरक्षक पाकर स्वयं गौरवान्वित है। धर्मस्थल के श्रादरणीय श्री डी० बीरेन्द्र हेग ने भी अकादमी का संरक्षक बन कर हमें जो सहयोग दिया है उसके लिये हा उनका अभिनन्दन करते हैं। इसी तरह गया निवासी श्री रामचन्द्रजी जैन ने उपा ध्यक्ष बन कर अकादमी को जो सहयोग दिया है हम उनका भी हार्दिक स्वागत कर हैं। संचालन समिति के नये सदस्यों में सर्वधी ताराचन्द जी सा० फिरोजप मिरका, महेन्द्रकुमार जी पाटनी जयपुर, हीरालाल जी रानीवाला जयपुर, नाथूला Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी जैन ऐडवोकेट जयपुर एवं श्री नन्दकिशोर जी सा० अन जयपुर के नाम उल्लेननीय है । हम सभी का हार्दिक स्वागत करते हैं । इसी तरह करीब ४० महानुभाव अकादमी के विशिष्ट सदस्य बने हैं। सभी माननीय सदस्यों का में हार्दिक स्वागत करता है। इस तरह ८०० सदस्य बनाने की हमारी योजना में हमें ३५ प्रतिशत सफलता मिली है। मैं आशा करता है कि भविष्य में अकादमी को सगाज का और भी अधिक सहयोग मिलेगा। हम चाहते हैं कि अकादमी के करीब १०० सेट देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागाध्यक्षों को निःशुल्क भेंट किये जा जिससे उन्हें जैन कवियों द्वारा निबद्ध साहित्य पर शोध कार्य कराने के लिये सामग्री मिल सके । इसलिये मैं समाज के उदार एवं साहित्यप्रेमी महानुभायों से प्रार्थना करूंगा कि वे अपनी ओर से पांच-पांच सेट भिजवाने की स्वीकृति भिजवाने का कष्ट करें। प्रस्तुत भाग के माननीय सम्पादकों-सा नेमीचन्द जी जान इन्दौर, डा भागबन्द जी भागेन्दु दमोह एव धीमती सुशीला जी बाकलीवाल जयपुर का भी अाभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत भाग का साइन कर मार के काम पर भहयोग दिया है। अन्त में मैं अकादमी के संरक्षकों थी अशोककुमार जी जैन देहली, पूनमचन्द जी सा० जैन झरिया एवं रमे पाचन्द जी सा जैन देहली, अध्यक्ष माननीय सेठ कन्हैय लाल जी सा० जन मद्रास, सभी उपध्यक्षों, सचालन समिति के सदस्यों एवं विशिष्ट सदस्यों का प्राभारी हूँ जिनके सहयोग से अकादमी द्वारा साहित्यिक कार्य सम्भव हो रहा है । डा० कासलीवाल सा० को में किन शब्दों में धन्यवाद दूँ, वै तो इसके प्राण है और जिनकी सतत साधना से पह कष्ट साध्य कार्य सरल हो सका हैं। रतनलाल गंगवाल ८ लोयर राउडन स्ट्रीट कलकत्ता २० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय अब यह लगभग निर्विवाद हो गया है कि हिन्दी-साहित्य के विकास का अध्ययन अनुसंधान जैन साहित्य के अध्ययन के बिना संभव नहीं है। इस शताब्दी के तीसरे दशक में जब प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास लिख रहे थे तब, और प्राञ जब भी कोई साहित्येतिहास के लेखन का प्रयत्न करता है तब उसके लिये यह असंभव ही होता है कि वह जन साहित्य की अनदेखी करे और इस क्षेत्र में अपने कदम आगे रखे । राजस्थान कहने को मरुभूमि है; किन्तु यहाँ रस की जो अजन/मधुर धारा प्रवाहित हुई है, वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलसी। जैन साहित्य की दृष्टि से राजस्थान के पास्त्र-भण्डार बहुत समृद्ध माने जाते हैं। इन भण्डारों में से बहुत सारे ग्रन्थों को तो सामने लाया जा सका है, किन्तु बहुत सारे हमारी असावधानी/प्रमाद के कारण नष्ट हो गये हैं। यह नष्ट दुमा या विलुप्त साहित्य हमारे सांस्कृतिक और आंचलिक रिक्त की दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण श्रा, यह कह पाना सो संभव नहीं है; किन्तु जो भी पत-दरपतं उघडता गया है, उससे ऐसा लगता है कि उसके बने रहने से हमें हिन्दी साहित्य के विकास की कई महत्व की कड़ियां मिल सकती थीं। इस दृष्टि से डॉ० करतूरचन्यः कासलीवाल का प्रदेय उल्लेखनीय और अविस्मरणीय है। जैसे कोई नये टापू या द्वीप की खोज करता है और वहां के स्वारे खनिज-धन की जानकारी देता है ठीक वैसे ही डin कासलीवाल जैसे मनीषी ने जैन शास्त्रागारों में जा-जा कर वहाँ की दुर्लभ यस्तव्यस्त बहुमूल्य पाण्डुलिपियों को सूचीबद्ध किया है और दिगम्बर जन प्रतिपाय क्षेत्र श्रीमहावीरजी से प्रकाशित कराया है। ये सूचियां न केवल जैन साहित्य के लिए अपितु संपूर्ण भारतीय बाङमय के लिए बहुमूल्य धरोहर है । पूरा वाम इतनी भारी-भरकम है कि इसे किसी एक या दो आदमियों ने संपन्न किया है इस पर एकाएक भरोसा करना संभव नहीं होता तथापि यह हुया है और बड़ी सफलता के साश्च हुआ है । अतः हम स हज ही कह राकते हैं कि द्धा कासलीवाल की भूमिका जैन साहित्य यौर हिन्दी साहित्य के मध्य सीधे संवन्ध बनाने की ठीक वैसी ही है जैसी कभी वास्कोडिगामा की रही थी, जिसने 15 वीं सदी के अन्त में भारत प्रोर युरोप को समुद्री मार्ग से जोड़ा था। हिन्दी साहित्य की भांति ही हिन्दी भाषा की संरचना तथा उसके विकास का अध्ययन भी प्राकुरा अपनश कीअनुपस्थिति में करना संभव नहीं है। ये दोनों भाषा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तर जैन साहित्य से संबंधित हैं। इनके अध्ययन का मतलब होता है हिन्दी की भाषिक पृष्ठभूमि को समझने का वस्तुनिष्ठ प्रयास । अभी इस दृष्टि से हिन्दी भाषा का व्युत्पत्तिक अध्ययन शेष है, जिसके प्रभाव में उसके बहुत सारे शब्दों को देशण पादि कह कर अव्याख्यायित छोड़ दिया जाता है , किन्तु जब प्राकृत/अपभ्रंश राजस्थानी के विविध व्यावर्तनों का. उनमें उपलब्ध जैन साहित्य का, शैली/भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया जाऐंगा और कुछ प्रशिक्षित व्यक्ति इस दायित्व को संपन्न करेंगे सब हम यह जान पायेगे कि एक निवृत्तमूलक चिन्तन-परम्परा ने प्रवृत्तिपरक इलाके को क्या कितना योग दिया है ? किस तरह हिन्दी-साहित्य के विधा--विष्य *का विकास हुआ और किस तरह हिन्दी भाषा अभिवृद्ध हुई । इसना ही नहीं बल्कि मानना पड़ेगा कि द्राविड़ भाषानों के विकास में भी जैन रचनाकारों ने-विशेषतः साधुओं और भट्टारकों ने-विस्मयजनक योगदान किया था। एक तो हम इन सारे तभ्यों की सूक्ष्म छानबीन कर नहीं पाये, हैं, दूसरे कई बार हम अनुसंधान के क्षेत्र में भरपूर वस्तुनिष्ठा से काम करने निष्कर्ष लेने में चूक जाते हैं । हमारे इस सलूक से साहित्य के विकास को भलिभांति समझने में कठिनाई होती है। ___ जहाँ तक इतिहास का संबंध है उसके सामने कोई घटना इस या उस जाति अथवा इस या उस संप्रदाय की नही होती। उसका सीधा सरोकार घटना के व्यक्तित्व और उसके प्रभाव से होता है, इसलिए जो लोग साहित्य के वस्तून्मुख समीक्षक होते हैं वे किसी एक कालखण्ड को सिर्फ एक अकेला अलहदा कालखण्ड मान कर नहीं चल पाते वरन् तथ्वों का 'इन डेथ' विश्लेषण करते हैं और उनके सापेक्ष संबंधों अन्तः संबंधों को खोजने का अनवरत यत्न करते हैं। कोई बीसा 'फल' किसी उपस्थित 'श्रान' की ही परिमा ति होता है, और कोई प्रतीक्षित 'प्राज' किसी अागामी 'कल' में से ही जानता है। पानेवाले कल की खोज-प्रक्रिया नही कठिन होती है। एक तो जब तक हम वर्तमान को सापेक्ष नहीं देखते तब तक प्रागामी बल की सही अगवानी नहीं कर पाते, दूसरे हम प्रगने अतीत यानी विगत कल' की ठीक से व्याख्या भी नहीं कर पाते । प्रायः हमने माना है कि ये तीनों परस्पर विच्छिन्न चलते हैं, किन्तु दिखाई देते हैं कि ये वैसा कर रहे हैं, कर वैसा सकने नहीं हैं । कलाज कल एक तिकोन है बल्कि कहें , समत्रिभुज है जिसकी प्राचार-भुजा आज है । जो कौम अपने ‘बाज' को नहीं समझ पाती, वह भ तो अपने विगत 'कल' में से कुछ ले पाती है और न ही प्रतीक्षित 'कल' को कोई स्पष्ट प्राकार दे पाती है। धर्म/दर्शन/संस्कृति ही ऐसे अाधार हैं, जो आगामी कल को एक संलिष्ट प्राकृति प्रदान करने में समयं होते हैं । साहित्य अक्षर के माध्यम से प्रागामी कल * राजस्थान के शास्त्र-भण्डारों की ग्रन्थ-सूची, चतुर्थ भाग, डा० वामुदेव शारण अग्रवाल, पृष्ठ 4. (ix ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राज में रूपान्तरित करता है | मान कर चलें कि जो कृति आज अापको एक वेष्टन में प्रस्त-व्यस्त मिल रही है, उसका भी कभी कोई याज था और यह भी कभी किसी शिल्पी के भाषना-गर्भ में कोई प्रतीक्षित कल रही थी। कितना रोमांचक है यह सब ! ! ऐसी हजारों हजार कृतियों को छुपा है डा० कासलीवाल ने और जाना है उनके 'पाज" को अपनी संवेदनशील अंगुलियों के जरिये'. फिर भी कहना होगा कि अभी काम सनई और सनी पूर्ण । कि किसी ऐसे समीक्षक/पाठालोचक की प्रामभकता है, जो सवेदनशील होने के साथ ही एक निर्मम भाषाविज्ञानी भी हो - ऐसा, जो तथ्य को तथ्य मानने के अलावा और कुछ मानने को ही सहज तयार न हो । ग़ापेक्ष दुष्टि से अभी साहित्य/माषा के विविध स्तरीन प्रन्तः संबंधों के विश्लेषण समीक्षण की जरूरत से भी हम मुह नहीं मोड़ सकते । श्री महावीर ग्रन्थ प्रकार मी, जयपुर ने इस दिशा में मात्र रचनात्मक कदम ही नहीं उठाये हैं अपितु 3 बहुमूल्य अन्यों के प्रकाशन द्वारा कुछ ऐसे ठोस प्राधार प्रस्तुत कर दिये हैं, जो भारतीय बाई भय को अधिक गहराई में से समझने की दिशा में बहुत उपयोगी भूमिका निभायेंगे । जब तक चारों ओर से हमारे पास इस तरह की सामग्री एक बयाकलित नहीं हो जाती. तब तक कोई निश्चित शक्ल हम इतिहास को नहीं दे सकते । इतिहास भी एक जेनरेटिव्ह' अस्तित्व है। इस संदर्भ में डा. कासलीवाल/महावीर अन्य अकादमी की भूमिका ऐतिहासिक है, और इसलिए अविस्मरणीय हैं। हिन्दी/साहित्य का दुर्भाग्य रहा है कि उसका कोई एकीकृत संश्लिष्ट अध्ययन अभी तक नहीं हो पाया है। उसके इस अध्ययन को यदि कहीं शुरू हया भी है तो अग्रेजी या राजनीति ने छिन्नभिन्न/वाधित किया है और उसे एक धारावाहिक प्रक्रिया नहीं बनने दिया है हिन्दी- कोश- रचना का इतिहास इसका एक जीवन्त उदाहरण है। भारत की लोकभाषानों का, वस्तुतः, अध्ययन अनुसंधान जैसा होना चाहिए था वैसा हो नहीं पाया है और कई दुर्लभ स्रोत अव नष्ट हो गए हैं। मांचलिक बोलियों के सुर (टोनेशन) का प्रध्ययन' तो अब इसलिए असंभव हो गया है कि इनमें से बहुतों के प्रयोना ही अब नहीं रहे हैं। लगता है यही हा अव हमारी पाण्डुलिपियों का होने वाला है । हमारे शास्त्र- भण्डारों में सदियों से सुरक्षित साहित्य भी अब जीरोद्धार के लिए उद्ग्रीव उत्कण्ठित है । डा० कासलीवाल ने तो अभी लिफाफे पर लिखे जाने वाले पतों की सुत्रियां दी हैं, असली पर लिखाने का काम तो उनके अकादमी ने शुरु किया है । सुचियाँ मात्र इन्फर्मान' हैं, ग्रन्थ-संपादन उनके बाद का सोपान है । अकादमी की मुश्किलें बहुत स्पष्ट है। एक तो लोगों की मनोवृत्ति ग्रन्थों Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर से अपना कब्जा छोड़ने की नहीं है, दूसरे उनके साथ प्रब एक खतरनाक व्यावसायिकता भी जुड़ गयी हैं। इन ऐसी करिनाइयों से जूझते हए अकादमी ने जो कुछ किया है और जो कुछ वह अपने सीमित साधनों में करने के लिए संकल्पित है, उससे भारतीय संस्कृति और साहित्य का मस्तक गौरव से उँचा उठेगा इतना ही नहीं बल्कि राजस्थानी हिन्दी साहित्य समृद्ध भी होगा । विज्ञान की कृपा से ग्राज ऐसे साधन उपलब्ध हैं कि हम दुष्प्राप्य पाण्डुलिपियों को मध्ययन के लिए सुरक्षित, व्यवस्थित प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु मेरी समझ में अभी ऐसा कोई सुसमृद्ध अनुसघान-वेन्द्र जैनों का नहीं हैं जहाँ सारे ग्रन्थ एक साथ उपलब्ध हों या उनके उपलब्ध कर दिये जाने की कोई कारगर व्यवस्था हो ताकि कोई शोधार्थी बिना किसी बाधा/प्रसुविधा के कोई तुलनात्मक अध्ययन कर सके । श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, हमें विश्वास है, जल्दी ही उस मभाव को पूरा करेंगी और हमारे स स्वप्न को यथार्थ में बदल सकेगी। प्रस्तुत ग्रन्थ अकादमी का चतुर्थ प्रकाशन है। प्रथम में महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक विभवनकीति, द्वितीय में करियर बुचराज एन उनके समकालीन कवि मोर तृतीय में महाकत्रि ब्रह्म जिनदास, के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार किया गया है। ये तीनों ग्रन्थ क्रमश: 1978, 79, और 1980 मेंप्रकाशित हुए हैं। इन ग्रन्थों में जो बहुमूल्य सामग्री संकलित/संपादित है, उससे साहित्य का भावी अध्येता/ अनुसं पित्सु अनुगृहीत हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्ध में भट्टारक रत्नकीर्ति एवं मट्टारक कुमुदचन्द्र' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर व्यापक गह्न अभिमन्थन हुया है। कहा गया है कि 1574-1643 ई० का समय भारतीय इतिहास में शान्ति समद्धि का था। इस समय भट्टारकों ने साहित्य समाज-रचना के क्षेत्र में एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह किया । भ . रत्न कीति गुजरात के थे, किन्तु उन्होंने हिन्दी की उल्लेखनीय सेवा की । उनके प्रमुख शिष्य कुमुदचन्द्र हुए जिन्होंने जैन साहित्य धर्म को तो समृद्ध किया हो, किन्तु हिन्दी साहित्य को भी विभूषित किया । ग्रन्थान्त में उनकी कृतियाँ संकलित हैं, जिनसे उन दिनों के हिन्दी-का पर तो प्रकाश पड़ता ही है दोनों गुरु-शिष्य की साहित्य सेवाओं का मी मलीभांति योतन हो जाता है । कुल मिलाकर महावीर ग्रन्थ अकादमी जो ऐतिहासिक कार्य कर रही है नागरी प्रचारिणी सभा' वाराणसी; हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; और हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद जसी साधन-संपन्न संस्थानों के समान, उससे उसकी सुगंध दिगदिगन्त तक फैलेगी और उसे समाज का सरकार का जन-जन का सहयोग सहज ही मिलेगा। -डा. नेमीचन्द्र जैन इन्दौर, संपादक "तीर्थकर" 21 सितम्बर 1981 कृते सम्पादक मंडल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की ओर से राजस्थानी एवं हिन्दी साहित्य इतना विशाल है कि सैकड़ों वर्षों की साधना के पश्चात् भी उसके पूरे भण्डार का पता लगाना कठिन है। उसकी जितनी अधिक खोज की जाती है, साहित्य सागर में से उतने ही नये नये रत्नों की प्राप्ति होती रहती है । जैन कवियों की कृतियों के सम्बन्ध में मेरी यह धारणा और भी सही निकलती है । राजस्थान, मध्यप्रदेश, देहली, एवं गुजरात के शास्त्र भण्डारों में अब भी ऐसी संकड़ों रचनाओं की उपलब्धि होने की सम्भावना है जिनके सम्बन्ध में हमें नाम मात्र का श्री ज्ञान नहीं है प नहीं दिया जब हम पूरी तरह से ऐसी कृतियों की खोज कर चुके होंगें । चतुर्थ भाग में संवत् १६३१ मे १७०० तक की अवधि में होने वाले जैन कथियों की राजस्थानी कृतियों को लिया गया है। ये ७० वर्ष हिन्दी जगत के लिये स्वरणं युग के समान थे जब उसे महाकवि सूरदास, तुलसीदास, बनारसीदास, रत्नकीर्ति कुमुदचन्द्र, ब्रह्म रायमल्ल जैसे कवि मिले। जिनका समस्त जीवन हिन्दी विकास के लिये समर्पित रहा। उन्होंने जीवन पर्यन्त लिखने लिखाने एवं उसका के थुग का प्रचार करने को सबसे अधिक महत्व दिया तथा नवीन काव्यों के सृजन निर्मारण किया । 1 पर रत्नकीति एवं मुदचन्द्र इसी युग के कवि थे। वे दोनों ही भट्टारक सुशोभित थे। समाज के श्राध्यात्मिक उपदेष्टा थे । स्थान स्थान पर बिहार करके जन जन को सुपथ पर लगाना ही उनके जीवन का ध्येय था। स्वयं का एक बड़ा संघ था जो शिष्य प्रशिष्यों से युक्त था। लेकिन इतना सब होते हुये भी उनके हृदय में साहित्य सेवा की प्यास थी और उसी प्यास को बुझाने में लगे रहते थे । जब देश में भक्ति रस की धारा बह रही हो। देश की जनता उसमें झूम रही हो तो वे कैसे अपने आपको अछूता रख सकते थे इसलिये उन्होंने भी समाज में एक नेभि राजुल के नये युग का सूत्रपात किया। राधा कृष्ण की भक्ति गीतों के रामान गीतों का निर्माण किया और उनमें इतनी अधिक सरलता, विरह प्रवशता एवं करण भावना भर दी कि समाज उन गीतों को गाकर एक नयी शक्ति का अनुभव करने लगा । जैन सन्त होते हुए भी उन्होंने अपने गीतों में जो दर्द भरा है, राजुल की विरह वेदना एवं मनोदशा का वर्णन किया है। वह सब उनकी काव्य प्रतिभा का परिचायक है । जब राजुल मन ही मन नेभि से प्रार्थना करती है तथा एक घड़ी के ( xii ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये ही सही, पाने की कामना करती है तो उस समय उसकी तड़फन सहज ही में समझ में आ सकती है 1 रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र ने मेमि राजुल से सम्बन्धित कृतियां लिख कर उस युग में एक नयी गरम्परा को जन्म दिया। उन्होंने नेमिनाथ का बारहमासा लिटा मिना 1::सिरहा, मारा हसवीसी और राजल की विरह वेदना को व्यक्त करने वाले पद लिखे ।। लेकिन भट्टारक कुमुदचन्द्र ने नेमि राजुल के अतिरिक्त और भी रचनायें निबन्च कर हिन्दी साहित्य के भण्डार को समृद्ध बनाया । उन्होंने 'भरत बाहुबली खाद' लिख कर पाठकों के लिये एक नये युग का सूत्रपात किया । भरत-बाहुबलि छन्द वीर रस प्रधान काव्य है और उसमें भ रत एवं बाहुबली दोनों की वीरता का सजीव वर्णन हुअा है। इसी तरह सामुदचन्द्र का ऋषभ विवाहलो है। जिसमें आदिनाथ के विवाह का बहुत सुन्दर वर्णन दिया गया है। उस युग में ऐसी कृतियों की महती आवश्यकता थी । वास्तव में इन दोनों कवियों की साहित्य सेवा के प्रति समस्त हिन्दी जगत गदा आभारी रहेगा। इन दोनों सन्त कवियों के समान ही उनके शिष्य प्रशिष्य थे । जैसे गुरु वैसे ही शिष्य । इन्होंने भी अपने गुरु को साहित्य रुचि को देखा, जाना और उसे अपने जीवन में उतारा । ऐसे शिष्य कवियों में भट्टारक अभयचन्द्र, शुभनन्द्र, गणेश, ब्रह्म जयमागर, श्रीपाल, सुमतिसागर एवं संयमसागर के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। इन कवियों ने अपने गुरु के रामान अन्य विषयक पद एवं लघु काव्यों के निर्माण में गहरी रुची ली । साय में अपने गुर के गम्बन्ध में जो गीत लिखे वे भी सब हिन्दी साहित्य के इतिहास में निराले हैं। वे ऐसे गीत हैं जिनमें इतिहास एवं साहित्य दोनों का पुट है। इन गीतों में रत्नकीर्ति, तु.मनचन्द्र, नभय चन्द्र, एवं शुभचन्द के बारे में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री मिलती है । ये शिष्य प्रशिष्य भट्टारकों के साथ रहते थे और जैसा देवते सा अपने गीतों में निबद्ध करके जनता को सुनाया करते थे । प्रस्तुस भाग में ऐसे कुछ गीतों को दिया गया है। भट्टारक रत्नकीति, कुमुदचन्द्र, अभयचन्द्र एवं शुभचन्द के सम्बन्ध में लिखे गये गीतों से पता चलता है कि उस समय इन भट्टारकों का समाज पर कितना व्यापक प्रभाव था। साथ ही समाज रचना में उनका कितना योग रहता था। वे आध्यात्मिक गुरु थे । धार्मिक क्रियाओं के जनक थे। वे जहां भी जाते धार्मिक उत्सव प्रायोजित होने लगते और एक नये जीवन की धारा बहने लगती । मंगलगीत गाये जाते. तोरण और वन्दनवार लगाये जाते। उनके प्रवेश पर भव्य स्वागत किया जाता। और ये जैन सन्त अपनी अमृत वाणी से सभी श्रोताओं को सरोबार कर देते । सच ऐसे सन्तों पर किस समाज को गर्व नहीं होगा (xiii) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .-._. . - - हिन्दी जैन कवियों की साहित्यिक सेवा का हिन्दी जगत के सामने प्रस्तुत करने के लिये जितना अधिक व्यापक अभियान छेड़ा जावेगा हिन्दी के विद्वानों, शोधाथियों एवं विश्व विद्यालयों में उतना ही अधिक उनका अध्ययन हो सकेगा। इन कवियों की साहित्यिक सेवा प्रों के व्यापक प्रचार की दृष्टि से साहित्यिक गोष्ठियां होना यावश्यक है जिसमें उनके कृतित्व पर खुल कर पर्चा हो सके साथ ही में विभिन्न कत्रियों से उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके । भट्टारक रत्नकोति, कुमुदचन्द्र अादि ऋषियों की रचनायें राजस्थान के विभिन्न भण्डारों में संग्रहीत हैं। जिनमें ऋषभदेव, हू गरपुर, उदयपुर, जयपुर, अजमेर, प्रादि के शास्त्र भण्डार उल्लेखनीय हैं। छोटी रचनायें होने से उन्हें गुटकों अधिक स्थान मिला है । जो उनकी लोकप्रियता का होता है। तत्कालीन समाज में इनका व्यापक प्रचार था, ऐसा लगता है । इसलिये अभी बागढ एवं गुजरात के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत मुटकों की विशेष खोज की आवश्यकता है जिससे उनकी और भी कृतियों की उपलब्धि हो सके । साभार __पुस्तक के सम्पादन में डॉ० नेमीचन्द जैन इन्दौर, डॉ. भागचन्द भागेन्दु दमोह एवं श्रीमती सुशीला बाकलीवाल जयपुर ने जो सहयोग दिया है उसके लिये मैं उनका पूर्ण प्राभारी हूँ। इसी तरह मैं पं. अनूपचन्द जी न्यायवीर्थ का भी प्राभारी हूँ जिनके सहयोग के प्रभाव में पुस्तक का लेखन नहीं हो सकता था। पुस्तक के कुछ पृष्ठों को जब मैंने परम पूज्य याचार्य विद्यासागर जी महाराजा को जबलपुर में दिखलाया तो उन्होंने अपनी हादिक प्रसन्नता प्रकट करते हुए भविष्य में इस ओर बढ़ने का आशिर्वाद दिया । इसलिये मैं उनका पूर्ण प्राभारी हूँ। मैं परम पूज्य एलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज का भी आभारी हैं जिन्होंने अपना शुभाशीर्वाद देने की महती कृपा की है। अन्त में मैं श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी के सभी माननीय सदस्यों एवं पदाधिकारियों का आभारी हूँ जिन्होंने प्रकादमी की स्थापना में अपना ग्रार्थिक सहयोग देकर समस्त हिन्दी जन साहित्य को प्रकाशित करने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है । जयपुर ८--८१ डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल (xiv) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका का सं. पृष्ठ संख्या १. श्री महावीर ग्रन्थ अकादमो.-- एक परिचय । २ कार्याध्यक्ष की कलम से ३. सम्पादकीय ४. लेखक की कलम से। - ५. पूर्व पीठिका ६. संवत् १६३१ से १७०० तक होने वाले कवियों का परिचय ५-४१ (बनारसीदास ५-६, ब्रह्मा गुलाल -११, मनराम ११-१३, पाण्डे रूपचन्द १३, हर्षकीर्ति १३-१४, कल्याण कीवि १४-१६, छार कवि १७, देवेन्द्र १७. जैनेन्द १७-१८, वर्धमान कवि १८, प्राचार्य जयकीर्ति १५-१६, पं. भगवतीदास १६-२०, ब्रह्म कपूरचन्द २०-२२, मुनि राजनन्द्र २२, पाण्डे जिनदास २२-२३, पाण्डे राजमल्ल २३, छीतर टोलिमा २३, भट्टारक बीरचन्द्र २४, खेतसी २४, ब्रह्म अजित २४-२५, प्राचार्य नरेन्द्र कीति २५, अह्म रायमल्ल २५, जगजीवन २५-२७. दुअरपाल २७-२८, सालिवाह्न २८, सुन्दरदास २८-३०, परिहानन्द ३०-३१, परिमल्ल ३१ ३२, वादिचन्द्र ३२-३४, कनककीति ३४-३५, विष्णु कनि ३५, हीर कलश ३५-३६. समयसुन्दर ३६, जिनगज सूरि ३६, दामो ३७, कुशललाम ३७, मानसिंह मान ३७-३८, उदयराज ३८-३६, श्रीसार ३६, गरिंगमहागद ३६, सहजकीति ३६-४५, हीरानन्द मुकीम ४०-४१, ७. भट्टारक रत्नकीर्ति ८, भट्टारक कुमुदचन्द्र ५५-७४ ६. शिप्य प्रशिष्य ७४-१२० भट्टारक अभय चन्द्र ७४-८०, भट्टारक शुभचन्द्र ८०-८४ भट्टारक रत्न चन्द्र ८४-८८, श्रीगाल ८८-१५, ब्रह्म जयसागर ६५-६६ कविवर गणेश ६६-१०२, सुमतिसागर. १०२-१०५, दामोदर १०५-१०६, कल्यारणसागर १०६, पाणंदसागर १०६, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 विद्यासागर १०६ - १०७ ब्रह्म धर्मरुचि १०७-१०६, आचार्य चन्द्रकोति ११०-११४, संयम सागर ११४ - ११४ धर्मचन्द्र ११५, राघव ११५ - ११६, मेघसागर ११६-११७, धर्मसागर ११७–११६, गोपालदास ११६ पाण्डे हमराज ११६ - १२०, १२१-१४८ १०. बट्टारक रत्नकवि की कृतियों के मूल पाठ नेमिनाथ फांग १२१-१२६. बारहमासा १२६ - १३३, पत्र एवं गीत १३४-१४८, ११ भट्टारका कुमुदचन्द्र की कृतियों के मूल पाठ भरत-बाहुबली छन्द १४९ - १६१. ऋषभ विवाहलो १६२ - १७३, नेमिनाथ का द्वादशामा १७४ १७५ नेमीश्वर हमची १७५ - १८१ गीत एवं पद १०६-१६१, हिन्दोलना गीत १२१-१३३, षण्यति गीत १६३-१६४, बणजारा गीत १९५-१६६, बोल गीत १६७ - १६६. प्रारती गीत १६६ - २००, चिन्तामरिण पार्श्वनाथ मी २००-२०२००३ गीत २०३ २०४, गुरुगीत २०४ - २०५ दशलक्षण धर्म व्रत गीत २०६ व्यसन सातनू गीत २०६ २०७ प्रसाई गीत २००-२००, भरतेश्वर गीत २०२०६ पार्श्वनाथ गोत २०६ - २१०, - षोडी गीत २१०-२११, चौबीस तीर्थंकर देह प्रमाण चपई २११-२१४ श्री गौतमस्वामी चोपई २१४ - २१५, संकटहर पार्श्वनाथ विनती २१५-२१७ लोडा पार्श्वनाथनी विनती २१७ - २१६, जिनवर विनती एवं पद २१६-२२३, १४६-२२३ १२. चन्दागीत ( अभयचन्द्र ) २२४ २२५, पद | शुभचन्द्र ) २२५-२२६, शुभचन्द्र हमची (श्रीपाल ) २२६ - २२८, प्रभाति (श्रीपाल ) २२८ - २२६, प्रभाति (गणेश) २२६ प्रभाति ( सयमसागर गीत २२६ - २३०, लेभिश्वर गीत (धर्मसागर २३१, गीत ( धर्म सागर ) २३२, कुमुदचन्द्रनी हमची (गणेश) २३३ २३४, १३. अवशिष्ट — श्रह्म जयराज २३४ शान्ति दास २३५. १४. अनुक्रमणिकायें-- २३७ से (xvi) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका [सं०] १६२१ मे १७०० तक का काल देश के इतिहास में शांति एवं समृद्धि का काल माना जाता है। इन वर्षों में तीन मुगल सम्राटों का शासन रहा । सं० १६३१ से १६६२ तक प्रकबर बादशाह ने सं० १६६२ से १६६५ तक जहांगीर ने तथा शेष सं० १६६५ मे १७०० तक शाहजहां ने देश पर शासन किया। राजनीतिक संगठन, शान्ति तथा सुव्यवस्था की दृष्टि से अकबर का शासन देश के इतिहास में सर्वथा प्रशंसनीय माना जाता है। इसी तरह जहांगीर एवं साहजहां के शासन काल में भी देश में शान्ति एवं पारस्परिक सद्भाव का वातावरण बना रहा। अकबर का राज दरबार कवियों, विद्वानों, संगीतज्ञों एवं कला प्रेमियों से अलंकृत था । उस युग में कला की सर्वागीण उन्नति होने के साथ साथ हिन्दी कविता भी अपने उत्कृष्ट विकास को प्राप्त हुई। महाकवि सूरदास एवं तुलसीदास दोनों ही प्रकचर के शासन काल में इनके प्रति के बार में भी कितने ही हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे जिनमें नरहरी, तानसेन एवं रहीम के नाम उल्लेखनीय है । हिन्दी के प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास अकबर एवं जहांगीर के शासन काल में हुए । जिन्होंने अपनी अकथानक नामक जीवन कथा में दोनों ही बादशाहों के पारसन की प्रशंसा की है। वे अकबर के शासन से इतने प्रभावित थे कि जब उन्हें बादशाह को मृत्यु के समाचार मिले तो वे स्वयं मूछित हो गये और सम्राट के प्रति अपनी गहरी संवेदना प्रकट की । इन ७० वर्षों में देश में भट्टारक युग भी अपने चरमोत्कर्ष पर या राजस्थान में एक ओर भट्टारक चन्द्रकीर्ति तथा भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के आमेर, अजमेर, नागौर आदि नगरों में केन्द्र में तो वागड़ प्रदेश भट्टारक सकलकीति की परम्परा में होने वाने भट्टारक सुमतिकीर्ति, गुणकीर्ति तथा भट्टारक लक्ष्मीचन्द की परम्परा में होने वाले भट्टारक रत्नकीर्ति कुमुदनन्द्र ग्रपने समय के प्रमुख जंन सन्त माने जाते थे । इन भट्टारकों के कारण सारे देश में एवं विशेषतः उत्तर भारत में जैनधर्म की प्रभावना एवं उसके संरक्षण को विशेष बल मिला। उस समय के वे सबसे बड़े सन्त थे जिनका समाज पर तो पूर्ण प्रभाव था ही किन्तु तत्कालीन शासन पर भी उनका अच्छा प्रभाव था। शासन की ओर से उनके बिहार के अवसर पर उचित प्रबन्ध ही नहीं किया जाता था किन्तु उनका सम्मान भी किया जाता था। शासन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका में उनके इस प्रभाव ने भट्टारक संस्था के प्रति जन साधारण में श्रद्धा एवं प्रादर के भाव जागृत करने में गहरा याग दिया। इन भट्टारकों के प्रत्येक नगर या गाव में केन्द्र होते थे जिनमें या तो उनके प्रतिनिधि रहते थे या जब कभी वे विहार करते तो वहां कुछ दिन ठहर कर समाज को धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में दिशा निर्देशन देते थे । वे धार्मिक विधि विधान कराते एवं पंच कल्याणक प्रतिष्ठा के प्रतिष्ठाच : बन कर उसकी पूरी विधि सम्पन्न कराते । धार्मिक क्षेत्र में उनका प्रखण्ड प्र था। समाज के सभी वर्गों में उनके प्रति सहज भक्ति थी। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश के अधिकांश क्षेत्र में भट्टारक संस्था का पूर्ण प्र या । वास्तव में समाज पर उनका पूर्ण वर्चस्व था। जब वे किसी ग्राम या नग प्रवेश करते वो सारा समाज उनके स्वागत में पलक पावड़े बिछा देता था गद्गद् होकर उनकी भक्ति एवं अर्चना में लग जाता था । र १७वीं शताब्दी प्रर्थात् सं० १६३१ से १७०० तक का ७० वर्षों का काल हमारे देश में भक्ति काल के रूप में माना जाता है। उस समय देश के सभी भागों में भक्ति रस को धारा बहने लगी थी। इस काल में होने वाले महाकवि सूरदास एवं तुलसीदास ने भी सारे देश को भक्ति रूपी गंगा में डुबोया रखा और अपना सारा साहित्य भक्ति साहित्य के रूप में प्रसारित किया। एक शोर सूरदास ने अपनी कृतियों में भगवान कृष्ण के गुणों का व्याख्यान किया तो दूसरी ओर तुलसीदास ने राम काव्य लिखकर देश में भगवान राम के प्रति भक्ति भावना को उभारने में योग दिया। ये दोनों ही महाकवि समन्वयवादी कवि थे। इसलिये तत्कालीन समाज ने इनको खूब प्रश्रय दिया और राम एवं कृष्ण की भक्ति में अपने आपको डुबोया रखा । जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। उसे त्याग धर्म माना जाता है । इसलिये जनधर्म में जितनो त्याग की प्रधानता है उतनी ग्रहण की नहीं है । उसमें प्रात्मा को परमात्मा बनाने का लक्ष्य ही प्रत्येक मानव का प्रमुख कर्तव्य माना जाता है । तीर्थ कर मानव रूप में जन्म लेकर परम पद प्राप्त करते हैं उनके साथ हजारों लाखों सन्त उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर निर्वाण प्राप्त करके जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं । इसलिये जनधर्म में भक्ति को उतना अधिक उच्च स्थान प्राप्त नहीं हो सका । यद्यपि ग्रहंदू भक्ति से अपार पुण्य की प्राप्ति होती है और फिर स्वर्ग की उत्तम गति मिलती है। संसारिक वैभव प्राप्त होता है लेकिन निर्वाण प्राप्ति के लिये तो भक्ति के स्थान निवृत्ति मार्ग को ही अपनाना पड़ेगा और तभी जाकर संसारिक बन्धनों से मुक्ति मिलेगी। 17वीं शताब्दि में जब सारा उत्तर भारत राम व कृष्ण की भक्ति में समर्पित Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्न कीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व था, तब से समय में जैन समाज भी कसे अछूता रहता। उस समय सम ज में । दो घाराचे वहने नगी! एक अध्य त्म की और दूसरी भक्ति की। एक धारा के यमुना थे महाकवि बनारसीदास जिन्होंने समयसार नाटक के माध्यम से अध्यात्म की लहर को जीवन दान दिया। स्थान-स्थान पर अध्यात्म संलिमा स्थापित होने लगी जिनमें बैठ कर पात्म-चर्चा करने में समाज का जुना वर्ग अत्यधिक रस लेने लगा । सांगानेर, आगरा, मुलतान जैसे नगर इन अध्यात्म नैलियों के प्रमुख केन्द्र थे। इन गलियों में भेद-विजाग, आत्म रहस्व, निमिन उपादान प्रादि विषयों पर चर्चा होती थी। वास्तव में ये सैलियां सामाजिक संगठन की भी एक प्रकार से केन्द्र विन्दु बन गई थी । दूसरी पोर मेवाड़, बागड़ एवं राजस्थान के अन्य नगरों में अहंदु भक्ति की गंगा भी बहने लगी । तत्कालीन जन कति नेमिनाय' को लेकर उसी तरह के भक्ति एवं शृगार परक पदों की रचना करने लगे जिस तरह सूरदास एवं मीरा के पद र वे गये । इस तरह के साहिल के निर्माण करने में भट्टारक रत्नकीर्ति एवं भट्टारक कुमुद चन्द्र का विशेष योगदान रहा । इन्होने अर्हद् भक्ति की गंगा बहायी तथा आगे होने वाले वादियों के लिये दिशा निर्देश का कार्य किया। हिन्दी जैन साहित्य के लिये संवत् १६३१ से १५०० तक का समय प्रत्यघिक प्रगतिमोल रहा । इस ५० वर्षों में राजस्थानी पर निन्दी भाषा में जितने जेन कवि हुए है उतने इसके पहिले कभी नहीं हुए। ढूढाड, बागड़, घागरा, आदि क्षेत्र इनके प्रगुल केन्द्र थे । ऐसे राजस्थानी एवं हिन्दी जन कवियों की गंध्यां साठ से भी अधिक है जिनके नाम निम्न प्रकार हैं:--- १. महाकवि बनारसीदास २. ब्रह्म गुलाल ३. मनाम ४, पाण्डे रूपचन्द १. हर्गवीति ६. पत्यारणीति ७ ठायर बावि ८. देवेन्द्र ६. जनन्द १०. वर्धमान कवि ११. प्राचार्य जयफीति १२. पं. भगवतीदास १३. १० कपूरचन्द १८. मुनि रात्रचन्द १५ पाण्डे जिनदारा १६. पाण्डे राजमन्न १७: श्रीतर टोलिया १६. भट्टारक वीरनन्द्र १६, खेतखी २०. ब्रा प्रजित २१. ग्रा० नरेन्द्र कीति २२. ब्र० रायमल्ल २३. जगजीवन २४. कुभरपाल २५. सालिवाहन २६. सुन्दरदास २७, परिहानन्द २८. परिमल्ल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. वादिवन्द्र ३१. विष्णुकवि ३३. समयसुन्दर ३५. दामो २७, मानसिंह भान ३३ श्रीसार २१ कोि ४३. हे विजय ४५. जयराज ४७ भट्टारक कुमुदचन्द ४६. भ० अभगचन्द ५१. भ० रत्न बन्द ५३. ० जय भागर ५५. सुगलिसागर ५.७ कल्याण सागर ५६ विद्यासागर ६१. आचार्य चन्द्रकीति ६३. धर्मचन्द्र ६५, मेघसागर ६७. गोपालदास ३०. कनककति ३२. हीरकल ३४. जिनराज सूरी ३६. कुशललाभ ३८. उदयराज ४०. गरि महानन्द रानीग ४४. पदमराज ४९. भट्टारक रनकीर्ति ४८. शांतिदास ५०. शुभचन्द्र ५.२. श्रीपाल ५४. गणेश ५६. मोर ५८. आंद सागर ६०. ब्रह्म धर्मरुत्रि ६२. संगमगागर ६४. राधव ६६. धर्मसागर ६८. पाण्डे हेमराज पूर्व पीठिक 1 इस प्रकार ७० वर्ष में ६० ही जैन कवियों का होना किसी भी जाति समाज एवं देश के लिये गौरव की वस्तु है । वास्तव में जैन कवियों ने देश में हिन्दी कृतियों का धुआंधार प्रचार किया और हिन्दी भाषा में अधिक से अधिक लिखने का प्रयास किया। इन कवियों में महाकवि बनारसीदास, रूपचन्द्र पाण्डे जिनदास, पाण्डे राजमहल, भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र तथा श्वेताम्बर कवि समयसुन्दर एवं हीरकलश तथा कुशललाभ के प्रतिरिक्त शेष कवि समाज के लिये एवं हिन्दी जगत के लिये अज्ञात से हैं। एक बात और महत्वपूर्ण है कि भट्टारक रनकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र जैसे सन्त गुजरात वासी होने पर भी उन्होंने हिन्दी को अपनी रचनाओं माध्यम बनाया। यही नहीं इस भट्टारक परम्परा के अधिकांश विद्वान् शिष्य प्रशिष्यों ने भी इसी भाषा को अपनाया और उसमें पद, गीत जैसे सरल एवं लघु रचनानों को प्राथमिकता दी । भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र को परम्परा में होने वाले कवियों के अतिरिक्त शेष कवियों का संक्षिप्त गरिनय निम्न प्रकार है : Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १-महाकवि बनारसीदास बनारसीदास का जन्म संवत् १६४३ माघ शुक्ला ग्यारस रविवार को हुमा था। इनके पिता का नाम खरंग सेन था । प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे कभी कपड़े का, कमी जवाहरात का और कभी दूसरी चीजों का व्यापार करने लगे। लेकिन व्यापार में इन्हें कभी सफलता नहीं मिली। इसीलिये डाः मोतीच द ने इन्हें असफल व्यापारी के नाम से सम्बोधित किया है । दरिद्रता ने इनका कभी पीछा नहीं छोडा और अन्त तक वे उससे जूझते रहे। साहित्य की पोर इनका प्रारम्भ से ही झुकाव था। सर्व प्रथम वे शृगार रस की कविता करने लगे और इसी नकर में वे इश्कबाजी में भी फंस गये । अचानक ही इनके जीवन में मोड़ पाया और उन्होंने शृगार रस पर लिखी हुई "नवरस पद्यावली" की पूरी पाण्डुलिपि गोमती में बहा दी। इसके पश्चात् वे अध्यात्मी बन गये और जीवन भर अध्यात्मी ही बने रहे। ये अपने समय में ही प्रसिद्ध कवि हो गये थे और समाज में इनकी रचनात्रों की मांग बढ़ने लगी थी। रचनाए बनारसीदास की निम्न रचनाएं मानी जाती हैं: १-नाममाला ३-बनारसी विलास ५-मांझा ७-नवरस पद्यावली २-नाटक समयसार ४-पई कथानक ६-मोह विधेक युद्ध इनमें नवरस पद्यावली के अतिरिक्त सभी रचना प्राप्त होती हैं। १. नाममाला बनारसीदास ने धनंजय कवि की संस्कृत नाममाला और अनेकार्थकोष के प्राधार पर इस ग्रंथ की रचना की थी। यह पद्य बद्ध शब्द कोश १७५ दोहों में लिखा गया है। इसका रचनाकाल संवत् १६७. नाश्विन शुक्ला दशमी है। नाम माला कृषि की मोलिन रचना मानी जानी है। २. नाटक समयसार कवि की समस्त कृत्तियों में नाटक समयसार अत्यधिक महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है । पाण्डे राजमल ने समयमार कलशों पर बालाबोधिनी नामक हिन्दी टीका Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि बनारसीदास लिखी थी। उसी टीका ग्रंथ के अाधार पर बनारसीदास ने नाटक समयसार की रचना की थी जिसका रचनाकाल संवत् १९९३ माश्विन शुक्ला प्रयोदशी है । इस ग्रंथ में ३१० दोहा सोरठा, २४५ इकतीसाक वित्त ८६ चौपाई ३७ तईसा सवैया २० छप्पय १८ घनाक्षरी ७ अडिल और ४ कुडलियां इस प्रकार सब मिलाकर ७२७ पद्य है । नाटक समयसार में अज्ञानी की विभिन्न अवस्थाएं, ज्ञानी की अवस्थाएं. ज्ञानी का हृदय, संसार और शरीर का स्वप्न दर्शन, प्रात्म जागति, आत्मा की अनेकता मनकी विभिन्न दौड एव सप्त व्यसनों का सच्चा स्वरूप प्रतिपादित करने के साथ जीव, अजीव. प्रास्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों का काव्य रूप में चित्रण किया गया है। ३. बनारसी विलास इस ग्रंथ में महाकवि बनारसीदास की विभिन्न रचनाओं का संग्रह हैं। यह संग्रह प्रागरा निवासी जगजीवन द्वारा बनारसीदास के कुछ समय पश्चात् विक्रम संवत १७०१ चैत्र शुक्ल द्वितीया को किया गया था । बनारसीदास की अन्तिम कृति "कर्म प्रकृति विधान" र. का. सं. १७०० चैत्र शुक्ला द्वितीया भी इस विलास में मिलती है । विलास में संग्रहीत रचनाओं के नाम निम्न प्रकार है: १. जिनसहस्रनाम, २. सुक्ति मुक्तावलि, ३. ज्ञान बाचनी, ४. वेद निर्णय पंचासिका, ५. शलाका पुरुषों की नामावली, ६. मार्गणा विचार, ७. कर्म प्रकृति विधान, ८, कल्याण मन्दिर स्तोत्र, ९. साधु वन्दना, प, मोक्ष पंडी, ११. करम छत्तीसी, १२. ध्यान बत्तीसी, १३. अध्यात्म बत्तीसी, १४. ज्ञान पच्चीसी, १५. शिव पच्चीसी, १६. भवसिन्धु चतुर्दशी, १७. अध्यात्म फाग, १८. सोलह तिथि, १९. तेरह काठिया, २०. अध्यात्म गीत, २१. पंचपद विधान, २२. सुमति देवी का प्रष्टोतर शत नाम, २३, शारदाष्टक, २४. नवदुर्गा विधान, २५, नाम निर्णय विधान, २६. नवरत्न कवित्त, २७. अष्ट प्रकारी जिनपूजा, २. दश दान विधान, २६. दश बोल ३०. पहेली, ३१. प्रश्नोत्तर दोहा, ३२, प्रश्नोत्तर माला, ३३. भवस्थाष्टक, ३४ षटदर्शनाष्टक, ३५. चातुर्वर्ण, ३६, अजितनाथ के छंद, ३७. शांतिनाथ जिनस्तुति, ३८. नवसेना विधान, ३९, नाटक समयसार के कवित्त, ४०. फुटकर कवित्त, ४१. गोरखनाथ के वधन, ४२. वंद्य मादि के भेद, ४३. परमार्थ निका, ४४. उपादान निमित्त की चिट्ठी, ४५. निमित्त उपादान के दोहे, ४६. अध्यात्म पद, ४७, परमार्थ हिष्टोलना. ४८. अष्टपदी मल्हार, ४९, पार नवीन पद ।। उक्त समरंत रचनाओं में हमें महाकवि बनारसीदास की बहुमुखी प्रतिमा काध्य कुशलता एवं अगाध विद्रता के दर्शन होते हैं । विलास की अधिकांग रचनाएं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारफ रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व किसी न किसी रूप में अध्यात्म विषय से भोत प्रोत हैं । कवि मात्मा और परमात्मा के गुणगान में इतने बिभोर हो गये थे कि उनका प्रत्येक शब्द अध्यात्म की छाया लेकर निकलता था। ४. प्रकथानक यह कवि द्वारा लिखा हुया स्वयं का जीवन चरित्र है। कवि ने इसमें अपने ५५ वर्ष की जीवन घटनाओं को सही रूप में उपस्थित किया है । इसमें संवत् १६९८ तक की सभी घटनायें प्रा गई हैं । श्रद्धं वाथानक में तत्कालीन शासन व्यवस्था एवं सामाजिक स्थिति का भी अच्छा परिचय मिलता है । इसमें सन मिला कर ६७३ चौपई तथा दोहे हैं। ५. मोहविवेक युद्ध यह एक स्पक काव्य है जिसका नायक विक्षक एवं प्रति नायक मोह है । दोनों में विवाद होता है और दोनों ओर की सेवायें सजकर युद्ध करती हैं। अन्त में विवेक की जीत होती है। यर्णन करने की शैली एवं नायक प्रतिनायक का सयाद सरल किन्तु गम्भीर अर्थ लिये हुए हैं । ६. माझा मांझा कवि की ऐसी कृति है जिसका संग्रह बनारसी विलास में नहीं मिलता है। यह उपदेशात्मक कृति है जिसमें केवल १३ पद्य है। कवि ने अपने नाम का प्रथम, चतुर्थ एवं तेरहमें पद्य में उल्लेख क्रिमा है। रचना नवीन है इस लिये पाठकों के रसास्वादन के लिये पूरी रचना ही दो जा रही है। माया मोह के तु मतवाला तू विषया विषहारी राग दोष पयो बान ठगो पार कषायन मारी कुरम कुटुम्ब दीका ही फायो मात तात सुत नारी कहत दास बनारसी, अलप सुख कारने सो नर भव बाजी हारी ॥१॥ तू नर भी हार प्रकारज कीतो समझन रहील्यो पासा । मानस जनम प्रमोलिक हीरा, हार गवायो खासा । दर्स दृष्टा ते मिसन दहेला, नर भव गत चिपकासा ।।२।। वासा मिले न नरभव गति विष, प्रण र गत विच जासी । बाजीगर दे बाँदरवा गण, में मैं कर विलबासी। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि बनारसीदास नहीं सुजोनि जनम कुन कोइ, जित बल झांती पासी, सोलर लान सभक परास? ॥२॥ कचा कोदि मवासा कब लग, हक दिन परभव' जाना। जो जम अखे पार ले जावे, चले न जोर धिंगाणा । दास बनारसी दुवे भारवे, जम वस अमर रंग न राणा ||४|| राणा रंक अमर चिर नाही, सब कोई चलन हारा । भरी साह परमोले खाली जो जग चलसी सारा । जो धरि आगो इक दिन भजसो, प्रायो अपनी बारा । तनु सोत्त नहीं पर भवरा, पाय बैठो पसारा ॥५॥ पाय पसारी बैठ न जूठी, तू भी चलण भाइ। मात पिता गत बन्धु तेरी सात न कोई सहाइ । सुख विष खांवण देस बसेगी, दुख विच कोन धुरा । भली बुरी संगति के लकती, जीतो मोती पाइ ।।६।। झोली पाय चल्यो कछु करनी, छिनह तुफा जेहा । कंचन छॉड के कप विडाजो, तु बियारी कहा । खोटा खरा परस ने जानो लखे न लाहा देता । अगे खाली बलीयो ईवे, पिछे आहो जेहा ।।७।। सुनहो बानी सुतगुरुबानी, ते बसत अमोलह पाई । बीरज 'फोर' भयो वहभागी, कर परमाद न राइ । जव लग पंथ न साधे, सिबदा, तेडी पुरी गर न काइ । चेतन चेत समाचेतन का, सद्गुरु यो समुझाइ ।। सद्गुरु समुशावे तेरे हित कारन, मूरख समझ कि माहीं । जिन राहे लोक लुटीदा, पचे तिना ही राही । राग दोष पयो बाम ठगी, रा सीधा उषाही ।। बहु चिरकाल लुटायो सया, कुण मूरस्थ समझ कि माही II कदी म समझो सो कित झारन, मोह घमारा साया : झठी शडी में में करदा, अन्ध ले जनम गंवायो । कामिन कनक दुहु सिर तेरे कोई माय भले रा पाया । चुरा चुण कनक ते गलीचा विच, कमला नाव घराया ॥१०॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कमला होय केहा सान होया, सुरति नरहा काइ। चौदह लास्त्र चुरासी जोन बिच, दर दर करे सगाइ। हिक जोके हिक नवे सहेरे, मूरख दी मुरखाइ । पाप पुण्य कर पौष कबीला, अन्न न कोई सहाद ।।१३।। यन्त न कोई सहाइ लरे, तू क्या पच पच मरवा । नरक निमोद दुःख सिर पर, अहमके मूल : मरवा । जनम जनम विच होय बिकाना, हथ विषया देवरदा। कोई अमर भरवेली भोंदू मेरी भेरी करदा ।।१२।। गज़ सुबुमाल सुणी जिरवारसी, सकल विषय तिन त्यागी । नमसकार कर नेमिनाथ को, भए मसान विरागी । तन बुसरा प्रामन बच कामा, सिधा पर तब कागी । कहत दास बनारसी अन्त गढ़, वेवली सुनत बुध के रागी ॥१३।। २. ब्रह्म गुलाल ब्रह्म गुलाल १७वीं शताब्दि के हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान थे। उनके गुरु का नाम भट्टारक जगभूषण था जो उस समय के विद्वान एवं लोकप्रियता प्राप्त भट्टारक थे। ब्रह्म गुलाल को उन्हीं की प्रेरणा से काव्य निर्माण में चि जाग्रत हुई और उन्होंने "कृपण जगावनहार" जैसी रचना लिखी।' ब्रह्म गुलाल का जन्म रपरी और चन्दवार गांव के समीप टापू नामक गांव में हुया था । डा. प्रेमसागर जैन ने इस गांव को वर्तमान में प्रागरा जिले में होना लिखा है। इस गांव के तीन मोर नदी बहती है। उस समय वहां का राजा फौरतसिंह था। उसी के राज्य में ब्रह्मा गुलाल के घनिष्ट मिष मथुरामल रहते थे जो प्रपने कुल के सिरमोर एवं दान देने में सुदर्शन के समान थे। ब्रह्म गुलास भेष बदल कर लोगों को प्रसन्न किया करते थे | एक बार जब उन्होंने सिंह का भेष धारण किया तो वे शेर की क्रिया करने लगे और एक राजकुमार को मार दिया । लेकिन जब राजकुमार के पिता को मुनि वन कर सम्बोधने १. जगभूषरण भट्टारक पद, करी ध्यान-अन्तरगति प्राइ। ताको सेवा ब्राह्म गुलाल, कोजो कथा कृपन उर साल २. हिन्वी जैन भक्ति काव्य और कवि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ब्रह्म गुलाल गये तो फिर सदा के लिये हो गुनि बन गये। इनकी यब तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी है। १. पन क्रिया (सं. १६६५) २. कृपण जगावन हार ३. धर्म स्वरूप राजदारण २ ५. जलगालन क्रिया ६. विवेक चौपई ७. कक्का बत्तीसी ( १६९५ ) 5. गुलाल पच्चीसी ९. चौरासी जाति की जयमाल १७ वर्धमान समसरन वर्णन ११. फुटकर कवित्ता उक्त सभी रचनायें राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती है । डा. प्रेमसागर जैन ने इनकी केवल ६ रचनाओं के ही नाम गिनाये हैं । १. वर्धमान समोसरण वर्णन यह इनकी प्रथम रचना मालूम देती है जिसको उन्होंने संवत् १६२६ में हस्तिनापुर में समाप्त की थी जैसा कि निम्न पाठ में उल्लेख मिलता है १. २. वै ४. सोलह अठबीस में गाध द सुदी पेस गुलाल ब्रह्म मनि जीत इसी जयौ नंद को सीख | कुस देश हमनापुरी राजा विक्रम साह गुलाल ब्रह्मजिनधर्म जय उपमा दीजे काह 2. त्रेपन क्रिया - इसका दूसरा नाम ओपन क्रिया कोश भी मिलता है। इस काव्य में जनों की ओपन क्रियाओं का वर्णन मिलता है । इसकी रचना स्थान ग्वालि पर एवं रचना संवत् १६६५ कार्तिक बुदी ३ है । रचना सामान्यतः अच्छी है । इसमें कवि ने अपने गुरू मट्टारक जगभूषण का भी उल्लेख किया है ।४ ग्रन्थ सूची भाग २ पृष्ठ संख्या ७ वही पृष्ठ संख्या ९८ शास्त्र भण्डार दिगम्बर जैन मन्दिर वर (राजस्थान) ए त्रेपन विधि करहु क्रिया मवि पाप समूह चूरे हो सोर सठि संच्छर कातिग तीज ग्रंथियारो हो । भट्टारक जग भूषण चेला ब्रह्म गुशल विचारी हो ब्रह्म गुसाल विचारि बनाई गढ़ गोपाचल यानं छत्रपती च चक्र बिराजे साहि रुलेम मुगलाने || प्रशस्ति संग्रह पृष्ठ २२० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रगीति एवं कुमचन्द्र : व्यक्तित्व कृतित्व ३. कृपण जगायन हार-इस लघु काव्य में क्षयंकरी एवं लोभमत दो कृपपों की कथा है जिन्हें जिनेन्द्र भक्ति के कारण अपने पूर्व भव में किये हुए दुष्कर्मों से छु-कार प्राप्त हो गया था। इसकी एक प्रति अलीगंज के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । ऋवि ने कहा है कि प्रतिमा पूजन पुण्य का निमित्त कारण बनता है उससे प्रारमा ज्ञानरूप में परिणभित होती है यही नहीं उसके दर्शनमात्र से ही क्रोध मान माया लोभ कपाय नष्ट हो जाती हैं। १ ४. चौरासी जाति जयमाला—समें चौरासी जातियों का वर्णन दिया हमा है । इसकी गाण्डुलिपि भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अजमेर के गुटका संख्या १०१ में संग्रहीत है । जयमाला का प्रारम्भिक भाग निम्न प्रकार है जैन धर्म अपन क्रिया दय! धर्म संयुक्त इश्वाक के फूल बंस में तीग ज्ञान उत्तपन्न । भया महोब नप को जनागड़ गिरनार जात चौरासी जैनमत जुरे छोहनी चार ।। ५. कक्का बत्तीसो- काकारादि बत्तीस पद्यों में गन्दाबध्द प्रस्तुत रचना संवत् १६१.५ में समाप्त हुई थी। यह पत्र भण्डार टि जस मन्दिर पाटोदियान जयपुर के एक गुटके में ३०-३४ पृष्ठ पर संग्रहीत है ।२ इस प्रकार कवि की अधिवाश रचनाय चारित्र धर्म पर जोर देने वाली है। कवि का विस्तृत अध्ययन आगामी किसी भाग में किया जावेगा । ३. मनराम मनराम प्रधना गन्ना माह १७वीं शताब्दी के प्रमुख हिन्दी कवि थे 1 वे कविवर बनारसीदास जी के समकालीन थे । मनराम विलास के एक पद्य में उन्होंने बनारसीदास का स्मरण भी किया है । उनकी रचनामों के आधार से यह कहा जा सकता है कि मनराम एक उच्च अध्यात्म-प्रेमी कवि थे। उन्होंने या तो प्रध्यात्म रसको मगा बहाई या फिर जन साधारण के लिये उपदेशाश्मक, अथवा नीति १. प्रतिमा कारण पुण्य निमित, बिनु कारए कारण नहि मिस । प्रतिमा रूप परिणव प्रायु, दोषादिक नहीं ब्यापै पापु । कोष लोम माया बिनु मान, प्रतिमा कारण परिवं जान । पूजा करत होई यह माज, दर्शन पाए गये कपाउ ।। २. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची भाग-४-पाठ ६७९ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V मनराम वाक्य लिखे हैं । कवि की अब तक अक्षरमाला, बडा कक्की, धर्म-सहेली, बत्तीसी, मताराम-विलास एवं अनेक फुटकर पद प्रादि रचनाएं उपलब्ध हो चुकी है। कवि हिन्दी के प्रौढ विद्वान थे इसीलिये इन की रचनाए' शुद्ध खड़ी बोली में मिलती हैं। जान पड़ता है कि कपि संस्कृत के भी अच्ने विद्वान थे, क्योंकि इन रचनात्रों में संस्कृत शब्दों का भी दिलता है और यह को पई कार्य के साथ। "मनराम विलास" कवि के स्फुट सवैयों एवं छन्दों का संग्रहमात्र है जिनकी संख्या ९६ है । इनके संग्रह नर्त्ता विहारीदास थे । वे लिखते है कि विलास के छन्दों को उन्होंने छांट करके तथा शुख करके संग्रह किये हैं । जैसा कि विलास के निम्न छन्द से जाना जा सकता है-- यह ममराम किये अपनी मति अनुसारि । बुधजन सुनि की ज्यौं छिमा लीज्यो प्रबं सुधारि ।।१३।। जुगति गुराणी ढूढ कर, किये कवित्त बनाय । कधुन मेली गांडिको, जान हूँ मन वच काय ॥१४॥ जो इक चित्त पर्व परुप, सभा मध्य परवीन । बुद्धि बढ़ संशय मिट, सब होवे प्राचीन ।।९।। मेरे चित्त में ऊपजी, गुन मन राम प्रकास । सोधि बीनए एकठे, किये विहारीदास ।।१६।। अक्षरमाला इसमें ४० पद्य है जो सभी उपदेशात्मक हैं। भाव, भाषा एवं शैली की एष्टि से रपना उत्तम कोटि की है । इराकी एक प्रति जयपुर में ठोलियो के मन्दिर के शास्त्र भण्डार के गुटका संख्या १३१ में संग्रहीत है । स्वयं कवि ने प्रारम्भ में अपनी लधुता प्रकट करते हुए अक्षरमाला प्रारम्भ की है मन बच कर या जोडिको वेदों सारद माय रे । गुण अधिर माला कहु सुरणौ चतुर सुख पाइ रे ।। भाई नर भव पायो मिनसको रे अन्न में कवि बिना भगवद् भक्ति के हीरा के समान मनुष्य जन्म को यो ही गवा देने पर दृःख प्रकट करता है तथा यह भी कहता है कि इस कृति में उसने जो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कुछ लिखा है वह स्वयं के लिये हैं किन्तु दूसरे भी चाहें तो उससे कुछ शिक्षा ले सकते हैं हा हा हासी जिन करें रे, करि करि हासी प्रानो रे । हीरो जनम नियरियो, बिना भजन भगवानौ रे ॥३७।। पढे गुण पर सरदहै रे, मन बच काय जो पी हारे । नीति गहे प्रति सुख लहै दुःख न व्यापे ताही रे ||३८।। __ भाई नर भव पायौ मिनस्त्र को ।। निज कारण उपदेश मेरे, कीयो बधि अनुसार रे कवियण कारण जिनधरो लीज्यो सब सुधारी रे । कवि का विस्तृत परिचय अकादमी के आगामी किसी भाग में दिया जावेगा। ४. पाणे रूपचन्द पाण्डे कापचन्द १७वीं शतालिद के प्रसिद्ध अाध्यामिक विद्वान थे। कविपर बनारसीदास ने अद्ध कथानक में रूपचन्द नाम के चार व्यक्तियों का बल्लेख किया है। एक रूपचन्द्र के साथ वे अध्यात्म विषय पर चचा किया करते थे । दूसरे रूपचन्द से इन्होंने गोम्मटसार जीयकांड पढ़ा था । तीसरे रूपचन्द ने संस्कृाल में समवसरण पाठ की रचना की थी तथा चौथे रुपन्द ने नाटक समयसार की भाषा टीका लिखी थी। इन चारों में से दूसरे रूपचन्द ही पाण्डे रूपसन्द हैं। कविवर बनारसीदास ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया है तथा पाण्डे शब्द से अभिहित किया है | पांडे एक उपाधि है जो पंडित शब्द का ही बिगड़ा हा शब्द है । भट्टारकों के शिष्य पशिष्य पांडे उपाधि से समाप्त होते थे । रूपचन्द की अधिकांश रचना' प्रध्यात्मपरक है। उनकी कृतियों में परमार्थी दोहा शतक, गोत परमार्थी, मंगलगीत, नेमिनाथसस, खटोलना गीत के नाम उल्लेखनीय है। कवि का विस्तृत परिचय अकादमी के अगले किसी भाग में दिया जावेगा। हर्षकीति हर्षको ति १७वीं शताब्दि के चतुर्थ पाद के कवि थे। ये राजस्थानी संत थे। संथा भट्टारकों से प्रभावित थे। इन्होंने अपनी अधिकांश रचनायें राजस्थानी भाषा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकीर्ति में निबर की है। चतुर्गतिवेलि इनकी अत्यधिक लोकग्निय रचना है । इस कृति का दूसरा नाम पंचमगीत वेलि भी मिलता है एक अन्य गुटके में इसका नाम छहलेस्था वेलि भी दिया हुआ है। इसकी रचना संवत १६५३ की है । नेमिराजुलगीत, नेमीश्वर गीत, मोरडा, कर्म हिन्डोलना, बीस तीर्थ कर जखडी, नेमिनाथ का बारहमासा, पाश्र्वनाथ छन्द प्रादि के नाम उल्लेखनीय है। कवि के शास्त्र भंडारों में सग्रहीत गुटकों में कितने ही पद भी मिलते हैं जिनका संग्रह कर प्रकाशन होना आवश्यक है। कवि की एक और रचना पनक्रिया रास मिली है जो इन्दरगढ़ (कोटा) के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है। रास का रचना काल संवत् १६८४ दिया हुआ है। हर्षका विदेर म कहो . मिलता । लेकिन इनका चांदनपुर महावीर जी के संबंध में एक पद मिलता है इसलिये सम्भावना है कि इनका सम्बन्ध आमेर गादी के भट्टारकों से था। "चहुँ गति वेलि" में इन्होंने अपने पापको मुनि लिखा है। इनकी रचनामें भक्ति परक एवं आध्यात्मिक दोनों ही तरह की है। ६. कल्याणकीति कल्याणकीर्ति १७वीं शताब्दी के प्रमुख जैन सत देव कीति मगि के शिष्य थे । कल्याण कीति भीलोडा ग्राम के निवासी थे । वहा एक विशाल जैन मन्दिर था। जिसके बावन शियर थे और इन पर स्वर्ण धलश सुशोभित थे । मन्दिर के प्रांगण में एक विशाल मानस्तम्भ था। इसी मन्दिर में बैठकर कवि ने "चारुदत्त प्रबन्ध" की रचना की थी को संवत् १६६२ पासोज शुक्ला पंचमी को समाप्त हुई थी । कवि ने रचना का नाम "चारुदत्तरास" भी दिया है । इसकी एक प्रति जयपुर के दि. जैन मन्दिर पाटौदी के पाास्त्र भंडार में संग्रहीत है । प्रति संवत् १७३३ की लिखी चारुदत्त राजानि पुन्यि भट्टारक सुखक र सुरखकर सोभागि प्रति विचक्षण बादिधारण केशरी भट्टारक श्री पद्मनंदिः चरण रज सेवि हारि ॥१०॥ ए' सह रे गछनायक परमि करि, देवकीरति मुनि निज गुरु मन्य धरी । धरि चित चरणे नमि "कल्याण कीरति' इमि भणि । चारुदत कुमर प्रबन्ध रचना रचिमि. प्रादर घणि ॥११॥ राय देश मध्यि रे भिलोडउ वंसि, निज रच नांसि रे हरिपुरिन हसी। १. महारो रे मन मोरडात तो गिरनार्या उठि प्राय रे। नेमिजी रस्यो यु कहिण्यो राजमती दुक्ख ये सौसे ॥ म्हारो Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्मकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व हस प्रमर कुमारनि, तिहां धनपत्ति बिलिखए । प्राशाद प्रतिमा जिन नुति करि सुकृत संचए ॥१२॥ सुकृति सचिरे व्रत बहु याचरि, दान महाशय रे जिन पूजा करि । करि र गान मात्र नंद्र किन पाए। बावन सिखर सोहामणां ध्वज कनक कलश विसालाए ॥१३॥ मंडप मध्यि रे समवसरण सोहिं, श्री जिनबिब रे मनोहर मन मोहि । मोहि जन मन प्रति उन्नत मानस्थम्भ विसालए । तिहां विजयभद्र विख्यात सुन्दर जिन सासन रक्ष पालए ।।१।। तिहां चोमासि के रचना करि सोल वारागिरे ;१६६२: मासो अनुरि । अनुसरि मास शुक्ल पंचमी श्री गुरुचरण हृदयधरि । कल्याणकीरति कहि सन्जन भणो सुमो आदर करि ॥१५॥ प्रादर ब्रह्म संधजीतणि विनयसहित मुम्मकार । ते देखि चासदसनो प्रबंध रच्यो मनोहा ।।१।। -.. -----". कधि की एक और रचना "लघु याहुबनि अलि" तथा कुछ स्फट पर भी मिले हैं । इसमें कवि ने अपने गरु के रूप में शान्तदास के नाम का उल्लेख किला है। यह रचना भी अच्छी है तथा इसमें पोट बन्द का उपयोग हुआ है । रचना का अन्तिम छन्द निम्न प्रकार है भरोश्वर प्रावीया नाम्युनिज वर शशि जी । स्तवन करी इम जंपए, हू किकर तु ईस जी । ईश तुमनि छोंडी राज मननि पापीउ । इम कहीइ मंदिर, गया सुन्दर शान भुवने व्यापोउ । श्री कल्याणकीरति सोममूरति चरण मेवक इम भणि । शांतिदास स्वामी बाहुबलि मरा राखु मझ तह्म तणि ॥१॥ कवि की दूसरी बड़ी रचना धेणिक प्रबन्ध है जिसका रचना काल संवत १७०५ है। जैसा कि रचना का नाम दिया हुआ है यह एक प्रबन्ध काम है जिसमें महाराजा श्रेणिक का जीवन चरित्र निबद्ध है । इसकी पाण्डलिपि शास्त्र मंडार दि. जैन मन्दिर फतेहपुर (शेखावटी) में संग्रहीत है । इसका रचना स्थान बांगड देश का Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याएकीर्ति कोट नगर था जहां भगवान प्राबिनाथ का दि. जैन मन्दिर था जिसमें बैठकर ही कवि ने इसका निर्माण किया था । प्रबन्ध का प्रारम्भिक अंघा निम्न प्रकार है। श्री मूल संथ उपयांचलि, मामेंद्र बिर । श्री सकल को रति गुरू अनुक्रमि, नमश्री रापकीरति शुभकाय ॥४॥ तस पद कमल दीवाकर नमू, श्री पदमनंदी सुखकार | वादि वारण केशरि अकलंक एह अवतार ।।५।। नीज गुरू देवकीरति मुनि प्रणभूचित धर नह । मंडलीक महा श्रेणीकनो प्रबन्ध रचु गुण येह ।।६।। + + + + नमी देवकीरति गुरु पाय ।। जिन देव रे भावि जिन पद्नाभ जाणज्यो । कल्याण कीरति मुरीवर रच्यो रे ।। ए श्रेणिक गुण मणिहार ॥ बागड विम्ल देश शोमतो रे । तिहां कोट नयर सुखकार ||६|| धनपति विमल बसे धरणा रे । धनवंत चतुर दयाल ।। तिहों आदि जिन भवन साहामणू रे तशिका तोरण विशाल । उत्सव होयि गावि माननी रे वाजे ढोल मृदंग कंशाल' ।। जिन. भावि ।। आदर ब्रहसिंघ जी तणोरे । तहां प्रबंध रच्यो गुणमाल संबत सतर पंचोतरि रे । पासा सुदि नीज रवि || ए सांभनि गायि लिखि' भावसुरे। ते तहि मंगलाचार ।। जिन देवेरे भावि जिन पद्मनाभ जाणज्यो ।।१३।। इनके अतिरिक्त बाहुबन्ति गीत, नेमिराजुलसंवाद, प्रादीपवर बघावा. तीर्थकर विनती एवं पार्श्वनाथ रासो है । पाश्र्वनाथ रास का रचनाकाल सवत १६१७ है तथा इसकी पाण्डुलिपि जयपुर के पाण्डे लूणकरण जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हैं। कवि का विस्तृत मूल्यांकन किसी दूसरे भाग में किया जावेगा। १. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की प्रन्थ सूची भाग-2-पृष्ठ-७४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रकीति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतिल ७. ठाकुर कवि 1 साह ठाकुर राजस्थानी कवि थे । श्रव तक इनकी तीन रचनाएं उपलब्ध हुई हैं जिनके नाम हैं "शांतिनाथ चरित महापुराण कलिका, सज्जन प्रकाश दोहा | इनमें शांतिनाथ चरित अपभ्रंश काव्य है जो पांच सधियों में पूर्ण होता है। प्रस्तुत काव्य में सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ का जीवन चरित वर्णित है । इसका रचना काल संवत् १६५२ भाद्रपद शुक्ला पंचमी है । आमेर इसका रचना स्थान है । उस समय आमेर पर राजा मानसिंह एवं देहली पर बादशाह अकवर का शासन था। कवि के पितामह साहू सील्हा और पिता का नाम खेता था । जाति खण्डेल बाल एवं गोत्र लुहाडिया था। वे "लुवाउरिगपुर" लवाण के निवासी थे । वह नगर जन धन से सम्पन्न था। वहां चन्द्रप्रभस्वामी का मन्दिर था । कवि की धर्मपत्नी गुरुभक्त और गुणग्राहिणी थी। इनके घर्मदास एवं गोविन्ददास दो पुत्र थे इनमें धर्मदास विद्याविनोदी एवं सब विद्याओं का ज्ञाता था । १७ ग्रंथकर्ता ने प्रशास्ति में अपनी जो गुरु परम्परा दी है उसके अनुसार वे भट्टारक पद्मनन्दि की ग्राम्नाय में होने वाले भट्टारक विशालकीति के शिष्य थे । कवि की दूसरी रचना महापुराण कलिका है जिसमें २७ संधियां है तथा जिसमें ६३ शलाका पुरुष चरित्र वर्णित है | इसका रचना काल संवत् १६५० दिया हुआ है । "सज्जन प्रकाश दोहा " सुभाषित रचना है । ५. देवेन्द्र काव्य लिखे गये हैं । को अपने कामों का यशोधर के जीवन पर सभी भाषाओं में कितने हो राजस्थानी एवं हिन्दी में भी विभिन्न कवियों ने इस कथा आधार बनाया है | इन्हीं काव्यों में देवेन्द्र कृत यशोधर चरित भी है जिसकी प लिपि हूंगरपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हैं । व्य वृहद है । इसका रचना काल सं. १६८३ है । देवेन्द्र विक्रम के पुत्र थे जो स्वयं भी संस्कृत एवं हिन्दी के अच्छे कवि थे । कवि ने महुधा नगर में यशोधर की रचना समाप्त की थी। ९. अनन्द संवत् १६ या श्रीसि असो सुदी बीज शुक्रवार तो । रास रच्यो नवरस भर्यो महुप्रा नगर मझार ता ॥ सुदर्शन के जीवन पर महाकवि नयनन्दि ने अपभ्रंश में संवत् ११०० में Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्राचार्य जयकीति महाकाव्य लिया था। उसी को देख कर जनन्द ने संवत् १६६३ में ग्रागरा नगर में प्रस्तुस काव्य को पूर्ण किया था। जनन्द ने भट्टारक वशकीति क्षेमकौति तथा त्रिभुवनकीर्ति का उल्लेख किया है। इसी तरह बादशाह अकबर एवं जहांगीर के शासन का भी वर्णन किया है काब्य यद्यपि अधिक बड़ा नहीं है किन्तु भाषा एवं वर्णन की दृष्टि से काव्य अच्छा है। ___ काव्य की छन्द संख्या २०६ है। काश्य के प्रमुख छन्द दोहा, चौपई एवं सोरठा है । कवि ने निम्न छन्द लिखकर अपनी लधुता प्रकट की है। छंद भद पद हो, तो कछू जान नाहि । ताको कियो न खेद, कथा भई निज भक्ति बस ।। १०. वर्षमान कवि ___ कवि की रचना वर्धमान रास है जो भगवान महावीर पर प्राचीनतम रास कृति है जिसका रचना काल संवत् १६६५ है । काथ्य की दृष्टि से यह अच्छी रचना है। वर्धमान कवि ब्रह्मचारी थे प्रौर भट्टारक वादिभूषण के शिष्य थे । रास की एकमात्र पाण्डुलिपि उदयपुर के अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर में संग्रहीत है। ११. माचार्य जयकीति भाचार्य जयकौति हिन्दी के प्रच्छे कवि थे । दाहोंने भट्टारक सकलकीति की परम्परा में होने वाले . भ. रामकीति के शिष्य अझ हरखा के प्राग्रह से "सीता शील पताका गुण बेलि" की रचना संवत् १६७४ ज्येष्ठ मुदी १३ बुधवार को दिन समाप्त की थी। स्वयं कथि द्वारा लिखी हुई मूल पाण्डुलिपि दि० जैन अग्रवाल मन्दिर उदयपुर में संग्रहीत है।' इसका रचना स्थान गुजरात प्रदेश का फोट नगर था । जहां के आदिनाथ चैत्यालय में इन्होंने सीताशील पताका गुण बेलि की रचना समाप्त की थी। कवि की अन्य रचनामों में अकलकति रास, पारदत्तमिश्रानन्द रासो, रविव्रत कथा, वसुदेव प्रबन्ध, शील सुन्दरी प्रबन्ध, चंचलरास के नाम उल्लेखनीय है जयकीर्ति के कुछ पद भी मिलते हैं। जयकीर्ति पहिले प्राचार्य थे लेकिन बाद में काष्ठासंघ की सोमकीर्ति की परम्परा में रत्नभूषण के बाद में मट्टारक बन गये थे। बंकचूल रास को रचना --- ---..- --. १. संबत १६७४ आषाढ सुबी ७ गुरौ श्री कोटनगरे स्वज्ञानाधरणी कर्मक्षयाय आ. श्री जयकीतिमा लिखितेयं । ग्रंथ सूची पंचम भाग-पृष्ठ संख्या ६४५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदच न्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व उन्होंने भट्टारक रहते हुए ही की थी। इसका रचनाकाल संवत् १६८५ है। इस सम्बन्ध में ग्रंथ की प्रशस्ति पठनीय है कथा सुणी बंकबूलनी श्रेणिक घरी उल्लास । वीरनि वांदी भावसु पुहुत राजग्रह वास ॥१॥ संबर जो' मा गुर्जर देर मझार । कल्पवल्लीपुर सोभती इन्द्रपुरी अवतार ।।२।। नरसिंधपुरा वाणिक अमि दया धर्म सुखकंद । चैत्यालि श्री वृषभवि प्रावि भवीयण वृन्द ।।३।। काष्ठासंघ विद्यागणे श्री सोमकीति मही सोम । विजयसेन विजयाकर यशकीति यस्तोम ।।४॥ उदयमेन महीमोदय त्रिभुवनीति विख्यात । रलभूषण गछपती हवा भुवन रयण जह जात ||५|| तस पट्टि सूरीवर भलु जयकोति जयकार । ज भवियन' भवि सांभली ते पामी भदपार ।।६।। रूपकुमर रलीया मण बंकचूल बीजु नाम । तेह राम रन्यु रूबडु जयकीर्ति सुखधाम ||७|| नीम भात्र निर्मल हुई गुरूबचने निधार । सांभलतां संपद् मलि ये मणि नरतिनार ||८|| यादुसायर नव महीचंद सूर जिनभास । जय कीर्ति कहिता रहुँ बंकचूलनु रास ।।६।। इति बंचल रास समाप्तः । १२. पं. भगवतीदास पं. भगवतीदास १७वीं शताब्दी के हिन्दी के कवि थे । उनका जन्म अम्बाला जिले के बुढिया नामक ग्राम में हुअा था लेकिन बाद में प्रागरा एवं देहली इनकी साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुग्न केन्द्र बन गये थे। देहली में मोती बाजार के माश्वनाथ मन्दिर के पास ही इनका निवास था। ग्रागरा में रहते हुए इन्होंने 'अर्गल Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म कपूरचन्न पर जिन वंदना" निबध्द की थी। इसमें प्रागरा के सभी जैन मन्दिरों का परिचर दिया हुआ है। रचना इतिहास कोट सेभ दरमखनीय मगवतीदास अग्रवाल जाति के बंसल' गोत्रीय श्रावक थे। उनके पिता का नाम किशनदास श्री जिन्होंने वृद्धावस्था में मुनिव्रतधारण कर लिया था। भगवती दास भट्टारकीय पंडित थे तथा भ. महेन्द्रसेन के शिष्य थे। महेन्द्र सेन दिल्ली गाई के काष्ठासंघ माथुर गाछीय भट्टारक गुणचन्द्र के प्रशिक्षण एवं सकलचन्द्र के शिष्य थे। कवि ने अपनी अधिकांश रमनानों में महेन्द्रसेन का स्मरण किया है। कवि की अब तक २५ से भी अधिक कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं। अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भंडार में एक गुटका है जिसमें कवि की अधिकांश रखनामों का संग्रह मिलता है। इनमें सीतासतु, अर्गलपुर जिन बन्दना, मुगति रमणी चूनड़ी, लघुसीतासतु, मनकरहारास, जोगीरास, टंडाणारास, मगाकलेखाचरित, प्रादित्यवतरास, पखवालारास, दशलक्षणरास, खिचड़ीरास आदि के नाम उल्लेखनीय है। कबि का विस्तृत परिचय एवं मूल्यांकन अकादमी के किसी अगले भाग में किया जावेगा। १३. बम कपूरचम ब्रह्म कपूरचन्द मुनि गणचन्द्र के शिष्य थे। ये १७वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान थे। अब तक इनके पार्श्वनाथ रास एवं कुछ हिन्दी पद उपलब्ध हुमे हैं । इन्होंने रास के प्राप्त में जो परिचय दिया है, उसमें अपनी गुरु-परम्परा के अतिरिक्त प्रानन्दपुर नगर का उल्लेख किया है, जिसके राजा जसवन्तसिंह थे तथा जो राठौड़ जाति के शिरोमणि थे। नगर में 36 जातियां सुखपूर्वक निवास करती थी। उसी नगर में ऊचे ऊचे जैन मन्दिर थे। उनमें एक पाश्र्वनाथ का मन्दिर था । सम्भवतः उसी मन्दिर में बैठकर कवि ने अपने इस रास की रचना की थी। पाश्वनाथ रास की हस्तलिखित प्रति मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) के पौधरियों के दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध हुई है। यह रचना एक गुटके में लिखी हुई है, जो उसके पत्र १४ से ३२ तक पूर्ण होती है। रचना राजस्थानी भाषा में निबद्ध है, जिसमें १६६ पद्य हैं। "रास" की प्रतिलिपि बाई रत्नाई की शिष्य श्राविका पारवती गंगवाल ने संवत् १७२२ मिती जेठ बुदी ५ को समाप्त की थी। श्रीमुल जी संघ बहु सरस्वती गछि । भयो जी मुनिवर बहु चारित स्वछ ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २१ तहां श्री नेमचन्द गरपति भयो । लास के पाट जिन सोभे जी भाग ।। श्री जसकीरति मनिपति भयो। जाणो जी तक अति शास्त्र पुराण ॥श्री।।१५९।। तास' को शिष्य मुनि अधिक (प्रवीन) । पंच महाव्रतस्यो नित लीन ।। तरह घिधि चारित घरं । व्यंजन कमल विकासन चन्द ।। ज्ञान गो हम जिसौ अवि........ले । मुनिवर प्रगट लुमि श्री गुणचन्द ।।श्री।। १६० ॥ तासु तगा मिघि पडित कपूर जी चन्द । कीयो राम निति धरिवि आनन्द ।। जिनगुण कहु मुझ अल्प जी मति । जसि विधि देन्या जी शास्त्र-पुराण ।। बुधजन देवि को मति हंस । तंसी जी विधि में कीयो जी बखाण ||श्री।।१६१।। सोलास सत्ताधरपवे मासि बंसारिख । पंचमी तिथि सुभ उजला पाखि ।। नाम नक्षत्र प्राद्रा भलो । बार बृहस्पति अधिक प्रधान ।। रास फीयो वामा सुत तगो । स्वामीजी पारसनाथ के थान ||धी॥१६२।। अहो देस को राजाजी जाति राठोड । सकान जी छत्री थाके सिरिमोड ।। नाम जसवन्तसिंघ तसु तो । तास प्रानन्दपुर नगर प्रधान ॥ पोरिए छत्तीस लीला करे । सोमं जी तहां जीण उत्तग। मंडप वेदी जी अधिक प्रमंग ग जिण तणा विध सोभे भला । जो नर वंदे मन वचकाई ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L 2 २२ दुख कलेस न संचरे । तीस धरा नव निधि थिति पाई || श्री ॥ १६४ ॥ रास संवत् १६९७, वैशाख सुदी १ के दिन समाप्त हुआ था । राम में पार्श्वनाथ के जीवन का पद्य कथा के रूप में वर्णन है । कमठ ने पार्श्वनाथ पर क्यों उपसर्गे किया था, इसका कारण बताने के लिये कवि ने कमठ के पूर्व-भव का भी वर्णन कर दिया है। कथा में कोई चमत्कार नहीं है। कवि को उसे अति संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना था सम्भवतः इसीलिए उसने किसी घटना का विशेष वर्णन नहीं किया | १. पाण्डे जिनवास נ १४. मुनि राजचन्द्र राजचन्द्र मुनि थे लेकिन ये किसी भट्टारक के शिष्य थे अथवा स्वतन्त्र रूप से विहार करते थे इसको अभी कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। ये १७वीं शताब्दी के विद्वान थे। इनकी अभी तक एक रचना "चम्पावती सील कल्याणक" हो उपलब्ध हुई है जो संवत् १६८४ में समाप्त हुई थी। इस कृति की एक प्रति दि. जंन खण्डेलवाल मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। रचना में १३० पद्य है ।' १५. पाण्डे जिनवास पाण्डे जिनदास व. शान्तिदास के शिष्य थे। डा. प्रेमसागर ने शाद्रिदास को जिनवास का पिता भी लिखा है जिसका आधार बड़ौत के सरस्वती मण्डार की जम्बूस्वामी चरित की पांडुलिपि है जिसमें शिष्य के स्थान पर सुत पाठ मिलता है । जिनदास आगरा के रहने वाले थे। बादशाह अकबर के प्रसिद्ध मन्त्री टोबरशाह इनके श्राश्रयदाता थे तथा टोडरशाह के पुत्र थे दीपाशाह जिनके पढ़ने के लिये उन्होंने प्रस्तुत काव्य का निर्माण किया था । टोडरशाह के परिवार में रिखबदारू, मोहनदास, रूपचन्द, लक्ष्मणदास, आदि और भी व्यक्ति में जो सभी धार्मिक प्रवृत्ति वाले थे तथा कवि पर उनकी विशेष कृपा थी । सुविचार घरी तप करि, ते संसार समुद्र उस्तरि । महनारी सांमलि जे रास, ते सुख पांमि स्वर्ग निवास ।। १२९ ।। संत सोल चुरासीय एह, करो प्रबन्ध भाव यदि तेह | तेरस विन प्राविस्य सुद्ध वेलावही, मुनि राजचन्द्रकहि हरक्षण लहि ॥ १३० ।। इति पावती सील कल्याणक समाप्त ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रन कीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २३ पांडे जिनदास के अम्बू स्वामी चरित' काव्य के अतिरिक्त और भी कृतियाँ उपलब्ध होती हैं जिनमें नाम है चेतनगीत, जखडी, मालीरास, जोगीरास मुनीश्वरों की जयमाल, धर्मरासगीत, राजुलसज्ज्ञाय, सरस्वती जयमाल, मादित्यवार कथा, दोहा बावनी, प्रबोध' बावनी, बारह भावना आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कवि का विस्तृत परिचय अकादमी के किसी अगले भाग में दिया जायेगा। १६. पाण्डे राजमल्ल पांडे राजमल उपलब्ध राजस्थानी गद्य के सबसे प्राचीन दिगम्बर जैन लेखक हैं ये विराट नगर रा3) के रहने गाले थे । इसी शिक्षा दी! कहां हुई इसकी तो अभी पोज होना शेष है लेकिन ये प्राकृत एवं संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इन्होंने याचायें कुन्दकुन्द के समयसार वो बोलावबोध टीका लिखी थी। इसी टीका के आधार पर महाकवि बनारपीदास ने समयसार नाटक की रचना की थी। इसी बालावबोध टीका का उललेख महाकवि बनारसीदास ने अपने अर्धकथानक में किया है। श्री नाथूराम प्रेमी ने इनकी जम्यूस्वामी चरित, लाटी सहिता, अध्यात्मकमलमातन्ड, छन्दोविघा एवं पंचाध्यायी रचनायें होना लिखा है। ३ (अर्धकथानक पृष्ठ संख्या ५) १७. छीतर ठोलिया छीतर ठोलिया मौजमाबाद के निवासी थे। इनकी जाति खंडेलवाल एवं गोत्र ठोलिया था । इनकी एकमात्र रचना होली की कथा संवत् १६५० की कृति है जिसको उन्होंने अपने ही ग्राम मौजमाबाद में निबद्ध की थी। उस समय नगर पर पामेर के राजा मानसिंह का शासन था। होली की कथा सामान्य रचना है । १. पाण्डे राजमल्ल जिनधरणी, समयसार नाटक के मरमी । तिम गिरंथ की टीका कीनी शलाबोष सुगम कर दीमी ।। वि. सं. १६८४ में प्रध्यात्म घर्चा के प्रेमी प्ररथमल ढोर मिले और उन्होंने समयसार नाटक को राजमहल कृत टोका का ओर कहा कि तुम इसे पढ़ी इसमें सत्य क्या है सो तुम्हारी समझ में श्रा जावेगा। अर्थ कथानक--पृष्ठ संख्या ४७ ४. शाकम्भरी के विकास में जैन धर्म का योगवान–डा. कासलीवाल, पृष्ठ ४७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ खेतसी १५. भट्टारक धोरचन्न धीरचंद्र १७वीं पाताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के काण्ड नेता थे। संस्कृत. प्राकृत, गुजराती एवं राजस्थानी पर इनका पूर्ण अधिकार था। ये भ० लक्ष्मीचंद्र के शिष्य थे । अब तक इन की पाठ रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं (१) वीर चिन्लास' फाग, (२) संबोध सत्तायु (३) जम्बू स्वामी बेलि, (४) नेमिनाथ रास, १५) जिन प्रांतरा (६) चित्तनिरोध कथा, (४) सीमंधर स्वामी गीत एवं (८) बाहुबलि बेलि । वीर विलास फाग एक खन्ड काव्य है जिसमें २२वें तीर्थ कर नेनिनाध की जीवन घटना का वर्णन किया गया है। फाग में १३३ पद्य हैं । जम्बूस्वामी बेलि एक गुजराती मिथित राजस्थानी रचना है। जिन आंतरा में २४ तीर्थंकरों के समय यादि वर्णन किया किया है। संबोध सत्ताणु एक उपदेशात्मक गीत है जिसमें ५३ पद्य हैं। चित्तनिरोधक कथा १५ पद्यों की एक लघु कति है इसमें भ. वीरचंद्र को "लाड नीनि शृगार" लिखा है। नेमिकुमार रास की रचना सं० १६६३ में समाप्त हुई थी यह भी नेमिनाथ की वाहिक घटना पर आधारित एक लगु कुति है। कवि का विस्तृत परिचय अकादमी के किसी अगले भाग में दिया जावेगा। १९. खेतसी स्खेतसी का दूसरा नाम खेतसिंह भी मिलता है। अभी तक इनकी तीन कुतियां प्राप्त हो चुकी है जिनके नाम हैं नैमिजिनंद व्याहनो, नेमीपवर का बारह मासा, एवं ने मिश्वर राजुलकी लहुरि । राजस्थान के एवं अन्य शास्त्र भंडारों में प्रभी कवि की और रचनायें मिलने की सम्भावना है । नेमिजिनंद व्याहलो को एक प्रति दि० जंन मंदिर फतेहपुर (शेखावाटी) के तथा दूसरी जयपुर के पाटोदी के मंदिर के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है। खेतसी की रचनायें भाषा एवं शैली की दृष्टि से उल्लेखनीय रचनायें हैं। ये सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण के कवि थे । ने मिजिनंद व्याहलो इनकी संवत् १६९१ की रचना है । २०. मजित ब्रह्म अजित संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। ये गोलशृंगार जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम वीरसिंह एवं माता का नाम पीथा था। ब्रह्म अजित Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २५ भट्टारक मुरेन्द्रकीति के प्रशिष्य एवं भट्टारक विद्यानदि के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और इसी अवस्था में रहते हुये इन्होंने भगुकच्छपुर (मड़ोच) के नेमिनाथ चैत्यालम में हनुमचरित की रचना समाप्ति की थी। इस चरित की प्राचीन प्रति अामेर शास्त्र भंडार जयपुर में संग्रहीत है। हनुमच्चरित में १२ सर्ग हैं और यह अपने समय का काफी लोकप्रिय काव्य रहा है। ब्रह्म अजित की एक हिन्दी रचना "हंसा गीत" प्राप्त हुई है यह एक उपदेशात्मक एवं शिक्षाप्रद कृति है जिसमें "हंसः' (आत्मा) को सम्बोधित करते हुये ३७ पञ्च है । गीत को समाप्ति निम्न प्रकार की है रास हरा तिलक एह, जो भाव दिह नित्त रे हसा । श्री विद्यादि उपदेस, बोलि अह्म यांजत रे हसा ॥३७|| हंसा तू करि सयम, जमन परि संसार २ हंसा ।। ब्रह्म अजित १७वीं शताब्दी के विद्वान सन्त थे । २१. प्राचार्य नरेन्द्रकीति ये १७वीं शताब्दी के सन्त थे। भवादिभुपण एवं म. सकलभूषण दोनों ही सन्तों के ये शिष्य थे और दोनों की ही दम पर विशेष कृपा थी। एक बार धादिभूषण" के प्रिय शिध्य ब्रह्म नेमिदास ने जब इनसे "सगरप्रबन्थ लिखने की प्रार्थना की तो इन्होंने उनकी इच्छानुसार "सग र प्रबन्ध" कृति को निबद्ध किया । प्रबन्ध का रचनाकल सं० १६४६ असोज सुदी दशमी है। यह कवि की एक अच्छी रचना है। प्राचार्य नरेन्द्रकीति की ही दूसरी रचना "तीर्थ कर चौवीसना छप्पय" है। इसमें कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई परिचय नहीं दिया है। दोनों ही कृतियां उदयपुर के प्रास्त्र भंडारों में संग्रहीत है । २२. ब्रह्म रायमा १७वौं शताब्दी के प्रथम पाद के महाकवि रायमल्ल के सम्बन्ध में अकादमी की घोर से प्रथम भाग -- महाकवि ब्रह्मरायमल्ल एवं भ० त्रिभुवनकीति प्रकाशित हो चुका है। २३. अगोवन कविवर जगजीवन बनारसीदास के समकालीन ही नहीं किन्तु उनके कट्टर प्रशंसक भी थे । मे प्रागरा के सम्पन्न घराने के थे लेकिन पूर्णत: निरभिमानी भी थे। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगजीवन उनके पिता का नाम अभयराज था। उनके कितनी ही स्त्रियां थीं जिनमें मोहनदे सबसे अधिक प्रसिद्ध थी' और जगयीवन की माता भी वहीं थी । कवि अप्रवाल गर्ग गोत्रीय श्रावक थे । इनकी अच्छी शिक्षा दीक्षा हुई थी इसलिये थोड़े ही दिनों में उनकी चारों पीर स्वाति फैल गई। जगजीवन ज्ञानियों की मंडली के अगुवा बन गये । जगजीवन बनारसीदास के परम भक्त थे तथा उनकी रचनाओं से परिचित थे। बनारसीदास की मृत्यु के पश्चात जगजीवन ने संवत् १७०१ में उनकी सभी रचनात्रों का एक ही रधान पर संकलन करके उसका नाम बनारसी विलास रखा और साहित्यिक क्षत्र में अपना नाम अमर कर लिया । जगजीवनराम स्वयं भी कवि थे। इसलिये उन्होंने एकीभाव स्तोत्र की एवं भूपाल चौबीसी की भाषा टीका की थी। इनके कितने ही पद भी मिलते हैं। डा०प्रेमसागर ने भूपाल चौबीसी का उल्लेख नहीं किया है। जगजीवनराम के समय अागग साहित्यकारों साहित्यसे वियों का प्रमुख केन्द्र था। पं० हीरानन्द ने समयमरण विधान की प्रशस्ति मे जगजीवनराम का अच्छा वर्णन किया है जो निम्न प्रकार है प्रय मनि नगरगज घागरा, सकल लोक अनुपम सागरा । साहजहाँ भूपति है जहां, राज करे नयमारग तहाँ ।।७।। ताको जाफरनां उमराउ, पंचहजारी प्रगट कराउ । ताको अगरवाल दीवान, गरगगोत सब विधि परधान ॥७९।। संघही अभैराज जानिये, सुखी अधिक मात्र करि मानिये । बनितागण नाना परकार, तिनमें लघु मोहनदे सार ||८|| ताको पूत पृत-मिरमौर, जगजीवन जीवन को ठौर । सुन्दर शुभवरूप अभिराम, परम पुनीन धरम-धन-धाम ।।८१॥ १. नगर भागरे में अगरवाल गरगगोत मापर मवलसा । संघ ही प्रसिद्ध अमिराज राज माननीक, पंचवाल मलनी में मयो है वलसा । साके प्रसिद्ध लघु मोहन दे संघइनि, जाके जिनमारग विराजित पवलसा । ताहि को सपूत जगजीवन सुनिट अंग, बनारसी बैन के हिए में सबलसा । सम जोग पाइ जग जीषम विष्यात भयो, ज्ञान की मंडली में जिसको विकास है। २. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व इससे दो बातों पर प्रकाश पड़ता है-- एक तो यह कि संवत् १७०१ में श्रागरे में जाताओं की एक मंडली मा आध्यात्मियों को संली थी, जिसमें संघवी जगजीवनराम, पं" हेमराज, रामचन्द, संघी मथुरादास, भवालदास, और भगवतीदास थे । भगवतीदास की "स्वपरप्रकाश" विशेषण दिया है। ये भगवतीदास बेही जान पड़ते हैं जिनका उल्लेख बनारसीदास ने नाटक समयसार में निरन्तर परमार्थ चर्चा करने वाले पंच पुरुषो में किया है। हीरानन्दजी अपने दूसरे त्यो ग्रन्थ पंचास्तिकाय ( १७०१ ) में भी धनभल और मुरारि के साथ इन्हीं का ज्ञातारूप में उल्लेख किया है | काल-लबधि कारन रस पाई, जग्यो जथारथ अनुभौ आइ । अह्निसि ग्यानमंडली चैन, परत और सब दीस फॅन ||६२|| दूसरी बात यह है कि जफरखां बादशाह शाहजहां का पांचहजारी उमराव था जिसके कि जगजीवन दीवान थे और जगजीवन के पिता श्रभयराज सर्वाधिक सुखी सम्पन्न थे । उनके अनेक पत्नियां घी जिनमें से सबसे छोटी मोहनदे से जगजीवन का जन्म हुआ था 1 १. २४. कुंरपाल ये कविवर बनारसीदास के अभिन्न मित्र थे। जिन पांच साथियों के साथ बैठकर बनारसीदास परमार्थ चर्चा किया करते थे उनमें कुमरपाल का नाम भी सम्मिलित है । पाण्डं हेमराज ने उन्हें ज्ञाता अधिकारी के रूप में स्मरण किया है । महोपाध्याय मेघविजय ने अपने "युक्ति प्रबोध" में उनकी सर्वमान्यता स्वीकार की है। स्वयं कवि कुअंरपाल ने अपनी "समकित बत्तीसी" में अपना यश चारों और नगरों में फैलने के लिये लिखा है । १. ཏི ཙ २७ कुंवरपाल बनारसी मित्र जुगल इक वित्त । तिनहि प्रय भाषा कियो बह विधि छन्द कवित || २ || रूपचंद पंडित प्रथम, सुतिय चतुभुज नाम | तृतीय मगोतीवास नर, कौरपाल गुलधाम ॥ घरमवास ए पंच जम, मिलि बैठे इक ठोर | परमारथ चरचा करे, हम के कथा न श्रोर ॥ पुरि पुरि कंवरपाल जस प्रगट्यो, बहुविध ताप स वर गिज्जई । धरमदास जसकंवर सदा धनी बसाखा बिस्तर किम किंज्जई । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुभरपाल बनारसीदास ने 'सूक्ति मुक्तावली" में कुबरपाल का नाम अपने अभिन्न मित्र के रूप में लिया है और दोनों ने मिलकर सूक्ति मुक्तावली भाग रचना की ऐसा उल्लेख किया है। कवि की अब तक करपाल बत्तीसी एवं सम्यकत्व बत्तीसी रचनामें उपलब्ध हो चुकी है। कुमरपाल का जन्म प्रोसवाल वंण के चौरडिया गोश में हुआ था। कुमरपाल के पिता का नाम अमरसिंह था । नाथूराम प्रेमी - असिंह का जन्म स्थान जैसलमेर माना है। कुअरपाल के हाथ का लिखा हुा एक गुटका विक्रम संवत् १६८४-८५ का है जिसमें विभिन्न पाठों का सग्रह है। कुछ रचनायें स्वयं फाधि द्वारा निर्मित भी है। लेकिन उनका नामोल्लेख नहीं हुआ है। इसी तरह एक गुटका और मिला है जो स्वयं कुरपाल के पढ़ने के लिये लिखा हुया गया था। जिसमें कुपरपान द्वारा लिखी हुई समवित बत्तीसी का विषय अध्यात्मरस से है । इसका अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है हुनौ उछाह सुजस आसम सुनि, उत्तम जिके परम रस भिन्ने । ज्य सुरही तिण चरहि दुध हुई , ग्याता नरह प्रन गुन गिन्ने ।। निजवुधि सार विचार अध्यातम, कवित बत्तीस भेट कवि किन्ने । कंवरपाल अमरेस 'तनू' भव, अतिहितचित सादर कर लिन्न । २५. सालिवाहन सालिवाहन १७वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के कवि थे। इन्होंने संवत् १६६५ में आगरा में रहते हरिवश पुराण भाषा (पद्य) की रचना की थी। इनके पिता का नाम स्व रगसेन एवं गुरु का नाम भट्टारक जगभूपरण था । कवि भदावर प्रान्त के कञ्चनपुर नगर क निवासी थे । हरिवंश पुराण की प्रशस्ति में इन्होंने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है संवत् सोरहिस तहाँ भये तापरि अधिक पचानवे गये । माघ मास किसन पक्ष जानि, सोमवार सुभबार बखानि ।। भट्टारक जगभूषण देव गनघर. सागस बादि जु एइ । नगर नागिरो उत्तम थानु साहिजहाँ तपे दूजो भान ।। बाहन करी चौपई बन्धु हीन बुधि मेरी मति अन्धु । २६. सुन्दरदास गुन्दरदास नाम के जैन काव भी हुये हैं जो बागड प्रान्त के रहने वाले Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : अक्तित्व एवं कृतित्व २६ ये । लेकिन यह बागड प्रदेश इंगरपुर वाला बागड़ प्रदेश नहीं है किन्तु देहली के प्रासपास के प्रदेश को बागड प्रदेश कहा जाता था ऐसा डा प्रेमसागर जैन ने माना है। हाल जैन के अनुसार मुन्दरदास शाहजहाँ के कृपापात्र पनियों में से थे । बादशाह ने इनको पहिने' कविराय और फिर महाकवि राय का पद प्रशान किया था। डा. जैन ने लिखा है कि मुन्द दास राजस्थानी कवि थे तथा जयपुर से ५० किलोमीटर पूर्व की ओर स्थित दौसा उनका जन्म स्थान था । इनकी माता का नाम सती एवं पिता का नाम चौरला शा · सरना मत कति इनके अभी तक चार ग्रन्थ एवं कुछ 'फटकर रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। ग्रन्थों के नाम हैं सुन्दरसतसई, सून्दर विलाम, सुन्दर शृगार एवं पाखंड पंचासिका। जयपुर के छोलियों के मन्दिर में पद एव सहेलीपील भी मिलता है। सहेलीनीत का प्रारम्भ निम्न प्रकार हुआ है सहेल्लो हे यो संसार अमार गोचित में या अपनों जी सहेल्लो हे ज्यों राचें तो गवार सन . जोबन पिर नहीं । सुन्दर शृगार-इसकी एक प्रति साहित्य शोध विभाग जयपुर के संग्रह में है जिसमें ३५६ पद्य है। प्रारम्भ में कवि ने अपना एवं वादशाह शाहजहाँ का परिचय निम्न प्रकार दिया है तीन पहरि लो रनि नले, जवि देसनि नांहि । जीत लाई जगती इती, साहिनहा नर माहि ।।८।। कूल दरिया स्वाई कियो, कोटतीर के सांब । पाठो दिसि यो बसि करि, यों कीज इक गांव ।।१।। साहि जहां जिन गुननि कों, दौने अगनित दान । तिन मैं सुन्दर सुकवि को, कीयो बहुत सगपांन ।।१०।। नम भूपन भनि सबद थे, हा हाथी सिर पाद । प्रथम दीयौ कवि राय पद, बहुरि महाकवि राम ।।११।। वित ग्वारियर नगर को, बाम: है कविराज 1 जासी साहि मया करौं, सदा गरीब निवाज ||१२।। जब कवि को मन यौं बछौ, तब यह कीयो बिचारू । बरनि नाइका नायक विरच्यो ग्रंथ विस्तार ॥ १३ ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिधानन्य सुदर कृत सिंगार है, सफल रसनि को सारु ।। नांव धरयो या ग्रंथ को, यह मुदर सिंगार ॥ १४ ॥ यो सुदर सिंगार को, पढ़ें, मुनें सग्यानु ।। तिन मांनी संसार मैं, करमो सुधारस पान ॥१५॥ संत मोरह से इ, दीले ममापीत : कातिक सुदि षष्टि गुरी, रव्यो ग्रंथ करि मीति ॥१६|| सुन्दर श्रृंगार की प्रशस्ति से मालूम होता है कि कवि ग्वालियर के रहने वाले ब्राह्मण कवि थे जैन नहीं थे । २८. परिहामन्च (नन्दलाल) परिहानन्द नागरा के पास गौसुना ग्राम के रहने वाले थे लेकिन बाद में प्रागरा पाकर रहने लगे थे। वे ग्रामवाल' जातीय गोयल गोत्र के नायक थे। उनकी माता का नाम चन्दा तथा पिता का नाम भैरू था । काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका हस्तलिखित ग्रंथों की खोज २०वां वार्षिक विवरण में माता का नाम चन्दन दिया हुआ है । २ कवि के समय में आगरा पूर्ण वैभवशाली नगर था जहा सभी तरह का व्यापार था जिस कारण वहाँ कषि के शब्दों में असंख्य धनवान रहते थे। उस समय आगरा मथुरा मंडल का उत्तम नगर माना जाता था। परिहानन्द ने हिन्दी के अच्छे कवि थे उन्होंने यशोधर चरित्र को संवत् १६७० श्रावण शुकला सप्तमी सोमवार को समाप्त किया था । डा, प्रेमसागर जैन ने कवि का नाम परिहानन्द के स्थान पर नन्दलाल लिखा है | नन्द नाम से संबत १. अग्रवाल वरवंस गोसना गांव को गोयल गोत प्रसिद्ध चिहन ता ढांव को माता चंबर नाम पिता भैरू मन्यौ परिहानन्द कही मन मोव अंग न गुन नां गिन्यौं ।१९।। २. माताहि चन्वन नाम पिता भयरो मन्यो नन्द कही मनमोव गुनी गन ना गन्यो । ३. नगर आगरी भसं सुवासु, जिहपुर नाना मोग विलास । बस हि साहब धनी असखि, वनजहि बनज सापहहिन खि । गुरगी लोग छत्ती सौ कुरी, मथुरा मंडल उत्तम पुरी। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १६६३ वाली कुप्ति "सुदर्शन सेठ कथा' को भी इन्हीं कवि की रचना स्वीकार किया है । सुदर्शन सेठ कथा कि एक प्रति भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अजमेर में सुरक्षित है । कवि की तीसरी कृति 'गूढ विनोद' में भी कवि ने अपना नाम मन्द ही दिया है । इसकी एक पाण्डुलिपि जयपुर के पंडित लगकर एजी के शास्त्र भण्डार में संहति है। यशोधर चरित्र ५९८ पद्यों का प्रबन्ध काव्य है । रचना भाषा एवं शैली को। पुष्टि से यह एक उत्तम कृति हैं । यह काव्य अभी तक अप्रकाशित हैं । २८, परिमल्ल परिमल्ल कवि हिन्दी के १७वीं शताब्दी द्वितीय चरण के कवि थे । ये प्रथम कवि हैं जिन्होंने काव्य प्रारम्भ करने की तिथि दी है नहीं तो सभी कवि रचना समाप्ति की तिथि देते हैं । परिमल्ल का श्रीपान रित एक मात्र काव्य है जिसकी अभी तक उपलब्धि हुई है। कवि ने इसे संवत १६५ ग्राम शुक्ला अष्टमी अष्टाह्रिका पर्व के प्रथम दिन प्रारम्भ किया था। संवत् सोलह से उच्चरयो मांत्रण इक्यावन प्रागगे। मास अषाद पहुतो भाइ वरषा रीित ककहे बढाइ । पक्ष उजाली पाट जाणि, सक्रवार वार परारिए । कवि परिमल्ल सद्ध करि चित, प्रारम्भ्यो श्रीपाल चरित । उस समय देश पर बादशाह अकबर का शासन था । चारों और सुख शान्ति थी कवि ने अकबर को दूसरा भानु लिखा है बब्बर गाति साह हर गयौं, ता सुत साहि हमाऊ भग। जा सुत अकबर माहि समारण, सो तप तो दूसरी भारत ।।३२।। ताके राज न हो अनीति, बराधा बहत करि वसि जीति । कितेक देस तास की प्रांन, दुगों और न ताहि समान ॥३३।। वंश परिचय–रिमलान पनि अत्यधिक राम्मानित वंश से सबंधित थे इनकी जाति विरहिया जैन थी । कवि के प्रपितामह नंदन पौधरी थे जो ग्वालियर के राजा भानसिंह द्वारा सम्मानित थे । उनको कीर्ति चारों और फैनी हुई थी। वे स्वयं प्रतापी थे तथा अपने कुल को प्रगन्न रखने वाले थे । कवि के पितामह रामदास एवं पिता प्रासकरन थे। ये प्रासकरण के पुत्र थे । परिमल प्रागरा में प्राकर रहने लगे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादिचन्द्र थे। और वहीं पर रहते हुए उन्होंने भोपाल चरित को चौपई बन्ध छन्द में पूर्ण किया था। ३२ कवि की एक मात्र कृति श्रीपाल चरित की राजस्थान के ग्रंथ भण्डारों में कितनी ही पांडुलिपियां उपलब्ध होती हैं । पूरा काव्य २३०० चोपई छन्दों में निवद्ध है। यद्यपि श्रीपाल का जीवन कथा वोकप्रिय कथा है लेकिन कवि की वर्णन शैली बहुत ही अच्छी हैं जिसमे काव्य में चमत्कार छा गया है । काव्य की एक प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में संख्या १३६० ५र संग्रहीत है जिसमें १२५ पत्र है तथा जिसे संवत् १७९४ में पाटन में जंक्शन जोशी द्वारा लिपिबद्ध किया गया था। २९. वादिचन्द्र वादिचन्द्र विधानन्दि की परम्परा में होने वाले भ ज्ञानभूषण के प्रशिष्य एवं भ. प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। इन्हें साहित्य निर्माण की रुचि गुरु परम्परा से प्राप्त हुई थीं । संस्कृत एवं हिन्दी गुजराती पर इनका अच्छा अधिकार था इसलिये इन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी दोनों में अपनी कलम चलायी। ये एक समर्थ साहित्यकार थे । संवत् १६४० में इन्होंने संस्कृत में बाल्हीक नगर में पार्श्वपुराण की रचना करके अपने कर्तृत्व शक्ति का परिचय दिया। ज्ञानसूर्योदय नाटक को संवत् १६४८३ एवं यशोधर नरिन को सवत् १६५७ में पूर्ण किया था। पवनदूत" कालीदास के मेघदूत के आधार पर रचा गया काव्य है । १. ३. ४. गोत्रि गीरी ठाढो उत्तिम थान, सूरवीर यह रामाम । ता धारी चंदन चौधरी, कोरति सब जग में बिस्तरी ।। ६६ ।। जाति विरहिया गुलह गंभीर प्रति प्रताप कुल रंजन धीर । ता सुत रामदास परवान, ता सुत श्रस्ति महा सुर ग्यान ॥ ६७ ॥ तसु फुल मंडल हैं परिमल्ल, सबै आगरा में अरिमल्ल । तासु महिन बुद्धि नहि धान, कोयौ चोपई बंध प्रवीन ॥ ६८ ॥ शून्याब्धौ रसाब्जांके वर्षे पक्षे समुज्यसे । कार्तिक मास पंचयां बाल्हीके नगरे सुवा || पार्श्वपुराण प्रशस्ति संग्रह-सम्पादक- डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल पृष्ठ १६ कलेश्वर-सुग्रामे श्री चिन्तामणिमन्विरे । सप्तमंत्र रसाब्ज के वर्ष कारि सुशास्त्रकम् ॥ पं. उदयपाल कासलीवाल द्वारा सम्पादित जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय बम्बई द्वारा सन १९१४ में प्रकाशित Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्न कीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इसके अतिरिक्त सुलोचना चरित्र को एक पाण्डुलिपि ईडर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। वादिचन्द्र की हिन्दी में भी कितनी ही कृतियां मिलती है जो राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। अब तक उपलब्ध कुछ कृतियों के नाम निम्न प्रकार है: १-पार्श्वनाथ वीनती २-श्रीपाल सौभागी अाख्यान ३-बाहुबलिनो छंद ४-नेमिनाथ ममवसरण ५-द्वादश भावना ६-प्राराधना गीत ७-अम्बिका कथा ८-पाण्डवपुराण पार्श्वनाथ विनती की एक प्रति दि. जैन मन्दिर कोटडियों का, डूगरपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हैं। इम'का रचनाकाल संवत् १६४८ दिया हुआ है।' श्रीपाल सोभागी प्रस्थान को उदयपुर एवं कोटा में शास्त्र भण्डारों में प्रतियां सुरक्षित हैं। इसका रचना काल संवत् १६५१ है । पं. नाथूराम प्रेमी ने आख्यान के विषय में लिस्ना है कि यह एक गीति काव्य है और इसकी भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है। इसकी रचना संघपति धनजी सा के प्राग्रह से हुई थी। याख्यान में सभी रसों का प्रयोग सुपा है तथा भाषा एवं शनी में सरलता एवं प्रवाह है । यह एका भक्ति प्रधान काव्य है । काव्य का एक उदाहरण देखिये दान दीजे जिन पूजा कीजे, समकित मर्ने राखिजे जी सुत्रज भरिणए णवकार गरिएए, असत्य न विभाषिजे जी लोभ तजी जे ब्रह्म घरीजे, सांभल्यातु फल एह जी प गीत जे नर नारी सुणसे अनेक मंगल तह गेह जी १. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रंथ सूची पंचम माग-पृ. सं. ११६१ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की प्रथ सूची पंचम माग-पृ. सं. ४६१ संघपति धनजी सवा बचने कीधी ए प्रबन्ध जी । फेवलो श्रीपाल पुत्र सहित तुम्ह नित्य करो जयकार जी। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनककीर्ति बाहुबलि नो छन्द-इसकी एक पाण्डुलिपि दि, जैन मन्दिर कोटडिया टुगरपुर के एक गुटके में संग्रहीत है । डा. प्रेमसागर जैन ने इस का नाम भरत बाहुबल छन्द नाम दिया हुआ है। इस कृति में वादिचन्द्र ने अपने गुरु का नाम निम्न प्रकार किया है ___ एमागे मासान्द्र, गएर बोल्य वादिचन्द्र । ४-नेमिनाथ नो समवसरण, ५-गौतमस्वामी स्तोत्र एवं ३-द्वादपा भावना की पाण्डुलिपियां दिगम्बर जैन खाडल बाल मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत हैं । इस गुटके में वादिचन्द्र के गुरु भ. ज्ञानभूयण एवं भ. वीरचन्द्र प्रादि की कृतियाँ भी संग्रहीत हैं। डा. प्रेमसागर जैन ने अाराधना गीत, अम्बिका कथा एवं पाण्डवपुराण इन कृतियों का और उल्लेख किया है । र ३०. कमककोति कनक्रकीति नामक दो विद्वान हो गये हैं। एक कनकक्रोति खरतर गच्ट्रीय शाखा के प्रसिद्ध जिनयन्द्रसूरी की शिष्य परम्परा में नमकमल के प्रशिष्य एवं जयमन्दिर के शिष्य थे । जैन गुर्जर कविश्नों भाग एक में इनकी दो रचनायें नेमिनाथ रास एवं दोपदीरास का उल्लेख हुआ है । इनका निर्माण क्रमश: बीकानेर एवं जैसलमेर में हुमा था इसलिये संभवतः कवि उसी क्षेत्र के होंगे । दूसरे कनककौति दिगम्बर विद्वान थे और वे भी १७वीं शताब्दी के ही थे। इन्होंने अपने पापको माणिक का शिष्य होना बनाया है। इन कनककीति की दिगम्बर भण्डारों में पर्याप्त संख्या में कृतियां मिलती हैं । तत्वार्थ सूत्र की तसागरी टीका पर हिन्दी गद्य में जो टीका लिखी है यह दिगम्बर समाज में बहुत लोकप्रिय टीका है। इसकी भाषा हारी है इसलिये लगता है कि ये कनककीति दाहड प्रदेश के किसी ग्राम अथवा नगर के रहने वाले थे। उन्होंने अपनी किसी भी रचना में खरतरगच्छ अथवा नयकमल के नाम का उल्लेख नहीं किया है इसलिये डा. प्रेमसागर जैन का दोनों विद्वानों को एक मानना सही प्रतीत नहीं लगता। दिगम्बर कनककीति की अब तक निम्न रचनामों की खोज की जा चुकी हैं। १. हिन्वी जैन भक्ति काव्य और कवि-पृष्ठ संख्या १३८ २. हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि-पृष्ठ संख्या १३९ ३. हिन्वी जैन भक्ति काव्य और कवि-पृष्ठ संख्या १७८ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नक्रीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १-तत्वार्थ सूम भाषा टीका २-बारहखड़ी ३-मेघकुमार गीत ४-श्रीपाल स्तुति ५-झाम घरवाली ६-पार्श्वनाथ की पारती उक्त रनमानों के प्रांतरिक्त कनकनीति के पद, स्तवन, विनती अादि कितनी ही लघ वृतियाँ मिलती हैं। इन सभी कृतियों से कवि के दिगम्बर मतानुयायी होने का ही उल्लेय मिलता है । ३१. विष्ण, कवि विष्णबवि उन्जन के रहने वाले थे। संवत् १६६६ में इन्होंने भविष्यदत्त का को इज्जन में समाप्त किया था। इसी कथा की एक मात्र अपूर्ण पाण्डुलिपि श्री दिगम्बर जैन सरस्वनी भवन पंचायती मन्दिर मस्जिद नजर देहली में संग्रहीत है । पूरा काव्य ४०१ नौचई छान्दा में निबद्ध है। भागा बहुत सरल किन्तु सरस है। कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया ... संयतु सोरहस हड़ गई, अघिका ताफर छारामि भई । गुरी उज्जैनी कविनि को वासु, विष्ण नहीं करि रहयो निवास । मन्न वच कम मुनौ सबु कोई, कन्या सुनै गुत्र फल हो । बहिरे. गुनं ति पाय कान, मूरिन हौहि चतुर सुजान । निर्धन सुन एक चित्त नाड, ता घर रिधि सभ भाद । जो लवधारे चितं मंझारि, रस रावण नहि नावे हारि । अचला हो स्य गुन रासि, जन्म न पर कर्म की पासि । और बहुत सुन बाह लगि गनी, धर्म कथा यहु मनु दे सुना जन्म त होइ ताहि अवसान, निश्चः। पदु पाव निवान ।। श्वेताम्बर जैन कवि ३२. हरि कलश हीर कला खरसर गन्छ के माधु थे । ये जिन चन्द्रमूरि की शिष्य परम्परा में होने वाले हर्पप्रभ के शिष्य थे। उनका साहित्यिक काल संवत् १६१५ से १६५७ तक का माना जाता है। इन्होंने बीकानेर एवं नागौर में सर्वाधिक विहार किया। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दर ये राजस्थानी भाषा के कवि कहलाते हैं। अब तक उनकी दस रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं १. सम्यकत्वकौमुदी (१६२४) २. सिंहासन बत्तीसी (१६३६) ३. कुमति विध्वंसन चौपई (१६१७) ४. अाराधना चौपाई (१६१३} ५. अठारह नाता (१६१६) ६. रतनचूड चीपई ७. मोती सानिमा गंवाद .. रियाली E. मुनिपति चरित्र चौपई (१६१८) १०, सौलह स्वप्न सज्ञाय (१६२२) ३३. समयसुन्दर समयसुन्दर का जन्म सांचौर में हुआ था। इनका जन्म संवत् १६१० के लगभग माना जाता है। डा. माहेश्वरी ने इसे सं० १६२० का माना है। इनकी माता का नाम लीना था । युवावस्था में उन्होंने दीक्षा ग्रहण पारली और फिर काव्य, चरित, पुराण, व्याकरण छन्द, ज्योतिष आदि विषयक साहित्य का पहिले अध्ययन किया और फिर विविध विषयों पर रचनायें लिखी। संवत् १६४१ से आपने लिखना प्रारम्भ किया और संवत् १७०० तक लिखते ही रहे । इस दीर्घकाल में इन्होंने छोटी-बड़ी संकड़ों ही कृतियाँ लिखी थीं। समयसुन्दर राजस्थानी साहित्य के अभूतपूर्व विद्वान् थे, जिनकी की कहावतों में भी प्रशंसा वणित है । "राजा ना ददते सौख्यम्" इन आठ अक्षरा के नाक्य के आपने १० लाख से भी अधिक अर्थ करके सम्राट अकबर और समस्त सभा को प्राभयं चकित कर दिया था। "सीताराम चौपाई" नामक राजस्थानी भाषा में निबद्ध एक सुन्दर काव्य है । समयसुन्दर कुसुमांजलि में आपकी ५६३ रचनायें प्रकाशित हो चुकी है। समवप्रद्युमन चौपाई, मृगावती रास (१६६८), प्रियमेलक रा (१६७२), शत्रुज य रास, स्यूलिभद्र रास आदि रचनाओं के नाम उल्लेखनीय है। ३४. जिनराजमूरि ये युग प्रधान जिनचन्द्र सूरि के प्रशिष्य थे। ये भी राजस्थानी भाषा में लिखने वाले कवि थे। इनकी शालिभद्र चौपई बहुत ही लोकप्रिय कृति है। "जिन राजसूरी कृति संग्रह" में इनकी सभी रचनायें प्रकाश में पा चुकी हैं। नैषधकाच्य पर इन्होंने ३३००० श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका की थी। जिनराजसूरि ने संवत १६८६ में प्रागरा में बादशाह शाहजहाँ से भेंट की थी। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ३५. बामो वे वाचक उदयसागर के शिष्य थे। इनका पूरा नाम दयासागर था। सं० १६७१ में इन्होंने जालौर में "मदन नारिंद चौपई" की रचना समाप्त की थी। यह हिन्दी भाषा का एक सुन्दर प्रेम काव्य है। इस रचना के मध्य में रति सुन्दरी ने जो गुप्त लेख अपने प्रियतमा को भेजा था वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इसका एक पद्य निम्न प्रकार है विरह आगि उपजी अधिक महनिस दहे सरीर । साहित देहुँ पसाऊ करि, दरसन रूपी नीर ।। ३६. कुशललाम कुशल लाभ राजस्थानी भाषा के उल्लेखनीय कवि थे। "ढोलामारू चौपई" प्रापकी बहुत ही प्रसिद्ध कृति मानी जाती है। इन्होंने "डोलामार का दूहा" के बीच-बीच में अपनी चौपाइयां मिलाकर प्रवन्धात्मकता उत्पन्न करने का प्रयास किया था। कुशल लाभ की चौपाइयों में निरह रग में कोई बाधात नहीं पहुंचा है अपितु कथा के एक सूत्र में बंध जाने से प्रबन्ध काव्य का आनंद आया है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी कुशनलाभ की रचना कौशल को प्रशंसा की है। कुशललाभ में कवित्व शक्ति गजब । था। तीनों ही रसों में उन्होंने सकस काक्ष्यों का निर्माण किया और साहित्य जगत में गहरी लोकप्रियता प्राप्त की। माधवानल चौगाई इनकी श्रृंगार रस प्रधान रचना है। श्री पूज्यवाहण गीत, स्थलिभद्र, छत्तीसी, तेजग़ार रास, स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन, गौडी पार्श्वनाथ स्तवन और नवकारहंद इनकी भक्ति परक रचनायें हैं । स्थूलिभद्र छत्तीसी का प्रथम पद्म देखिये-- सारद शरदचन्द्र कर निर्मल, ताके चरण कमल चित लाइक सुणत संतोष होई श्रवण कु, नागर चतुर सुनइ नित भाइकि कुशललाभ मुनि आनंद भरि, सुगुरुप्रसाद परम सुख पाइकि करिह थूलभद्र छत्तीसी, अति सुन्दर पहबंध बनाइकि ३७ मानसिंह मान ये खरतरगच्छ के उपाध्याय मिन विधान के शिष्य और सुकवि । इनके रचनायें संवत् १६७० से १६६३ तक प्राप्त होती है। इन्होंने राजस्थानी एवं हिन्दी दोनों में काव्य रचनायें की थी। योग बावनी, उत्पत्ति-नाम एवं भाषा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मानसिंह मान कविरस मंजरी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । अन्तिम रचना शृगार रस प्रधान है नायक नायिका वर्णन मुम्बन्धी १०६ इसमें पद्य हैं। इसके प्रादि और अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है सकल कला निधि वादि गज', पंचानन परधान । श्री शिव विधान पाठक चरण, प्रणमी बंधे मुनि भान ||१॥ नव अंकुर जोवन भर्द, लाल मोहर होइ । कोपि सरल भाषण ग्रह, चेष्टा मुग्धा होइ ॥२॥ अन्तिम- नारि नारि सब को कहे, किऊ नायकासु होइ । निज गुण मनि मति रीति धरी, मान ग्रंथ अब लोड । ३८, उदयराज उदयराज खरतगछीय माधु । मिश्रन्धु विनोद में इनके आश्रयदाता का नाम महाराजा रायसिंह लिखा : लगि भजन छत्तीसी में आश्रय दासा जोधपुर के महाराजा उदयसिंह सा स्पष्ट हाता है। श्री अगरचन्द नाहटा ने भी इसी मत को माना है । भजन छत्तीसी में कवि ने लिखा है कि उन्होंने इसे संवत् १६६७ में पूर्ण किया था जब वे ३६ वर्ष के भ । झावे. पिता का नाम भद्रसार, माता का नाम हरग, भ्राता का नाम गूरचन्द्र, पतिल का नाम पुरवाण, पुत्र का नाम सूदन और मित्र का नाम रत्नाकर था । १. मिश्रबन्धु विनोच प्रथम भाग पृष्ठ ३६५ २. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्यों की खोज भाग-२ परिशिष्ट । पृष्ठ १४२-४३ ३. सोलहसे सप्तसले कीध जन भजन छत्तीमी * बरस छत्तोस हुष भनि प्राव ईसी ४. समपिता भवसार जनम समये हरषा उर। समपि भ्रात सुरसाद मित्र समये रयगायर ।। समपि फलमि पूरबरिण, समपि पुत्र सुवन विवायर रूप प्रने अक्सार ओ मो समये प्रापज रहल उदराज वह लधो रतौ, भव मन समये मह महरा भजन छत्तीसी पञ्च ३२ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यत्तित्व एवं कृतित्व इनकी कृतियों में गुणत्रावती, भजन छतीसी, चौबीम जिन सनया, मन प्रशंसा दोहा, एवं वैद्रा विरहिणी प्रबन्ध के नाम उल्लेखनीय है। इनको ववितानों में सरसता एव सरनता है तथा पाठक को अाकर्षण करने की शक्ति है । भजन छत्तीसी का एक पद्य देखिये प्रीति आय परजले श्रीत अरा पर जाले प्रीति गोत्र गालने प्रीति सुध वंश बिटाले । प्रीति काज घर नारि लन्द दीर छोड़े। प्रीति लाज परिहर प्रीति पर बंद पाडे । धन घरं देत दुग्न अंग गं, अभाव भर ल अजरो जर उदेराज का सुरिश ग्रातमा इमी नीति करे.! ३९. श्रीसार श्रीसार खतरगच्छीय अमर्कीति भागबा के भनी रत्नहर्ष के शिष्य थे । ये हिन्दी के अच्छे कनि एवं सफल गा लेखक थे । इनवा ग़मय १७वीं पाशाब्दी का अन्तिम चरण है। अब तक अपनी तीग से भी अधिक कृतिगां प्राप्त हो चुकी हैं। कवि की और भी रचनामों की खोज अावश्यक है । ४०. गरिण महानन्द गरिण महानन्द के गुरु का नाम विवाह था जो तपागच्छ शाखा के हीरविजयसूरी की परम्परा से सम्बन्धित थे। इनकी एकमात्र रचना अंजना सुन्दरी रास प्राप्त हुई है जिसे कवि ने संवत् १६६१ में गेयपुर नगर में समाप्त की थी। इसकी एक पाण्डुलिपि जन सिवान्त भजन बारा में सहित है । एक वर्णन बखिये जिसमें अंजना सपियों को साथ खेलने का वर्णन किया गया है फूलिय वनह बापालीय वालीय सरई र टबोल' । कारि बुकुम रग रोलीय घोलिय शाकमहोल ।। खेलइ खलं वडा क्सई, पोकली महीयर सात । अंजना सुन्दरी सुन्दरी मंजरी गुही करी ठान ॥५४।। ४१. सहजकर्कोति राजकीति राजस्थानी भाषा के कवि थे। उनका मांगानेर निवास स्थान था तथा खरतरगच्छ की क्षेम शाखा के साधु थे। भाचावं हेमनन्दन के शिष्य थे। इनकी गुरु परम्परा में जिनसागर, रतासागर, रत्नहर्ता एवं हेमनन्दन के नाम Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजकीगि उल्लेखनीय है | राजस्थान इनका प्रमुख कार्यक्षेत्र माना जाता है। इनके द्वारा निवड रचनाओं में प्रीति सीसी, शत्रुजय, महात्म्बरास, सुदर्शन थेष्ठिरास, जिनराज सूरि गीत, जैसलमेर चत्य प्रवाडी, कलावती रास (१६६७), त्मसन छत्तीसी (१६६८), देवराज बच्छराज चौपई (१६७२), अनेत्र शास्त्र समुच्चय, पाश्र्वनाय महात्म्य का..गा र माता नाम लेखनीय हैं। सहजक्रीति को कितनी ही रचनायें दिगम्बर शास्त्र भंडारों में भी उपलब्ध होती है जिनमें चउबीस जिनमगधर नर्णन, पार्वभजन बीस तीर्थ कर स्तुति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सहज कीति का निश्चित गमय तो मालूम नही हो सका लेकिन इनकी अधिकांश रचनायें १७वीं शताब्दी के तृतीय चरण की प्राप्त होती हैं । कवि की भाषा का एक उदाहरण निम्न प्रकार है-- केवल कमलाकर सुर, कोमल वचन विलास । कषियण कमल दिवाकर, पणमिय 'फनविधि पास । सुर नर किद्धर वर भमर, सुन चरण' कंज जास । सरल वचन कर सरसती, नमीयइ मोहाग वास । जासु पसायद कवि लहइ, कधिजन मई जस वास । हंस गमणि सा भारती, देश प्रभू वचन विलास ।। -सुदर्शन श्रेष्ठिरास ४२. हीरानन्द मुकीम हीरानन्द मुकीम प्रागरा के धनाढ्य श्रावक थे। शाहजादा सलीम से उनका विशेष सम्बन्ध था । ये जौहरी थे । यात्रा संघ निकालने में इन्हें विशेष रुचि थी। कविवर बनारसीदास ने भी अपने अर्द्ध कथानक में इनके सम्मेद शिखर यात्रा संघ का उल्लेख किया है। श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार 'वीर विजय सम्मेद शिखर चत्य परिपाटी" में यात्रा संघों का वर्णन दिया हुआ है। जिसमें साह हीरानन्द के संघ का भी वर्णन अाया है। संघ में हाथी, घोड़े, रथ, पंदल और तुमकदार भी थे। संघ का स्थान स्थान पर स्वागत होता था। हीरानन्द स्वयं कवि भी थे। इनके द्वारा लिखी हुई अध्यात्म बावनी" हिन्दी की एक अच्छी कृति मानी जाती है। बावनी की रचना संवत् १६६८ आषाढ सुदी ५ है बावनी का प्रथम एवं अन्तिम पद्म निम्न प्रकार है ॐकार सरु पुरुष ईह अलग अगोचर अंतरज्ञान बिचारि पार पावई नहि को नर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्नकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ध्यान मूल मनि जाणि प्राणि अंतरि हरावज । प्रातम तत्त अनुप रूप तसु ततषिण पावउ । इम कहद हीरानन्द संधपति अमल अटल इह ध्यान थिरि। सुह सुरति सहित मन मइ घरउ भुगति मुगति दायक पवर ।।१।। प्रतिम पद्य... मंगल करउ जिन पास पास पुरण कलि सुरतर । मंगल कर.उ जिन पास दाम जाके सब सुर नर । मंगल करउ जिन पास जास पय सेबई सुरपति मंगल करउ जिन पास तास पय पूजइ दिनपति मुनिराज कहई मंगल करत, जिन सपरिवार श्री कान्ह सुख बावन बरस बहु फल करहु संघपति हीरानंद तुव ॥५७।। ४३. हम विजय हेमविजय प्राचार्य हीरविजयसूरि के प्रशिष्य एवं विजय सेनसूरि के शिष्य थे। सबत् १६३९ में हीरविजयसुरी अकबर द्वारा ग्रामंत्रित किये गये थे। इसी तरह विजयतेन मूरि भी सम्राट अकबर द्वारा ग्रामवित थे । इस तरह हेमविजय को अच्छी गुरु परम्परा मिली थी। हेमविजयगुरि हिन्दी के भी अच्छे विद्वान थे । इनके द्वारा निर्मित कितने ही पद मिलते हैं इनमें भी नेमिनाय के पद उल्लेखनीय है एक पद देखिये-- कहि राजभती गुमती सखियान कू एक जिनेक खरी रहुरे । सखिरी सगिरि गुरी मही वाहि करति बहत इसे निहरे। अबही तबही कवही जबही यदुराय जाय इसी कहुरे । मुनि हेम के साहिब नेमजी हो, अव तरेग्न ते तुम्ह यू बहुरे । ४४, पवमराज "अभयकुमार प्रवन्ध' पदम राज कृत हिन्दी काव्य है जिसमें अभयकुमार के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। पदमराज खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनहंस के प्रशिष्य एवं पुण्यसागर के शिष्य थे। जैसलमेर नगर में इसकी रचना समाप्त हुई थी। प्रबन्ध का रचना काल संवत १६५० है । प्रबन्ध का अन्तिम पद्म देखिये--- संवत सोलहसइ गंवामि जमलमेरु नगर उलासि । खरतरगच्छ नायक जिन हंस तस्य सीस गुणवंत संस | श्री पुण्यसागर पाठक सीस, पदमराज पभणइ सुजगीस । जुग प्रधान जि चन्द मुणिदं विजयभान निरुपम आनन्द | भाइ गुण्इ से त्ररित महंत, रिद्धि सिद्धि सुख ते पामन्ति । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति [ ४६ [ भट्टारक रस्तकीति धर्म गुरु धे । उपदेश देना, विधि विधान कराना एवं से का संचालन करना जैसे उनके प्रमुख कार्य । लेकिन सबसे अधिक विशेषत उनकी काव्य शक्ति थी । वे गुजरात प्रदेश के रहने वाले थे । गुजराती उनकी मात भाषा थी। लेकिन हिन्दी में उन्होने भक्ति पत्र गीत लिखे और तत्कालीन समाज जिन भक्ति के प्रति आकर्षण पंदा किया । रत्न कीति का जन्म गुजरात प्रान्त में घोध मगर मे हुया था। उनके पिता हब जातीय श्रष्टी देवांदास २ | माता का नाम सहजलदे था । इनके जन्म के समय के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन इतना अवश्य है कि माता ने ऐसे उत्तम पुत्र को पाकर अपने प्राण को धन्य मान था। पुर्व जन्म पर घर में ही नहीं पूरे नगर में उत्सव प्रायोजित किये गये थे प्रो. माता-पिता भविष्य के सुनहाने स्वप्न देखने लगे थे । बालक बड़ा होनहार था इसलिए उसको पढ़ने लिखने में देर नहीं लगी यौर थोड़े ही समय में उसने प्राकृत एवं संस्कृत का अध्ययन कर लिया । गुजराती उनकी मातृभागा थी मोर हिन्दी उस महज रूप में सीख ली श्री। थोड़े ही समय में वह अपनी बुद्धि चातयं ॥ विनय शोलता के कारण सबका प्रिय बन गया। संवत् १६३० में अभयमन्दि मट्टारका गादी पर विराजमान थे । अभय नम प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में होने वाली मलसंघ, सरस्वति समाज एवं बलात्कार गएरा पात्रा में होने वाले भट्टारक लक्ष्मीचन्द के प्रशिणय एनं अभयनन्दि के शिष थे। अभयदि का उस समय कागी प्रभाव था और वे दिगम्बर गच्छ के शिरोम थे । गुरणों के सागर एवं विद्या के केन्द्र थे । घटदारक अभयनन्दि को जब बालर रत्नकोति की बुद्धि के सबन्ध में जानकारी मिली तो उसको अपना शिष्य बना के लिए पातुर हो गये । एक दिन अकस्मात ही जब अभयादि का घोषा नगर विहार हया तो वे बालक को देखते ही बड़े प्रसन्न हुए और उसकी बुद्धि एवं वार चातुर्य में प्रभावित होकर उसे अपना णिध्य बना लिया । १. राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व-पृष्ठ संख्या १२७ से १३४ ।। २. हुमर वंशे विबुध विख्यात रे, मात सेहजलधे वेवोदास तात रे । कुवर कलानिधि कोमल काय रे, यह पूजे जेम पातक पलाय रे ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व .. यद्यपि रत्नकीति ने पहले शास्त्रों का अध्ययन कर रखा था लेकिन भट्टारक अभयनन्दि इससे संतुष्ट नहीं हुए और पुनः उसे अपने पास रखकर सिद्धान्त, काव्य व्याकरण, ज्योतिष एवं प्रावुर्वेद विषयों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया। बालक व्युत्पनमति या इमलिय शीन ही उसने ग्रंथों पर अधिकार पा लिया। अध्ययन समाप्त होने के पश्चात् अभयनन्दि ने उसे अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया। बत्तीस लक्षणों एवं बहत्तर कलायों से सम्पन्न विद्वान युवक को कोन अपना शिष्य बनाना नहीं चाहेगा। संवत १६३० के दक्षिण प्रान्त के शालणा नगर में एक विशेष समारोह आयोजित किया गया । समारोह के प्रायोजक थे संघपति पाक साह तथा संघणि रपाई तथा उनके पुत्र संघवी पासवा एवं संघवी रामाजी जो जाति से बघरवाल थे। समारो में म. अभयनन्दि ने संवत् १६३० वैशाख सुदि ३ के शुभ दिन भट्टारक पद पर रलकीति का पट्टाभिषेक कर दिः । उसका नाम रत्न .ति रखा गया । इस पद पर वे संवत १५ वा रहे : र: पाकिसे मामा दे सिद्धान्त ग्रंथों के परम वक्ता थे तथा प्रागम काव्य, पुराण, तर्क शास्त्र न्याय शास्त्र, छंद शास्त्र, नाटक अदि प्रथों पर वे अच्छा प्रवचन करते थे। आकर्षक व्यक्तित्व संत रत्न कीर्ति के सम्बन्ध में अनेक पद मिलते हैं जिनमें उनकी सुन्दरता, उनकी विबुधता एवं स्वभाव के विस्तृत वर्णन किये गये हैं। इन पदों के रचयिता हैं गणेश जो उनके शिष्यों में से एक थे । ये पद उस समय लिखे गये थे जब वे मिहार करते थे। रत्नकीति की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि गणेशा लिखते हैं उनको पाखें कमल के समान थी, उनका शरीर फूल के समान कोमल था जिसमें से करुणा टपकती थी। वे पापों के नापक थे। वे सकल शास्त्रों के ज्ञाता थे और अपने प्रवचनों को इतना अधिक सरस बना देते थे कि जिसको सुनकर सभी श्रोता गद्गद् हो जाते थे । कवि ने उन्हें गोतम गणधर की उपमा दी है। इसी तरह एक दूसरे पद में उनकी सुन्दरता का व्याख्यान करते हुग गणेश कवि लिखते हैं कि उनकी कांति पन्द्रमा के समान थी। उन की दंत पंक्ति दाहम के समान थी। उनकी वाणी से मधुर रस टरकता था। उनके अधरोष्ठ विम्ब कल के समान थे । उनके हाथ पत्यधिक फोमल थे तथा हृदय विशाल था । वे पांचों महानतों के धारी, पांच समिति एवं तीन गुप्ति के पालक थे। उनका उदय पृथ्वी पर अभयकुमार के रूप में हुअा था वे दिगम्बर बागम काम्य पुराण सुलक्षण, तक न्याय गुरु जाणे भो। छब नाटिका पिगत सिवान्त, पृथक पृथक पलाणे जी। - गीत रजि० सं० ९/पृष्ठ ६६-६७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकाति धर्म के शृगार स्वरूप थे। उन्होंने कामदेष पर बालकपने से हो विजय प्राप्त कर ली थी। वे मान्यधिक विनयी, विवेकी, मानव पे और दान देने में उन्होंने देवतामों को भी पीछे छोड़ दिया था । विवत्ता में से प्रकसंक निष्कलंक एवं गोवर्धन के समान थे। कवि ने लिखा है ऐसे महान संत को पाकर कौन समाज गौरवान्वित नहीं होगा । एक अन्य पद में कदि गणेश ने लिखा है कि वे गोमटसार के महान ज्ञासा पे और अभयकुमार के समान व्युत्पन्न मति थे। उनके दर्शन मात्र से ही विपत्तियां स्वयमेव दूर भाग पाया करती थी। बिहार रत्नकीति २७ वर्ष तक भट्टारक रहे। इस अवधि में उन्होंने सारे देश में विहार करके जैन धर्म एवं संस्कृति तथा साहित्य का खूब प्रचार प्रसार किया। उनका मुख्य कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान का दागर प्रदेश पा। बारडोली में उनकी भट्रारक गादी थी इमलिये उन्हें बारडोली का संत भी कहा जाता है। उनकी गादी की लोकप्रियता प्रासमान को छूने लगी थी इसलिये उन्हें स्थान-स्थान से सादर निमन्त्रण मिलने धे । ये भी उन स्थानों पर विहार करके अपने भक्तों की बात रखते य। वे जहां भी बाते मारा समाज उनका पालक पाघर बिछाकर स्वागत करता मौर उनके मुख से धर्म प्रवचन सुनकर कृत कृत्य हो जाता । उनके बिहार के संबंध में लिखे हुए कितने ही गीत मिलने है जिनमें उनके स्वागत के लिये जन भावनामों को उभाग गया है । यहां ऐसा एक पद दिया जा रहा है __ मत्री री धीगनकीरति जयकारी प्रमयनंद पाट उदयो दिनकर, पंच महाव्रत धारी। मास्त्रसिधांत पुगण ए जो मो तक वितर्क विचारी। गोमटमार संगीत सिरोमणी, जारणी गोयम प्रयतारी । साहा देवदास केगे मुन सुखकर रोजमदे जर भवतारी। गणेश कहे तुम्हें नंदो रे भविगरण कुमति कुमंग निवारी ॥ इसी तरह के एक दूसरे पद में और भी सुन्दर ढंग से रत्नकीति के व्यक्तिरव को उभारा गया है जिसके अनुसार ७२ कसानों से युक्त, चन्द्रमा के सपान. मुख याले गच्छ नायक, रलकीति विशाल पांडित्य के धनी है । जिन्होंने मिष्यास्वियों के मन का मदन किया है तथा वाद विवाद में अपने पापको सिंह के समान सिद्ध किया है । सरस्वती जिनके मुख में विराजती है। वह मान सरोवर के इस के समान, नम मंडल में पन्द्रमा के समान सम्यक चरित्र के धारी, तपा जैनधर्म के ममंश, बामणापुर में प्रसिद्धि प्राप्त, मेघादी, संधवी तोला, पासवा, मली के प्राराध्य ऐसे भट्टारक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्मकीति एवं कुमुवचन्द्र : भक्तिरय ए कृतित्व रत्नकीति का जोरदार स्वागत के लिये कवि गणेश जन सामान्य को प्रेरित करता हैं। एक अन्य पद में मट्टारक रलकीति स्वान गलिक द्वारा सम्मानित हुए थे ऐसा भी उल्लेज मिलता है। रत्ननीति गोरबन्दर गये । घोघा नगर में तो वे जाते ही रहते थे। बारडोली उनका केन्द्र था । बागड प्रदेश के सागवाडा गलियाकोट एवं बांसवाडा आदि में भी बराबर जाते रहते थे। प्रतिष्ठा वधान रत्नकोति ने कितने ही विधान एवं प्रतिष्ठाए सम्पन्न करवायी थी। पंचकल्याणको में वे स्वयं प्रतिष्ठाचार्य बनते और प्रतिष्ठानों का संचालन करते थे । उनके द्वारा सम्पन्न तीन प्रतिष्ठानों का वर्णन मिलता है जिनके माध्यम से वे तत्कालीन समाज में धार्मिक भावना जाग्रत किया करते थे। सबसे पहिले उन्होंने दाद्नगर में संवत १६३६ में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करवायी। संयत १६४३ में बारडोली नगर में ही बिम्ब प्रतिष्ठा का प्रायोजन सम्पन्न करवाया । नगर मेंचारों प्रकार के संध का मिलन हया । भट्टारक रत्नकोति के परामणीनुसार कंकोली। निमन्त्रण पत्र) लिखे गये जिन्हें Tiवों में एवं नगरों में भेजा गया । विशाल मडप बनाया गया तथा प्रतिष्ठा महोत्सव में प्रकुरारोपणा, जलयात्रा. आदि विविध त्रियाए सम्पन्न हुई । पंच कल्याणक प्रतिष्ठा समाप्ति पर प्रतिष्ठानमारकों के रलकीति ने तिलक किया उनके साथ तेजबाई, जमल, मेघाई, १. कला महोतरी कोडामणो रे, कमल बदन करपाल रे । गाय नायक गुग्ग प्रागलो रे, रत्नकीरति विबुध विशाल रे ॥ मादो रे मामिनी गजगामिनी रे, स्वामि जी वारिण विख्यात रे । अभयंनद पर फेज दिनकरु रे, धन एहना मात ने तात रे ॥ २. लक्षण बत्तीस सकल अगि बहोतरि, खांन मलिक दिये मानजे । गोरगीत पृष्ठ संख्या १९५ । ३. मांगसीर सुदो पंचमी दिने, कुकम चित्रि लखाय । देस देस पठावे पंडत, मावे सज्ज बचे । विध प्रतिष्ठा जोष जाये पुण्य तस वर कंद ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्मकीदि मानेज गोपाल, बेजलदे, मानबाई यहिन आदि सभी थे ! यह प्रतिष्ठा संवत १६४३ बैशाख बुदी पञ्चमी गुरुवार के शुभ दिन समाप्त हुई थी। बलसाड नगर में फिर उन्होंने पंच कल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। यह प्रतिष्ठा हंबड वंशीय मल्लिदास ने कराई थी। उसकी पत्नी का नाम राजवाई था। उसके जब पुत्र जन्म हुग्रा तब मल्लिदास ने दान प्रादि में खुब पंसा लगाया तथा एक पंच कल्याणक प्रतिष्ठा का मायोजन किया । मंगसिर सुदी पंचमी के दिन कुकुम पत्रिका लिखी गई। चारों ओर गांवों में पंधितों को भेजा गया। पत्रिका में लिखा गया कि जो भी पंच कल्याणक प्रतिष्ठा को देखेगा उसे महान पुण्य को प्राप्ति होगी।' पन्न पाल्याणक प्रतिष्ठा की पूरी विवि सम्पन्न की गयी। प्रकुरारोपण, पस्तु विषाम नोदी मंडल, होम, जलयात्रा मादि विधान कराये गये । मंडल में भट्टारक रलकोति सिंहासन पर घिराजगान रहते थे। विविध वाद्य यंत्र बजाये गये थे। संघपति मल्लिास, संधरेण मोहन दे, राजबाई प्रादि की प्ररा नसा की सीमा नहीं रही । अन्त में कलशाभिशेक सम्पन्न हुए तब प्रतिष्ठा समारोह को समाप्ति की घोषणा की गयी । इसके पश्चात म1 मुदी एकदशी के शुभ दिन भट्टारक रत्नकीति ने ब्रह्म १. एखी परे सज्जन आवयाए, श्रीजिन मंडप म्वार के उत्सव सोभताए बाग मंउस विष सोभतिए । संधपूज सुखकार के, उत्सव अति घणाए जिन उपार कुम ढालायाए, जय जयकार सुथायके ।। पच कल्याणक विष हवाए, श्री रत्नकीर्ति गुरुराय के ।। २. अरे संघ मेल्या विविध देशना, सोल छतीस ए। बैशाख बुषि एकवसी सोमवार, प्रतिष्ठा तिलक असोस ए । गीत पष्ट संख्या 65 ३, रत्नकोति भट्टारक बचने, फकोलि लखाई जे । गाँम गामना संघ सेजवाला में में पाला आवे ।। मंगल रचना प्रति घणो उपमा, अकोरारोपण उदार जे । जल यात्रा सांतिक संध पूजा, अन्न वान अपार जी । संवत सोल छेहतालि, बेशाख बधि पंचमी ने गुरुवार जी । रस्नकोति गोर तिलक करे, धन्य श्री संघ जय जयकार ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्लकीति एवं कुमुद चन्द्र : श्यक्तित्व एवं कृतित्व जयसागर का आचार्य पद पर दीक्षित किया । स प्रथम प्रासुक जल से स्नान कराया गया। भट्टारक रलकीति ने उसके माथे पर तिनक किया तथा पाच महाव्रतों की अगीकार कराया गया। ____ इस प्रकार भट्टारक रत्तकोनि जीवन पर्यन्त देश के विभिन्न भागों में विहार करते रहे । वास्तव में भारत रत्नहीति का युग मट्टारका का स्वर्ण युग था जब सारे देश में जन के म्याग एवं तपस्या की इतनी अधिक प्रभावना थी कि समाज का अधिकांश भाग उन पर मर्मारत यः । उनके आदेण यो गोवार्य करने में ही जीवन की उपलट मान जाता था। भारक संस्था भी प्रान प्रापको साध समाज का एक प्रतिनिधि बनने का पूरा प्रयास करनी रहीं । समय समय पर उसने अपने को योग्य प्रमागिरा किया और समाजवं मास्कृति के विकास में पर्ण जागरुक रहा । रलीति का विशाल व्यक्तित्व समाज को याशात्रों का केन्द्र था। शिष्य परिवार रकीति वंगे तो अनेकों शिष्यों वः आचार्य थे, जीवन निर्माता थे और उनके मार्गदर्शक भी, थे लेकिन उनमें गे मूवन्द, ब्रहम जानागर, गणेश, राधव एव दामोदर के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । इन सभी ने रत्नमति के सम्बन्ध में पद एवं गीत लिखे हैं । के मुद चन्द्र तो रत्नमति के पश्चात भट्टारक गादी पर ही बैत थे । वे योग्य गृह के योग्य शिष्य थे। लेकिन गण ने सी के संबंध में सबमे अधिक पद एवं गीत लि हैं। इन सब के सम्बन्ध में प्रागे विस्तृत प्रकाश डाला जग्गा । ऐसा लगता है कि रलकोति के साथ उनका शिव्य परिवार भी चलता घा पौर तह उनके प्रति अपनी भःि। भान प्रगट करता रहता था । रत्तोति की परम्परा के भट्टारको नछोडकर अन्य भट्टारकों के सम्बन्ध में इस प्रकार के गीत एवं पद प्रायः नहीं मिलने हैं। कृतित्व रकीति भक्त कवि थे। नेमिराजुव के जोबन ने उन्हें सबसे अधिक ३. माघ सुदी एकाचसीए ए सोभन सुक्रवार के 1 श्री रत्नकीति सुरीवर हमा तिलक हवा जयकार के सहम उयसागर आलसि ए आचारज पद सार के । जल यात्रा जन देखताए. श्री रल्लकीति यतिराय के । पंच पहावत प्रापया ए संघ सानीध्य गुरुराय के 1 मल्लियासनी वेल Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंट्टारक रत्मकीति प्रभावित किया था। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कृतियों में ये दोनों ही प्राराध्य रहे हैं। नेमिराजुल का इस प्रकार का वर्णन अन्य किसी कवि द्वारा लिखा हुप्रा नहीं मिलता है। अब तक जितनी खोज हो सकी है उसके अनुसार कवि के ३८ पद प्राप्त हो चुके हैं तथा ५ अन्य लघु रचनाये हैं । यद्यपि ये सभी लघु कृतियाँ हैं लेकिन भाव एवं विषय की हरिट में सभी उच्च कोटि की कृतियां हैं। रत्लकीर्ति सन्त थे लेकिन अपने पदों में उन्होंने विरह एवं शृगार दोनों ही का अच्छा घर्णन किया है । वे राजुल के सौन्दर्य एवं उसकी तड़फान से बड़े प्रमानित .. यही कारण है उनकी प्रत्येक दक्षि में दोनों ही शानों की मीमी है। सावन का महिना विरही युवतियों के लिये असह्य भाना जाता है। जब आकाश में काले काले बादलों की घट। छा जाती है । कभी वह गरजती है तो कभी बरसती है। ऐसी प्राकृतिक वातावरण में राजुल भी अकेली कैसे रह सकती थी। इसलिये वह नी अपने विरह वो अपनी सखियों के समक्ष बहुत ही करुणामय शब्दों में निम्न प्रकार व्यक्त करती है-- सखी री सावनी घटाई सप्तावे रिमझिम बून्द बदरिया बरसत, नेमि मेरे नहीं पाये। फजत कीर कोकिला बोलत, पीया वचन न लाये। दादूर मोर बोर घन गरजत, इन्द्र धनुष हरा ।ससी।। लेख सखू री गुपति वचन को, जदुपति कु जु सुनावे रतनकीरित प्रभु निठोर भयो, अपनो वपन बिसरावे ।। रतनकीति ने उक्त पद में राजुल की विरही अबला का बहुत ही सही चिमण किया है। इसमें राजुल की प्रात्मा बोल रही है और वह नेमि पिया के मिलन के लिये व्याकुल हो चली है । कभी कभी पति त्याग के कारण को लेकर राजुल के मन में अन्तर्द्वन्द्व होने लगता हैं। पशुओं की फार का बहाना उसके समझ में नहीं प्राता मोर वह कहती है कि सम्भवतः मुक्ति रूपी स्त्री के परण के लिये नेमि ने राजुल को छोड़ी है । पशुओं की पुकार तो एक बहाना है । इसलिये वह कह उठती है कि "रत्नकीति प्रभु छोड़ी राजुल मुगति वधु विरमाने।" ___ कभी कभी राजुल नेमि के घर पाने का स्वप्न लेने लगती है और मन में प्रफुल्लित हो उठती है । एक पोर नेमि हरी है तथा दूसरी और वह स्वयं हरिवदनी है । हरि के सहा ही उसकी दो आंखे हैं तथा अधरोष्ठ भी हरिलता के रंग वाले हैं । इस तरह वह अपने शरीर के सभी अंगों को हरि के अगों के समान मान बैठती। मोर मन में प्रसन्न हो उठती हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व YE लेकिन जब उसे वास्तविक स्थिति का वोध होता है तो वह नेमि के विरह में तड़पने लगती है और एक रात्रि के सहवास के लिये ही उनसे प्रार्थना करने लगती है। वह कहती है : प्रातः होने पर चाहे वे दीक्षा स्वीकार करलें लेकिन एक रात्रि को कम से कम उपके साथ व्यतीत करने पर वह अपने जीवन को धन्य समझ लेगी। नेम तुम प्राया धरिय धर एक रयनि रही पात पियारे बोहोरी चारित धरे ।नेमा और जब नेमि राजुन्य को बार बार पुकार पर भी नहीं पाते हैं तो राजून पी रुठने का बहाना करती है क्योंकि पता नहीं रुठने से ही नेमि पा जावे इसलिये बह नेमि के पास अपना सन्देश भेजता है कि न वह हाथ में मेहन्दी मडेगी और मंदों में नालल डालेग' । बद गिर का ग्रनकार नहीं करेगी पोर न मोतियों मे अपनी मांग को भरेगी। उसे किसी से भी बोलना अच्छा नहीं लगता । वह तो नेमि के विरह में हो तहाती रहेगी और उनकी दासी बनकर रहना चाहेगी। न हाथे मंडन कर पाजरा नेन म. होउ रे वेरागन नेम की चेरी। सीस न मांगन देउ' मांग मोती न लेउ । अब पोर हूं तेरे गुगनी चेरी । नेमि के विरह में राजुल पागल हो जाती है इसी लिये कभी वह अपनी सजनी गे पूछती है तो कभी मन्द्रमा से बात करने लगती है। कभी वह कामदेव को उल्हाना देती है तो कभी यह जनघर से गर्जना नहीं करने की प्रार्थना करती है। बड़ा दर्द भरा है कबि के गीत में। राजुल के हृदयगत भावों को उभाड़ो में कवि पूर्णत: सफल हुअा है । रानो मेरी भयनी धन्य या रपनी रे । पीयु घर आने तो जीव सुख पावे रे ।। मुनि र विधाता चन्द संतापी रे विरहनी बाध के साक्षेत्र हुना पापी है। सुन रे मनभध बत्तिया एका भुश रे । नेमि राजुल के अतिरिक्त भट्टारक रीति ने भगवान राम के स्तवन के रूप में पद्म लिखे हैं। कवि ने राम को जिस रूप में स्तुति की है उसमें उसने Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति महाकवि तुनो दास जमी शंनी को अपनाया है। ऐसा मालूम होता है कि महाकवि सुलसी एव सूरदास ने राम एव कृष्ण भक्ति की जो गंगा बहायी थी उससे रत्नकीर्ति अपने आपको नहीं बना पाये और वे भी राम भक्ति में समा गये और 'बंवह जनता शरण' तथा कम न वदना कळरणा निलयं जमे कुछ मुन्दर भक्ति पूर्ण पद लिखकर जन गलस को राग भक्ति में डुबो दिया । कवि का एक पद देखिये वदह जनता शरण दशरथ नंगन दुरति निकेंदन, राम नाम शिव गर ।।१।। अमल ना अनादि अविकल, रहित जनम जरा मरनं । बलख निरजन धुन मन रजन, संवक जग अधनत हरनं ।।५।। काम करु; रस रिस, सुर नग्नायक गुत चरण । रतगकीरति कहे सेवो सुन्दर भवजघि सारन तरनं ।।३।। रतनीति त अब तक निम्न पद एवं कृतियां प्राप्त हो चुकी है। १. मारेंग ऊपर गारंग मोहे सारंगत्यासार' जी २. सुरण रे नेमि मामलोया माहेन क्यों बन योरी जाय ३. सारंग सजी सारंग पर ग्रावे ४, वृषभ नि मेत्रो बहु प्रकार ५. सश्री मान घटाई गता ६. नेम तुम कंगे वो गिरिनार ७. कारण काय पीया को न जा. ८. राजूल गेहे गेमी जाय १. गम जाये रे गोही गवना १५. नव जिरि वरज्यो न माने गोरी ११. नेमि तुम भाकी धरिय घरे १२. राम कहे यावर जया नोनी भारी १३. दशानन बीमती पाहत होड दाम १४. वयो न माने नपान निटोर १५. भीलने का कारया पगाथ १६. सरद की ग्यनि सुदर सोडात १७. गुन्दरी माल मिजार करे गोरी १८. कहा थे मंडन का कजरा नैन भम १६. सुनो मेरी रायनी धन्य या रयनी रे Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यकिल एवं कृतित्व २०. रथ डो नीहानती रे पूति सहे साधन नी वाट २१. सखी को मिलानो नेम नरिंदा २२. सखी री नेम न जानी पीर २३. वदेहं जनता शरण २४. धीराग गावत सूर किन्नरी २५. श्रीराग गावत सारंगधरी २६. प्राजू पानी प्राय नेग नो गाउरी २७. बली बंधो का न बरज्यों अपनो २८. प्राजो रे मवि सागलियो बहालो रथि परि हडि प्राय रे २६. गोडि ची जुर र जुन रानी रिवर जावे रे ३०. प्राचो सोहामणीसुन्दरी वन्द रे पूजिये प्रथम जिणंद रे ३१. ललना समुद्रषिजय सुत सम रे यदुपति ने मकुमार हो ३२. मुरिग समिरजु रहे है। हप । माम जान से ३३. सशधर वदन साहामगि रे, गजगामिनी गुण पाल रे ३४. वरशारमी नगरी नो राजा अश्वगन' का गुणधार ३५. श्रीजिन सनमति अवतरया चा रंगो रे ३६. नेम जी दयालुहारे तू तो यादव कुल सिणगार ३७. कमल वदन कपणा निलयं ३८. सुदर्शन नाम के मैं वारि अन्य कृतियां ३९. महाबीर गीत ४०. भेमिनाथ फागु ४१. नेमिनाथ का ब'हरामा ४२. शिद्ध धूल ४६, अलिभदनी बीनती ४४. नेमिनाथ बीनती उक्त नामांकित पदों के प्रतिकि रलकीति का सब। रचना "मिनाय फागु" है। इस फाग म भगवा पिनाथ एवं राजुल का जीरन वाणा हैं। 'फागु' नामांकित इस कृति में कवि यूगार सग अधिक बहे है और प्रत्येक वर्गन को श्रृगार प्रधान बना दिया है । राजुन की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि ने उसे एक से एक सुन्दर उपमा में प्रस्तुत किया है। ऐसी ही चार पंक्तियां पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत की जा रही है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ चंद्र वदली मृग लोचनी मोचनी बंजन मोन | बाग जीत्यो बेहिं श्रेणिय मधुकर दीन युगल गल दीये सशि, उपमा नाशा कीर अधर विक्रम सम उपता दंतनू निर्मलनीर ॥ फाग में ५८ प है जिनमें राजुल नेमि का जन्म से लेकर निर्वाण तक की घटना का वर्णन किया गया है । फाग में भी राजुन की विरह वेदना को सशक्त शब्दों में व्यक्त करने का कवि का ध्येय रहा है। और उसमें कवि पूर्णतः सफल भी रहे हैं । फाग का रचना स्थान हांसोट नगर रहा था जो गुजरात का प्रमुख सांस्कृ तिक नगर था । काग की राग केदार है । ५ अन्य कृतियां बाहरमासा "भट्टारक रतनकीति की यह कृति भी वही रचनाओं में से हैं। इनमें भिके वियोग में राजुल के वार महिने कैसे व्यतीत होते हैं इसका सुन्दर वर्णन किया गया है। कवि का बारहमासा जेठ मास से प्रारम्भ होता है तथा प्रत्येक महिने का वह विस्तृत वर्णन करता है यह राजुल के विरही जीवन के प्रत्येक मनोगत भावों को उभारना नाहता है जिसमें वह पर्याप्त रूप से सफल हुआ है। १. आषाढ मान प्राते ही पति का विरह और भी बताने लगता हैं। दादुर क्या बोलते हैं मानों प्राण ही निकलते हैं । धनी वर्षा होती हैं। अंधेरी सत्रियां होती हैं तोप की बाट जोहते जोहते यांखों में पालू श्रा जाते हैं। पपीहा पिउ पिच बोलने लगता है तो राजुल कैसे धेयं धारण कर सकती है । वृक्ष भी बास में हवा के झोंको के साथ जब हिलते हैं तो वे परसर में बात करते हुए लगते हैं। और जब सर अपने पंखों को फैलाकर मी के मन को प्रसन्न करता है तो मन अधीर हो जाता है । जब प्रकाश में बिजली सबक-बक कर सकने लगती है तो उसकी कोमल काया उसे कैसे सहन कर सकती है। बिना पिया के वह अकेली कंसे रह सकती है। तिमतिम नाहनो नेह साले प्रापादि अंगात | दादुर बोले प्राण सोले बरसाते विशाल नेमि विलास उल्हास स्यु, जो गासे नर नारि रतनकीरति सूरोवर कहे, ते लहे सौख्य अपार ॥ १ ॥ हांसोट माहि रचना रखी, फाम राग श्री जिन जुग धन जाये, सारदा भर दातार ।। २ । केदार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व कृतित्व दिवस अंधारी रातडी बलि वाट घाटे नीर वापीयडो पिउ पिउ बोले किम घरु मन धीर तर तणी साखा करे भाषा सांजा सोहेत । रितुकाल मोर' फला करी मयूरी मन मोहेत । माज सखी अगास प्राव्यो उन्हई ने मेह । झबक सबके बिजली किम सेह कोमल देह प्रायो पणा से करें कामिनः लाड किम रह हूं एकलो रे भावयो पाषान । भाषा:-बारहमासा की भाषा पर गुजराती का अधिक प्रभाव है क्योंकि इसकी रचना भी घोघा नगर के जिन दैत्यालय में की गई थी । धोघा नगर १६वीं शताब्दी में भट्टारकों के बिहार का प्रमुख केन्द्र था। वहां श्रावकों की अच्छी बस्ती थी। जिन मन्दिर था। वह सागर के किनारे पर बमा हुमा था। शेष रचना...-कवि की अन्य मभी रचना' गीत रूप में हैं जिनमें मेमि राज़ल प्रकरण ही प्रमुख रूप से प्रस्तुत किया गया है । उसके गीतों की प्रात्मा नेमि राजुल इसी तरह जिम तरह मीरा के कृष्ण रहे थे। अन्तर इतना सा है कि एक प्रोर नेमिनाथ विरागी जीवन अपनाते हैं। अपनी तपरया में लीन हो जाते हैं और राजुल उनके लिये तडकती । अपने विरह की व्य या सुनाती है, रोती है और मा में जब नेमि तपस्वी जीवन पर ही बने रहते हैं तो वह स्वयं भी तपस्विनी बन जाती है तथा भोगों रो निरन होकर जगत के समक्ष एक प्रनोखा उदाहरण प्रस्तुत करती है । नेमि राजल के प्रसंग में गट्टारक रन कीति अपने गीतों के माध्यम मे राजुल के मनोगत भायों का, जमको विरही जीवन का मोष चिय उपस्थित करता है जबकि मीरा स्वयं ही रागन बनकर कृष्ण के दर्शनों के लिये लालायित रहती है स्वयं गाती है, नाचती है और अपने प्राराध्य की भक्ति में पूर्णत: सपित हो जाती है। भट्रारक रत्नपीति अपने समय के प्रमुख सन्त थे । उनका पूर्णतः विरागी जीवन था। साथ हो में ये लेखनी के भी धनी थे । अपने भक्तों, अनुयायियों एवं प्रशासकों के अतिरिक्त समस्त समाज को नेमि राजल के प्रसंग से जिन भक्ति में समर्पित करना चाहते थे। लेकिन जिन भक्ति का उद्देश्य भागों की प्राप्ति न होकर कों की निर्जरा करना था। इसलिये ये गीत १७वीं सदी में बहुत लोकप्रिय रहे और समस्त देश में गाये जाते रहे । वे अपने समय के प्रथम सन्त थे जिन्होंने नेमि राजुल के प्रसंग को अपने Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ૪ भट्टारक रनकीति पदों की विषय वस्तु बनाया। उनके समय में मीरा एवं सुरदास के राधा कृष्ण से सम्बन्धित पद लोकप्रिय बन चुके थे और भक्ति रस से ओतप्रोत भक्त को उनके अतिरिक्त कुछ नहीं दिख रहा था भट्टारक रत्नकीति ने समय की गति को पहिचाना और अपने अनुयाथियों एवं समाज का ध्यान आकृष्ट करने के लिये नेमि गजुल कथन को इतना उछाला कि उसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई । राजुल के मनोगत भावों को व्यक्त करते समय के कभी स्वाभाविकता से दूर नहीं हठे और जो कुछ भाव तोरण द्वार से लौटने पर अपने पति के प्रति किसी नयोद्धा के होने चाहिये उन्हीं भावों को अपने पदों में उतारने में उन्हें प्राशातीत सफलता मिलीं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक कमदचन्द्र [ ४७ ] कुमुदचन्द्र भट्टारक रलकीति के प्रमुख शिप्य थे। वे भट्टारक गादी पर रत्नकीति के द्वारा अभिषिक्त किये गये और बागड़ एवं गुजरात प्रदेश के धर्माधिकारो बन गये। भ, रलकति ने अपनी गायी की यशोगाथा वो चारों ओर फैला दिया था इसलिए तुमचा के भट्टारक बनते ही उनकी भी कीति चारों और फैलने लगी। जब वे भट्टारक बने तो युवा थे । शौन्दर्य उनके चरणों को चमता था। सरम्बनी को उन पर पहिले से ही कृपा धी। उन वाणी में नाकर्षण था इसलिये धे जन-जन के विशेष प्रिय बन गये और समाज पर उनका पूर्ण वर्चस्व रपापित हो गया। __कुमुदव का जन्म गोपुर ग्राम में हना था। पिता का नाम सदाफल एवं माता का नाम पदमाबाई था। वे मोदईश के सत्वे सपुत थे । उनका जन्म का नाम क्या था इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता लेकिन वे जन्म से ही होनहार थे युवावस्था के पूर्व ही उन्होंने संयम धारण कर लिया था। उन्होंने इन्द्रियों के नगर की उजाट केर वामदेव ापी नाग को महज के ही जीत लिया । अध्ययन को और उनकी प्रारम्भ में ही रुचि भी इनलिए वे गन दिन व्याकरण, नाटक, न्याय, मनमशारत्र, छंद शास्त्र एवं ग्रनकारों का अध्ययन किया करते थे। मोम्मटसार जैसे ग्रन्थों में उन्होंने विशेष अध्ययन किया था । गनविली गीतों में कुमुदचन्द्र का निम्न प्रकार गुणगान गाया गया है ... - --- - -- १. मोह वंश शृंगार शिरोमणि साह सदाफल तात रे जायो जतिबर जुग जयवन्तो पवमाबाई सोहात रे । २. बालपणे जिरणो संयम लिधो, धरोयो वेरग रे। इन्द्रिय ग्राम उजारमा हेला, जोत्यो मन नागरे । ३. अनिश छन्द व्याकरण नाटिक भरणे न्याय आगम अलंकार । याबोगण केशरी विरुव पास रे सरस्वती पच्छ सिणगार रे । गीत धर्म सागर कृत Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक कुमुवष तस १६ सुमुद कुमुवान, क्षमावंत गुरु गत तंद्र । मुनीन्द्र चंद्र समो यश उजलोए +- + + -- कुमुवचन्द्र जेहलो चांदलो, रत्नकीरति पाटे गोरह भलो । मोढवंश उदयाचल रवि, जेहना पचन बखाणे कवि । एक गीत में कुमुदचन्द्र की सभी दृष्टियों से प्रशंसा की गई हैं। गीत अनुसार पंचाचार, पांच समिति एवं तीन गाप्ति के वे पालनकर्ता थे। कोध कषा पर उन्होंने प्रारम्भ से ही विजय प्राप्त करली थी । कामदेव पर भी उनकी विज अदभुत श्री इसलिये वे शीलगार कहलाते थे । गीत में उनकी जन्मभूमि, मात पिता एवं वंश सभी का गणानुवाद किया है--यहीं नहीं उनकी शारीरिक विशेषता को भी गिनाया गया हैं । - समिति गपति प्रादि ए पाले चरित्र तेर प्रकार । क्रोध कषाय तजी रे वेगे जीत्यो रति भरतार । प्रील शृंगार सोहे रे वृद्धि जदयो अभयकुमार ।। + -- + + पाखड़ी कज पांवडी रे अधर रंग रहयो परवान राणी साभली रे लालीगई कोमल बन अंतराल । शरीर सोहामा रे गमने जीत्यो गज गणमान । को कहे गरु अवतारे देउ दान मान मोती भाल ।। संवत् १६५६ बैशाख मास में बारडोली नगर में रत्नकीति ने स्वयं अपने शिव कुमुद चन्द्र को अपने ही हाधों से भटारक पद पर प्रतिष्ठापित कर दिया।' यह था भट्टारक लकीति वा त्याग । वे उनी समय से मूलसंघ सरस्वती गच्छ के श्रृंगार कहलाने लगे । शास्त्रार्थ करने में वे अत्यधिक चतुर थे। विहार कुमुदचन्द्र ने भट्टारक बनते ही गुजरात एवं राजस्थान में विहार किया और १. संगत् सोल छपन्ने शाखे प्रगट स्ट्रीधर थाप्यारे । रनकीरति गोर बारडोली वर सर मंत्र शुभ आया रे ।। २. मूल संघ मगट मरिण माहत सरसति गच्छ सोहाये रे। कुमुवचंट भट्टारक आगलि वादि को वा न माने रे॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतिस्व -: अपने प्रोजस्वी, मधुर तथा प्राकर्षक वाणी से सब का हृदय जीत लिया । वे जहां भी जाते अभूतपूर्व स्वागत होता तथा समाज उनके लिये पलक पावडे बिछा देता। कुकम छिडका जाता तथा चौक पर करके बघावा गाये जाते । चारों ओर पदा भक्ति एवं गुणानुवाद का वातावरण बन जाता । उनके दर्शनमात्र से समाज प्रपने आपको धन्य मान लेता।' कुमुदचन्द्र के एक शिष्य संयमसागर ने तो समस्त ममाज से उनके स्वागत करने के लिये निम्न पद लिखा है: - प्रावो राहेलडी रे सह मिलि संगे वांदो गुरु कुमदचन्द्र ने मनि रंगे। छंद प्रागम अलंकार नो जाणा चारु चितामणी प्रमुख प्रमाण । तेर प्रकार ए चारित्र सोहे __ दीठडे भवियण जन मन मोहे । शाह सदाफल जेहनो तात __ धन' जनम्यो पदमाबाई मात । भरस्वती गच्छ तरणो सिणगार देगस्यु जीतियो दुद्धरमार | महीयले मोळदंणो सू विम्बात हाथ जोड़ानिया वादी संघात । जे नरनार ए गोर गुण गाने __ संयम सागर कहे जे मुम्बी थाय ।। गर्नेश कवि चे भी एक क्रमवचन्द्रनी हमनी लिखी है जिसमें उसने कुमुदचन्द्र के गुणों का विस्तृत वर्णन किया है । बारडोली नगर में भट्टारक गादी स्थापित करने एवं उस पर कुमुद चन्द्र बो पदटस्थ करने में संधाति कहानजी,स सहस्रकरण जी मल्लिदास एवं गोपाल नी का भवझे बड़ा योगदान था । हमबी में कुमुदचाद्र के पांडित्य एवं विद्वत्ता की निम्ग' शब्दों में प्रशांसा की है पंडित पणे प्रसिद्ध प्राक्रमी बागवादिनी वर एहने सेवो सुरतरु चिन्त्यो नितामरिण उपमा नहीं कहे ने रे - - --- - सुन्वरि रे सा प्रावो, तम्हे कुकमु छडो वेवझायो पास मोतिये चौक पूरायो, कडा सह गुरु कुमुवचन्द्र ने बजावे । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गधारक मुदमन भट्टारक पद स्थापन के पश्चात् बारडोली नगर साहित्यिक, धार्मिक एवं माध्यात्मिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। कुम दचन्द्र की वाणी सुनने के लिये वहां धर्म प्रेमी समाज का जमघट रहता था। कभी तीर्थ यात्रा करने वालों का संघ उनका आशीर्वाद लेने पाता तो कभी कभी विभिन्न नगरों का समाज उन्हें सादर निमन्त्रण देने माता । कभी वे स्वयं ही संघ का नेतृत्व करते तथा तीर्थी की यात्रा कराने में सहयोग देते । संवत १६८२ में कुमुदचन्द्र संघ सहित घोषा नगर मामे जो उनके गुरु रत्नकीति का जन्म स्थान या । बारडोली वापिस लोटने पर श्रवकों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया। इसी वर्ष उन्होंने गिरनार जाने वाले एक संघ का नेतृत्व किया था और उसमें अभूतपूर्व सफलता पाई थी।' साहित्य सेवा कुमुदचन्द्र बड़े भारी साहित्यिक भट्टारक थे । साहित्य सजना में ये प्रधिक विश्वास करते थे। इसलिये भट्टारक पद के कम से अवकाश पाते ही वे काव्य रचना में लग जाते । इसलिये एक गीत मेंउन के लिये "अहनिशि छंद व्याकर्ण नाटिक भणे न्याय मागम अलंकार" लिखा गया है । कुमृदचन्द्र की अब तक जितनी रचनायें मिली है वे सब राजस्थानी भाषा की ही हैं। उनकी अब तक २८ छोटी बड़ी कृतियां एवं ३० से भी अधिक पद मिल चुके हैं। लेकिन शास्त्र भण्डारों की खोज पोने पर और भी रचनायें मिलने की प्राशा है। उनकी प्रमुख रचनात्रों के नाम निम्न प्रकार है : १. भरत बाहुबलि छंद २. पन क्रिया विनती ३. ऋषभ विवाहलो ४. नेमिनाथ का द्वादशमासा ५. नेमिश्वर हमची ६. अण्यरतिगीत ७. हिन्दोलना गीत .. दशलक्षण धर्म प्रत गीत ६. अढाई गीत १०. व्यसन साप्त गीत ११. भरतेश्वरगीत १. संवत सोल प्यासीये संवच्छर गिरनारि यात्रा कोषा। श्री कुमुषचंद्र गुरु नामि संधपति तिलक कहता ॥ गीत धर्मसागर हत Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १२. पाश्र्वनायगीत १३. गौतम स्वामी चौगाई १४. संकटहर पार्श्वनाथनी विनती १५. लोणपानावनी बिनती १६. जिनवर बिनती १७. गुरुगीत १८, भारतीगीत १९. जन्म कल्याणक गीत २०, अधोलाड़ी गीत २१. शीलगीत २२. चिन्तामरिण पार्श्वनाथ गीत २३. दीवाली गीत २४. चौबीस तीर्थकर देह प्रमाण चौपाई २५. बलभद्रनी विनती २६. नैमिजिन गीत २७, बणजारागीत २८. गीत २९. बिमिन्न राग रागनियों में निमित पर इस प्रकार कुमुदचन्द्र की जो कृतियां राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हु हैं उनका नामोल्लेख किया जा सका है। कवि की सभी रचनामें राजस्थानी भाषा में हैं जिन पर गुजराती का पूर्ण प्रभाव है । वास्तव में १७वीं शताब्धि में गुजराती एव राजस्थानी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकी श्री । इसलिये कवि ने अपनी कृतियों में दोनों दी भाषाओं का प्रयोग किया है । इनकी रचनाओं में गीत अधिक है जिन्हें ये अपने प्रवचन के समय श्रोताओं के साथ गाते थे । नेमिनाय के तोरण द्वार पर प्राकार बराग्य धारण करने की अद्भुत घटना से ये अपने गुरु रस्नकीति के रामान बहुत प्रभावित थे इसलिये इन्होंने भी नेमि राजुल पर कितनी ही रचनाए एवं पद लिखे हैं उनमें नेमिनाथ बारहमासा, नेमिश्वर गीत, नेमिजिनगीत मादि के नाम उल्लेखनीय है। कवि नी कुछ प्रमुग्न रचनाओं का परिचय निम्न प्रकार है :... १. भरत बाहुबलो छैन भरत पाहुबलि एक खण्ड काव्य है, जिसमें मुख्यतः भरत और बाहुबलि के युद्ध का वर्णन किया गया है । भरत चत्राति को सारा भूमण्डल विजय करने के Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक कुमुद पश्चात मालम होता है कि अभी उनके छोटे भाई बाहुबलि ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं है सो सम्रा मन को 17 को सजते हैं । दूत और बहुबलि का उत्तर-प्रत्युत्तर बहुत सुन्दर हुना है । अन्त में दोनों भाइयो में युद्ध होता है, जिसमें विजय बाहुबलि की होती हैं। लेकिन विजय श्री मिलने पर भी बाहुबलि जगत से उदासीन हो जाते हैं और वैराग्य धारण कर लेते हैं। घोर तपश्चर्या करने पर भी “मैं भरत की भूमि पर खड़ा हुया है" यह शल्य उनके मन से नहीं हटती । लेकिन जब स्वां सम्राट भरत उनके 'चरणों में प्राकर गिरते हैं और वास्तविक स्थिति को प्रगट करते हैं तो उन्हें तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है। पूरा का पूरा खण्ड काव्य मनोहर शब्दों में पित है। रचना के प्रारम्भ में कवि ने जो अपनी गुरु परम्परा दी है वह निम्न प्रकार है पणनिवि पद यादीश्वर केरा, जेह नामें छुटे भव-फेरा । ब्रह्म सुता समरु मतिदाता, गुरण गरण मंडित जग विख्याला ।। नंदवि गुरु विद्यानंदि सूरी, जेहनी कीति रही भर पूरी । तस पट्ट कमल दिवार जाणु, मल्लिभूषण गुरु गुण बखाणु । तम पट्टोधर पंरित, लक्ष्मी चन्द महाजस मंडित । अभयचन्द गुरु शीतल वायक, सेहेर वंश मंडन सुखदायक ।। अभयनंदि समरु मन माहि. भव भूला बल गाडे बाहि । तेह सरिण पट्टे गुणभूषण, बंदवि रत्नकीरति गत दूषण ।। भरत महिपति कृत मही रक्षण, बाहुबलि बलनंत विचक्षण । बाहुबलि पोदनपुर के राजा थे। पोदनपुर धन धन्य, बाग बगीचा तथा मीलों का नगर था ! भरत का दूत जब पोदनपुर पहुंचता है तो उसे शारों मोर विविध प्रकार के सरोवर, वृक्ष, लता दिखलाई देती है । नगर के पास ही गंगा के समान निर्मल जल वाली नदी बहती है । सात-सात मंजिल वाले सुन्दर महल नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुमुदचंद्र ने नगर की सुन्दरता का जिस रूप में वर्णन किया है उसे पहिये चाल्यो दूत पयाणे रे हे तो, थोड़े दिन पोयणपुरी पोहोतो। दोठी सीम सधन करण साजित, बापी कप तडाग विराजित ।। कलकारं जो नस जल कूडी, निर्मल नीर नदी अति ॐडी। विकसित कमल अमल दलपती, कोमल कुमुद समुज्जल कती ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वन वाडी प्राराम सुरंगा, अंब कदंब उदंबर तुगा .। करण केतको कमरख केली, नव नारंगी नागर बेली ।। अगर तगर तरु तिदुक ताला, सरल सोपारी तरल तमाला। बदरी बकुल मदाड बीजीरी, जाई जुई जंबु जंभीरी ।। चंदन चंपक चारउत्ती, बर वासंती परबर सोली । रायणरा जंबु सुविशाला, दाडिम दमणो द्वाख रसाला ।। फुला सुगुल्ल अमूल्ल गुलाबा, नीपनी वाली निबुक निमा। कणयर कोमल लंता सुरंगी, नालीयरी दोशे अति चंगी । पाडल पनश पलापा महाधन, लवली लीन लांग लताधन । बाहुबलि के द्वारा अघी बीमार न किए जाने पर कोलोर का विशाल सेनामें एक दूसरे के सामने प्रा डटीं। लेकिन देवों और राजानों ने दोनों भाइयों को ही चरम शरीरी जानकर वह निश्चय किया कि दोनों घोर की सेनामों में युद्ध न होकर दोनों भाइयों में ही जलयुद्ध नेत्रयुद्ध एवं मल्लयुद्ध हो जाये और उसमें जो जीत जावे उसे ही चक्रवर्ती मान लिया जाये । इस वर्णन को कमि के शब्दों में पढिये प्रम्य युद्ध त्यारे सहु बेढा, नीर नेत्र मल्लाह व परंटया। जो जीते ले राजा कहिये, तेहती प्राण विनयसु वहिए । एह विचार करीने नरवर, चाल्या सहु साथे मछर भर । भुजा दंड मान सुड समागा, तादंगा अंदारे गाना। हो हो कार करि ते घाया, वन्छा वन्द्र ते पडया राया । हककारे. पथ्यारे पाडे, बनगा वलग करी ने पाडे । पग पड़धा पोहोवीतल बाजें, कडक इता तरुवर से भाजे । नाका वनचर पाठा कायर, भूटा मयगल' फूटा सायर ।। गड गडता गिरिवर ते पट्टीयां, फूल फरंता फणिपति डरीधा । गढ गडगडीया मन्दिर पडीग्रां, दिग दंतीव मक्या चल चवीया । जन खलभली यावालक इलीया, भव-भीरु प्रबना कल मलीग्रा । तोपण में घरणी धबई को, थलड इता पता नवि चुके । - - १. चाल्गा मल्ल अखाड़े बलोआ, सुर मर किन्नर जीवा मलीखा। काच्या काछ कसी का तारणी, बांगड बोली बोले वाणी ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ६२ (२) ओपन क्रिया विनती मैहार कुमुदचन्द्र इसमें पेन क्रियाओं के पालने पर मकाश डाला गया है। पनाओं में मूलगुण १२ व्रत १२ तप, ११ प्रतिमा, ४ प्रकार के दान तथा ९ श्रावश्यकों के नाम गिनाये गये है । विनती की अन्तिम दो पंक्तियां निम्न प्रकार है- जे नर नारी गावसी ए विनती सुचंग | ते मन वांछित पामसे नित नित मंगल रंग । (३) विनाथ विवाहलो इसका दूसरा नाम ऋषभजिन विवादलो भी है। कवि की "विवाहलो" बडी कृतियों में गिना जाता है जो ११ नालों होता है । विवाहली नाभिराजा की नगरी - कोशल नगरी वर्णन में प्रारम्भ होता है। नाभिराजा के महदेवी रानी थी जो मधुर वाणी युक्त, रूप की खान एवं रूप की ही कली थी। रानी १६ स्वप्न देखती है । स्वप्न का फल पूछती है और यह जानकर प्रसन्नता से भर जाती है कि वह तीर्थ कर की माता बनने वाली है । प्रादिनाथ का जन्म होता है । इन्द्रों द्वारा जन्म कल्याणक मनाया जाता है। यादिनाथ बड़े होते हैं और उनका विवाह होता है । इसी विवाह का कवि ने विस्तृत वर्णन किया है। कच्छ महाकच्छ की कन्याओं की सुन्दरता, देवताओं द्वारा विवाह की तैयारी, विवाह में बनने वाले विविध व्यञ्जन, बारात की तैयारी, ऋषभ का घोड़ी पर चढना, बाद्ययन्त्रों का बजना, अनेक उत्सवों का आयोजन प्रादि का सुन्दर वर्णन किया गया है । अन्त में भरत बाहुबलि आदि पुत्रों की उत्पत्ति, राज्य शासन, वैराग्य प्रादि का भी वर्णन किया गया है । प्रस्तुत रचना तत्कालीन सामाजिक रीति रिवाजों की प्रतीक है। कवि ने प्रत्येक रीति रिवाज का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। विवाह में बनने वाले व्यजनों का वर्णन देखिये दूध पाक चखासा करीयां, सारा सकरपारा कर करीया । मोटा मोती अमोदक लावे दलिया कसम सीमा भावे । प्रति सरवर सेवइया सुन्दर, प्रारोगे भोग पुरन्दर श्रीसे पापड मोटा तलीया, मोरयाला प्रति उजलीया मीठे सरसी ये रई दोषी, मेल्हे केरो श्रवा कीधी केर काकड स्वाद लागे, लिवू जगतां जीभे रस जाणं । विवाहलो संवत् १६७८ प्रषाद शुक्ला २ सोमवार को समाप्त हुआ था। इस समय कुमुदचन्द्र घोघा नगर में थे । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व संवत सोल अठ्योतारए, मासा अषाढ धनसार । उजली बीज रलीया मणिए, अति भलो ते शशिवार लक्ष्मीचन्द्र पाटे निरमलाए, भभयचन्द्र मुनिराय । तस पटे प्रभयनन्दि गुरुए, रत्नकीरति सुभ काय कुमुदचन्द्र मन उजलेए, घोघा नगर मझारि । विवाहलो की पाण्डलिपियाँ राजस्थान के विभिन्न भण्डारों में उपलब्ध होती है। (४) मेमिमाप का द्वारामासा इसमें नेमिनाथ के विरह में राजुल' की तडपन का सुन्दर वर्णन मिलता है। बाहरमासा कवि की लघु कृति है जो १४ पद्यों में पूर्ण होती है। (५) नेमीश्वर हमची भट्टारक रत्नकीति के समान ही कुमुदचन्द्र भी नेमि राजुल की भक्ति में समर्पित थे इसलिये उन्होंने भी नेमि राजुल के जीवन पर विभिन्न कृतियां एवं पद लिखे है । हमची भी ऐसी ही रचना है जिसमें ८७ छन्दों में नेमिनाथ के जीव की मुख्य घटनाओं का वर्णन किया गया है। रचना की भाषा राजस्थानी है लेकिन उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव है। पूरी रचना प्रकारों से युक्त है । हमची में राजुल की सुन्दरता, बरात की सजधज, विविध बाघ यन्त्रों का प्रयोग, तोरण द्वार से लोटने पर राजुल का विलाप नादि घटनामों का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है। नेमिनाथ तोरण द्वार से लौट गये । राजुल विलाप करने लगी तथा मूच्छिल होकर गिर पड़ी । माता पिता ने बहुत समझाया लेकिन राजुल ने किसी की भी नहीं सुनी। आखिर पति ही तो स्त्री के जीवन में सब कुछ हैं इसी का एक वर्णन देखिये बाडि बिना जिम बेनि न सोहे, अर्थ विना जिम वाणी । पंडित जिम सभा न सोह, कमल बिना जिम पाणी रे ॥ १२ ॥ राजा बिन जिम भूमि म सोहै, बिना जिय रजनी ।। पीउड बिना अबला न सोहे, सांभलि मेरी सजनी ॥ ८३ ।। हमपी की पाण्डुलिपि ऋषभदेव के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार के एक गुट के में संग्रहीत है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारकं कुमुदचन (६) प्रण्यरति गीत यह भी विग्हात्मक गीत है और राजुल की तीनों ऋ तुओं में पति वियोग हो पाती दशः ॥ ३द किया गया। इसमें मुख्यतः प्रकृति वर्णन अधिक हुन है 1 लेकिन ऋतु वर्णन का पालंबन राजुल ही है । शीत ऋतु प्राने पर राजल कहत है कि वह बिना पिया के कैसे रहेगी-- बाजे ते शीतल वायरा, बाझ ते नाहिर हार । धजे त बनना पंखिया, किग रहेस्बे रे पनि पिय शुकुमार के ।।८।। इसी तरह हिम ऋतु में निम्न सात प्रकार के साधन सुख का मूल मान गये है तेल तापन तुला तरुणी ताम्रपट तंबोल' । तप्ततोय ते सातमू सुखिया मेरे हिम रिति सुख मूल के। इस प्रकार गीत छोटा होने पर भी गागर में सागर के समान है। (७) हिन्योला गीत यह गीत भी राजल का सन्देश गीत है जिसमें वह नेमि के विरह से पोहित होकर विभिल सन्देश वाहकों से नेमि के पास अपना सन्देश गेजती रहती है । गीत में कवि ने राजुल की मात्मा को निकाल कर रख दिया है राजुल कहती है-- घर बन जाल रांग सहू, विरह दवानल शील । हूं हिरणी तिहां एकली, केसरियाम कराल ।। १४ ।। वह फिर संदेश भेजती है भोजन तो माने नहीं, भूपण करे रे संताप जो है मरिस्य दिलखि थई, तो तस सागस्ये पाप ॥ १९ ॥ पशु देखी पाछा वल्या, मनस्सु थया रे. दयाल मझ उपरि माया नहीं, ते तम्हेस्या रे कृपाल ।। २० ।। सम्हे संयम लेवा संचरया, जाण्यो गम्बो हुई मम । एकस्यु रुसी एकस्यु तुसी अवलो तुम्हारी धर्म ।। २१ ।। गीत में ३१ पद्य है । अन्त में कवि ने अपने नाम का उल्लेख किया है ए भगता सुस्व गामीइ, विघन जाये सहु दुरि। रतनकीरति पर मंडणो, बोले कुमुदचन्द्र सूरि ।। ३१ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र - व्यक्तित्व एवं कृतित्व (८) बशलक्षण धर्म व्रत गीत इस गीत में दश लक्षण धर्मों पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। कवि ने गीर का प्रारम्भ निम प्रकार किया है धर्म करो ते चित उजले रे जे दस लक्षण । स्वर्गतणा ते सुख पामोइ जिम तरीय संसार ॥१॥ (९) अठाई गीत वर्ष में तीन बार अष्टाह्रिका पर्च पाता है जो कार्तिक, फागुन एवं प्रपात मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पुणिमा तक पाठ दिन तक मनाया जाता है । प्रस्तुत गीन में प्रष्टाहिका व्रत करने की विधि एवं कितने उपवास करने पर कितना फन मिलता है उसका वर्णन किया गया है। पुरा गीत १४ पद्यों का है जिसका अन्तिम भाग निम्न प्रकार है-- जे नर नारी अत करीये. तेहर्ने धरि प्राणंद जी रत्नकीरति गौर पाट-पटोधर, कृमूदचन्द्र सृरिद जी। (१०) व्यसन सातन' गीत कवि ने प्रस्तुत गीत में मानव को सात व्यमनों के त्याग' की सलाह दी है कोंकि जो भी प्राणी इन व्यसनों के चकार में पड़ा है उसी का जीवन नष्ट हुग्रा है । सात व्यसन है- जुना खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन करना । कवि ने पहिले ८ पद्यों में व्यसनों की बुराई बतलाई है और फिर प्रागे के चार पद्यों में उदाहरण देकर इन व्यसनों में नहीं पड़ने की सलाह दी है। परनारी संगम --म करिस्य गुरख न्यान मातमें परवारी री संग । हाव भाव दरस्थे ते खोटी, जे हवो रंग पतंग । जीव भूके व्यसन असार, जाव छूट तु संसार ॥ उदाहरण-चारुदत्त दुख अति गा पाम्यो, राज्यो वेश्या रूप। अहादत चक्री आहेडे, ते पडियो भव कप । जीव मूके व्यसन असार, जीव छूट तु संसार ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक कुमुदचन्द्र (११) भरतेपवर गीत ___ कवि ने भरतेश्वर गीत का दूसरा नाम 'अष्ट प्रातिहयं गीत' भी लिखा है। इसमें यादिनाथ के समवसरण को रचना एवं भगवान के प्रष्ट प्रातिहार्यों का वर्णम दिया हुमा है । गीत सरल एन मधुर भाषा में निबद्ध है । इसमें सात छन्द है मन्तिम छन्द निम्न प्रकार है : नीगने जो , वनीस पति यवत । युगला धर्म निवारण स्वामी सही मंजल विचरंत । शेष कभने जीते जिनवर थया मुक्ति थीवंत । कुमुदचन्द्र कहे श्रीजिन गाता लहिये सुख अनंस ॥७॥ (१२) पाश्र्वनाथ गीत इस गीत में कवि ने हांसोट नगर के जिन मन्दिर में विराजमान पार्श्वनाथ स्वामी के पंच कल्याणको का वर्णन किया है। गीत में १० पद्य हैं हैं । अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है श्री रलकीरति गुरुने नगी, कीधा पावन पंच कल्याए । सुरी बुमुदचन्द्र कहे जे भणे, ते पामें अमर विमान ॥१०॥ (१३) गौतम स्वामो गीत गौतग स्वामी के नाम स्मरण के महात्म्य का वर्णन करना ही गीत रचना का प्रमुख उद्देश्य रहा है। पूरे गीत में ८ पद्य हैं। (१४) लोडण पार्श्वनाथ विनती लाइ देश के दमाई नगर में पार्श्वनाथ स्वामी का प्रख्यात मन्दिर है। वहीं की पार्श्वनाथ को जिन प्रतिमा लोडा पार्श्वनाथ के नाम से जानी जाती है । भट्टारक वा मुदचन्द्र ने एक बार अपने रांध सहित बड़ा की गापा थी। पार्श्वनाथ स्वामी की सातिशव प्रतिमा है जिसका नाम स्मरणा से ही विग बाधाएं स्वतः ही दूर हो जाती है । विनती में ३० 'पञ्च है-अन्तिम तीन पद्य निम्न प्रकार है जेह ने नामे नासे शोक, संकट राघला थाये फोक । लक्ष्मी रहे नित संगे ॥२८॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व नाम जपता न रहे पाप, जनम मरण टाले संताप । प्राये मुगति निवास ॥२९॥ जे नर समरे लोडण नाम, ते पागे मन वंछित काम । ___ कुमुदचन्द्र कहे भासा ||३७॥ (१५) प्रारती गीत भगवान की प्रारती करने से अशुभ कर्मों का नाश होता है पुण्य की प्राप्ति होती है और अन्त में मोस की उपलब्धि होती है। इन्हीं भावों को लेकर यह भारती गीत निबद्ध किया गया है । इसमें ७ पद्य हैं। सुगंध सारंग दहे. पाप ते नदि रहे। मनह वांछित लहे, कुमुदचन्द्र कगे जिन भारती। (१६) जन्म कल्याणक गीत तीर्थकर का जन्म होने पर देवतालों द्वारा उनका जन्माभिषेक उत्सव मनाया जाता है उसी का इसमें वर्णन किया गया है । एक पंक्ति में सिक्षार्थनन्दन के नाम का उल्लेख करने से यह भगवान महावीर के जन्म कल्याणक का गीत लगता है । गीत में ८ पद्य है। प्रत्येक पच चार-चार पंक्तियों का है। (१७) अन्धोलडी गोत प्रस्तुत गीत में वालक ऋषभदेव की प्रातःकालीन जीवन चर्या का वर्णन किया गया है। ऋषभदेव के प्रात: उटते ही अन्धोलड़ी की जाती है अर्थात् उनके अंगों में तेल, उबदन, ये पार, तन्दा लगाया जाता है। तेल तुपड़ा जाया है फिर निमल एवं स्वच्छ जल से स्नान कराया जाता है। स्नान के पश्चात् शरीर को अंगोछा से पोंछा जाता है फिर पीत वस्त्र पहनाये जाते हैं अांखों में वजन लगाया जाता है। उसके पश्चात् नाश्ता में दाख, बादाम, अखरोट, पि.ता, चारोली, घेवर, फीणी, जलेबी, लड्ड प्रादि दिये जाते हैं। ऋषभदेव ने नावा के गरना बहा बारीक वस्त्र पहिन लिये साथ ही में कान में कुण्डल, पाव में पधगड़ी, गले में हार तथा हाथों में वाजूवन्द पहिन लिये और वे सबके मन को लुभाने लगे । गीत में १३ पद्य हैं । अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है बाजूबन्द सोहामणी राखडली मनोहार । रुपे रतिपति जीतियो, जाये कुमुदचन्द्र बलिहार ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક (१८) शोल गोल इस गीत में कवि ने चारित्र प्रधानता पर जोर दिया है। यदि मानव असंयमी है काम वासना के अधीन होकर अनैतिक आचरण करता है तो उसके अच्छी गति कभी प्राप्त नहीं हो सकती। दूसरी स्त्रियों के साथ जीवन बिगाड़ने के लिये कवि कहता है भट्टारक कुमुदचन्द्र जही खोटी पतंगतो । संगनी तेहवो चटको रे परत्रिय परत्रिया केरो प्रेम प्रिउडा रखे को जागो खरो । दिन चार रंग सुरंग रुमडो, पछे मरहे निरधरे । जो घणां साथ नेह मांडे छांड़ि ते हस्यु बातडी इस जाणी मन करिनाला, परनारी गाये प्रोडा ॥ गीत में १० डाल एवं १० त्रोटक छन्द है । (१६) चिन्तामणि पार्श्वनाथ गीत प्रस्तुत गीत में चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रष्ट द्रव्य से पूजा करने के महात्म्य का वर्णन किया गया है । अष्ट द्रयों में प्रत्येक द्रव्य से पूजा करने के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है। जल चन्दन अक्षत वर में चर दीवडलो रे । फल रचना प्ररथ करो सखी जिम न पडो भव कूप रे गीत में १३ प है । गीत के प्रांत में कथि ने अपने एवं अपने गुरु दोनों के नामों का उल्लेख किया है । चिन्तामणि पार्श्वनाथ पर कवि का एक गीत र भी मिलता है । (२०) दीवाली गीत इस गीत में दीपावली के अवसर पर भगवान महावीर के मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाने के लिये प्रेरणा भी गयी है। उसी समय गोतम गणधर को कैवल्य हुआ और अपने ज्ञान के आलोक से लोकालोक को प्रकाशित किया । देवताओं ने नृत्य करके निर्वाण कल्याणक मनाया तथा मानव समाज ने घर घर में दीपक जला कर निवारण कल्याणक के रूप में दीपावली मनायी । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (२१) चौबीस तीर्थ कर देह प्रमाण गीत प्रस्तुत गीत में चौबीस तीर्थ करों के देह प्रमाण पर चार चरणों का एक एक पद्य निबद्ध किया गया है। रचना साधारण श्रेणी की है। जो २७ पद्यों में पूरी होती है। मन्तिम पद्य निम्न प्रकार है ए चौबेसे जिनवर नमो, जिम संसार विष मवि भमो । पामो अविश्वल सुखनी खानि कुमुदचन्द्र कहे मीठी वाणी ॥२७॥ (२२) बरणजारा गीत इस गीत में जगत की नश्वरता का वर्णन किया गया है । गीत की प्रत्येक पंकि "सजारा ह संसार देस, मभीय भमो तु उसनो" से समाप्त होती है । यह मनुष्य वणजारे के रूप में यों ही संसार में भटकता रहता है। वह दिन रात पाप कमाता है इसलिये संसार बन्धन से कभी नहीं छूटने पाता । पाप कर्या ते अनंत, जीव दया पालो नहीं। सांची न बोलियो बोल, मरम मो साबहु बोलिया ।। गीत में विविध उपाय भी सुझाये गये हैं । गीत में 41 पर हैं। पद साहित्य छोटी बड़ी रचनाओं के अतिरिक्त कुमुदचन्द्र ने पद भी पर्याप्त संख्या में निबद्ध किये हैं। उस समय रद रचना करना भी कविगत विशेषता मानी जाती थी। कबीर, मीराबाई, सूरदास एवं तुलसीदास सभी ने आने अपने पदों के माध्यम से भक्तिरस की जो गंगा बहाई धी वैसी ही अथवा उमी के अनुरूप कुमुदचन्द्र ने भी अपने पदों में प्रर्हद भक्ति की मोर जन सामान्य का ध्यान आकृष्ट किया । वे भगवान पार्श्वनाथ के बड़े भक्त थे । इमलिये अपने पदों में भी पाश्वनाथ भक्ति की गंगा बहाई । वे कहते हैं कि उन्होंने प्राज भगवान पापर्व के दर्शन किये हैं। उनका शरीर सावला है, सुन्दर मति गान है तथा सिर पर सर्प सुणोभित है। वे कमठ के मद को तोड़ने वाले है तथा चकोर रूपी संसार के लिये वे चन्द्रमा के समान हैं। पाप रूपी अवकार को नष्ट कर प्रकाश करने वाले हैं तथा सूर्य के समान उदित होने वाले हैं। इन्हीं भावों को कवि के शब्दों में देखिये-- Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक कुमुदचन प्राजु में देखे पास जिनेंदा सांवरे गात सोहमनि मूरति, शोभित शीम फर्णेदा प्राजू।। कमठ महामद भजन रंजन, भविक चकोर सुचंदा । पाप तमोपह भुवन प्रकाणक उदित अनुप दिनेंदा ग्राजु।। भुविज-दिदिज पति दिनुज दिनेसर सेषित पद अरविन्या कहत कुमुदचन्द्र होत सबे सुख देखत वामानंदा 11अाजु।। कुमुदचन्द्र लोहण पार्श्वनाथ के बड़े भक्त थे। उन्होंने लोडण पार्श्वनाथ की विनती लिखने के अतिरिक्त दो पद भी लिखे हैं जिनमें लोडण पार्श्वनाथ की भक्ति करने में अपने पापको सौभाग्यशाली माना है एक पद में "वे अाज सबनि में हूं बड़ भागी” कहते हैं और हमने पद में गम भागनाथ के दर्शनासे गाने ज़म्म को सफल मान लेते हैं इसलिये वे कहते है “जनम सफल भयो, भयो सु फाजरे, तनकी तपस मेरी सब मेटी, देखत लोडण पास प्राज रे ।' भक्ति के रंग में रंग कर वे भगवान से कहते हैं कि यदि वे दीनदयाल कहते हैं तो उन जैसे दोन को क्यों नहीं उबारते हैं। कवि का जो तुम दीनदयाल कहावत" वाला पर अत्यधिक लोकप्रिय रहा तथा जन सामान्य उसे गाकर प्रभु भक्ति में अपने पापको समर्पित करता रहा । जब भक्तिरस में अोतप्रोत होने पर भी विघ्नों का नाश नहीं होने लगा तथा न मनोगत इच्छाए' पूरी होने लगी तो भगवान को भी उलाहना देने में वे पीछे नहीं रहे और उनसे स्पष्ट शब्दों में निम्न प्रार्थना करने लगे प्रभु मेरे तुम कुऐसी न चाहिये सघन विघन परत सेवकः क मौन घरी किन रहिये ।।प्रभु।। विघन-हरम सुख-करन राबगिकु, चित चिन्तामनि कहिए अपारण शरण अबन्धु बन्धु कृपासिन्धु को विरद निबहिये । प्रभु।। जो मनुष्य भव में प्राकर न तो प्रभु की भक्ति करने हैं और न प्रत उपवास पूजा पाठ करते हैं तथा कोई न पुण्य का काम करते हैं लेकिन जब वे मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं तो हृदय में बड़ा भारी पछतावा होता है और उनके मुख से निम्न शब्द निकल पड़ते है मैं तो नर भव बाधि गापायो न कियो तप जप प्रत विधि सुन्दर, काम भलो न कमायो । मैं तो। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतिस्थ विकट लोभ तं कपट कूर करी, निपट विष लपटायो विटल कुटिल पाठ संगति से, साह, लिस्ट इसी पद में ऋवि आगे कहते हैं कि हे मानव तु दिन प्रतिदिन गांठ जोड़ता रहा और दान देने का नाम भी नहीं लिया और जब यौवन को प्राप्त हुआ तो दूसरी स्त्रियों के चक्कर में फंसकर अपना समस्त जीवन ही गवां दिया । जब संसार से विदा होने लगा तो किसी ने साथ नहीं दिया और पापों की गठरिया लेकर हो जाना पड़ा तब पश्चाताप के प्रतिरिक्त शेष कुछ नहीं रहा । इन्हीं भावों को कवि के शब्दों में देखिए - कृपण भयो कुछ दान न दीनों दिन दिन दाम मिलायो । जब जोवन जंजाल पडयो तब परत्रिया ततु चित लायो || मैं तो || अंत समें कोच संग न भावत, झूठहि पाप लगायो । कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही, प्रभु पद जरा नहीं गायो । मैं तो ॥ ७१ महेंद्र भक्ति एवं पाश्वं भक्ति के अतिरिक्त भट्टारक कुमुदचन्द्र ने अपने गुरु भट्टारक रत्न कीर्ति के समान राजुल नेभि पर भी कितने ही पद निबद्ध करके राजुल की विरह भावना के व्यक्त करने में वे आगे रहे हैं। राजुल की विरह भावना को व्यक्त करते हुए वे "राखी से प्रत तो रह्यो नहि जात" जैसे सुन्दर पद की रचना कर डालते हैं और उसमें राजुल के मनोगत भावों का पूरा चित्र प्रस्तुत कर देते हैं । राजुल को न भूख लगती है और न प्यास सताती है तथा वह दिन प्रतिदिन मुरझाती रहती है। रात्रि को नींद नहीं श्राती है और नेमि की याद करते करते प्रातः हो जाता है | विरहावस्था में न तो चन्द्रमा अच्छा लगता है और न कमल पुष्प | यही नहीं मंद मंद चलने वाली दवा भी काटने दोड़ती हैं इन्हीं भावों को कवि के शब्दों में देखिये नहि न भूख नहीं तिसु लागत, घरहि घरहि मुरझात । मन तो उरमी रहयो मोहन सु सेवन ही सुरक्षात ॥ सखी || नाहिते नींद परती निसि वासर होत बिसुरत प्रात । चन्दन चन्द्र सचल नलिनी दल, मन्द मरुत न सुहात || अब तक 4.वि के ३८ पद उपलब्ध हो चुके हैं लेकिन बागड़ प्रदेश के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत गुटकों में उनका और भी पद साहित्य मिलने की संभावना है। कुमुदचन्द्र के पदों के अध्ययन से उनकी गहन साहित्य सेवा का पता चलता है । ये भट्टारक जैसे सम्मानीय एवं व्यस्त पद पर रहते हुए भी दिन रात साहित्याराधना Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक कुमुपचन्द्र में लगे रहते थे और अपनी छोटी बड़ो कृतियों के माध्यम से समाज में पवित्र वातावरण बनाने में लगे रहते थे । वास्तव में उनका सगस्त जीवन ही जिनवाणी की रोवा में समर्पित रहता था। उनका पद साहित्य एवं अन्य कृतियां उनके हृदय का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे दिन रात तीर्थकर भक्ति में स्वयं डूबे रहते थे और अपने भक्तों को सुबोया रम्बले थे । वह समय ही ऐसा था। चारों ओर भक्ति ही भक्ति का वातावरण था । ऐसे समय में कुमुदनन्द्र ने जनता की मांग को देखते हुए साहित्य सर्जना मे अपने ग्राप को समर्पित रखा। उनका माहित्य पढ़ने से उनके हृदय की चुभन का पता लगता है । उनको सारे समाज को विभिन्न प्रकार की बुराइयों एवं दूषित वातावरण से दूर रखते हुए जीवन का विकास करना था और इसके लिये साहित्य सर्जन को ही अपना एक मात्र साधन माना । जे यपने गुरु रस्नकोति से भी दो कदम आगे रहे और अनेकों कृतियों की रचना करके उस समय के भट्टारकों साधु सन्तों के समक्ष एक नया प्रादर्श उपस्थित किया। शिष्य परिवार वैसे तो गट्टारकों के अनेक शिष्य होते थे। उनके सम्पर्क में रहने में ही लोग गौरव का अनुभव करता थे । लेकिन तुमुदचन्द्र ने अपने सभी शिष्यों को साहित्य सेवा का व्रत दिया और अपने समान हो साहित्य सर्जन में लगे रहने की प्रेरणा दी। मही कारण है कि उनके शिष्यों की भी अनेक रत्तनाए मिलती है। कुमुदचन्द्र के प्रमुख शिष्यों में- अभय चन्द्र, ब्रह्मराागर, घर्मसागर, संयमसागर, जयसागर एवं गणेशसागर के नाम उल्लेखनीय हैं । इन सबने मुदचन्द्र के सम्बन्ध में भी कितने ही पद लिखे हैं जिसमें उनके विशाल "क्तित्व एवं अपने गुरु के प्रति समर्पित जीवन का पता लगता है। इनके सम्बन्ध में आगे विस्तृत रूप से प्रकाश डाला जावेगा। बिहार ___ गुजरात का बारडोली नगर इनका प्रमुख केन्द्र था। इसलिये इन्हें बारडोली का सन्त भी कहा जाता है। यहीं पर रहते हुए ये सारे देश में अपने जीवन, त्याग एवं साधना के प्राधार पर लोगों को पाचन सन्देश सुनाते रहते थे । ये प्रतिष्ठाओं में भी जाते थे और वहा जाकर धर्म प्रचार लिया करते थे। भट्टारक काल कुमुदचन्द्र भट्टारक गादी पर संवत १६५६ से १६८५ तक रहे। इन २६-३० वर्षों में उन्होंने समाज को जाग्रस रखा और सदैव साहित्य एवं धर्म प्रचार की भोर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व अपना लक्ष्य रखा | वे संघ के साथ विहार करते और जन जन का हृदय सहज ही जीत लेते। वे प्रतिष्ठा महोत्सवों, व्रत विधानों आदि में भाग लेते और तत्कालीन समाज से ऐसे प्रयोजनों को करते रहने की प्रेरणा देते । माया ધર્ कुमुदचन्द्र की कृतियों की भाषा राजस्थानी के अधिक निकट है। लेकिन गुजरात एवं बागड प्रदेश उनका मुख्य बिहार स्थल होने के कारण उसमें गुजराती का पुट भी आ गया है। मराठी भाषा में भी वे लिखते थे। 'नेमीश्वर हमरी' मराठी भाषा की सुन्दर रचना है। कृतियों से उनके पदों को षा अधिक परिस्कृत हैं और कितने ही पद तो खड़ी बोली में लिखे गये जंग लगते हैं और उन्हें तुलसी, सुर श्री भोरा द्वारा रचित पदों के समक्ष रखे जा सकता हैं। भाषा के साथ साय भाव एवं शैली की दृष्टि से भी कवि का पद साहित्य उल्लेखनीय है। रचनाओंों में यारी, म्हारी, पाछे यो, जैसे शब्दों का प्रयोग बहुत हुआ है। इसी तरह माब्यू, जापू, हरख्यां सुक्या जैसे क्रिया पदों की बहुलता है। कभी-कभी कवि शुद्ध राजस्थानी शब्दों का प्रयोग करता है जिसे निम्न पद्य में देखा जा सकता है कालिय दिन दिवालिना मखि परि घरि लील विलास जी किस कम कवयो वेस्सु करिये घरिघरि वासि जी । नेमिनाथ बारहमासा इसी तरह राजस्थानी भाषा का एक और पद्य देखिये बचन माहरु गानिये, परितारी थी रहो बेगला | अपवाद भाथे नढ़े मोटा रंक यह दोहिला | श्रील गीत छों का प्रयोग कुमुद की विविध रचनाओं से ज्ञात होता है कि वे छन्द शास्त्र के अच्छे वेत्ता थे इसलिये उन्होंने अपनी कृतियों को विभिन्न छन्दों में निबद्ध की है। कवि को सबसे अधिक घटक काल एवं विभिन्न राग रागनियों में काव्य रचना करना प्रिय रहा। गीत लिखना उन्हें चित्र लगता था इसलिये इन्होंने अधिकांश कृतियां गोतारमत्रता शैली में लिखी हैं। वे अपनी प्रवचन समानों में इन गीतों को सुनाकर अपने भक्तों को भाव विभोर कर देते थे । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ भट्टारक कुमुदध संवत् १७४८ कार्तिक शुक्ला पञ्चमी के दिन लिखित एक प्रशस्ति में भट्ट रक कुमुदचन्द्र की पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती भट्टारक परम्परा निम्न प्रकार दी है -- मूल संघ, सरस्वती गच्छ एवं बलात्कारगरा आचार्य कुन्दकुन्द भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक अभयनन्द्र अभवनन्दि रत्नकीति [१६३०-१६५६] कुमुदचान १६५६-१६८५] यभयन्द्र (द्वितीय) शुभचन्द्र (१७२१) रत्नचन्द्र [सं० १७४५] इस प्रकार भट्टार फ मृद चन्द्र के पश्चात संवत १७०० के पुर्व तक भट्टा र अभयनन्द्र एवं भ. शुभचन्द्र और हुआ । इन दोनों भट्टारकों का परिचय निम्न प्रकार है ४६. मट्टारक प्रभयचन्द्र अभय चन्द्र संवत १६८५ में भट्टारक गादी पर विराजमान हुए। वे मट्टारक बनते समय पूर्णयुवा थे। उन्होंने कामदेव के मद को चकनाचूर कर दिया था वे विसता में गौतम गणधर के समान थे । अपूर्व क्षमाशील, गंभीर एवं गुणों की न्वान थे । विद्या के वे कोप थे तथा वाद विवाद में वे सदेव अपराजित रहते थे पं. श्रीपाल ने उनके सम्बन्ध में अपने एक पद में निम्न प्रकार परिचय दिया है चन्द्रवदनी मृग लोचनी नारि अभय चन्द्र गछ नायक वांदो, सकल संघ जयकारि । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व कृतित्व मदन महामद मोडेए मुनिवर, गोयम सम गुणधारी क्षमावंतषि गंभीर विचक्षण, गुम्यो गुण भंडारी ।। अभयचन्द्र अपने गुरु भट्टारका कुमुदचन्द्र के योग्यतम शिष्य थे। उन्होंने भट्टारक रत्नकीति भट्टारक कुमुदचन्द्र का समय देखा था और देखी थी उनको साहित्यिक साधना इसलिये जब वे स्वयं भट्टारक बने तो उन्होंने भी उसी परम्परा को जीवित रखा। बारडोली नगर में इनका पट्टाभिषेक हुआ था। उस दिन फाल्गुण सुदी ११ सोमवार संवत् १६८५ था । पाट महोत्सव में समाज के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे। इनमें मगनी, गटी, मे::ी, हो, गाजी, भीमजी आदि के नाम उनलेवनीय है । नाविवर दामोदर ने गाट महोत्सव का निम्न पादों में वर्णन किया है बारडोली नयरि उन सीधो, महोछ्व अन्त अधारी । सधवी नाग जी अति प्राणा, हेगजी हरष अपार । माधवी व वर जी लाडल, भाजी महिमावत रूपजी मालजी मनोहारु, मह सज्जन मन मोहंस । संधर्व भीमनी गायस्यु', नुन जीवा मने उल्हास मंचचाई जीवराज उन घणो, पहोतीछे मन तणी प्राम । संवत सोल पच्यामी ये, फागुण मुदि एकादणी सोमवार नेमिनन्द्र' सुर मंत्रज, प्राप्पा बरतयो जयकार ॥ - .- अभयवन्द्र का जन्म सांवत् १६४० के लगभग हंवड़ वंश में हुआ था । इनके पिता का नाम श्रीपाल एवं माता का नाप को डमदे पा । नचपन में ही बालक अभय चन्द्र को साधनों की मंडली में रहने का सूनवरा र मिल गया था। हेमजी कुवर जी इनके भाई थे । ये गम्मन्न पराने न थे। युवावस्था के पूर्व ही उन्होंने पांच महावतों का पालन प्रारम्भ कर दिया था। हंबड वंशे श्रीपाल माह लका, जनम्यो रुडी रतनदे कोडगदे मात । लघु गणें लीधो महावा भार, मनवण करी जीत्यो दुर्धरि भार 1 इसी के साथ इन्होंने संस्कृत प्राकृत के ग्रंथों का उच्च अध्ययन किया । न्याय शाम में पारंगता प्राप्त की तथा अलंकार शास्त्र एवं नाटकों का तलस्पर्शी अध्ययन किया । इसके साथ ही प्रष्ट महली, श्रिलोकसार, गोम्मटमार जैसे ग्रन्थों का गहरा ज्ञान प्राप्त किया। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक अभयचन्द्र व्याकगं छन्द अलंकार रे अष्ट सहस्त्री उदार रे पिलोक गोम्मटसार के भाव हृदय धरे ॥ जब उन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया तो त्याग एवं सरस्या के प्रभाव से उनकी मुखाकृति सत्यमेव अाकर्षक बन गयी और भक्तों के लिये वे प्राध्यात्मिक जादूगर बन गये । इनके नचासों शिष्य बन गो उनमें गणेश, दामोदर, धर्मसागर, देवजी, रामदेवजी के नाग विदोपतः उल्लेखनीय है । इन शिप्यो ने पदमारक प्रभयचन्द्र की अपने गीतों में भारी प्रशंसा की है । लगता है उस समय चारों ओर अभयचन्द्र का यशोगाथा फैल गयी थी। जब वे विहार करते तो इनके शिष्य जन-साधारण को एक विशेषतः पहिला समाज को निम्न बच्चों में प्रा करते थे पायो रे भामिनी गाज वरगमती बांदवा अानन्द मिली मृग नयनी । मुगताफलनी लाल भरी जे गच्छनायक अभयचन्द्र वाचावी । कूकुम चन्दन भरीय कोली गेगे पर पूजो गो ना ग भनी ।। ३ ।। अभयचन्द्र के साबन्ध में उनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा कितने ही प्रशंसात्मक गीत मिलते हैं जिनसे कितने ही नवीन तथ्यो की जानकारी मिलती है । इन्हीं के शिष्य वर्मसागर ने एक गीत में जन के यश की प्रगामा करते हुए लिखा है कि देहली के सिंहासन तक उकफी शंमा पहुच गयी थी और वहां भी उनका सम्मान था । चारों मोर उनका यश फैल गया था। दिल्ली र सिंहासन से मजियो रे गाजियो यश विभवन मन्दिरे ।। इसी तरह उन है एक गिा दामोदर ने अपने एक गीत में भक्तो से निम्न प्रकार का प्राग्रह किया है - जांदो वांदो सखी री श्री अभयचन्द्र गोर वांदो । मूलसंध मंडल दुरित निसन मदनन्द पाटि वांदो ।। १ ।। शास्त्र सिद्धान्त पूरण । जाण, प्रतिबोटो भत्रियण प्रनेका सकल कला करी विशः। में रंजे भंजे वादि अनेक ।। २ ।। हूंबड़ वंशे विख्यात सुधा, श्रीपाल सावन तास । जामो जननी मती यशवंतो कोडमदे धन मात ।। ३ ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व रतन चन्द्र पाटि कुमुदचन्द्र पक्ति प्रेमे पूजो पाय | तास पाटि श्री अभयचन्द्र गोर दामोदर नित्य गुरा गाय ।। || भट्टारकों की वेश भूषा लाल चद्दर वाली होती थी । बदर गी राजस्थानी में पछवड़ी कहते हैं । इसलिय गन भट्टा अभय चार अगनी 'मट्टारसीप वेश भूषा में सभा में बंटते थे दो वे कितने सुन्दर एवं नुभावने लगते थ ६।। को धर्म सागर ने एक गीत में छन्दी बद्ध किया है - लाल पिछोटी प्रभयानन्द्र सोहे निरचला भनियकनां मन माहे। प्रांगानो का पानोरे, मायडू ने पूनिगपन्द शुक ची मम नासिका ?, अथा प्रधानां वृक्षरे कार बाबू हलिया रे, है ने सरस्वती वाल्हो यांदि सोमन पहजो पछि, हाथि रडियो ली रे सबत् १७०६ में भट्टारक मापनन्द का मुरत नगर में विहार हुमः। उस समय उनका वहां अभूतपूर्व स्वागत हप्रा । पर घर में उत्सव प्रायोजित किये गये । मंगल गीत गाये गये। नारी पोर प्रानन्द ही ग्रानन्द छा गया। जय जय कार होने लगी। इस। एक एय का “देवजी" ने एक प निम्न प्रकार छन्दो बर।। किया है माज पाणद गाई अलि धगी ए, कांई बरत यो जय जय कार । अपचन्द्र मनि श्री-याा काई सन्त मगर मझार रे ॥ घरै घरे उच्छव प्रति , काई माननीगल गाय रे । अग पूना , उवा रण", काई नाम छहार वडास रे। पन्नोत यांणो गोर प्रयाभना रे, वागी मीठी अगर मान तो । धमं ये मांगी ने प्रतिबोध ॥, पुननि ना करे परिक्षार जी। संबत मारोतरे काई नरिजी प्रेमजीनी पूगी पास रे। रामजीन श्रीपाल हरयो Tu, काई वेजी कुपरजी मोहनदास रे।' मोनम गम मार सोभनो ए, काई बूधे जयो प्राय माररे । सकल फला गुगा मंडगो ए, काई देव नो कहे उगो उदार र 1 इस तरह के और भी बीमो मौत भट्टारका अमेयनन्द्र के मावन्ध में के ईन गिष्यों द्वारा लिखे हुये मिलते हैं जिनमें उनकी भूरि भूरि प्रशंसा व गहें । अभय चन्द्र का इतना अच्छा वर्णन उनके प्रसाधारण पक्ति की मोर स्पपट Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ सकेत हैं। वे 36 वर्ष तक मट्टारक पद पर रहे पोर मारे प्रदेग में मरने हजारों प्रशंसकों एवं भक्तों का समूह इकट्ठा कर लिया। प्रप्रयचन्द के प्रब तक निम्न रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं - ११) वासपूज्यनी धमाल (३) गीत (३) चन्दा नौत (४) सूखडी [५) पद्मावती गीत (६) शान्तिनाथजी विनती (७) प्रादीश्वरजी विनती (4) पञ्चकाल्यागाना गीत १५) बलभद्र गीत (१० लांछन गीत (११) विभिन्न पद । भट्टारक अभयचन्द्र की विद्वता एवं शास्त्रों के ज्ञान को देखते हुए उक्त त्तियां बद्त कम है इसलिये एनभी उनकी किमी बड़ी वृति के मिलने की अधिक संभावना है लेकिन इसके लिए रागढ़ प्रदेश एवं गुजरात के शास्त्र भवारों में खोज की मावश्यकता है। इसके अतिमिक यह भी सभव है कि अभय बन्द ने साहित्य निर्माण के स्थान पर में ही प्रचार प्रचार पर अधिक जोर दिया हो। मभयनन्द की 1. सभी रवनाप नाप वृतियां हैं । यद्यपि काव्यत्व भाषा एवं पाली की हाट में - उन्ध स्तरीय रचना नहीं है लेकिन ताका लीन रामाज की मांग पर ये पत्र लिखी गयी थी इसलिय इन वि का काध्य बंभव एवं सौष्ठय प्रदर्शन होके स्थान पर प्रचार-प्रसार का अधि लक्ष्य रहा था । कुछ प्रमुख रचनाय का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है १-पासपूज्यनीषभाल १. पद्यों में २०वें तीर्थ कार वासुपूज्य स्वामी के माल्याराकों का वर्णन दिया गया है। धमाल में गूरत नगर का उल्ने जो गंमत्र :: वहां वै मतिर में दासुपूज्य स्वामी की प्रतिमा स्तवन के कारण होगा । सूरत नगर गानु' जगईस, सकल गुरासर नामें गोस । मूलसंघ मण्डल मनोहर. मुदत्तन्द्र करुणा भण्डार ||६|| तेह पाटे उदयों वर हश, अभय चन्द्र धन हूं वंश ।। ले गोर गाये एह सुभास, भणता सुणता स्वर्ग निवास ॥१०॥ २- मागीत इस गीत में कालीदास के मेघदूत के विरही यम की भाति स्वयं राजुल Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व कृतित्व अपना सन्देश चन्द्रमा के माध्यम से नेमिनाथ के पास भेजती हैं। सर्वप्रथम चन्द्रमा से अपने उद्देश्य के बारे में निम्न पन्नों में वर्णन करती है विनय करी राजुल' कहे, चन्दा बीनतई। अब धारो रे । ज गारजाई वीजे, या जहां छ प्राण आधार रे ।। मगने गमन ताहरू' ना, चन्दा अमिव वरणे अन्नन्त रे । पर उपगारी तु मनो, चन्दा वलि बलि बीनदू संन रे ।। राजुग ने इसके पश्चात् भी चन्द्रमा के सामने अपनी यौवनावस्था की दुहाई । दी तथा दिरहग्नि का उसके सामने वर्णन किया । विग्ह तणां दुख दोहिता, वंदा ते किम में सहे बाप रे । जल बिना जम मछली, बंदा ते दुख में बाय रे ॥ राजुल अपने सन्देश वाहक से कहती है कि यदि कदायित नेमिकुमार वापिस चाने माने तो यह उन के पानमन पर वह पूर्ण शृगार करेगी । इस वर्णन में कार ने विभिन्न यगों में पहिने जाने वाले प्राभूपरषों का अन्छा वर्णन किया है। ३. सूखड़ी यह ३७ पदों की लघ रचना है, जिसमें विविध व्यंजनों का उल्लेख किया किया गया है कवि को पाकशास्त्र का अच्छा ज्ञान था । "सूखड़ी" से तकालीन प्रचलित मिठाइयों एवं नमकीन चाय सामग्री का प्रती तरह परिचय मिलता है । शान्तिनाथ के जन्नावसर पर विधने प्रकार की मिठाइयां आदि बनाई गई थी-इसी प्रसंग को बताने के लिए इन व्यंजनी का नामोल्लेख किया गया है । एक वर्णन देखिये-- जलेबी खाजला' पूरी, पतासां फीगी संजूरी। दहीपरा पीणी माहि. साकर भरी ।।६।। सकरपारा सुहाली, तल गयडी मारली 1 थापड़ास्यु' थीणु पीर, प्राल जीरली ।।५।। गरकीने चादखःनि, बोट ने दही बड़ा सोनी । बाबर घेवर श्रीसो, वानेक वांनी ॥६॥ 4. आदीश्वररणी विनति इसमें प्रादिनाथ भगवान का स्तवन तथा पांचों वाल्याणकों का वर्णन किया गया है । रचना सामान्य है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ED भट्टारक शुभचन्द्र इसमें मादिनाथ के पन्धकल्याणकों का वर्णन किया गया है पद्य संख्या २१ है। रचना सामान्य है। भाबोरवरनु मात्र कल्याणक गीत इस प्रकार भट्रारक अभयचन्द्र ने अपनी लप रचनाभी के माध्यम से जो महती सेवा की थी वह सदेव अभिनन्दनीय रहेगी। ५०. महारक शुभचन्द्र भद्रारक प्रभयचन्द्र के पपत्रात शुभचन्द्र भट्टारका गद्दी पर बैठे । संवत् १७२१ की ज्येष्ट बुद्धि प्रतिपदा के दिन पोरदादर में एका विष उत्मक किया गया पीर उममे शुभचन्द्र को पूर्ण विधि के साथ भट्टारक गद्दी पर अभिषिक्त किया गया। पं. श्रीगान ने शुभचन्द्र हमश्री निधी है उसमें शुभचन्द्र अभिषिक्त के भट्टारक पद पर अभिषेक हान से पूर्व तक का पूरा वृतान्त दिया हुया है । पणुभ चन्द्र का मन्म गुजरात प्रदेश के जलसेन नगर में दुर्गा जहां गत एवं मन्दिर तथा नर कार भवन से । यही बाड़ वंगा के शिरोमणि हीरा धावक थे । माणिकदे उनकी पत्नी का नाम था । बचपन से ही बालक व्युत्पन्नमति थे उसका विद्याध्ययन यी मो. विशेष गान था, इसलिए व्याकरण, तर्कशास्त्र, पुराण एवं छन्द - का गहरा अध्ययन किया । मप्ट सहनी जंग कटिन प्रन्यों को पढ़ा । प्रारम्भ में उसका नाम नबनाम था लेकिन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने पर उसका नाम सहेजसागर रखा गया और भट्टारक बनने पर वे पामचन्द्र नाम से प्रसिद्ध हुये । शुभचन्द्र शरीर से अतीव सुन्दर थे। योपाल कवि ने उनकी सुन्दरता का । निम्न प्रकार वर्णन किया है--- नाशा शुक चंची सम सुन्धर, मघर प्रवाली वन्न । रक्तवर्ण जि पक्ति दिमित, निरखता यानाद रे ॥१॥ - . ..-. .. 1. सभी संवत सरतर एक बोरसे बली जेष्ठ वदी प्रतिपद वीवसे श्री पोरबन्दर मोहोय हवा, मल्या चतुर्विध संघ ते मघा नवा 2. हड़पंश हिरणी होरर' सम सोहे मन गो धन्य वस मन रंजक मारिणको शुभ बायो सुन्दर तन्न रे मालपणे युधित विलक्षए विद्या बखद निधान । नागम जिन भक्ति करें एह जिन साइन बहतान रे ।।५।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकी लि एवं कुगुर : व्यतित्व एव कृतित्व रूपे मदन समान मनोहर, चूद्ध अभय कुमार । सीले सुदर्शन रामान सोहे गोतम सम अबतार रे ।।१०।। एक दिन भट्टारक प्रशचन्द्र ने अपनी प्रवचन सभा में हपित होकर कहा कि सहेजसागर के सामान कोई मृग नहीं है। वहीं परथ होने योग्य है । यह यागमों का सार भी जानता है । इसके पश्चात संघलि प्रेमजी, हीरजी, गाजी, नेमीदास हुबड़ वंशा शिरोमणी बाधजी, गंधजी, रामलीनयन, गागजी जोपंधर वर्धमान अदि सभी श्रीपुर से आये और चतुविध संघ के समक्ष यह महोत्सव का आयोजन किया । संघ सहित थी जगजीवन राणा भी पाट महोत्सव में पाये तथा दक्षिण से धर्मभूषण भी ससंघ सम्मिलित हो । गुभ नहीं देखकर जिन पूजा की गई । शान्ति होम विधान सम्पन्न हुमा। जलयात्रा एवं जीणमवार हुई और बेटा सुदी प्रतिपक्षा के दिन जय जयका र दर की थी। शुभारन्द्र को पट्टर विराजमान कर दिया । सूरि मन्त्र धर्मभूषण ने दिया । -- - .---...-. .. 1. एकदा प्रतिमानन्द शेले, अमयच व जयकार । सुरगयो राह सज्जन मम रंगे, पाट लगो सुविचार रे ॥१॥ सहेज़ सिंधु सम नहीं को यतिवर, जगमा जारगो सार। पाट योग सुगर एहने, आपयो गच्छ नो भार रे ।।२।। सधपति प्रेमसी हीरजी रे, सहेर वंश श्रृंगार । एकलमल्ल आवई अति उदयो, रत्नजी गुरुप भण्डार रे ॥३॥ नमीदास निरुपम मर सोहे प्रखई प्रवाई बोर । हुम्बड़ श शृंगार शिरोमरिष बाघजो फंध पीर रे ॥४।। रामजीनन्दन गांगाजी रे, जीचंधर वर्षामान । इत्यादिक सघपति ए साते, पावा श्रीपुर गांप रे ।।।। पाट महाशय मायो रगे' सघ चतुर्विध लाया। संघति श्री जगदीना राणो. सघ सहित ते प्राच्या ।६।। दशरण देश नो गछाति रे, धर्मभूषण तेजाका । अति आबर साधे साहमोकरी ने तप घराध्या रे ॥७।। शुभ महरत जोई जिन पूजा शांतिक होम विधान । जमरा गर पुगते जल जात्रा प्राये श्रीफल पानं रे ॥८॥ शुभचन्द्र इमची Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्ठारक शुभषद पद्रस्थ होने के पश्चात इन्होंने अपने जीवन का सक्ष्य निर्धारित किया और अपने भारम उद्धार के साथ-साथ समाज के प्रज्ञानान्धकार को दूर करने का बीड़ा उठाया और उन्हें अपने मिपान में पर्याप्त सफलता भी मिली । उन्होंने अनेक स्थानों पर विहार किया पौर जन जन के भृद्धा एवं भक्ति के पात्र बने । येतीयों के वन्दना की जाते तो अपने साथ पूरे संघ को से चलते । एक बार बे संघ के साथ मागो तुगीगिरी की यात्रा पर गए थे और वहां पानन्द के साथ पूजा विधान सम्पन्न किये थे । मांगीतुगी गई जिन भरियार, पूजा कीचा पवित्र निज मात्र । सांसिक त्रीस चोबिमि पूजा, सोभताए, जल यात्रा करी पोष पात्र ।।८।। जब वे नगर में विहार करने तो उनके भक्तगण उनका गुणानुवाद करसे, प्रासा करते और स्तवन में पदो वो रचना करते । इस प्रसंग पर निर्मित एक पद देखिये.-- बांदो श्री शुम चन्द्र सुन्तकारी अभय चार मुनि पार्ट पट्टोधर, अकलंक समी अवतारी । साइ मनजी कुल मंडल नु दर, शानकाला गुणधारि ॥ माणदे घाम तात मनोहर, मध्यम तत्व विवारि ॥२॥ मूलसंघ ग़रहंस विचक्षण वादी विबुध मदहारी। पंच महावत गलशिरोमणि, सुझचार प्रभारी वादो।। मोलाला गणिण बदन विराजित, जनगथ मा नारी वागही विनोद मिया मागे मानी गयो उदारि मही मंदन्न महिमा छ मोथे, की गति जल विस्तारि अमल विमान वानी मग योन, गुगा गाउ नर नारि ||वानी॥५॥ "मचन्द्र" के शियों में पं. श्रीपान, गण, विद्यासागर, जयवागर, पानन्दसागर प्रादि के नाम विशेषतः मुल्ले मनीय है । "श्रीपाल' ने तो शुभचन्द्र के कितने ही पदों में प्रसंशात्मा गीत लिय हैं-जो साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दोनों प्रकार के हैं। म. शुभचन्द्र साहित्य निगाण में प्रत्यधिक कनि रग्बते । यद्यपि उनकी कोई बड़ी रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है, लेकिन जो पद साहित्य के रूप में इनकी कृतियां मिली है, वे इनकी साहित्य रसिकता की मोर प्रकाश डालने वाली है। अब तक इनके निम्न पद प्राप्त हुए हैं Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुद पन्द्र : A व कृतित्व १. पेखो सस्त्री नन्द्रसम मुख चन्द्र २. आदि पुरुष भजो प्रादि जिनेन्दा ३. कौन सखी सुध ल्यावे पश्राम की ४. जपो जिन पार्श्वनाथ भवतार ५. पावन भति मात पदमावनि खतां ६. प्रात ग़मये शुभ ध्यान धरीजे ७. वासुपूज्य जिन चरिती-मुणो नाम पूज्य मेरी विनती ८. श्री मारदा स्वामिनी प्रणाम पाय, स्तबू नीर जिनेश्वर विबुधराय । ९. अज्झारा पार्श्वनाथनी वीनती उक्त पदों एवं विनतियों के अतिरिक्त अभी भ, शुभचन्द्र की और भी रचनाए होंगी, जो 1ो पुरा के हो पर अपना किसी शास्त्र भण्डार में स्वान्त्र के रूप में ग्रहाायथा गपड़ी है अपने हार बी बाट जोह रही होंगी। पदों में कवि ने उत्तम भावों का रखने का प्रयास किया है ता मालम होता है कि शुभचन्द्र प्रने पूर्ववर्ती करिया का समान "नेपि-राजुल" को जीवनघटनामों से अत्यधिक प्रभावितले गलिः एक पद में उन्होंने "कौन सनी सुध त्याचे श्याम की'' मामिक भाव भरा । इस पद से स्पष्ट है कि कवि के जीवन पर मीरा एवं मुरदान के पशं का प्रभाव भी पड़ा है कौन सखी भुध ल्याव श्याम की । मधूगै धनी भूख वद विराजिरा, राजमति गुगण गाने ।।श्यामः ।। अग पिपरा गनीमय मेरे, मनोहर माननी पान । करो काछ नन्न मन्त मेरी सजनी, मोहि प्राणनाय मिनाचे श्याम।।२।। गज गपनी गुण मन्दिर स्यामा, मनमथ मान सतावे । कहा अयमुन अब दीन दयाल छोरि मुगति गा भाये । सब सखी मिली मनमोहन के दिग, जाई कथा सुनाये। सुनो प्रभु श्री भचन्द्र के साहिब, कामिनी कुल क्या ल जावें ॥४॥ कवि ने अपने प्रायः सभी पद भक्ति ररा प्रदान लिखे हैं । उनमें विभिन्न तोय करों का स्तमन किया गया है। प्राविमाथ स्तवन का एक पद है देखिये यादि पुरुष भजो श्रादि जिनेन्दा टेका। सकल सुरासुर शेष सु ध्यंतर, नर खग दिनपत्ति सेवित चंदा ।।१।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रेनचन्न जुग प्रादि जिनपति मये पावन, पतित उदाहरण नाभि के नंदा । दीन दयाल कृपा निधि सागर, पार करो अघ-निभिर जिनेंदा 1॥२॥ केवल ग्यान थे सब कछ जानत, माल अन प्रभु मो महि मंदा। . देखत दिन-दिन घरण सरण ते. विनती करत यो गरि गुभदा ॥३॥ ५१. मट्टारक ररमचन्द्र ये भट्टारक पामचन्द्र के शिष्य थे और उनके स्वगंवाम के पश्चात् भट्टारक गादी पर बंद थे । एक प्रशस्ति यो अनुमार ये संवत् १७४८ कार्तिक शुक्ला पंचमी को भष्ट्रारक पर पर पापीन थे । पं० श्रीपाल ने एक प्रभाती गीत में म. रहनचन्द्र के सम्बन्ध में निम्नगीत लिखा है जिसके अनुसार रत्नबन्द्र अत्यधिक सुन्दर एवं प्रग प्रत्यगों से मनोहारी लगने थे । वे विद्वान थे 1 सिद्धान्त प्रमों के पासी थे तथा प्रष्ट सहनी जसे कष्ट साध्य प्रन्यों के पारगामी प्रध्यता थे । पुरा नमाति गीत निम्न प्रकार है प्राल समे समरो सुखदाय वांदीय रतननन्द्र मुरी राप । रूप देखी गयो इन्द्र प्राबाम गमने गज हंस रह.या वनवास । वदन देवि पाशधर हो खीण लोचने बाजीया रज मृग मीन । जेहनां वपन तागे भडकाये सकन वादीचवर निज वा धाय । शील प्रसिवर करि काम निहंई क्रोध माया मद लोभ में ठंडे पव मिश्चात तणा मद अंडे प्रबल पवेन्द्री महा रिगु इंड नव नय तत्व सिद्धन्ति प्रकार भलीयरे श्री दि। नागा; गरा प्रष्टसहस्री प्रादि ग्रन्थ अनेक चार जिन बेर लइ वियफ श्री गुपचन्द्र पटोदर राय गछपति सचन्द्र ना पाप मपहा मूलसंधे गुरु पह वियुष श्रीपाल कहे गुणगह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भट्टारक रत्नचन्द्र की साहित्य रचना में विशेष रुचि थी। लेकिन अपने पूर्व गुरुयों के समान के भी छोटी-छोटी रचनाओ के निर्माण में रुचि रखते थे। अब तक उनकी निम्न रचनाएं मिल चुकी है १. वृषभ गीत अपर नाम आदिनाथ गीत २. प्रभाति ३. गीत आदिनाथ ४. बलिभद्रनु गीत ५. चिन्तामणि गीत ६. बावनगज गीत ७. गीस ८५ (१) आदिनाथ के स्तवन में लिखा हुआ यह छो। सा पद है किन्तु भाव भाषा एवं शैली की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। पूरा पद निम्न प्रकार है वृषभ जिन सेवी सुखकार । परम निरंजन भवभय भंजन संसारार्णवतार || वृषभ। टेक नाभिराय कुलमंडन जिनवर जनम्या जगदाधार । मन मोहन मरुदेवी नन्दन, सकल कला गुणधार ॥ वृषभ ॥ कनक कांतिसम देह मनोहर, पांसें धनुष उदार । उज्वल रत्नचन्द्र सम कौरति विस्तरी भुवन मझार || वृषभ || (२) प्रभाति में भी भगवान यादिनाथ की ही स्तुति की गयी है । प्रभाति में ९ अन्तरे हैं तथा वह " सुप्रात समरो जितराज, सकल मत वांछित संपजे काज " से प्रारम्भ की गयी है । (३) राग श्रावरी में निबद्ध शाविनाथ गीत भी भगवान प्रादिनाथ के स्तवन के रूप में लिखा गया है। लेकिन भाव भाषा एवं शैली की दृष्टि से जैसा उक्त पद है वंसा यह गीत नहीं लिखा जा सका। इसकी भाषा भी गुजराती प्रभावित है । गीत वर्णनात्मक है काव्यात्मक नहीं । अन्त में कवि ने गोत की समाप्ति निम्न प्रकार की है— जय जय श्री जिननाथ निरंजन वांछित पूरे आस रे । श्री शुभचन्द्र पटीर व्रज दीनकर, रत्नचन्द्र कहे भासरे ॥ ९ ॥ (4) बलिस्नु गीत - श्री कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र ने तुंगी पहाड़ से Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार मात्र निरिण प्राप्त किया था । इसलिये यह पहाड़ जनों के अनुसार सिद्ध क्षेत्र की कोटि में माता है । इस क्षेत्र की भट्टारक रत्नचन्द्र ने संघ' सहित संवत् १७४५ में यात्रा की थी। उसी समय यह गीत लिखागया था। इसमें ११ पद्य है। काव्य एवं भाषा की इष्टि से गीत सागाम्य है लेकिन वह ऐतिहासिक बन गया हैं । गीत के ऐतिहासिक स्थल वाले पद्य निम्न प्रकार हैं संवत सत्तर परतालीसे कोई संघपति अबई सार रे । संघ सहित जाया करी, मुख बोले जय जयकार रे । थी मूल संधे मोहाकर काई गछपति गंगा भण्डार रे। रनचन्द्र सुरिबर कहो, कई गावो नर ने नार रे ।।१।। (5) "चिन्तामणी पारसनाथन गौत" भी ऐतिहासिक बन गया है। प्रकलेश्वर नगर में चिन्तामगि पार्श्वनाथ का मन्दिर था। भट्टार रत्नचन्द्र उस मन्दिर के बड़े प्रशंसक थे। वहां बडे ठाट से प्रष्ट द्रव्य से भगवान की पूजा होती थी। पूर। गीत निस्न प्रकार है--- श्री चितामणि पूजो रे पाम, वांछिन पोहोचरी मनाणी धाम । प्रायो रे भविय राहू मली सग, सुविध पूज्य रे करो मन रंगे । देस मनोहर कागी रे, सोहे, नगर वनारसी जय मन मोहे प्रावो रे।। विश्वनेन राजा रे राज करत, ब्रह्मादेवी राधी गु प्रेम धरंत । तस कुल अयर अभीनवो चन्द, उदयो अनोपन पाम जिनेंद । नीलवरण नय हस्त उत्तंग, निकाय काम कलाघर संग । सुरगर स्वग पगी सेवित पाय, ग़त मबार पूरण प्राय । एकदा अस्थीर मंसार जाणि चारित्र ली रे मनेग प्राणी । तप बले उपनु केवल' ज्ञान, लोकालोक प्रफासी रे भान । सेव करम सहु दूर करी ने, मुर्गात वधुवरी प्रेम घरी ने । दर्शन ज्ञन रे वीर्य रानंत, गाम्या सौरूप प्रनतारेनंत । वांछित पूरे रे पंचम वाले, संकट को विधन महु टाले । श्री अंकलेशवर नगर निवास, संघ सपाल तणी पूरे रे पारा । मुनी शुभचन्द चरण ची प्राणी, गुरि रतनचन्द्र वदे अमृत वाणी। प्रावो रे भवियण सहु मली अधे, व सुविध' पूजा रे करो मन रांगे । (६) बावनगजागीत-मट्टारक रत्नपन्द्र ने संवत १६५६ में बावनगज मिद्ध क्षेत्र की संघ सहित यात्रा की थी। इसको चूलगिरि भी कहते हैं। यहां से पाच Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक रलकीर्ति कुमुदचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कृतित्य ១១ करोड मुनियों ने निर्वाग प्राप्त किया। संघ में कितने ही श्रावक थे जिनमें संधवी खई, अम्बाई, संघी शांति, माणकजी, अमीचन्द, हेमचन्द, प्रेमचन्द, रामाबाई प्रादि के नाम उल्लेखनीय है । जब संघ राज नगर पाया तो राणा मोहन सिंह ने सबका स्वागत किया। बावनगा सिद्ध क्षेत्र पर जब संघ पहुँचा तो संघ के साथ भवारक रत्नचन्द्र भी चलगिरि पर चढे । उहा सानन्द भगवान की पूजा की तथा भट्टारकजी ने संघपति के तिलक किया । उस दिन पौष सुदी ३ सोमवार था तथा संवत १७५७ था । मात्र ऐतिहासिक है इसम पूरा भीत यहाँ दिया जा रहा दे श्री जिन चरण कमल नमु, सरस्वति प्रणम् पावरे । चूलगिरि गुन वर्ण, श्री शुभचन्द्र पसावरे ॥१॥ पवित्र चूल गिरि भेोये मिलियो संघ सोहाम, पूजया बावनगज पायरे । पांच कोड मुगि सिंह वा, जेगो स्त।। सुर रायरे ।।२।। कुवरजी कुलमंडन हया, संघीय प्रवद अ बाई गणवाण रे । तेह कुल अम्बर चांदलो, संघ विणति धोलो भाई जागरे ।।३।। संघवी अम्बई मृत अमरसी, गाणकाजी अमीचन्द जोडरे । तेह सगा कुदर कौडामणा, हेमचन्द प्रेमचन्द ते संघनो कोहरे ।।४।। रामाबाई बहनी इम कहे, भाई संघतिलक जस लीजे रे । रतनचन्द्र गुरपद नमी, संघना काम ते उत्तम कीजे रे ||५|| एने वचने गज्जन हरखिया, मुरत लिधो गरु पासेरे।। मार्गसीर सुदी पंचमी, गुरु श्रीसंघ पूरे पासरे ॥६॥ सनय सनप ध नालिये, फियो मेदा ने मीलान रे। राज पुरिगोकडोराजायो रागो मोहसिंध चतुर सुजान रे ||३|| संच यायो से जाणि करि, राये सुभट भेज्यो ते निवार रे । जात्रा करी संघ प्राणीयो, राजपुर नगर मझार रे ।३८|| संघवी प्रावि राणाजो ने मील्या, राणा जीये द्विधा घणा मान रे ।। संघ मले हां प्रावियो, आपे फोफल पान रे ॥९॥ जीवनदास ने राय इम फहे, तहमे जा करावो सार रे । राय प्राज्ञा मस्तग धरी, संघने लेइ चाल्यो ते निवार रे ॥१०॥ बडवानि माबिडे राविधा, मिलियो श्रीसंत्र सार है। चूलगिरि डगर चढ्या, त्यारे मुखे बोले जयकार रे ॥११॥ पूज्य तिहा बहुविध हथि, वा सुखकार रे । संघ पूज हवि सोभति, जाधक बोले मंगलाघार रे ॥१२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नचन्द्र चडता पडतां दुगरे, प्रानन्द हल अपार रे। बावन गज जब निरखीये, त्यारे मुखे बोले जयकार रे ।।१३। संवत सतर सतबनो, पोम सुदि तीज सोमबार रे । सिद्ध क्षेत्र अति सोभते, ते निमहि मानो नहि पार रे ॥१४|| श्री शुभचन्द्र पट्ट हबो, पर यदि मद भांजे रे । रतनचन्द्र मुरिवर न भरा नी ? ॥इति गीत ॥ इस प्रकार भट्टारक रतन चन्द्र ने हिन्दी साहित्य के विकास में 'जो महत्वपूर्ण योगदान दिया वह इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा । ५२. श्रीपाल संवत 1748 की एक प्रणरित में पं श्रौपाल के परिवार का निम्न प्रकार परिचय दिया गया है-- पण्डित बाग भार्या वीरवाई पण्डित जीवराज भार्या जीवादे पण्डित श्रीपाल भार्या सहजलदे पण्डित अखाई पं० अमाती-4 अनंतदास, पं० बलभदास-विमलदास पुत्री-अमरबाई, प्रेमबाई, बेलबाई उक्त प्रस्ति के अनुसार पं० श्रीपाल के पितामह का नाम बणायम एवं पिता का नाम जीवराज था । साथ ही जमकी पातामह वीरवाई एवं भासा जीवादे थी । भोपाल की पत्नी का नाम सहजलदे था । उसके पांच लड़के अखई, अमरसी, अनंतदास, बल्लभदास एवं विमलदास एवं तीन पुत्रियां अमरबाई, प्रेमाबाई एवं बेलबाई यौ। श्रीपाल का पूरा वंश ही पण्डित था। वे हमतट के रहने वाले थे । सया संघपुरा जाति के थानक थे । भोपाने एवं उसके पूर्वज भट्टारकीय परम्परा के गणित थ तथा भट्टारक ग्लकोति. मट्टारका मुमुदचन्द्र, अभय चन्द्र, शुभवेन्द्र एवं भट्टारक रलचन्द्र परम्परा में उनकी गहरी भास्था थी तथा अधिकांश समय उनके संघ में रह तेनाये थे । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व श्रीपाल भट्रारक परम्परा के कट्टर समर्थक थे। उन्होने भट्टारक रस्मकीर्ति, की प्रशंसा में एक गीत, भट्टारक अभय चन्द्र की प्रशंसा में दो गीत, भ. शुभ चन्द्र की प्रशेमा में पांच गीत तथा भ. रत्नचन्द्र की प्रशंसा में तीन गीत लिखे हैं । इन गीतों में भट्टारकों के लावषय मय शरीर की तो प्रशंसा की ही है साथ में उनके अध्ययन की, प्रभाव की एवं महानता की भी प्रशंसा की गयी है। इन गीतों में भटारकों के माता पि: " नाम भी गिना होगसिकं मिली है जिनमें प्रात: उठकर मदारकों के दर्शन करने तथा उनकी मुमाानुवाद करने, नगर में विहार करने पर उनका जोरदार स्वागत कार की प्रेरणा दी गयी है। इन गीतों में भटटारकों का ऐतिहासिक वर्णन तो मिलता ही हैं साथ में उनकी लोकप्रियता का भी पता चलता है। पं० श्रीमान के प्रलं तक ३० गीत मिले हैं जो उनके साहित्य प्रम के द्योतक हैं। उनकी अब तक उपलब्ध रचनायें निम्न प्रकार है १. उपायकाध्ययन २. शांतिनाथनु भवान्तर गीत ३. रस्मकीति गीत (मराठी) ४. गीत ५. बलिभद स्वामिना चन्द्रावली ६. अभयचन्द्र गीत ७. रतनचन्द्र गीत ८, रतनचन्द्र मीत १. रतनचन्द्र गीत १०. शुभचन्द्र गीत ११. शुभचन्द्र गीत १२. शुभनन्द्र गीत १३. प्रमालि १४, प्रमाति १५. प्रभाति (अभयचन्द्र) १६. प्रभाति (गुमचन्द्र) १७. प्रभाति १८. संववई हो रजो गीत १६. गीत Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीपाल २०. बाहुबलीनी विनती २१. नेमिनाथनी नीत २२. बीस विरहमान बिनती २३. घृत कल्लोनी बिनती २४. आदिनाथनी धमाल २५. भरतेरवानगीत २६. गोत २७, गीत २६. भरतेश्वरनु गीत २९. गुभयन्द्र हमची २०. गुवली इना, रचनाओं में अधिकाण रचना लय रचनायें हैं जिनस ववि की साध्य रचना में गहरी झवि होने वा गमित्रा मिलता मात्र ही में जसव. भट्टारकों का परम भक्त होने का मत भी मिलता है । ६.वि की गबसे बड़ी रसमा उपासवाध्यन है। इसे इसने संत्र। १३४२ में सूरतगर में नात थी। में श्रावकाचार का वर्णन मिलता है। इसकी रचना सघाति गपानी के पठनार्थ की गयी थी जैसा कि निम्न प्रशस्तिो ज्ञरा होता है-- पति श्री उपरा काय यनारयाने पं० श्री श्रीपाल विरचित संचपति रामाजी नामपिते श्री श्राद कापागनिधाना प्रबन्ध भामाशः।। ___qfण्डत थोपाय . समय गृति पर जंग धर्म का प्रमुख वेन्द्र था। वहां पर. पासपूज्य स्वामी का मन्दिर था जहां पर बैठकर दि ने उपासकाध्ययम का लखन समाप्त किया थः । मुन्दर सूरति सहेर महार, सोभित श्री तिन भुवन मझार | जिन र वद्ध दौठइ मन मोक्ष.ई. कनक कालस ध्वज तारण सौन्हें । वामपूज्य तणुक बिमाल, या, रचना रची रग त्साल । श्रावकाचार में श्रावक धर्म का वर्णन किया गया है। श्रीपाल ने अवारका नीति, अभय चन्द्र, शुभ र.न्द्र एव रत्न चन्द्र की पसा के रूप में जो पद लिखे है वे प्राधिक महाबपूर्ण है । इन पदों से भट्टारको Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकीति एव कुमुदचन्द्र : व्यक्ति व एवं कृतित्व का परिचय के साथ ही कवि की कान कुशलता का भी परिचय मिलता है। भट्टारक यमयचन्द्र के समय में लिखा हुमा एक पद देखिये चन्द्रवदनी मृग नोचनी नारि पभानन्द्र गच्पन नायक नांदो संकलांघ जयकारि । मदा महामन्द मोड़ से मुनिवर, गोयम सम गुणधारी । अमावलबि- गम्भीर विचक्षण, गुरुतो गुण भण्डारी ।।चन्द्र।। निधिल कलानियिनिमल विधानिधि विकट वादि हल हारी। रण्य रूप रमित नर नायक, सज्जन जन सुखकारी॥चन्द्र।। सरमति गट शृगार शिरोमणी, मूलसंच मनोहारी । कुमुदचन्द्र पद कमल दिवाकर, श्रीपाल सुख बलीहारी चन्द्र।। इसी तरह भट्टारक रत्नचन्द्र पर जो पद लिखा है वह भी प्रत्यति महाय. पूर्ण है। नायो रे सा चन्द्रवदन गुणमाल । मुरिधर रत्नचन्द्र ने बधाको मोतीया भरि थाल यावा। कील प्राभूपरंण अंगे सोहे, संजय विदश प्रकार । प्रष्ट विपति मुन गुणोत्तम, धर्म रादा वश घान प्रायो। प'िमा सहे निज अगै अगे. को परिग्रह त्याग । श्रीपान कहे एह पंचम काले, प्रगट करे शिव प्राणा | Talll संवत् १५३४ की ज्येष्ठ शुक्ला योदशी के दिन सुग्तनगर में शाति विधान किया गया। संघ को भेज दिया गया तम्मा भट्टारक रत्नचन्द्र ने लिलक किया गया । जिन यन्त्र की क्ष ल की गयी उस समय विडत धोपम बहीं थे। संवत १७२१ में पोरबन्दर में महोत्सव किया गया | चारों प्रकार के सब एकत्रित हुए । भट्टारक अभचन्द्र का पट्ट स्थापित किया गया । उस ममव शुध चन्द्र मुनि अवस्था में थे जो गौतम के समान लगते थे । श्रीपाल ने भट्टारक शुभचन्द्र की हमची लिखी। इसमें उसने भटटारक १. सखी संयत सस्ता एक बीसे वसी जेष्ट' ची प्रतिपर बीवसे । श्री पोवननयर मोहाछव हवा मल्या चतुर्विध संघ हो नवा नवा । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पं० श्रीपाल शुभचन्द का पूरा इतिवृत्त निम्न दिया। संवत् १७२१ में शुभचन्द्र को भट्टारक पद पर अभिषिक किया गया था । णुमचन्द्र की सुन्दरता, महोत्सव में मिनिस श्रावको का गोगदान, भट्टारक पा शुभचन्द्र : प्रियंका की संगीत एवं नत्य का प्रायोजन प्रादि सभी का इसमें वर्णन कर दिया है। इसमें २९ पर' है । पन्तिम दो पद्य निम्न प्रकार है दिवस माहि जिम रवि दीपंतो, गिरि मा मेरु कहत । तिम श्री अभयघात ने पाटि, श्री शुभचन्द्र सोहंत रे ॥ २८ |! श्री गुभचन्द्र तणों में हमची जो गाये जिन घाम । श्रीपाल विवध वंदे ए दाणी, ते मन बंछित गमे रे ।। २९ ।। श्रीपाल ने भट्टारक प्रमपचन्द्र के गीत गाये. फिर भट्टारक शुभचन्द्र की प्रयंसा में गीत लिग्ने पौरु अन्न में रतन चन्द्र के मारक बनने पर उसका गुणानुवाद किया । इससे यह जान पहता है कि अनारकीय पंडित थे। संघ के साथ रहना तथा समय ममय भट्टारका का गुणानुवाद करना, संघ का इतिहास बिना' सराज को मंघ के सम्बन्ध में प्रवगत कराते रहना उनके प्रमुख कार्य थे । ये पंडित थे और वे भी गुस्तंनी पद्धित । संवत् १७२८ की एक प्रशस्ति मिलती है जिसमें पं० श्रीपाल के पढ़ने के लिये सुरत में ग्रन्थों की लिपिकी गयी जी । उस में भट्टारक गुमनन्त्र का उल्लेंब किया गया है जिनके उपदेश मे ग्रन्थ की प्रतिलिपि की गयी थी। प्रशस्ति निम्म प्रकार है संवत सत र अठाइम : १७२८ : चा मार्गशोरमारो गुफलपक्ष पंचमी दिने गुमवारे श्रीसुर्यपूरे श्रीवामुपुजप पत्यालये थी मुलसष मरस्वतीगच्छे बलाकारगणे श्री कुन्दकुन्दान्वये भलीनिदेवा तत्प न कुमुदचन्द्रदेवा तत्त मा. श्री मायचन्द्र देघास्तम्पटे भ० श्री गुभचन्द्रोपदेशात संघपुराताते पडित जीवराज भार्याजीवादे तयो मन सि श्रीपाल परना। गुर्शवनी में मट्टाफ विद्यानन्द की परम्परा में होने वाले भट्टारको का गुणानुवाद है । गुर्वावली रेमिहासिक बन गयी है । यदि संवत लिखने की उस समय परम्परा होती तो ऐसे गीत भी निश्चित ही इतिहास की मामयो बन जाते फिर भी इस प्रकार के गीत साहित्य की पमूल्य धरोहर हैं । इसमें ११ पथ हैं । पूरी गुणविली निम्न प्रकार है Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महारक रत्नकीति एवं कुमुदयन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वंदो गुरु विद्यानन्द सूरि, जेह नामे दुख जाये दूरि | जनम जनम नां पाप पलाय, जिम रुडाँ मन वांछित धाय ।। १ ।। रिल भूषण कंटा गति. हा सग जाये सुप्रगतो। वचन अनुगम अमिय समान, ग्यासमीन रंज्यो सुस्तान ॥ २ ॥ लक्ष्मीचन्द्र नमो नित पाय, जेहनी सेव करे नर गय।। गछनायक गुणवो मन्डार, भव सागर उतारो पार ॥ ३ ।। अभयचन्द्र सेवो सहु संत, जेहना मुग्गनो नवि प्रत ।। पाले संयम साधु सुभारण, जेहनी महीपति मनि प्राण || ४ ।। अभयनन्दि यति कोमलकाय, जहां वचन भला सुखदाय । साधु शिवोपरिण कहीं एह, भवियग नाम जपा सहु तेहैं ॥ ५ ॥ रसनकी रति रुपे प्रति भलो, चन्द्रकिरण सम जस उजलो। हबद्ध वंश तणो सिणगार, जहना गुणनो नवि पार ॥ ६॥ कुमदबाद गुरुवो चांदलो, रत्नकीरति गाटे गोर भलो। मोढवंश उदयाचल रवि, जेहना बचन बरसाणं कवि ।। ७ ।। अभयचन्द्र सेवो शुभमति, जहां चरण नमें नरपती । यादि शिरोमणि कहीं पह, गुण मागर विद्यानो गेह ॥ ८ ॥ अभयचन्द्र कुल अवर चन्द्र, उदयो ५न्य तम्बर कैद ।। दो भबियण मनि प्रांगद, वादो सहे गुरु श्री शुभ चन्द्र ।। ६ ।। ................."सम रषि, जेहना वचन ब खाने कवि । .................''वर जसवंत, जहना पद सवे माहत ।। १० || सम........."गुरु राय, समरता सुख संपति वाय। रत्नशशि सेवो वन्ध काल, प्रणमे जिन सेवक धीमान || ११ ।। इति श्री गुर्वावली समाप्त । बाहुवलीनी वीनती-इसमें ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र बाहुबली की स्तुति को गई है । विनती १२ पद्यों में पूर्ण होती है। रचना सामान्य है । पूरी विनती निम्न प्रकार है श्री जिनवर बदन उपन्तिमाय, पाबा सुत्र सररवति प्रगमू पाय । लड्न वाछितायं विद्या विवुध, जिवाणी मनोपम हो सुद्ध ।। १ ।। भुजलि गुण वणवू तुझ पसाय, जीभ हेय डले हरप प्राण पाय । वृषभ नुप सुन्दर तनुज एह, धनु पाचसे पचीस उच देह ॥ २ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलवंत विलक्षण गुणनो गेहू, पोयणपूरि नगरीये राजे एह । सुखद सुभट नर नमिल पाय, जंग जीत्यो.... ॥ ५ ॥ मानसँग दीठ्ठो जब जेष्ठ भ्रात, वैराग धरो वन माहे जात | दधे राजकाज महाबलने श्राज, प्रभु चाल्यां श्रात्मा करवा काज ॥ ४ ॥ कैलासगिरि प्रादिनाथ वास, जं चारित्र लघू मन उल्लास । सता ज्वालि माया जाल, क्षमा बडगघरी हणो कोष काल ।। ५ ।। मद गज राक्षो घेरी 1 ची मुगति नार ॥ ६ ॥ ६० श्रीपा जीत्यो समाकेत पाजे सभी नप करता गत एक वर्ष सार, पछे कमंहगी जय बाहुबली देवाधिदेव, तुझ सुर नर किन्नर करेय रोव । पंचम काले प्रतान वीर तू सकल सुरमा के प्रवीण 11 ७ ॥ माल तोरे नामे बड़े न पीसाच काल पार तू मन गाम को पुरे । 1 || = || 7 ढोरे नाम भूजंग पुष्प तोर नामे अर्णव जावे *** 'लेख बानसिंह दूरे जाय, भूजबनी तोरा नाम तले पसाकय । सुभ सागर तट मोहे नबर रम्य, रुडु J मे अनोपम दपण वन्य ॥ ९ ॥ ताहां सघपति हेमजी घमंवंत से वीक अंश हुब ससंग । भुजवली मोहे तल गेहू चंग, प्रभु पद उपजे श्राणंद ॥ १० ॥ श्री मुलसघ माहूत संत जयो रलकीवि गोर विद्यावंत | तस पद उदयों विद्या समुद्र, वादीगज केसरी कुमुदचन्द्र ॥ ११ ॥ तस पाट पट्टोअर प्रगटो गूर देखो वचनकल गया वादीपुर | सूरि प्रभवचन्द्र उदयो दिनेस कर जोडी मे सेवक (श्रीपाल ) नाम सोस ॥ १२ P घृत कहलीजनो विनती-- हंसपुरी में कमला नामक श्राविका थी। वह प्र दिन पंचामृताभिक करती थी । एक सत्रि को उसको स्वप्न आया कि य आदिनाथ की प्रतिमा का घो से धमिषेक किया जावे के सब सिद्धियां प्राप्त होगी प्राप्तः होने पर प्रतिमा को घी से अभिषेक किया गया । अभिषेक किया उसी के सब सिद्धिया प्राप्त हो गयी। अपनी इस विनती में उल्लेख किया है। रचना सा हैं । के पश्चात जिसने इसी का श्रीपाल कवि > है । विनती में श्रीपाल ने कुछ गीत भी लिखे हैं जिनमें अदिनाथ, भरतेश्वर नेमिनाथ अ का स्तवन किया गया है । सब ध क गीत यदिनाथ के है जिनसे पता चल हैं कि वे भ ऋपगदेव के अधिक उपासक थे। एक ऋषभदेवनुगीत में "धूले ब Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंडारक रनकीति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व ९४. मझार" लिखा है जिनसे पता चलता है कि वे सवंत १७४३ में ऋषभदेव की यात्रा पर आये थे | संघ गुरत से चला था जिसके प्रमुख भ० रत्नचन्द्र । यह संघ अखई एवं साई ने चलाया था जो पहिले गे ही संपति कहलाते थे. इगमें २० पद्य हैं । इस प्रकार पं० श्रीपाल को साहित्यिक सेवाएं अत्यधिक उल्लेखनीय एवं चिरस्मरणीय हैं । ५३. जयसा ब्रह्म जयसागर भट्ारक रीति के प्रमुख शिष्यों में से थे। ये ब्रह्मचारी थे और जीवन पर्यन्त इसी पद पर रहते हुए अपना आत्म विकास करते रहे । जयसागर अपने गुरु के समान ही साहित्याराधना में लगे रहते थे। उन्होंने या तो भट्टारक कोति के सरवन्ध में पद हैं या फिर छोटी छोटो अन्य कृतियां लिखी है। उनकी अब तक किसी बी रचना की प्राप्ति नहीं हो सकी है । जयसागर के जीवन के सम्बन्ध में अभी कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है लेकिन इन्होंने अपनी सभी रचनाओं में भट्टारक रनकीर्ति का ही उल्लेख किया है इसलिये ऐसा जान पड़ता है कि वे नि के समय में ही स्वर्गवासी हो गये थे। रत्नकोनि संवत १६५६ तक भट्टारक पद पर रहे इसलिये ब्रह्म जयसागर को भी हम इससे आगे नहीं ले जा सकते | गुजरात का घोघा नगर इनकी साहित्यिक सेवाओं का केन्द्र था। वैसे ये भी भट्टारक रनकीति के साथ रहने बाले पंडित थे । जनसागर की अब तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं १. २. (१) टीव (२) मलिदासको वेल १३) संघ नीत (४) विधानविगीत (५) संकटहर पार्श्वनाथ जिनगीत (६) क्षेत्रपाल बीच ७) प्रभाति ...क्षेत्रपाल गीत कीर्तिपूजा गीत बेल की पूरी प्रा पूरर पब भागे दिया नेत Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जयंसागर {११) यशोधरगीत (१२) पंच कल्याणक गीत उक्त रचनाओं का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है(१) बूनको गीत इसका दूसरा नाम चारित्र चाड़ी भी दिया हया है। राजमती नेमिनाथ हो चारित्र बनड़ी योदने के लिये मांग रही है। नेमि गिरनार के भूषण है। वहां पद जीवों का निवारा है। चारों ओर सम्यकत्व रुपी हरियाली है 1 नीला रंग बहुत सुन्दर लगता है जिस पर देवता भी भोहित हो जाते हैं। मूल गुणों का स्वच्छ रंग बन गया है। जिनवाणी का उसमें रस दिया है । तप में वह चूनडी सूखती हैं। उससे रग चटकता है छूटता नहीं । पांच महाव्रत कमानों के समान रंग लाने वाले हैं। पांच समितियों से नहीं मिटने वाला नीला वर्ग चह जाता है। बारौसी लाख जो उत्तर गए है उससे बह चुनरी सुन्दर लगती हैं । तीन मतियां से वह चुनड़ी नीली, पाली से प्रासावित होकर मन मोह रही है। हा प्रकार की चुनड़ी को प्रोडकर राजुल स्वर्ग चली गयी जहां वह खग को सुब भोग रही है । इस प्रकार की चारित्र चनड़ी जो भी लिंगा से मन वांछित सखों की प्राप्ति होगी नोर अन्त में संसार सागर को पार करेगा । चूनडी में १६ पद्य हैं । मह्म जयसागर ने इसमें रत्नकीति का स्मरण किया है। उसका अन्तिम पद्म निम्न प्रकार हैं-- सुरि रत्नकीरति जयकारी, शुभ धर्म शणि गुण धारी । नर नारी चुनड़ी गावे, ब्रह्म जयसागर कहे भावे ।। १६ ।। २. संधपत्ति श्री मल्लिदासनी मेल यह एक ऐतिहासिक कृति है जिसमे महिलस द्वारा प्रायोजित पचकल्याणका प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है। पंचकल्याण प्रतिाठा बलसाड नगर में हुई थी। वे हूँ बर वा के शिरोमणि थे । उनको परिन का नाम राजबाई था । भल्लिदाम का पुत्र मोहन का पति था। वह राजा श्रमिक के समान जिन भक्ति में श्रोता था । प्रतिदिन प्रशर सम्पत्ति का दान करता रहता था। भट्टारक रत' वह भक्त था इसलिये उन्हीं के उपदेश से उसने पंचकल्याणक प्रति मिनाथ . के है जिनसे पता घर १. धूमकी की पूरी प्रति प्रागे दो गयी है । ऋषभदेवगीत में "धूसे वन Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मंगसिर शुक्ला ५ के दिन कुकुम पषिका लिखी गयो । विभिन्न नगरों में स्वयं पंडितों को भेजा गया । रत्नकीति अपने विशाल संघ के साथ वहां पाये । प्रतिष्ठा की सभी विधियां-अंकुरारोपण, वास्तुविधान, नंदी, होम आदि सम्पन्न किये गये । जलयात्रा की गयी जिसमें स्त्रियां मंगलमीत गाती हुई चलने लगी। राजबाई के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा । अंत में कलशाभिषक के पश्चात प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुमा । माघ शुक्ला ११ के दिन भ, रत्वकीर्ति ने महिलदास के तिलक किया तथा पंच महाचत अंगीकार कराये गये । उसका नाम जिनयन्द्र रखा गया । बेल लघु रचना अवश्य है फिर भी तत्कालीन धार्मिक समाज का अच्छा चित्र उपस्थित करता है । बेल का अन्तिम पार निम्न प्रकार है मन वांछति फल पाय, ज्यो ए संपपति श्री मल्लिदास । ब्रह्म जयसागर इम कहेए, सोभागेण पोहोता पा सके । ३. संघगीत भट्टारक रत्नकोति ने अपने सब के साथ शय 'जय' एवं गिरिनार तीयों की यात्रा की थी। संघ में मुनि अपिका यावक श्रानिका पारों ही थे । रत्नकीर्ति सबके प्रमुख थे। तेजबाई सांघ की संचालिका थी। मंगसिर मुदी पंचमी के दिन भाणेज गोपाल एवं उसकी पत्नि वेजलदे को तिलक परके सम्मानित किया गया। रलकीर्ति पालकी में विराजते थे । गीत छोटा सा है लेकिन तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डालता है । ४. विधामन्दि पर इस पद में मूलसंघ के भद्दारक देवेन्द्र कौति के शिष्य भट्टारक विद्यानन्दि का स्तवन किया गया है । विद्यानन्द ने गुजरात में धर्म की बड़ी प्रभावना की थी। वे भट्टारक होते हुए भी दिगम्बर रहते थे तथा कामदेव पर विजय प्राप्त की थी। पोरवाड मंश में उत्पन्न हरिराज उनके पिता का नाम था तथा चापू माता का नाम था। ५. प्रभाति जयसागर ने अपनी प्रमाति गीत में भट्टारक रत्नकोति का गुणानुवाद -- ---- १. बेल की पूरी प्रति प्रागे दी गयी है २. पुरा पक्षप्रागे विया गया है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जयसागर किया है तथा जाजन को रत्नकीति की पूजा, भक्ति करने की प्रेरणा दी गयी हैं । उस समय प्रात काल चावकगण भइटारकों के दर्शन करते थे तथा उपमा सुनकर अपने जीवन को सौभाग्यशाली मानते थे । भट्टारकों के शिष्य जाता में उनका प्रचार भी किया करते थे । ६. संकटहर पाप जिनगीत हांसोट नगर में पाश्र्वनाथ स्वामी का मन्दिर था । उसी वा इस गीत में स्तवन किया गया है। उसे शक हर पाश्वनाथ के रूप में स्मरण किया गया है । मन्दिर में प्रतिदिन उत्सव विधान होते रहते थे तो सभी भक्त अपनी मनोकामना । के लिये प्रार्थना किया करते थे । ७. क्षेत्रपाल गीत घोषा नगर के दिगम्बर जैन मन्दिर में क्षेत्रमा विराजमान ।। म्ह के सतपन में यह गीत लिखा गया है । कवि ने क्षेत्रपाल वो सम्यग्दष्टि | जिन शासन का रक्षक रहा है। ८. महारक रस्मकीतिमा पूजा गीत कवि के समय में भट्टारकों वा इतना अधिक प्रभाव भी कि उनको मी अष्टप्रकारी पूजा होती थी । अ. जय सागर में प्रस्तुत गीत में इसी के लिये नावान किया है। ९ चौपई गीत इसी में करिने भट् रिक पद्मा -भ. देव द्रको ति से लेकर भट्टारक स्नकीति तक के भट्टारकों का उल्लेखदा है । गत ऐतिहासिक ति है । १७. मीश्वर गीत नेमिनाथ पर कवि के दो गीत उपलब्ध हुए है । गीत सामान्य है। 11. जसोधर गौत यशोधर के जीवन पर जन कवियों ने सभी भापात्रों में काव्य लिखें हैं । कवि ने भी इस गीत में राजा यशोधर के जीव | का अति संक्षिप्त वर्णन किया है। १२. पंचकल्माएक गीत यह कषि की सबसे बड़ी रचना है जिन में शान्तिनाथ स्वामी का गर्भ कल्यामयर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकाति एवं कुमुदचन्द्र : सपक्तिरा एवं कृतित्व पणक, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों का वर्णन किया गया हैं । कल्याणक गीत की रचना धोधानमर में चन्द्रप्रभ चैत्यालय में की गई थी । इसमें पांच बाल्या. एणकों की पांच हालें हैं। २४. कविवर गणेगा गणेश कवि भट्टारक रत्नमीति का प्रमुग्य शिष्य एवं प्रशंसक थे। इन्होंने अपने गुरु एवं प्राधपदाता के सम्बन्ध में जिसने मार लिखे है उतने दूसरे करियों ने बहुत कम लिखे हैं। गणेग कवि के सभी गीत याने पीछ इतिहास लिये हुए हैं। पे कभी विहार के समय के, कमी याया संवों का नेतत्व करते समय के, कभी जनता से भट्टारक रत्नकीर्ति का स्वागत करने हेतु प्रेरणा देने के उद्देश्य से लिखे गये हैं। गगेश कवि बहुत सुसंस्कृत मापा में रत्तकोति की प्रशसा करता है । इस प्रकार के गीतों की संख्या १२-१३ होगी। इन गीतों में गयेय कवि भक्तिभाव से रस्तकीति भट्टारक का मुगानुया.६ करता है । इन गीतो न भट्टारक के माता सा का नाम, बश का नाम, जन्म स्था। का नाम, भारत पर प्राप्त करने का स्थान, सरोर की सुन्दरता, कमनीयता, अंग-प्रत्ययों की वन वट यादि के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन किया गया है। इसी तरह का एक पद देखिये रोग केवार गडी साभल सजनी सहे गोर सोहेरे । रत्नोति सूरी जनगन मोहे रे ॥ अभयनन्द पद कंज उदयो सूर रे, कुमति तिमिर हर विद्या पूर रे ॥१॥ हुँचड़ वंय त्रिमुध बिछर स रे, म.त सेहे बलदे देशास तव रे । पर कलानिषि कोमल काय रे, पद पूजो प्रेमे पातक पलाय रे ॥२॥ श्री पूलसंघ महिमा विधान रे, सरसति गछ गोर गोयम समान रे । पर शशि समा सोहे शुभ भाल रे, वदन कमल शुभ नया विशनो ॥३॥ मशन दाडिम सम रसना रसाल रे. अधर बिलीफल विजिन प्रनाल रे। कर कबू सम। रेवाश्रय सजे रे, कर किसलय सपना छवि छाजे रे ।। हत्य विसाल पर गज गति चाल रे, गछपत गुस्यो गंभीर मुणमाल रे । पच महायत धर दया प्रतिपाल रे पंच समिति य गुपति गुणाल रे ।।५।। उदयो अवनि प्रभय फुमार रे, दिगावर दर्सण तणो सणगार रे। सयल प्रवल वल ग जीतो पार रे, शील मोभागी रघर उदार रे ।।६।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर गणेश कनक वरण तन सुरूप रे, महि तले माने मोटा बहु भूप रे । विनय विवेकी नर परधान रे, अमर महीमह सम प्रापे दान रे ॥७॥ जग जस निर्मल अमल सरीर रे, गिरिव र समधार जलधी गंभीर रे । तुझ वीठड़े मुख समिरे नेह रे, अलक निकलंक मोवरधन जेहरे ।।८।। अभेनन्द पाटे पटोधर एह र, सुगुण सणो रुचु म सनेह रे । धर्म भूषण धन सूरी मंत्र प्रापारे, गणेश कहे गोर गछपति थाप्या रे ||९|| उक्त गोत में रत्नफोति के सम्बन्ध में कितना ललकर लिखा है पाठक उसका प्रास्वादन कर सकेंगे। कवि ने उनको प्रत्येक बात पर प्रकाश डाला है यहां तक कि उसके स्वभाव की चची को डाली है । मी तरल के कम अथवा प्रधिक रूप में और गीतों में प्रकाश डाला गया है। जो पूर्णत: सत्य घटनाओं के प्राधार पर ही प्राधारित है। कवि कोलोत नेबाब नाम माते। इसने संवत १६४३ में भट्टारक रलकीति से दीक्षा धारण की थी। गणेश कवि ने इस घटना को भी छन्दोबद्ध किया है। गुणानुवाद को शिव एक प्रशस्ति में गणेश कवि ने भट्टारक रत्नको सुख का साधन माना है। पूरी प्रमाति निम्न प्रकार है सुप्रभाति नमो देव जिगन्द । रनकोति सूरी सेबो प्रानन्द ।। सबल प्रबल जेणं काम हादप्रो, जालणा पोरगाह एतीये बधाग्यो। वागवादनी बदने बसे एहले, एहनी उपमा कहीसे पहनें ॥२॥ गछपति गिरवो गुण गभीर, शील सनाह घरे मन धीर ॥३॥ जे नरनारी ए गोर गीत गासे, मंगेश कहे ते शिव मुख पासे ॥४॥ एक दुसरे गीत में गणेश वधि ने रलकीति की अनेक उपमापों से प्रशंसा काला बहोत्तरि कोडामणो रे, कमल बदन करुणाल रे । गछ नायक गण अागलो , र-नकी रति विबुध विशाल' रे ।। आवो रे भामिनी गज गामिनी रे, स्वामी जी वाणी विख्यात रे ।। अभयनन्द पदकंज दिनकरु रे, धन एहना मातने तात रे । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्नकीति एवं कुमुवचन्द्र - व्यक्तित्व एवं कृतित्व मान मूकाम्या मिथ्यातिया रे, हाथिया ते वादी गजनी सोह । मूलसंघ मुनि माहि सरस्वती गछ माहि लोहरे ।।३।। चारित्र रंग सोहे खडो रे, समकित सुमति मोहंत रे । वागवादिनी मुखे स्वडी रे, अडला भविक जन मोहंत रे ।।४।। मान सरोबर सोहे हंससुर, तारा माहि सोहे जिम चन्द रे । रनकीति सोहे सीनसूरे, मुडी नगीना केरा दाद रे । जिनमत जाणे जासि युगलस्यु रे, जालणागुर प्रसिज रे । संघवी सोला पासवा माली रे, गणेश कहे पाट सिद्ध रे ।।६।। भट्टारक रत्न कीति के गणानुवाद के अतिरिक्त भट्टारक कुमुदमन्द्र की प्रशंसा में लिखा हुपा एक गीत मिलता है जिसका न T गुरु स्तुति है। संवत १६५६ में बारडोली नगर में कुमुदचन्ः को भट्टारक पदे पर अभिषिक्त किया गया था प्रस्तुत भीत में उसी का उल्लेग्य किया गया है। कुमुद चन्द्र मोढवंश के श्रावक थे उनके पिता का नाम समापन ए माता पदमाबाई था। ये दर्शन जान एग पारित्र से सम्पन्न थे। परी स्तुति निम्न प्रकार है माई रे मन मोहन मुनिवर ग़रपती ग सोहा रे । कुमुदचन्द्र भट्टारक उदयो भविपण मन मोहंत रे ।।माई॥१॥ गुरा गम्भीर गरउ गछ नापक वायक झंडा रसाल रे । रत्नकीति गोर पाटि पदोधर मानदं भला भूपाल रे ॥माई।।२।। संघपति श्री कहानजी भाइयो भान वीर रला जयवंत रे । करे प्रतिष्ठा पाट महोत्सव गो थाणे गुणयंत रे॥माई।।३।। वित्त विनसे उलट भरे ..............धाम मल्लिदारा । कुमुदचन्द्र गछ नायक भापा, गोपाल पुहवी ग्रास रे | माई।।४।। संवत सोल छपन्ने, वैशास्त्रे, प्रगट पटोधर थाप्या रे । रत्लकीर्ति गोर वारडोली वर, सूर मन्त्र शुभ प्राप्या रे ||माई।।५।। मूलसंघ प्रगट मणि माहत, सरमति गच्छ सोहावे है। कुमृदचन्द्र भट्टारक प्रागलि वादि को धादे न माये रे ॥६॥ मोठवंश शृगार शिरोमणि, साह सदाफल तात रे। . आयो यतिवर जुग जयवंतो पदमाबाई सोहात रे॥ ॥7॥ शोल तपो रंग अंग अनोपम दर्शन मान चारित्र रे॥ ॥८॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमलिसागर ममयनन्दि गोर पार पट्टोधर, रत्न कीति मुनिन्द रे। तस पाटि सोहे कुमुदचन्द्र गोर, गणेस कहे प्राणंद रे॥ ॥९॥ इस प्रकार गणे. कवि ने भट्टारकों के सम्बन्ध में जो गीत, प्रभ. ति लिखी है वह इतिहास की दृष्टि से प्रस्पधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन गणेश कवि के सम्बन्ध में इन गीतों से कोई जानकारी नहीं मिलती। यह भवाय है कि उन्होंने कुमुदचन्द्र का प टोत्सव देखा था तथा कुछ समय तक जीवित भी रहे थे। क्योंकि यदि प्रत्रिक रामय जीवित रहते तो उनको सम्बन्ध में और भी गीत लिखते। ५५. सुपतिसागर ये भट्टारक प्रभवन्दि के 'शष्य थे । माने गरु भट्टारक प्रभयनन्दि के साथ रहते थे। उनके बिहार के ममा जा साध रण को मटार जी के प्रति भक्तिभावना प्रगर करने की प्रेरणा दिया करते थे। भट्टारक अभयदि के पश्चात जब रत्नकीति भट्टारक बने तो वे रीति के प्रिप गिप्य बन गये । वैसे गुरु भाई होने के कारण रस्नकोनि इसका वहत सम्मान करते थे । इन्होंने रलकीति की प्रशंसा में भी गीत लिखे हैं। इनकी अब तक जो कृतिया उपलब्ध हुई है उनके नाम निम्न प्रकार है १ हरियाली-दो २. साधर्मी गीत ३. नेमिगीत ४. गणधर बिनती ५. रलकीति गीत ६. नेमिनाथ द्वादशमासा ७. प्राय गीत १. हरिपाली कवि ने हरियाली के नाम से दो गीत लिखे हैं। इनमें मानव के जन्म के सम्बन्ध में तथ्य लिखे गये है। मनुष्य को चारों पोर हरियाली ही हरियाली दिखती है उसमें वह अपना सब कुछ भूल जाता है जो उचित नहीं। इसी तथ्य को कषि ने अपने दोनों गीतों में निबद्ध किया है। गीतों में भट्टारक प्रभयनन्दि के माम का उल्लेख किया है इससे में उन्हीं के समय लिखे हुए गीत लगते हैं। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्नकीर्ति एव कुमुदनन्द्र : यति। एवं कृतित्व २. साधर्मी गीत यह भी सम्बोधनात्पक मी न हो। जिसमें १: पम्मले हैं। हमें गणपन्दि सापक के समय लिखा गमा था । मीत में संसार की भयानकता पर प्रकाश डाला गया है। ३. नेमि गीत राजन नेपि के अभाव में अपने प्रापको कैसी समझती है, इसी का गीत में वर्णन किया गया है । गीत अमला है । इमीलिये यहां उसे दिया जा रहा है ममि अात्मा राजमति घर कामा छे सम्बन्ध करे । परि परिना दूब गप र ने frम सहिथे, कु वियोगन रे ।। नारि भणे ग मुल नायर, दुम गुम बनो संयोग न रे। एफ मेक थईबीर नीर. तिमली । जो सारो भोगन रे। तुम बिन मुख ग निदा मागे तुम पिन न हिय संयोगन रे । तुझ बिन रजे एकला भाई, किगे दुम्बिया नियोगन रे । F चारी मुरण वन्तीजी, नेमि कामु कीजे जायन रे। सफला साल चतुराई, नाथ नहीं मुझ उम्दन रे। जिम विना प्रतिमा देहरो जो, गुण बिना रूप न सोभे रे । जिम बिना परिमल फन न मोभे, सरोवर कमल विहान र । धमं दया दिना कदा न सोमे ज्ञान विहूणो जीवन रे । कि।' बिना जम मुनिवर दौसे, दुखिया फिरे संसारन । दान विना जिम लखनी f:नि, पार बिना जिम दामन रे । घोप बिना भोजन नचि मोभे. कला विहूरो योधन रे । वित्रा बिना जिम नर नी भाई. न शोभे बहु मध्यन रे । तह बिना जम प्रीति न शोभ, निगहूं तुझ बिना नाथन रे । जलचर जन बिन दलबले जी, तमई तुम बिना पंष्टिय रे । एक विस गणवन्त प्रीती, ने प्रश् डिगन छ । गरसवे सरिणु गेल पिने, कतार तु का खडे रे । । विना नदि संपने जी, म वाले राजुल मडिय रे ।।५।। घन्तर गझ थी नवि करियजी. तुम्ह विन मुझ नवि कोहम रे । तुम्ह बिन को मर महीतल दामे, नवि दीरो मुल पो मन रे, ते नारि किम मानरा जी, करि सघला नर एक तालन रे । श्री अभयनन्दि वादी पंनापण, मुमतिसागर इस बोलन रे । इति नेमिगीत Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ गोस सुमतिसागर रत्नकोति की प्रशंसा में कवि द्वारा निबद्ध दो गीत उपलब्ध हुए हैं। एक गीत में संवत् १६३० में वैशाख सुदी तृतीया के दिन पट्ट स्थापना का उल्लेख किया है । इसलिये गीत उसके बाद के लिखे हुए मालूम पड़ते हैं। दोनों गीतों में से एक गीत में रत्नकीर्ति के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला गया है इसलिये उसे यहां दिया जा रहा है गीत राग-धन्यासी ॥२ ॥३॥ || ४ श्री जिनवर चरण कमल वर मधुकर गुण गण मरिण भण्डार जी । भव्य कुमुद वन रंजन दिनकर, करुणा रस जो रे, करुणा रस आगार जी । अभयनन्दि महोदय दिन मरिण भविक कमल जीरे, भविक कमल मन रंजे जी 1 रत्न कीर्ति सूरि चादि शिरोमरिण परवादी मद गजे जी || |||||| पंच महाव्रत पंच सुमति जप गुपति ग्रह गोर सोहे जी । दुःख शोक भय रोग निवारे, वाणिह त्रिभुवन मोहे जी ॥ धनि धनि हुंबड शे एह कलि काल गणवर जाया जी | मेहेजलदे देवदास सुनन्दन रत्नकीति सूरी शया जी ॥ वक्षरण देश विचार विलक्षण जालणापुर जगिसारां जी | संघपति पार्क साहू विख्यात संघर्षाणि रुपाई उदार जी ॥ ते बहें कूले कुचर उपमा संघवी आसवा प्रति गुणमाल जी । संत्री रामाजी अंगे शुभ लक्षण, वभेरवाल सुनिशान जी ।। संवत् सोलसा त्रिस संवर नेशाख शुदि त्रीज सार जी | अभयनन्दि गोर पाटि थाप्या रोहिणी नक्षत्र पानिवार जी || आगम काव्य पुराण सुनक्षण तर्क ग्यास गुरु जाणे जी । छन्द नाटिक सिंगल सिद्धान्त, पृथक पृथक वखाणं जी ॥ कनक कांति शोभित तस मात्र, मधुर सभान सुवाणि जी । मदन भाग पदन पंचानन भारती भन्छ सम्मान जो ॥ श्री अभयनन्दि सुरो यह धुरंधर मकलसंघ सुमतिसागर बस प्रण में निर्मल संयग ।। ५३ । 114 11 पाय ४. नेमिनाथ का द्वादश मासा इसमें नेमि के विरह में राजुल के बारह महिने कैसे व्यतीत होते हैं इसका वर्णन किया जाता है। इसमें १३ पद्य हैं जिनमें एक-एक महिने के विरह का वर्णन मिलता है। ग्रन्तिम १३वें पद्म में प्रशस्ति दी हुई है जो निम्न प्रकार है जयकार जी | धारी जी ॥ 1190 ||5|| 11/1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकोति कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १०५ श्री लक्ष्मीचन्द्र मुनीसरु अभिचन्द्र पोट सु सार। तस पार्ट चारित्र चतुर जाणु अभिनन्दि गुणधार । बहु प्रकारिइ पूजो थी जिन माणिक देवी सुमंत । श्री सुमतिसागर दोठव जिनवर नेमि जय गुणवन्त ।। रूप सोभागिण चन्दन जाये ।। ५६. दामोर दामोदर भट्टारकीय पंडित थे। इन्होंने भट्टारक रनकीति से लेकर भट्टारक अभय चन्द्र तक का समय देखा था। इसलिये तीनों ही मट्टारकों के सम्बन्ध में इन्होंने गीत लिखे हैं। इसके अतिरिक्त "संघवी नागजी" गीत भी लिखा है। मभयमाद्र के प्रति इनकी अधिक भक्ति थी। इनके द्वारा लिखा हुमा एक गीत देखिये राग धन्यासी मादि जिणंद नमी करी प्रणमी सह गोर पाय । अभयचाद्र गुण गायेस्यु माहरे हैहले हरष न माय । सहिली सहे गोर गाई ये रे गौर कुमुदचन्द्र ने भाण । श्री अभयचन्द्र चतुर-सुजाण........." ममयनन्दी नवो गौतम ए गोर प्रगट्यो शील तण सिणगार ।। वादी विमिरहर दिनकरु, सरस्वती गछ साधार । ३ । हूंवर वंश शृंगार गिरोमणि श्रीपाल साधन मात । बारडोली नरि उछव कौधो महोश्य अन्न मवार । संघवी नागरी प्रति प्राणंद्या, हेमजी हरष अपार । ४ | संघवी कुरजी कुल मण्डन मेघजी महिमावंत । रूपजी मालजी मनोहार, सह सज्जन मन मोहंत ५। संपर्व भीमजी भावस्यु' सुत जीवा मनें उल्हास ।। संपवई जीवराज उलट धरणो, पहोती छ मन सभी पास । ६ । संवत सोल पच्यासीये फागुण सुदि एकादशी सोमवार । नेमिचन्द्र मुर मंत्रम जाप्यो, वरतयो जयकार । ७। उत्तर वक्षण पूरव पश्चिम माने सहे गोर प्रांण । विलक करे श्री प्रभयचन्द्र गोर, वचन का प्रमाण । ८ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ विद्यासागर रलकीर्ति पाटे कुमुदचन्द्र गोर, बहुजन दे आशीष । तस पाटि श्री अभयचन्द्र गोर प्रतपो कोडि वरीष । ९ । संघ सहूनें ए पति बाइलो, धर्मसागरस्यु नेह । कहे दामोदर सेयो सज्जन, वांछित कण छ मेह । १७ प्रस्तुत गीस को पण्डित श्रीपाल के पुत्र अखई के पठनार्य लिखा गया था ऐसा भी उल्लेख मिला है। ५७. कल्पालसागर कल्याणसागर भट्टारकीय पंडित थे तथा प्रसारक रस्मकीर्ति के संघ में रहते थे। इनके प्रश्न तक चार गीत मिले हैं जिनके नाम है क्षेत्रपाल गीत, नेमिजिन गीत, मीत एवं पद । ५८. प्राणंदसागर ये भट्टारक शुभचन्द्र के संघ में रहते थे । इनके द्वारा लिखे हुए तीन गीत मिले हैं और वे सभी शुभचन्द्र की प्रशंसा में लिखे गये हैं। ५९. विद्यासागर विद्यासागर ने अपनी चन्द्रप्रभनी विनती में अपना परिचय देते हुए लिखा है कि वे भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य थे । वे बलात्कारमण एवं सरस्वती गच्छ के माधु थे। चन्द्रप्रभ विनती को इन्होंने संवत् १७२४ में समाप्त किया था। इनकी अब तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं १. सोलह स्वप्न २. जिन जन्म महोत्सव ३. सप्तव्यसन सबैय्या ४, दर्शनाष्टांग ५. बिपापहारस्तोत्र भाषा ६. भूपालस्तोत्र भाषा ७. रविव्रत कथा ८. पद्मावतीनी बिनती ९. चन्द्रप्रभनी विनती Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीर्ति एवं कुमुदषन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सोहल स्वप्न सोलह स्वप्न लघु कृति है जिसमें तीर्थंकर की माता को माने वाले सोलह स्वप्नों के बारे में वर्णन दिया हुआ है। जिन जन्म महोत्सव १२ क्यों की कृति है । पद्मावतींनी विनती में पद्मावतीदेवी का स्तवन है जो १० छप्पय छन्दों में पूर्ण होती है । इसी तरह चन्द्रप्रभविनती १८ पद्यों की रचना है । कवि ने इसके अन्त में अपन परिचय निम्न प्रकार दिया है कवि की रविव्रत कथा अच्छी कृति है जो ३६ पथों में पूर्ण गुजराती प्रभावित है । काव्य रचना का एकमात्र उद्देश्य कया पद्य देखिये -- मूलसंघ नमचन्द्र सम प्रभयचन्द्र तस पाटे भूषण हवा सौभ्यचन्द्र सेह नेतृ थि वाणि गंदे उदार, प्रभू विद्यासागर तरणोपायों पार | शुभ संवत सत्तर चोबीस समे, नम मास यदि सप्तमी भोभ दिने । कर जोडी ने विनती एह कहे, बहु जीवन धन सुख तेह लेहे ॥८॥ १. पुत्र कहे माता सुरणो व्रत ए नहि सार खरच नहि जिहां धन लग्गु ते जाणो भासार एहवा वचने बहु कहि व्रत निया किधि । जाणे पाप जंतांजलि षट पुत्रे विधि १०७ ६०. ब्रह्मधमं रुचि भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा में दो प्रभयचन्द्र भट्टारक हुए। एक मभयचन्द्र [सं १५४८ ] श्रायनन्दि के गुरु अभयचन्द्र भट्टारक कुमुद• थे तथा दूसरे चन्द्र के शिष्य थे। दूसरे श्रभयचन्द्र का पूर्व पृष्ठों में परिचय दिया जा चुका है किन्तु ब्रह्म धर्मरुचि प्रथम प्रभयचन्द्र के शिष्य थे। जिनका समय १६वीं शताब्दि का दूसरा चरण था। इनकी अब तक ९ कृतियाँ उपलब्ध हो चुकी हैं। जिनमें सुकुमालस्वामिनी रास' सबसे बडी रचना है। इसमें विभिन्न छन्दों में सुकुमाल स्वामी का चरित्र वर्णित है। यह एक प्रवन्ध काव्य है । यद्यपि काव्य सगों में विभक्त नहीं है लेकिन विभिन्न भास छन्दों में विभक्त होने के कारण सर्गों में विभक्त नहीं होना खटकता नहीं है। रास की भाषा एवं वर्णन शैली अच्छी है । भाषा की इष्टि से रचना गुजराती प्रभावित राजस्थानी भाषा में निबद्ध है । रास की एक प्रति महावीर प्रन्थ अकादमी के संघ में है। होती हैं । भाषा कहना है। एक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ ते देखि भयभीत हवी, नागश्री कहे तात । कवरण पातिग एणे कीमा, परिपरि पामंद छे घात १३ तब ब्राह्मण कहे सुन्दरी सुखो तह मो एणी बात | जिम आनंद बहु उपजे जग मांहे छे विरूपात । २ । ब्रह्म धर्मवि रास की रचना घोषानगर के चन्द्रप्रभ चैत्यालय में प्रारम्भ की गयी थी और उसी नगर के श्रादिनाथ चैत्मालय में पूर्ण हुई थी । कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है श्रीमूल संघ महिमा निलो हो, सरस्वती गच्छ सणगार । बलात्कार गण निर्मलो हो, श्री पद्मनन्दि भवतार रे जी ।। २३ ।। तेह पार्टि गुरु गुणनिलो हो, श्री देवेन्द्रकीति दातार 1 श्री विद्यानन्द विद्यानिलो हो, तस पट्टोवर सार रे जी ॥ २४ ॥ श्री मल्लिभूषण महिमानिलो हो तेह कुल कमल विकास 1 भास्कर सम पट तेह तो हो, श्री लक्ष्मीचन्द्रवास रे जी ॥ २५ ॥ तस गछपति जगि जाणियो हो, गौतम सम अवतार | श्री प्रभयचन्द्र वखाणीये हो, ज्ञान तथे भंडार रे जीवडा ॥ २६ ॥ तास शिष्य भणि रुवडी हो, रास कियो में सार । सुकुमाल नो भाषइ जट्ठो हो, सुगता पुण्य अपार रेजी. ।। २७ ।। ख्याति पूजानि नवि कीय हो, नवि की कविताभिमान | कर्मक्षय कारण कीयु हो, पामवा वलि स्वर पदाक्षर व्यंजन हीनो हो, मह की साधु सम्नो सोधि लेना हो, समितवि करजो श्री घोधानगर सोहामणू हो, श्री संघव से दातार । चेला दोइ भामरण हो, महोत्सव दिन दिन सार रे जी ॥ ३० ॥ कवि की अन्य कृतियों के नाम निम्न प्रकार है १. पीहरसासका गीत २. वणिया गीत ३. मीणारे गीत ४. अरहंत गीत ५. जिनवर बीनती ६. श्रादिजिन बिनती ७. पद एवं गीत रुंडू ज्ञान रे जी. ।। २८ ।। होयि परमादि । प्रादि रे जी ॥ २६ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ हारक रकीति एवं कुमुवचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस प्रकार कवि की सभी लघु रचनायें हैं तथा सामान्य शैली में निबद्ध है । पीहर सासरा गीत रूपात्मक गीत है। जो बहुत सुन्दर है तथा मानव स्वभाव को प्रकट करने वाला है इसलिये पूरा गीत पाठकों के रसास्वादन के लिये यहाँ दिया जा रहा है- सन्मति शिव यति प्रणमीनि, भजी बली भगवती माय रे । Free पीहर भले गायस्यु, बेह गातां पातिग जाय रे । संसार सासद माँहि दोहिल, सोहिल नहीय लगार रे । शिवपुर पीहर सास्वतु. जिहा नहीं मोह सासरो मदि मलय तो, माया रे कुमत नणंदडी सखि नित दये, नमी तेहा संयम पिता हमारे प्रति भलो, दया रे माता धर्म बांधव दश शोभता, सुमति बहेन सुखनो पार रे ।। १ ।। सासूडी कलंछ रे । मार्ग पट पीठरे ॥ २ ॥ मशसार रे । भवतार रे ॥ ३ ॥ मदन महाभट नाहलो, रति बधूस्यू कीडे अज्ञान क्रोध जेठ करे पेखणा, राग द्वेष देवर मोडि मान सयल फ्रुटंब तप व्रत तथो, सहयकारी सबै शील आभरण अंगि उपता, पुण्य फले सुख असंयम फुटंब अलखा मणू, षामणु दीरो बहु पाप पदारथ सासरु नहीं, एक घड़ी सुख रे । रे ॥ ४ ॥ परिवार रे भंडार रे ॥ ५ ॥ रौद्र रे । निद्र रे ।। ६ ।। सखी एहवा पीहर मलजई, तहां रे जावान् बहू कोड देवना पाढा किमनी गमू, कहींद होते संसार सारडे मून्हे नवि गमे, भमि मन विविध वेष घरी दुख सहिया, भूमि भूमि देवगुरु श्रमचन्द सेवता, संसार सुगति पीहर प्राणि पारसद कहे ब्रह्मरुचि संत रे ॥ ९ ॥ साहारा होसे अंत है । रे । तेहनो मोड रे ॥ ७ ॥ पीहर मझारि रे । अनंत संसार रे ॥ ८॥ ब्रह्मरुचि ने अभयचन्द्र के गुरु कुमुदचन्द्र एवं दादागुरु ज्ञानभूषण का उल्लेख भी नहीं किया है इसलिये ऐसा लगता है कि इनका उदय भटूटाक कुमुद्रचन्द्र के पश्चात हुआ होगा । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य चन्द्रक ११० ६१. माचार्य चन्द्रकोसि म. रत्नकीर्ति ने साहित्य-निर्माण का जो वातावरण बनाया था तथा अपने शिष्य प्रशिष्यों का इस ओर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया था, इसी के फल-स्वरूप ब्रह्म-जयसागर कुमुदचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, संयमसागर, गणेश और धर्मसागर जैसे प्रसिद्ध सन्त, साहित्य-रचना की मोर प्रवृत्त हुए। "प्रा. पन्द्रकीर्ति" भ. रत्नकीति के प्रिय शिष्यों में से थे । ये मेघावी एवं योग्यतम शिष्य थे तथा अपने गुरु के प्रत्येक कार्यों में सहयोग देते थे । | "चन्द्रकीर्ति" के गुजरात एवं राजस्थान प्रदेश प्रमुख क्षेत्र थे । कमी-कभी ये अपने गुरु के साथ और कभी स्वतन्त्र रूप से इन प्रदेशों में बिहार करते थें। बसे बारडोली, भडोच, डूंगरपुर, सागवाडा आदि नगर इनके साहित्य निर्माण के स्थान हो । अब तक इनकी निम्न कृतियां उपलब्ध हुई है. F १. सोलहकारण रास १. कुमाराख्यान ३. चार चुनड़ी, ४. चौरासी लाख जीवजोनि वोनती । उक्त रचनाओं के अतिरिक्त इनके कुछ हिन्दी पद भी उपलब्ध हुए हैं । १. सोलहकारण रास यह कवि की लघु कृति है। इसमें षोडशकारण व्रत का महात्म्य बतलाया है । ४६ पद्यों वाले इस रास में राग गौडी देशी, दूहा, राग-देशास्ख त्रोटक, बाल, राग-धन्यासी आदि विभिन्न छन्दों का प्रयोग हुआ है । कवि ने रचनाकाल का उल्लेख तो नहीं किया है, किन्तु रचना स्थान "हाडोच" का भवश्य निर्दिष्ट किया है । " भडोच " नगर में जो शांतिनाथ का मन्दिर था वही इस रचना का समाप्तिस्थान था। रास के मन्द में कवि ने अपना एवं अपने पूर्व गुरुमों का स्मरण किया है । अन्तिम दो पद्म निम्न प्रकार है श्री भरुच नगरे सोहामणू श्री शांतिनाथ जिनराय रे । प्रासादे रचना रवि, श्री 'चन्द्रकोरति' गुण गायरे ॥ ४४ ॥ एव फल गिरना जो जो श्री जीवन्धर जिनराय जी | भविण तिदां जइ भावज्ये, पातिग दुरे पालाय रे ॥ ४५ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुल पद : व्यक्निक कृषिक 2. जयकुमार आल्यान यह कवि का सबसे बड़ा काव्य है जो ४ सर्गों में विभक्त है। जयकुमार प्रथम तीर्थकर भ, ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत के सेनाध्यक्ष थे। इन्हीं. जय कुमार का इसमें पूरा चरित्र वणित है। पाख्यान वीर-रस प्रधान है। इसकी रचना बारडोली नगर के चंद्रप्रभ चैत्यालय में संवत् १६५५ को मंत्र शुक्ला दशमी के दिन समाप्त हुई थी। "अमकुमार" को सम्राट भरत सेनाध्यक्ष पद पर नियुक्त करके शांति पूर्वक जीवन बिताने लगे। अयकुमार ने अपने युद्ध-कौशल से सारे साम्राज्य पर प्रखण्ड शासन क्यारित किया । वे मौन्दर्य के खजाने थे। एक बार वाराणसी के राजा "प्रकम्पन" ने अपनी पुत्री "सुलोचना" के विवाह के लिए स्वयम्बर का प्रायोजन किया । स्वयम्बर में जयकुमार भी सम्मिलित हुए। इसी स्वयम्बर में "सम्राट भरत" के एक राजकुमार "अर्ककीति" भी गये थे, लेकिन जब सुलोचना ने जयकुमार के गले में माना पहिना दी, तो वे अत्यन्त क्रोधित हुए। अकीति एवं जयकुमार में युद्ध हमा और अन्त में जयकुमार की विजय के पश्चात् जयकुमार का सुलोकाना के साथ विवाह हो गया । इस "पाख्यान" के प्रथम अधिकार में जयकुमार-सुलोचना-विशह का वर्णन है । दूसरे और तीसरे अधिकार में जयकुमार के पूर्व भवों का वर्णन मोर गतुर्थ एवं मन्तिम अधिकार में जयकुमार के निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन किया गया है। "पाख्यान" में वीर-रस, शृंगार-रस ए शांत रस का प्राधान्य है । इसकी भाषा राजस्थानी डिंगल है । यद्यपि रचना-रधान बारडोली नगर है, लेकिन गजराती पाब्दी का बहुत ही कम प्रयोग हुअा है। इससे कवि का राजस्थानी प्रेम अलकता है। "सुलोचना" स्वयम्बर में वरमाला हाथ में लेकर जब याती है, तो उस समय उसकी कितनी सुन्दरता थी, इसका कवि के शब्दों में ही अवलोकन कीजिए-- जाणीए सोल कला पशाशि, मुख चन्द्र सोमासी कह । अघर विद्रुम राजताए, दन्त मुक्ताफल' लहुँ । कमल' पत्र विशाल नेत्रा, नाशिका सुक चंच । अष्टमी चन्द्रज भाल सोहे, वेणी नाग प्रपंच ।। सुन्दरी देखी तेह राजा, चितवे मन मांहि । ए सुन्दरी मूर सूदरी, किन्नरी विम वोह वाय ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ भाचार्य वन्द्रकीति सुलोचना एक एक राजकुमार के पास पाती मौर फिर आगे चल येती। उस समय वहां उपस्थित राजकुमारों के हृदय में क्या-क्या कल्पनाएं उठ रही थीइसको भी देखिए एक हंसता एक खीजे, एक रंग फरे नवा । एक जाणे मुझ बरसे, प्रेम घरता जु बवा ।। एक कहे जो नहीं वरें, तो अम्यो तपवन जायसु। एक कहतो पुण्य पाये, एह बलभ घासू ॥ एक कहे जो प्राण्यातो, विमासण सह परहरी । पून्य फल ने बातगोए, ठाम सुभ हैपडे पर । लेकिन जब सुलोचना ने अकति गले में परमाल नही डास, तीजयुकुमार प्रकीति में युद्ध भडक उठा। इसी प्रसंग में परिणत युद्ध का समय भी देखिए मला कटक विकट कबहूं सुभट सू, धरि धीर हमीर हठ विकट सू । करी कोप कूटे यूटे सरबहू, चक्र तो समर खडग मूके सहु ॥ गयो गम गोला गगनांगणे, गो प्रग प्रावे वीर इम भणे । मोहो मांहि मूके मोटर महीपती, चोट खोट न प्रावे मरती ॥ बयो अवा करी बेहद्द इसू, कोपे करतां कूरे प्रखड सू । घरी धरी घर ढोली नाखता, कोपि कडकडी साजन राखता ।। हस्ती हस्ती संघाते प्राथंडे, रथो रथ सूमट सहू हम भडे । हय हषार व जब छजयो, नीसारण नादें जग गज्जयो । कषि मे अन्त में जो अपना वर्णन किया है, वह निम्न प्रकार है Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व श्री मूलसंघ सरस्वती गछे रे, मुनीवर श्री पदमनन्द रे । देवेन्द्रकी रति विद्यानंदी अयो रे, मल्लीभूषण पुन्य कंद रे ॥ श्री लक्ष्मीचन्द पाटे थापयारे, अभय सुनन्न मुनीन्द्र रे । तस कुल कमलें रवि समोर, प्रभयनन्दी नमें नरचन्द रे ।। तेह तणे पाटें सोहावयों रे, श्री रत्नकीरति सुगुण भंडार रे । तास शोष सुरी गुणं मंडयो रे, चन्द्रकीरति कहे सार रे । एक मनां एंह भणे सांभले रे, लखे भलु एह पाख्यान रे ।। मन रे वोछति फल ते महे रे, नव भवें लहे बहु मान रे। संवत सोल पंचावने रे, उजाली दशमी चैत्र मास रे ।। बारडोली नयरे रचना रची रे, चन्द्रप्रभ सुभ प्रावास रे । नित्य नित्य केवली जे जपे रे, जय-जयनाम प्रसीधरे ।। गणधर प्रादिनाथ केर डोरे, एकत्तरमो बहु रिघ रे ॥ विस्तार प्रादि पुराण पांडवे भणोरे, एह संक्षेपे कही सार रे । भणे सुणे भषि ते सुख लहे रे, चन्द्रकीरति कहे सार रे । समय: कवि ने इसे संवत् १६५५ में समाप्त किया था। इसे यदि अन्तिम रचना भी मानी जावे तो उसका समय संवत १६६० तक का निश्चित होता है । कवि ने अपने गुरु के रूप में "रत्नकीति" एवं "कुमुदचन्द्र" दोनों का ही नामोल्लेख किया है, संवत १६६० तक तो रतकीति के पश्चात कुमुदचन्द्र भी भट्टारक हो गए थे, इसलिये यह भी निश्चित सा है कि कवि ने रत्नकोति से ही दीक्षा ली थी और उनकी मृत्यु के पश्चात वे संघ से प्रायः भलग ही रहने लगे थे । ऐसी अवस्था में कवि का समय संवत् १६०० से १६६० तक माना जा सकता है। धारित बनती कवि की तीसरी रचना चारित्र चुनड़ी है जिसके रूप में माट्टारक रत्नकीति के चारित्र की प्रशंसा की हैं। चनड़ी में विभिन्न रूपको का प्रयोग हा है । चूनड़ी निम्न प्रकार हैं श्री जिनपति पद केज नमी रे, भजी भारती अवतार रे । चारित्र पछेडी मले गामेस्युरे, श्री गुरु सुख दातार रे । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य चन्द्रकीर्ति चतुर चारित्र पछेडली रे, सोहे श्री गुरु अंगि रे । सूरी श्री रलकीरती सोहे रे, मोहे महिमंडल रंग रे। श्री जिनागम सूत्र नीपनी रे, 15 अगुवाहः एह रे । संयम सरोवरे धोई जेरे, पुरातन पले पाप जे हरे ।। श्री गुरुवाणी हरडा करी रे, तेह तणो दीधो पास रे । प्रागम फट को रंग दोढ करी रे, अध्यातम मनोपम तीसरे ।। ध्यान कडाई रंग उकालीजे रे, तप तेल दीधे ए भूर रे । समकिस चोल रंग गह गयो रे, पुण्य पल्लव सुख सुख पूर रे । विमल कमल पंच प्रत तणां रे, पान पंच सुमति नां फुलां रे । अण्य गुपति रेखा सोभती रे, घरती विविध परिनेह रे । सील समोह फरती कुलडी रे, मूलगुरण मणि गुण छौंट रे । उत्तर चोरासी लख्य बेलडी रे, जोये रुडी ग्यांन नी प्रीत रे । सुन्दर चारित्र पछेलडी रे, सोहे रत्नकी रति मुनींद रे । चन्द्रकीरति सूरी वर कहे रे, चारित्र पछेडी सुख वृद रे ।। इति चारित्र पुनडी गीत समाप्त कषि ने भट्टारक कुमुदचन्द्र पर भी पद लिखे हैं जिसमें कुमुदचन्द्र के गुणों का बखान किया गया है । एक पद देखिए राग अन्यासी वंदो कुमुदचन्द्र सूरी भवियण सरस बखान मनोहरवाणी, सेवे सदा पद गुरिणयग ॥ १ ॥ पंच महानत्त पंच सुमति, अण्य गृपति वर मंडल । पंचाचार प्रवीण परम गुरु, मथित मदन मद सांडन 1॥ २॥ शास्त्र विचार विराजित नायक, विकट वादी मद भंजन । चन्द्रकीति कहे घोभित सदगुरु, सकल सभा मन रंजन । ३ .' चन्द्रकीति द्वारा निबद्ध चौरासी लाख जीवजोनी बिनती भी मिलती है। ६२. संयमसागर मे चटारक कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे। संघ में रह कर अपने गुरु को साहित्य निर्माण में योग देना तथा बिहार के समय भट्टारक कुमुदचंद्र Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १५५ के गुणानुवाद करना इनका प्रमुख कार्य था । वे स्वयं भी कवि थे । छोटे-छोटे गीत लिखा करते थे । अब तक इनके निम्न गीत मिल चुके हैं । १. कुमुदचन्द्र गीत २. पारवनाथ गीत ३. गीतलनाथ गीत ४. नेमिगीत ५. गुर्वावली गीत ६. शांतिनाथनी विनती ७. वसिभनी विनती ८, लघु गीत उक्त सभी गोत छोटे छोटे हैं। लेकिन इतिहास लेखन में सभी गीत उपयोगी है । यहां एक गीत जिसमें कुमुर की विशेषताओं का पर किया गया है दिया जा रहा है--- प्रावो साहेलडी रे सहू मिलि संगे । बांदो गुरु कुमुदचन्द्र ने मनि रंगि। छन्द पागम अलंकारनी जाण, बारु चितामणि प्रमुख प्रमाण । तेरे प्रकार ए चारित्र सोहै, दीठठे भरियण जन मन मोहे । साह सदाफल जेहनो तात, धन जनम्यो पदमां बाई मात । सरस्वती गच्छ तणो सिणगार, वेगस्यु' जीतिमो दुधर भार । महीयले मोढवंशे सु विख्यात, हाप जोगाविया वादी संघास | जे नरनारी ए गोर गुण गवे, संयमसागर कहे ते सुखी पाय ।। ६३. धर्मचन्द्र ये भट्टारक रत्नकीति के संघ में रहते में। छोटे छोटे गीत लिखने में ये । भी रुचि लेते थे । अापका एक गीत मिला है जिसमें भट्टारक परम्परा, प्रतिष्ठाकारकों की प्रतिष्ठा आदि के सम्बन्ध में लिखा गया है । रचना सामान्य है। ६४. राघव ये भी भट्टारक रत्नकी ति के संघ में रहते थे। विद्वान थे। कभी-कमी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मेघसरगर छाट छोटे गीत लिख दिया करते थे। इन्होंने अपने एक गीत में खान मलिक द्वारा भट्टारक रत्नकीति का सम्मान किया गया था, ऐसा उल्लेख किया गया है । श्री अभयनन्द पाटि पटोधर, रत्लकीरति गोर बंदो जी। बंदे सुख लक्ष्मी बहु फामो, तो जन्मना पाप मिकन्दो जी । वेठा सिंहासन सभा मनरंजन,"..."हा अधिक.. . संचे जी । अगम छन्द प्रमाण ए व्याकरण मलहरी वसतिहो वाजे जी । लक्षण वतीस सकल कला अंगि बहोत्तरि, खान मलिक दिये मान जी । घन्य ए घोषा नयर बवाणु, हुबड बंश सुजाण जी । श्री रत्नकीरति चरण नमीने, भविषण करे नखाए जी । धन्य सहेजलदे मात बस्त्राग, देवदास सुत रतन जी। कर जोडी ने राधव बीनवे, जीव दया शुभ मन जी । गोरने जीव दया शुभ मन जो ॥ ६५. मेघसागर __ मेघसागर ब्रह्मचारी थे तथा भट्टारक कुमुदचन्द्र एवं प्रभयचन्द्र के संघ में रहते थे। इन्हें भी छोटे छोटे गीत लिखने में नानन्द प्राता था। संवत १६.५ में जब अभय चन्द्र को भट्टारक पद पर अभिषिक्त किया गया था तब ये वहीं थे । उन्होंने उसका एक गीत में वर्णन भी किया है। पुरा गीत यहां दिया जा रहा है गुरुगीत-राग मल्हार सकल जिनेश्वर प्रणमीने, सारदा न बली पाय । कुमुदचन्द्र पाटि गाईए, अभयचन्द्र गुरु राय रे । प्राबो सुन्दरी तम्हे सहु मिली, जिन मन्दिर भन्सार रे ||पांचली॥१४॥ मूलसंधे गुरु जारिणये, सरस्वती गछे जेह रे । लेह तणा गुण वर्णव धरी अधिक सनेह रे । मावो।।२।। सूरी वामदचन्द्र पाटि अभिनवो गौतम अवतार रे। चरित्र पाले निर्मला, घरे पंच प्राचार रे यावी।।३।। पंच महावत उजला, पंच समिति सुवचार रे। प्रय गुपति ने वक्ष कर, चारित्र तेर प्रकार रे |मायो।।४।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकीति एवं कुमुदषन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ११७ बारडोली नयर सोहामण', चंद्रप्रम जिनधाम रे । पाटि महोछव तिहा हवी, सरसा संघना काम रे ||प्रायो।।५।। संवत सोल पच्यासीई, फागुण सुदि एकादशी सोमवार रे । कुमुदचन्द्र पाटि थापिया, अभय चन्द्र गुरु भार रे ॥प्रायो।।६।। तप तेजो दिनकर समो, मिथ्या मत कीधो दुरि रे । मध्य जीवने प्रतिबोधया, दीठे आदि पुर रे । प्रावो॥७॥ श्री प्रभयचन्द्र गुण गाइये, घरी हरष अपार रे । मेघसागर ब्रह्म इम कहे, सकल संघ जयकार रे मावो।।।। ६६. धर्मसागर ये मट्टारक प्रभयनन्द्र द्वितीय के संच में ब्रह्मचारी थे तथा भट्टारक के प्रिय शिष्यों में से थे । वे अपने गुरु के साथ रहते और बिहार के प्रवसर पर उनका विभिन्न गीतों के द्वारा प्रशंसा एवं स्तवन किया करते । नेमिनाथ एवं राजुल भी इनके प्रिय थे इसलिये उनके सम्बन्ध में भी इन्होंने कितने ही गीत लिखे हैं। प्रव तक इनके निम्न गीत प्राप्त हो चुके हैं । १. नेमि गीत २. नेमीश्वर गीत ३. लाल पछेडी गीत ४. मरकलका गीत ५. गुरु गीत ६. विभिन्न गीत धर्मसागर ने नेमि राजुल के सम्बन्ध में अपने पूर्व गुरुषों के मार्ग का अनुसरण किया और राजुल के सौन्दर्य एवं उसकी विरह वेदना को व्यक्त करने में उनसे भी गाजी मरने का प्रयास किया। उनके द्वारा निबद्ध एक नेमीश्वर गीत देखिये सखिय सह' मिलि बीनये, वर मि कुमार। तोरण थी पाछा बल्या, करीस्यो रे विचार ॥१॥ राजीमती प्रति सुन्दरी, गुणनो नहीं पार । इंद्राणी नहीं अनुसरे, जेह नू रूप लगार ॥ २ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ११८ बेरणी विशाल सोहामणी, जीत्यो श्याम फरिद भाल कला प्रति स्पष्टी, भरवो बस्यो चंद ॥ ३ ॥ खिडली कज पाखडी, काली श्रणियाणी । काम तथा शररिया में पानन हसित कमल जस्यु' नाक सरल घणुभ करीस्युं मवाणीये, सूका चंच पर . नोहा ॥ उत्तंग | सुचंग ॥ 5 ॥ भई हरे मन पोमण पोन । ग्रहण अधर सम उपता जेवी वचन मधुर जांणी करो, कोयल कंठे कंबु हराबीयो है यई बाहू लता प्रति लड़कती कर मधर अनोपम पातलू, जेहबू हरी लंकी करि जाणिये, पर रंग पान्हीस उची मति रातडी प्रांगलडी सर्व सुलक्षरण सुन्दरी, नहीं मलसे रही लाल पाछा चलो का वचन ते हास विलास करो तुम्हे, प्रति घृणं मा एह वचन मान्यु नहीं, लोधो संयम तप करीस्यां सुख पामियां, सज्जन सुखकार ।। ११ ।। कुमुदचन्द्र पद चांदलो, धर्मसागर कहे नेम जी, सहूने जय जय कार ।। १२ ।। मानो । J तानि ॥ १० ॥ भार श्रभयचन्द्र उदार । वाली । काली || 6 || चित । मोहत ॥ ७ ॥ समान ॥ ८ ॥ तेहदी । एहवी ॥ ९ ॥ धर्मसागर इस प्रकार कवि ने राजुल की विरह गत भावनाभों को अपने गीतों में संजो कर हिन्दी जगत में एक नयी सामग्री प्रस्तुत की है। धर्म सागर ने भट्टारक श्रभयचन्द्र का भी खूब गुणानुवाद किया है। एक गीत में तो भट्टारक जी लाल पछेवढी धारण करने पर कितने सुन्दर लगते थे इसका भी वर्णन किया गया है और लिखा है कि "लाल विशेवटी अभयचन्द्र सोहे, निरखतां भविकयनां मन मोहे" । भट्टारक ग्रहायचन्द्र की प्रशंसा में लिखा है कि इनका देहली दरबार तक व्याप्त था तथा वहां इनकी प्रशंसा होती थी। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक रस्नको ति कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दिस्सी रे सिंहासन केरा राजियो रे, गाजियो यश त्रिभुवन माहि रे । वादि तिमिरहर दिनकर रे, सुरतरु सरस्वती गम्छे रे॥ अभय चन्द्र की प्रशंसा में लिखा एक और गीत देखिये जिसमें फधि ने अभयचंद्र की विद्वता एवं ज्ञान की खुल कर प्रशंसा की है प्रावो रे भामिनी गजवर गामिनी, गंदवा मभय चन्द्र मिली मृगनयनी । मुगताफलनी चाल भरीजे, गछनायक अभय चन्द्र बाबीजे ॥ २ ।। कुकुम चंदन भरीय कचोली, प्रेमे पद पूजो मारना सह भली ॥ ३ ॥ हूबड़ मंशे श्रीपाल साह तात, जनम्यो रुड़ी रतन कोरमदे मात ।। ४ ।। लघुयणे लीधो महानत भार, मन वश करी जीत्यो दुद्ध र मार ।। ५ ।। तकं नाटक प्रागम प्रहांकार, अनेक शास्त्र भण्या मनोहार ॥ ६ ॥ भट्टारक पद एहमे छाजे, जेहनी यश जगमो वास गाजे ॥ ७ ॥ श्री मूलसंघ उदयो महिमा निधान, मापक जन करे जेह गुणगान || 5 || कुमुधचन्द्र पाटि जयकारी, धर्मसागर कहे गाउ नर नारी ॥ ९ ॥ ६७. गोपालपास गोपालदास की दो छोटी रचनायें यादुरासो तथा प्रमादीगीत जयपुर के ठोलियों के मंदिर के शास्त्र भण्डार के ६७३ गुटके में संग्रहीत है। गुटके के लेखनकाल के प्राधार पर कवि १७वीं शताब्दी या इससे भी पूर्व के विद्वान रहते थे । यदुरासों में भगवान नेमिनाथ के वन चले जाने के पश्चात् राजुल की विरहावस्था का वर्णन है जो उन्हें वापिस लाने के रुप में हैं । इसमें २४ पच है। प्रमातीगीत एक उपदेशात्मकगीत है जिसमें आलस्य त्याग कर प्रात्महित करने के लिये कहा गया है। इनके अतिरिक्त इनके कुछ गीत भी मिलते हैं। ६८. पडे हेमराज प्राचीन हिन्दी गद्य पर लेखकों में हेमराज का नाम उल्लेखनीय है । इनका समय सत्रहवीं शताब्दी था तथा ये पांडे रुपचन्द के शिष्य थे। इन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के ग्रंथों का हिन्दी गद्य में अनुवाद करके हिन्दी के प्रचार में महत्वपूर्ण योग दिया था । इनकी प्रब तक १२ रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं जिनमें नयच क. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पांडे हेमराज भाषा, प्रवचनसार भाषा, कर्मकाण्ड भाषा, पञ्चास्किाय माषा, परमात्मप्रकाश भाषा प्रादि प्रमुख हैं । प्रवचन सार को बाहोंने १७ri नदवा को १७२४ में समाप्त किया था । अभी तीन रचनायें और मिली है जिनके नाम दोहाशतक, जखडी तथा गीत हैं। रचनामों के प्राधार पर कहा जा सकता है कि कवि का हिन्दी गध एवं पध दोनो में ही एक सा ही अधिकार था । भाव एवं भाषा की दृष्टि से इनकी सभी रचनायें अच्छी है । दोहा शतक, जखडी एवं हिन्दी पद अभी तक अप्रकाशित हैं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ फाग श्री जिन युग धन जोणिय वस्त्राणये वारिण विस्मात | सारदा वरदा स्मा मिनी, भामिनी भारती मात ॥ १ ॥ विमल विद्या गुरु पूजीइ, बुझिये मुगति तगां फल पाईई, ज्ञान अनन्त । गाइए राजुल कंत ॥ २ ॥ पापनो अंश । यादव कुल चरणो श्रवतरमो अवनि श्रनोपम सुन्दर शिवादेवी नन्दन, समुद्र विजय धन तास, कुंभर करूणा वन्त, मण्डप, खण्डन मल्ल युद्ध जो ए करे, पारखे प्राश्रमें पुरों, पाणिग्रहण करी पांडु, परणो प्रभू कहे मे, सिषयी सुन्दरी सामले, खड़ो खली झीलवा चालिय, जुगल कमले करी कामिनी, पाणिग्रहण पर प्रेम रे, बल छल कल करी, उग्रसेन फेरी कुवरी, उपमना सूरो चन्दन विख्यात कहंव अपार | राज काज मनि श्राखिय महन्त जारिणय करे मोरारि ॥ ५ ॥ जोउ पारथ एह तरतू ब्रह्मतस्तु माने पञग सेजि पोढिय कम्बू धनुष घरे मन्न । धश्न ।। ६ ।। होय । कोय ॥ ७ ॥ देखाइ' श्रधिकवतंश ॥ ३ ॥ त्रिभुवन तेह | वसुधा एह ॥ ४ ॥ बहु परिप्रक्रमी ए सो नही इम आमले मनोहेरा विपरीत । रूप रीस ॥ ८ ॥ पाडना बात झालिय नेमने हाथि ॥ ६ ॥ स्वामिनी छांडे देह । नेम धरो मनि नेह ॥ १०॥ भोलग्यो भोले नेमकुमार | राजुल अपार ।। ११ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ फार रामुल का सौन्धर्य चन्द्र वदनी मृग लोचनी मोचनी संजन मीन । बासग जीत्यो वेरिणइं, श्रेणिय मधुकर दीन ॥ १२ ॥ युगस गल दीये सशि, उपमा नाशा कीर । अपर विक समता , अन्तनू निर्मल नीर ॥ १३ ॥ हाल चिबुक कमल पर षटपद, प्रानन्द करे सुषापान । ग्रीवा सुन्दर सोभती, कंजु कपोतने वान || १४ || कोमल कमल कालश वे उपरि मोती सोहे । जाण कमल केरी बेलड़ी, बेलड़ी बांहोडी सोहि ।। १५ ।। कनक कजोगम सोभतु, नाभि गम्भीर विसेस । जाणे विधाताई आगुलो वालिय रुपनी रेख ॥ १६ ।। कटि हरिगति गज जीतियां, पूरिया वनमा बास । जंघाइ जीतिय कदलिय, अंगलिय पद्म पलास ।। १७ ।। प्राभ्रण अंग पनोपम, भूषण शरीर सोहंत । कवि कहेस्यु बखाणीये राजुल रूप अनन्त ॥ १८ ॥ उग्रसेन को कुंभरि सुन्दरी सुलक्षण अंग । माधव बन्धव नेमनो, वीवाह मेलो मनरग ॥ १६ ॥ दहा नेमिनाथ का विवाह वेह धरि सुभ पर प्रेमस्यू', अही ना मिलिया अनेक । तरचे वित्त नित चितस्यु वीहवा वारु विवेक ॥ २० ।। करी सगाई सुर मिलि यदुपति हलधर कहान । इन्द्र नरिन्द्र गयन्द चढी, ते परिण प्राध्या जनि ।। २१ ॥ हाल जान मान माहि मोटा, महीपति मलिया अनन्त । एकेक पाहि प्रधिका षणा, ईश्वर उभया कत ।। २२ ।। देई निसारण सजाग चतुर चढियो रथ सोहि । किरिट कुण्डल केरी कानि, शंक्या रवि शशि सोहे ॥ २३ ।। प्राक्या मण्डप दुकड़ा कूकड़ा मग तणा वृन्द ।। देखी बल्यो तत खेचरे देव दयां वरणो कंद ॥ २४ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | •• भट्टारक रत्नकौलि एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नेमि वंशग्य सानो सारथि बात विख्यात भसम्भव भाज | त कोई कारण जांयों रे, ए प्रांण्या कोण काजि ।। २५ ।। दुहा पशु प्रनेक | विबेक ॥ २६ ॥३ उग्रसेन राई भाणीया पंखी गौरव वेला मारसे, करस्ये ता बात बातनी मिली, मन्तर पडियो त्रास । for संसार वीला किस्यो ए पशु नेस्यो पास ।। २७ ।। ढाल पास छोडाचो एहना देना कोकरो घात । जाली बात में एह तरणी विवाह वरणी नहीं बात ॥ २८ ॥ पाछो चालो र सारथि सांसो मकरस्यो सोस । उपनी तृषा अति जल वणी, न समे दूधे तथा बस ॥ २६ ॥ विषय भोगवे अग्यानी, ज्ञानो न भोगवे लेह । भूता तन्तु बांधे मक्षिका नवि बांधे करि देह ॥ ३० ॥ इन्द्रिय सुख शुभ तव लगें, मुगति न जाणो खेल । दीये स्वाद नहीं जब लगे तब लगे उत्तम तेल ।। ३१ ।। विवाह बात निवाई, भाष मदन सुध मने तप साघू, आराधु सिद्ध J महंत | महंत ।। ३२ ।। दूहा आलिये धावी इम कहूँ सखीस्यों करे श्रृंगार । तोरा थी पाठो दल्यो, यदुपति नेमिकुमार ॥ ३३ ॥ सांभल श्रवणे सुन्दरी, मनि घरी एक बात । कित थई तब मति गई, कारण कहो मुझ बात ।। ३४ ।। ढाल राजुल का विलाप : माल तात सह देखता, राजुल यई दिग मूढ | बात वारती सीघणी कमतरणी श्राभरण भूषण छोड़ती मोड़ती कंकण हाथ | मन्दर लू बहेलिया t राखो रे रथ लम्हे समरथ लक्षग्ण कोण स सम्वना, गति गूढ ।। ३५ ।। लिय सहियर साथ ।। ३६ ।। हसारप करे बहु लोक । मांहतना वचन फोक ॥ ३७ ॥ १२६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ नेमिनाथ फाग कां जाये बन वाहता, कला कठिन का पाय । सांभली वीनती साहरी, ताहरी कोमल काय ॥ ३८ ।। छए रति प्रारति अति घणी, वरसा लेरे विख्यात । नाथ बात नो हे सोहिली. पोहिली शियालानी रति ।। ३६ || सीयाले शीत पड़े, पर मति निर्मम हीम | हरी करी चरि मद मूके, चूके तापस नीम || ४० ।। माह उमाह अति प्रायो, महियल माधव राय ।। पंच वारण ग्रहा हामि ते, साधे मदन सहाय ।। ४१ ।। उष्ण कालि खल सरिखो, निरखो हंस कठोर । कोमल तनि लू लागस्ये, बागस्ये वायु निठोर ।। ४२ ॥ अपरांघ पाषे का परिङ्गों, दया करो देव दयाल । जलचर जल बिना टलवलें, बिलवले राजल बाल ॥ ४३ ॥ मैं जाण्युह मुझने, मिलस्ये भंगो अंगि । उलट उपनो अति घारे, रंग मां काकरो भंग ॥ ४४ ।। हाता राजुल का नेमि से निवेदन : भंग काकरि प्रिम भोगनो, भोगवो लोग विख्यात । माहो करग्रह करस्ये, करस्ये को जीवनो पात ॥ ४५ ॥ प्रारथी ने पाप लांग, मांगो भया करो मुझ । एक रयणी रहो पास रे, दास थाउं च तुझ ॥ ४६ ॥ हरिहर ब्रह्मा इन्द्र रे, चन्द्र नरेन्द्र न नारि परण्या दान देवता, संवता सहू संसारि ।। ४७ । सुर नर हरि हर परण्या, पधूनो न करस्यो तेणेमार | राजुस सांभन्लि वीनती, बोल्यो नेमिकुमार ।। ४८ ।। अकेका भद ने सगपण, भल पण हिंसा न होय । सुगति सुधारसढोलिय, पीये हलाहल कोय ।. ४६ ।। किहां थी पाब्यु एवडू' डाहापण देव दयाल । परण्या विश का परहरो बोले रायुल बाल ।। ५० ।। किम रह दुख एकली, किम मानें मुझ मन । रजनीपति दहे रजनीय, वासरपति दहे दन्न ।। ५१ ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ह स्यामादि शशि काठीयो, वास्यो भतिशय सेस । सूर भली मेरु वरांसीयों, वासुदेव विसेस ।। ५२ ।। के काल शीतल शशि ते सहू कहे, विरहा दयानल झाल ।। ५३ ।। ठाल फाल मेहेले परशी करू, भव मांहि भव करु, एम बिलवन्ती जुवती, चतुर चिन्ता कसे माहीय, धरुक ननका मन वीनती करे पीयू पासि । ताहरी रायुल दासि ।। ५५ ।। सीखामण श्रम तरि । संसार असार अनेक ।। ५६ ।। मालि वेशि । करे परमेस ॥ ५४ ॥ सांमलि सुन्दरि सीख, सूं जाणे ए सार तन धन गृह सुख भोगव्यां, ए भन मांहि पवार । नरके जाये जीव एकलो, एकलो स्वर्ग मा || ५७ ॥ . देवता दानव मानव तेह तरणा धरणा कररया भोग | तोहे जीव नृपति न पांमीयो, मानव भवनो सो जोग ॥ ५८ ॥ उपनी तृषा अति नीरनी, क्षीरधिने कीयो पान | तृपति न पाम्यो आतमा तृणु जल कोण समान ॥ ५६ ॥ तात माल सहू देखतां जीव जाये निरधार । धर्म विना कोई जीवनें, नवि तारे युल मन मनाविय आवो चढ्यो गिरिनारि । तप याचरे, प्राचरे संसार ॥ ६० ॥ वार भेव पंचाचार ।। ६१ ।। सुकुमालो परिसा सहे सहसा बन पनर प्रमाद दूरें करे शील सहस ध्यान बले कर्म क्षय करी, अनुसरो केवल ज्ञान । लोकालोक प्रकाशक भासक तत्व' विधान ।। ६३ ।। राघुले तो परतो करो, मनघर रही वेराग । भूषा अंगना मू किय, शरीर सोहाग ॥ ६४ ॥ मध्य जीव प्रतिबोधिय, कोषो शिवपुर वास । तब बले स्त्रीलिंग येदिय रायुल स्वर्ग निवास ॥ ६५ ॥ ममारि । पठार ।। ६२ ।। १६५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहमासी उदधि सुत। सुत गोर नमी, प्रणमी अभचन्द पाय ! मोनियो गोते नरम, ग ति || ६६ ॥ तेह पद पंकज मन धरी; रत्नकीरति गुण गाय । गाये सूरो ए मांहत, वसन्त रिते सुखि थाय ॥ ६७ ।। नेमि विलास उल्हासस्यु', जे गास्ये नरनारि । रत्नवीरति सूरीवर कहें, लहे सौख्य अपार ।। ६८ ॥ हांसोट मांहि रचना रची; फाग राग केदार । श्री जिन जुग धन जारणीये; सारदा बर दाशार ॥ ६६ ।। इति श्री रत्नकीति विरचित नेमिनाथ फाग समाप्त ।' (२) बारहमासा ज्येष्ठ मास राग प्रासावरी प्रा ज्येष्ट मासे जग जलहर नोउमाहरे । फाई वाय रे वाय विरही किम रहे रे ।। पाए रते आरत उपजे अंग रे । अनंग रे सन्तापे दुख केहे ने कहे रे ॥ १ ॥ मोडक केहनें कहे किम रहे कांमिनी प्रारति प्रमाल । चारु चन्दन चीर चिते, माल जाणे व्याल । कपूर केसर केलि कम कवडा उपाय । कमल दल' छाटणा वन रिपु जाणे बाय || भावे नहीं भोजन भूपण करणं केरा भाम । परीनगमे पान नीकों रलि करें कर भाय ।। गिरिनारिकेरो गिरितपे, सखि जेष्ठ मास विसेष । दुःसह दीन दोहिला लागे कोमला सलेषि ॥२॥ १. गुटका, यशकीति सरस्वती भवन ऋषभदेव, पत्र संख्या १२७ से १३२ तक Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नवीहि एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व लिन भावाहमास आभर प्राषाढ मावयो ए पर रे । काई घरे रे नाह नहीं हूं किम रहुँ रे ।। श्रा जल थल मही अन मेहन मंडाण रे । सजांसा रे न सम्भारे दुख केहनें कह रे ।। प्रागड अडे गगने गोहे रो अपार रे। काई धार रे न खंचे उन्नत माहालो रे ।। आजिम जिम तिम रीति मरासु माहाले रे । काई साले तिम तिम नेमनो नेहलोरे ॥ ३॥ -.. + त्रोटक तिम तिम नाहनो नेह साले अाषाढिं मगात । दादुर बोले प्राण तोले वरसाले विशाल ।। दिवस अंधारी रालडी बलि चाट घाटे नीर । वापीयडो पीउ पीउ बोले किम घर मन धीर ।। तर तपी साखा करे भाषा सावजां सोहत । रितुकाल भोर कला करी, मयूरी मन मोहंत ।। आज सखी प्रगाल आव्यो उन्हई ने मेह । झव झवक झबके दीजली किम सहे कोमल दह - प्रापो पणा पीउ ने पास, करे कामिनी लाड । किम रहुं हु' एकली रे प्रावयो प्राषाढ़ ॥ ४ ॥ सावन मास-. आषाड अनुक्रमें श्रावण मास रे । फाई पास रे पास फर हूँतम सरणी रे ॥ मा अनुचरी जांशी श्रावयो एक बार रे। प्राशर रे नेमि जिन धम त्रिभुवन धणी रे ॥ ५ ॥ जोटक - त्रिभुवन घरी तम तणी जागी प्राव यो एक बार । पछे नो हे अवसर ब्रह्म तणो, जोवम नो भागार ।। अवसर की प्रापरणो पछे कस्यो उथे बन्द । तिम तुझ विना निज नाथ मुझने सोहोये न प्रानन्द ।। मालती मकरद चूको, कस्यु करे करी रे । मानसर मराल चुको, किम घरे मन धीर ।। प्रसवर गये सज्जन मिले पछे किम टने दुस्ख देह । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ बारहमासा मापापरणे अवसर को बरससे रयु मेह, करुएरा कर कृपा करो जी दयावंत दयाल | आमला मूको सामना श्रावण करी संभाल ॥ ६ ॥ भाद्रपद मास - भाद्रबड़े भरि जलथल महीयल मेष रे। में पर रे नेमि जिम हुम बिना किम रह रे ॥ प्रा हरी श्र भूमि परि इ गोप प्रानन्द रे। मानन्द रे सोमा तेहनी सी कह रे ।। ज्यम ज्यम जलहार बरसे बहुरंग रे । अंग रे प्रनंग दहे सुरिए सहचरी रे ।। मा दीनथइने वचन बह भाषे इम । अपराध पाखे का पीउ परहरी रे ॥ ७ ॥ नोटक पथरी का प्रपराध पामें पचक भाषे हम । दिवस दोहिले नोगमु रे त्यषी जाये किम ।। प्रारद करती दुख धरती रडली धकवइ राति | उदय पाये एकठो तोराननी सी बात ।। सुरिण सखि मम कांई न सुझे जे काम शरीर। निज नाथ केरो नेह साले नयन टलया नीर ।। रमे कुरंग कुरंगीणी तरंगोणी ने तीर । हाव भाव विलास निरस्त्री नयन टलया नीर ॥ अवनीय उपरि अंब पूरा पूरया सुरचाप । भादव भरतार पाखि सेजतलाई ताप ।। ८ ॥ मावनि मास प्रा मासो प्रासा नेमि जिरणंद रे। काई चंदरे उदयो अयनी नीर भलो रे ।। मा उज्जल तृण जल अंबुज प्राकाश रे । मास रे सरद सजनी सोह जलो रे ।। सया सुत विनसो कर शृगार रे। मुगति नो हार हृदय मुझ दहे रे ।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १२९ १२९ आ रे नाथ साथ ले को कहे वरणे रे । नयर रे काजल सखि मुझ नवि रहे रे ।। ९ ॥ प्रोटक नवि रहे काजल नयण माहरे प्राराता हरे प्रेम । उडपति केरा किरणवाले शरट कालि एम || उह्मा भी किम रह इधरी वली करी तुमस्तुप्रीति ।। वाही ने वन माहि जायें लोक मांसी रीत ।। सुरिण स्वामी सामल तुम बिना नवि रहे माह मन्न | कठिन थई ने कां रह्यो रे वचन ताहरु छन्न । मंदिरमा में नवि लह जे को पशुमा सोर। ते देखि नीठोर थयोरे आसो नाह निठोर ॥ १० ॥ कार्तिक मास ... नाह किम रहे कामिनी कातीय मास रे। काई दास रे जाणी देव दया करी रे॥ आ तुझ बिना नवि गमे तातने मात रे । प्राज रे काई काज रे ए कुन सरे सुरिण महि रे ।। ११ ॥ बोटक सुरिण सही सु काज सारे न संभारे नाथ । मुझ कनक कुडल कियूर ककरण नहीं भावे हाथ ।। मुझ राखडीनी पाखडी पद कडि पडला दुरि । तिलकः अंग नवि क न घर मांग सिंदूर ।। पोटी मोटी मोरलि मोती दहे मुझ अंग । घुघरी स्त्रमकार नेउर चूनडी ना' रंग ॥ धाचरण भूषण अंग दूषण एक क्षण नहीं पास । किम रहे कामिनी एकलीरे माह काती मास ।। १२ ।। मंगसिर मास मा मागभिरे मन बल विहस थाये रे । माय रे राय नेमी जिन कारणे रे ।। ग्रा जिम मृग मुगी चकित चुकी जूयो रे । लोयणे लोपे रुये बारणे रे ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहमासा आ तुझ बिना दीन मुख दोहिला जाये रे । काई जाये रे जूति योवन दोहिल रे॥ मा पीहर तो दीन पांच नो प्रेम रे। कोई नेम रे सासरडे सहूं सोहिलू रे ॥ १३ ॥ बोटक साहेलू स्वामि राज साहरु माहर तो नहीं कर्म । चोर भव में भाल' मेहेत्यां बोला मोसा मम ॥ कोई तु एक मुझने एटली तां पास । करस्यु' लीला नाथ साथै कांकरीनी रास ॥ पास पूरो माहरी एटली तां खंति । प्रति घणून तारिगये जी जूयो विमासी चिन्त । पाणिग्रहण नहीं कही पछे ना कहेस्यो धर्म । काला तेटला कामणी रेए में जापयो मर्म ।। किम भन जास्ये एह माहरो क्षण वरसा सो धाय । मागशिर गयो मुझ दोहिलो रे जूयो यादब राय ।। १४ ॥ पौष मास मा पोथें पोषन सोरंग सीयाले रे । ए शीत कालि कांपीउ परिहरो ।। प्रा शीत बाये उत्तर नो वाय रे । काये रे कंपे प्रभु मुझ परिकरो रे ।। प्राताघपडे ही मह लिही माले रे। काई डालें रे तखी जुगल थे सीरहे रे ॥ भा किस किले केलि करे सुन्दर शखारे। काई भाषा रे भावता वचन ते तां कहेरे ।। १५ ॥ भाषा कहे शाखा रहे थलि सहि अंगे शीत । प्रीत प्रोढी पखि पेखी प्राचयो जी मित मिस ।। फरयो चित माहरी ताहरी दास दयाल । बिले वले वचन ता एम कहे किम रहे राजुल पाल ।। पापो पणे नरनारि मंदिर करे सुन्दर राज । हूं नेमि विन एकनी अनुदिन किम सरे मुझ काल । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्मेकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मुझ नयन थी निज नाह गयो रे रह्यो अंग शोष । कृपा करो मुझ मन धरो किम रहु पीउडा पोष ॥ १६ ।। माष मास - मा पोष महा मुझ दोहिले दिन राति रे । कोई माल रे जीवन' यदुपति किस सहे रे । मा जिम जिम पडे वन अति घन ठाई रे।। प्राधार रे उभो गिरि मां किम सहेरे ।। पा एरते महीपति चाप चहावी रे । काई यावी रे हेमन्त रित उभो रह्यो रे ॥ पा तो जी जो जइने जादव चालो रे । हिमालो रे सरस सीयालो यही गयो रे ॥ १७ ॥ त्रोटक नेह गयो निज नाष को प्रा भवे प्राधार । सुरिण घरणी वीनती घणी तर तणी राजुल नारि । पापणी आणी प्रेम प्रांगी मायो एक वार । पाचा बले यो तेह पगे रे जो ना वे विचार ॥ न करु' रे नाथ माहरा प्राणे तमसु श्रीति | साहीन राम्बु स्वामी तप ने नेह भर हो निश्चित ।। तेह भणी त्रिभुवन घणी वीनती सुरगो मुझ सोय । माह गासि पीउ पासि पुण्य विना नवि होय ॥ १८ ॥ फागुण मास-- मा पीउ विना प्राचयो फ फइने फाग रे । काई रागरे वसंत विरही माल वे रे । मा कुकम केसर द्धांटिया अंग रे । काई रंग रे पदमिनी प्रिय चित बाल रे ।। श्रा केसू फूलिया भूलिया जाय रे ।। काई माय रे माधव मधुकर रणझणे रे ।। मा मोगरी मन्दार मालती ना छोररे । काई कोउ रे कानन दीमे गुण घणे रे ।। १६ ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ बारहमासा त्रोटक मुरण पणे वोलसरी वेलि जासू अनारिंग । पाडल परिमल कमल निर्मल करणेर केतकी संग ।। सहकार सुग्दर मोरीया बपोरीया ने रंग। एलची रहया अनेक वन श्रीफस संग ।। ते बन मा बलीय संवाये गाये गीत सनेह । फागण मारे पीउ विना होली दहे मुभा देह ॥ २० ॥ चैत्र मास पा मुझ देहे दुख दहे चैत्र नो मित्र रे । काई कंत रे माईत माहरे परहरी रे ॥ पा कोकिला कूजे सोरवर पालिरे । ___ काई बोले रे बोल सखी मुझ, सूडला रे ॥ या बली बन बसता सारसड़ां विख्यात रे विख्यात रे मात न लागे रूपडला रे ।। २१ ।। नोटक-- रुडा न लागे बन्न वेरी वाला ने वियोग । तिलक अंजन परहस्य दूरी करया सह भोग ।। चालया चि दिसे पंथि प्रेमें ताप तडका कीच । किम रह हूँ एकली तजीनोदश ने दीप ॥ उष्ण कालि ए उन्हाने काम सहे मुझ तन्न । कठिन यई नेंका जाये किम दहे माहरू मन्न ।। सोह सहसने प्राठ मांगे सारंग धरने साथि ! एक का मलखा मरिण ए मन कीजे निज नाथ ॥ मास पोस हूं नीगम बलिनीमगू षट् मास । जनमारो किम निगम रे चत्र मि रहो पामि ।। २२ ॥ बंशाण मास आ बैशाखे शाखा मोरि रसाल रे । विशाल रे काल उन्हाले जल घणी रे ।। पा मेडिइ मंदिर सुन्दर सोहावे रे। काई प्राचेरे गामथा पंथी धर भणी रे ।। प्रा मंदिर प्राव्या स्वामी सोहागा रे । सघाव्या रे पशू तणी करणा करी रे ।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नोति उत्वि श्र उनमद मनसिज मान नीवारि रे । त्रोटक - संभारी रे मुगसि मानिनी करि धरी रे ॥ २३ ॥ करि धरि वैराग्य वालो चालयो गिरिनारि । बार मास परीसा सहे किम रहे राहुल नारि ॥ निज मन्न ने तां तप सम्बोधी प्रती बोधी राहुल राज | मुगति पुरी गय नाथ नेमि जिन करी श्रातम काज || श्रीश्रभचन्द उदार अनुक्रमे प्रभेनन्दानन्द | तस चरण ग्रामी कहे यतिवर रत्नकीर्ति मुरिंगद || प्रेम भांरखी एह बाणी गासे द्वादश मास । तेहती श्री नेमि जिनवर बहू पूरे मन स || सायर सट घोघा गुणाले स्थालयचन्द | तिहां रही रचना रखीं बार मान भानन्द ।। २४ ।। इति श्रीम. रत्नकीर्ति विरचिता बारहमासा समाप्त | १३३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत राग मल्हार : सम्वी री सावनि घटाई सतावे || रिमिझिम बंद बदरिया बरसत, नेमि नेरे नहि माघे ॥ १ ॥ कुजत कीर कोकिला बोलत. पपीया बचन न भावे ।। दादुर मोर घोर घन गरजत इन्द्रधनुष हरावे ॥ २ ॥ लेख लिखू री गुपति वचन को, जदुपति कु जु सुनावे । रतनकीरति प्रभु अब निठोर भयो, अपनो वचन विसरावे ।। ३ ॥ राग न नाराण : नेम तुम कैसे चले गिरिनारि । कसे विराग वरयो मन मोहन, प्रीति विसारि हमारी ॥१॥ सारंग देती सिंधारे गारंगा, सारंग नयनि लिहारी ॥ उनपे तत मंत मोहन हे वेसो नेम हमारी ।।२।। करो रे मंभार सावरे सुन्दर, चरण कमल पर वारी । रतनकीरति प्रभू तुम विन राजुल, विरहानलहु जारी ।। ३ ।। राग नडो: कारण कोउ पीया को न जाने ।। टेक ।। मन मोहन मंडप ते बोहरे पसू पोकार बहाने ॥ १ ॥ मोपं चूक पड़ी नहीं पल रति भ्रात तात के ताने । अपने हर की पाली बरजी सजन रहे सब छाने ॥२॥ पाये बोहोत दीबाजे राजे सारंग मय धूनी ताने । रतनकीरति प्रभु छोरी राजुल, मुगति बघू बिरमाने ॥ ३ ॥ राग कनडो : सुदसणं नाम के मैं वारि ।। तुम विन कैसे रहु दिन रयणी, मदन संताने भारी ॥ १॥ जावो मनाको प्रानो गृह मेरे यो कहे अभिया रानी ॥ २॥ रतनकीरति प्रभु भये जु विरागी, सिंध रहे जीया धाई ।। ३ ।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्रः व्यक्तित्व एवं कृतित्व राग कल्याण वर्षरी : राजुल गेहे नेमी प्राय । हरि वदनी के मन भाय, हरि को तिलक हरि सोहाय ।। १ ।। कबरी को रंग हरी, ताके संगे सोहे हरी, ता टंक हरि दोउ अवनि ॥ २ ॥ हरि सम दो नयन मोहे, हरिलता रंग अधर सोहे, हरिसुतासुत राजित द्विज चिबुक भवनि ॥३॥ हरि सम दो मुनाल राजित इसी राजु बार, देही को रंग हरि विशार हरी गबनी ॥ ४ ॥ सकर हरि अंग' करी, हरि निरखती प्रेम भरी, तत नन नन नीर तत प्रभु अवनी ॥ ५ ॥ हरि के कुहरि कुपेखि, हरिलंकी कु वेषी, रतनकीरति प्रम देगे हरि जयनी ॥३॥ राग फेवारो : राम । सतावे रे मोहि रावन ।। वस मुख दरस देखें डरती हूँ, वेगो करो तुम प्रावन ॥१॥ निमेष पलक छिनु होत चरिषमो कोई सुनादो जावन । सारंगधर सों इतनो कहीयो, अब तो गयो है पावन ॥ २ ॥ करुनासिंधू निशाचर लागत, मेरे तन कु दरवन । रतनकीरति प्रभु बैंगे मिलो किन, मेरे जीया के भावन ॥ ३ ॥ राग केवाएँ: प्रक्षगरी करज्यों न माने भेरी । पा अनीत नीत काहे कृ करतरी, प्रति मीन मृग खंजन धोरो ॥ १ ॥ कनक कदली हरि कपोत कंबु, अरु कुभ कमल करी वारो " सारंग उरग अनेक संग मिलि, देत उरानो तेरो ॥ २॥ चंदगहन होवत राका निशि, रे है त्रिया निज गेह रो ।। रतन की रति कहेया लु' कलंकी, राह गहत हे अनेरो ॥ ३ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ भरत बाहुबली छन्द राग केदारो नेम तुम आयो परिय घरे । एक रनि रही प्रात पियारे, बोहोरी चारित घरे ॥ १॥ नेम ॥ समुद्र विजयनंदन नृप तु ही विन मनमथ मोही न रे । चन्दन चीर चाम इन्द्रो दाहत अंग धरे ॥ २ ॥ नेम ॥ मिलती छारि चल मन मोहन उज्जल गिनि' जा चरे । रतन कीरति कहे मुगति सिधारे अपनो काज करे ॥ ३ ॥ नेम ।। राग फेनारो राम कहे प्रवर जया मोही भारी ॥ दश कमल सु शीतन मीता साइत देह धारी ॥ १॥ नमन कमल युगल कर पदुमिनी गयन के इदु अपारी । रतनकीरति राम पीर तजु पलक जुग अनुवारी ॥२॥ राय केदारो दशानन, कोनती कहत होइ दास । तोही बिरहानर जरत या तन, मन मोह प्राउ दास ॥१॥ सूर तो सपन दश न्यार निवारे ते तोही अंग निबास । चन्द बदन कु प्रधर सुधा कु पनवंत फेलास ॥ २॥ लावनि काम दृघा श्रीकांत रंभा रूप के पास ।। गज गमनी जु हर ट्रीगन कु धनुषं भमे कंबु पास ।। ३ ।। कठिन री हो कहा करत कटियाई या मोही पूरन पास । रतनकीरति कहे सीया कारण काहे नसावत सास ॥ ४ ॥ राग वारो वरज्यो न माने नयन निठोर । सुमिरि सुमिरी गुन भये सजल धन, उमंगी चले मति फोर ॥ १॥ वरज्यो ।। चंचल 'पपल' रहत नहीं रोके, ग मानत जु निहोर ।। नित उठि चाहत गिरि को मारग, जेही विधि चन्द्र नको ॥ २ ।। वरज्यो ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ १३७ भट्टारक रत्नशीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तन मन धन योवन नहीं मावत । रजनी न भावत भोर ।। रतनफीरति प्रभु बगे मिला। तुम मेरे मन के बोर ।। ३ ।। राग केवारी : झीलंते कहा कर्यो यदुनाथ । पही रुक्रमणि सत्यभामा श्रीरकत मिली सबु साथ ॥ १ ॥ छिरकतें बदन छपात इतउत, व्याहान को दीयो हाथ । रतनी रति प्रभु कैसे सीधारे मुगति बधू के पाय ॥ २ ।। राग केवारो : सरद की रपनि सुन्दर सोहाल' । राका शशत्रर जारत या तन, जनक सुता बिन भात ।। १ ।। अब याके गुन प्रावत जीया में, बारिज बारी बात । दिल बिदर की जानत सीमा, गुपत मते की बात ।। २ । या विन या तन सहो न जावत, दुःसह मदन को पात | रतनकीरति कहें बिरह सीता के, रघुपति रह्यो न जात ।। ३ ।। रग केदारो : (१४) सुन्दरी सकल सिंमार करे गोरी । कनक वदन कंचूकी कसी तनि, पेनीले प्रादि नर पटोरी ।। १ ।। नीरखती नेह भरि नेमनो साहकु र बेले आयेंसंग हलधर जोरी। रतनकीरति प्रभु गिरखी सारंग वेग गिरी गये मान मरोरी ।। २ ।। सुन्दरी ॥ राग मामणी : (१५) सारंग उपर सारंग साहे सारंग व्यासार जी। से तल पर सारंग एक सुन्दर एवी राजनार॥ तरुणी तेजे मोहे जी ।। १ ।। सारंग सारंग' हरी मोहे सारंग माहे। सारंग मुकी सारंग पति ने जोवे ।। तरु० ॥ २ ॥ सारंग करीने सारंग बैठो कोटे सारंग समान जी । सारंग उपर थी सारंग उतरी सारंग सु करे मन ।। त० ।।३।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पद एवं गी सारंग धवणे शामली वाले नेम दयाल जी। सह सारंग केरो ने हीतकर घाल्यो रथ गुणाल ॥ स० ।। ४ ।। सारंग नी वारी सारंग सपाध्यो सारंग गज ए रहावे जी । अभयनन्द पद पंजक प्रणामी रत्नकीरति गुण गावे ॥५॥ राग मारपी: सुए रे नेमि सामलीया साहेब, क्यों बन छोरी जाय । कुरण काहने रच्यो क्योंन जाणो काहे न रथ फैरायरे । जीवन जीवन सुण मेरी अरदास, हुं होउंगी वोरी दास । तू पूरण मोरी पास मोरी पास रे ।। जी ॥१॥ तात भात अब मात न मोरी, तेरी चेरी होई पाउ । सेवते वेव ते दया न होये सो सो:: हायः 'गा.. jी | | यु बील बील ते दवा न पावे, काहाये क्यों कृपावंत । रतनकीरति प्रभु परम दयालु, पास छो राजंतु रे ॥ जी ॥ ३ ॥ राग सारंग: (१७) सारंग सजी सारंग पर पाये। सारंग बदनी, सारंग सदनी, सारंग रागनी गावे ॥१॥ सारंग सम शीर की बनाई, सारंग अपनो लजायो। या छबी अधिक मापोरी दुपारी सारंग सबद सुनावे ॥२॥ सारंग लंकी सारंग थे, सारंग अंग न भावे । सारंग छोरति सारंग संग दो रति रतनकीरति गुणा गाये ॥ ३ ॥ श्री राग : थी राग गावत सुर किनरी ॥ करत थेई घेई नेम कि यागि, सुधांग सुगीत देवत ममरी ॥१॥ ताल पखावज देणू नोकि वाजत, पृथक पृथक बनावत सुन्दरी । सारंग आगि सारंग नाचत देखत सुन्दरी धवल वरी ॥ २ ॥ रथ वो शिवया मुत प्राबे, बघावे मानिनी मोती भरी ॥ रत्नकीति नभू त्रिभुवन बंदिस्त सोहे ताकि राम हरी ।। ३॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व राम प्रसाजरी : ( १६ १ श्राजू मलि ग्राये नेम नो बाउरी ॥ राग प्रसाउरी ; राग केवारो : चंद्रवदनी मृग नयणी हिलि मिलि । या विधि गावत राम असावरी ॥ १ ॥ मोन मूरत सूरत बनी सुन्दर । पुरंदर पाछे करत नो छाउरी ॥ जय जय शब्द आनन्द चन्द सूर संग या विधि आये चंग हलधर भाउरी ॥ २ ॥ किरीट कुण्डल छवि रवि ससि सोडून । मोहन भाये मण्डप पाउरी ॥ रतनकीरति प्रभू पसूय देखी फिरे । बली बन्धोका न करज्यो चरन पर परी करु री राजीमती युवती भई बाजरी || ३ || (7) अपनो || नोछावरी । लघु वय कहां तप जपनो ॥ १ ॥ रह्यो न परत छिन् निमेष पलक घरी । वाच सांच सम्भारो अपनी सोवत देखत सपनो ॥ रतनकीरति प्रभु जयनो ॥ २ ॥ ( २१ ) कहाँ मण्डन कर कंजरा नेन भम', होउ रे वेरागन नेम की चेरी ॥ सीस न मंजन देउ मांग मोती न लेउं । अब पोर हू तेरे गुमनी बेरी ।। १ ।। कोई सु बोल्यो न भावे, जीया में जु एसी भावे । नहीं गमे तात मात न मेरी । आली को कह्यो न करे बाबरी सी होई फिरें । चकित कुरंगिनी यु सर धेरी ॥ २ ॥ १३६ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पद एवं गीत नीठर न होई ए लाल, बलिहू नेन विसाल । केसेरी तस दयाल भसे मलेरी ॥ रतनकीरति प्रभु तुम बिना राजुल । यों उदास अहे क्यु रहे रीं ॥ ३ ॥ राग केवारी: २२) सुनो मेरी सयनी धन्य या रयनीरे । पीयु धरि आवे तो श्रीव सुख पावे रे ॥ १ ॥ सुनि रे विधाता बन्द सन्तापी रे, विरहिनी बध थे सपेद हुआ पापी रे ॥ २ ॥ सुन रे मनमथ बतियां एक मुझरे, पथिक बधू वध थे देहे हानि मुझरे ॥ ३ ॥ सुन रे जलघर करत का माजरे. मे पक भई तुझत न तमजू न लांज रे ॥ ४ ॥ सुन रे मेरे मीता गोद बिठाउ रे, __ सारंग वचन थे दुख गमारे ॥ ५ ॥ सुनो मेरा कंता नहीं मुझ दोसरे, में क्या कोला इतना कहा रोस रे । ६ ॥ अगाधर कर सम चन्दन तन लायां रे, कमर दरीवर दुख न गमाया रे ॥ ७ ॥ वियोग हतासन दहे मुझ देहरे, बीनती चरन परी करु धरी नेहरे !! ८ ॥ रे मन बिजोगे भोजन न भावे रे, उदक हालाहल राग न सुहाये रे ॥१॥ पीउ पावन की को देवे बघाई रे, रतन मोतिन का हार देख भाइ रे । १० ॥ रतनकीरति पीमा तोरन जब आया रे, सजनी राबे मिलि गुन गापा रे ।। ११ ।। राग वेशाष : रथडो नीहासतीरे, पूद्धति सहे साबन नी बाट । कहो रे कंत नेरे, मुझ नेमें हेले ते स्यामादि ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व करु नीरा नेम जोरे, नीठोर न थाईथे ना होला नाट । धेर्गे चलो वाहला वनिता कहे, सो गिरनार नो घाट ।। १ ।। सांभलि सामला रे, प्रामला मे हलो मुझस्यु कंत। झीलतांस्यु कह रे महांतना बचन होये महांत ।। किम परणेवा अवीया रे, किंनर सुर सोहत । हवे मेहली बन जातां बाइला, सोभासी जर हंत ।। २॥ सुरिण राजमती रे युवती मुझ मन एतां वात । मुझ जोतांथ कारे, जिनधर्म जग मांहि वार विख्यात ।। एकेका भबने नातर रे अन्तर स्यां बांधवा मात तात । ते मादह प्रह्म ताँ सेवीये रतनकीरति मो नाथ ॥ ३ ॥ सखी को मिलानो नेम नरिंदा । ता बिन तन मन योक्न रजतहे चारु चन्दन अरु चन्दा ॥१॥ कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुःसह मदन को फन्दा । तात मात अरु सजनी रजनी, वे भति दुःस्त्र को कंदा ॥ २ ॥ तुमतो संकर सुख के दाता मारम अति काए मंदा । रतनकीरति प्रभु परम दयालु सेवत अमर वरिया ।। ३ ।। । २५) सखी री नेम न जानी पीर ।। बहोत दिवाजे पाये मेरे घरि, संग लेई हलपर वीर ।। १ ।। नेम मुख निरखी हरषीयनसू अब तो होह मनधीर । तामे पसूय पुकार सुनी करी गयो गिरिवर के तीर ।। २॥ चन्द बदनी पोकारती हारती मण्डन हार उर चीर ।। रतनकीरति प्रभ भये वैरागी राजुल चित किमो थीर ।। ३ ।। राग साजरी : प्राजो रे राम्लि सामलियो याहालो रथ परि रुडो भावे रे । अनेक इन्द्र अनंग अनोपम उपम एहनी न पावरे ।। १ ।। कमल वचन कमलदल लोचन, सुक घंची सम नासारे । मस्तक मुगट उगट चन्दन तन कोटि मूरजि प्रकाशां रे ।। २ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पद एवं गीस कुण्डल अलक तिलक शुम शोभा, अधर विद्रम सम सोहे रे । दंत श्रेरिण मुक्ताफल मानू मीठडे वचन मन मोहे रे ।। ३ ।। बाहु सकोमल सजनी एहनी, केहनी उपमा दीजे रे । गज गति वाले मण्डप पावे, भामिनी भामण सीजे रे ॥४॥ हरिहर हलघर साथे पावे, मावे रुपही जान रे। सारंग नयनी सारंग वयनी गाये मनोहर गांन रे ।। ५ ॥ रथ प्रालि अप्सरा प्राणंदे छबे माटिक नाचे रे । रतनकीरति प्रभ निरखी निरखी त्याहा राजी मम रांचे रे ॥६॥ राग प्रसाउरी: (२७) गोखि चड़ी जू ए रापुल राणी नेमि कुमर वर मावे । इस सुरंभ मचाचता कांइ प्रपछर मंगल गावे रे ।। १ ।। सही सोहासणि सुन्दरी तहले पहरो नव सर हार रे । नेह ने उठो नवरंग घांट रे रथ बेसीने प्रावे छ । माहरो जीवन जगवाधार ।। २ ॥ काई गाजते ने बाजते माहरो पीउ परगणेवा भावे । रांजुल हेडे हरषन्ती काई सखिस्यु रुडु भावे रे ।। ३ ।। काई तोरण पाव्या नेमि स्वामी, काई दीणे पशुनो पुकार रे।। रथवाली गिरिनारि गयो रतनकोरति नो माधार रे ॥४॥ राग सारंग : नेमि गोत ललना समुद्र विजय सुत सामरे, यदुपति नेम कुमार हो । ललना शिवा देवी तन धन युग केहे अनोपम अवनि उदार हो । १ ॥ ललना मस्तक मुकट कनक जर्यो, रवि वनि कुण्डल कान हो । ललना नव शिख सोभा कहा वरणु', जब यडियो हे व्याहान रे ।। २ ।। नलना हद नारद गयंद घरी गावत सर सघमार हो । ललना नाचत सुखी अंगना, नो सत जी सिंगार हो ।। ३ ।। ललना पंच रंग पहेनी पटोरी, गोरी राजुल गात हो। जलना नन्द बदनी मृग लोचनी; चिषु क बिन्दु सोहात हो ॥ ४ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कृतित्व ललदा मनिता तक श्रवन दोउ शिर ए खरी अमूल' हो । ललना कबरी शेष लजामरिण नागा शुक स्यु हो रहो ॥ ५ ॥ ललना वशन अनार अनोपम प्रघर अरुन परवार हो । ग्रीवा सारंग सोहबनी उर बबि भुगता हार हो ॥ ६ ॥ ललना नाभि मण्डल कटि केसरी गजगति लाज्यो मरार हो। ललना जानूकदरी पद बीछये नूपूर कुणि तर सार हो ॥ ७ ॥ ललना अंग अंग छवि फदि कहा घरगु राजित राजुल बार हो । । उग्रसेन के मण्डपे ले रही वर कर मार हो ।। ८ ।। ललना मायो नीसान बजायते हरि हलधर सब साथ हो । ललना सारंग देखे दामरी, वज बोल्यो यदुनाथ हो ।। ६ ॥ ललनां सुरिंग सारचि कहे सामरो पसू बांधे बुण काज हो । सलना एति भोजन राजा करे, तुम कारन ए भाज हो ।॥ १० ॥ ललना जीव दयारु सामरो जान्यो अथिर संसार हो। ललनां 'रय फेरी गिरिनार चरे, पाई राजुल' नारि हो । ११ ।। ललनां सुननो साह मुझ वीनती, में दुलनी तुम पास हो।। ललना करु नो द्यावरी साम रे, या मुझ पूरे पास रे ।। १२ ॥ ललनां रतन कीरति प्रभु इउ कहे एको ग्रहे अयान हो। ललनां सम्बोधी शिखरी गये हरे जीजीया धरी ध्यान हो ।। १३॥ राग मल्हार : (२६) सुणि सखि राजुल कहे, हेडे हरथ न माय लाल र । रथ बैठो सोहामणो जीवन यादवराय लाल रे । मस्तग मुगट सोहामणी श्रवणे कुण्डल सार लाल रे । मुख सोभा सोहामणी, कांति तणों नहीं पार लाल रे ।। १ ।। गज गमनी मृग लोचनी, रामूल रूप अपार लाल रे। रतन जडित बाहे वहषा, कठि एकाबल हार माल रे ॥ रथ बैठाने निरखिमु', सारिग ने सो पास लाल रे । वचन सूणी रय चालियो, पूरयो गिरिनारि वास लाल रे ।। सखि कहे रायुल सुगो, नेम गयो गिरिनारि लाल रे । श्री प्रभग्न नन्दि पद प्रणमीने, रत्न कीर्ति कहे सार लाल रे ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ राग रामश्री : ( ३० ) सधर वदन सोहमणी रे, गज गांमिनी हरिकी मृग लोचनी रे, सुधा रायल रति सम वीनवे रे, जीवन सुरिण सुरिण जिन यदुराय रे, चरि रं राग परजाउ गोत : पद एवं गीत गुण माल सम वचन रसाल रे || जिन यदुराय रे I चन्दन चन्द नवि गये रे ॥ नवि गये तर ते मात्र रे ॥ १ ॥ " दान दाडिम वीज शोभता रे, चम्पक वरण सेहि देह रे । नवि गमं सजनी निसी गरे । अधर विद्र ुम सम राजता रे, धरती नायस्युं बहु नेह रे || २ || कौर कोकिल बोल्यो नवि गमेरे, नोव गुथ्यो गमे केशकलाप रे । नव गये राग अलाप रे, नवशत करण ते नवि गमे रे ॥ ३ ॥ अन्न उदक निद्रा नोष गये, हास्य विनोद सह परिहसी रे, भमृत भोजन लागे विष रे ॥ ४ ॥ विरह दवानल हूँ वलौ रे, तु तो त्रिभुवन तर नाथ रे ॥ बलि वलि पाय पड़ी विनबू रे, मुन्हे राखो तुम्हारे पास रे ॥ ५ ॥ भोग भव भ्रमण कारण घणू रे, सुणि सुणि रायुल नारि रे । ते किम ज्ञानवंत सावर रे, तु तो ताहरे हृदय विचारि रे ॥ ६ ॥ प्रतिबोध सामलिये सुन्दरी रे, जइ लीधो गिरिनारि बास रे ॥ रतनकीरति प्रभु गुनिलो रे, पूरो पूरो मुझ मन आस रे ।। ७ ।। , ( ३१ ) नेम जो दयालुडारे, तु तो यादव कुल सिणगार रे । जग जीवन जगदाधार रे, तो करो द्वारी सार रे ॥ स्वामि अड वडिया आधार ॥ १ ॥ 7 हु तो हुती मंदिर राज रे में तो हरितु न जायु का रे । तु तो ग्राको अधिक दिबाज रे, हम जातां तुझनें लागु लाज रे ॥ २ ॥ कोणे लायो तुम मर्म रे, जे परणे बेसे कर्म रे । तेन जरिए संसार नो शर्म रे, हवे करेण क्षत्रिय धर्म ॥ ३ ॥ मन्हें इससे सनी तो साथ है, केहेस्ये हूं किम रहूं अनाथ रे, तु तो सकल साखय श्रानंद रे, तु नेली गयो किम नाथरे । तहमे देयो अन्तर हाथ || ४ || तो कमणा तरवर कंद रे । सुभ दोठडे मुज भांदरे हे रत्नकीरति मुरिंगद रे || ५ || Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक. रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व राग श्री राग : बंदेहं जनता शरएं। दशरथ नंदन दुरित निकंदन, राम नाम शिव मुख करनं ॥१॥ प्रकल अनंत प्रनादि अधिकल, रहित जनम जरा मरन। अलख निरंजन बुध मनरंजन, सेवक अन अभयत हसनं ।। २ ।। कामरूप कसना रस पूरित, सुर नर नायक नुत धरनं । रतनकीरति कहे सेवो सुन्दर भव उदषि तारन तरनं ॥ ३ ॥ राग श्री शग: (३३) कमल यदम करुणा निलयं ।। सिव पद दायक नरवर नायक राम नाम रघुकुल तिलयं ॥१॥ मधुकर सम शुभ अलक मनोहर, देह दीप्ति प्रतिमिर हरं । कजदल लोचन भवभय मोचन, सेवक जन संतोष करं ॥२॥ अघर विद्रम सम रक्त दिराजित, द्विजवर पंक्ति मौक्तिक कल नं । शीता मनसिज ताप निवारन दीत्रु बाहू रिपु मद दल नं ।। ३ ।। अमर खचर कर नायक सेवित चरण कमल युगल बिमलं । रतनकी रति कहे शिवपदगामी कर्म कलंक रहित ममलं ।। ४ ।। आवो सोहासरिए सुन्दरी बृद रे. पूजिये प्रथम जिणंद रे। जिम टले जनम मरण दुख दंद रे, पामीये पर र प्रानन्द रे ॥१॥ नाभि महीपति कुल सिणगार रे, कपडला मरेवी मल्हार रे । युगला धर्म निवारण ठार रे, करयो बहु प्राणी उपगार रे ।। २ ।। ऋण्य भुवन केरो राय रे. सुरनर सेवे जेहना पाय रे । सोहे हेम वरण सम काय रे, दरशन दीठे पाप पलाय रे ।। ३ ।। एक शतय नोलजस रूप रे, विघटचू दीठ त्य"हारे रूप रे ।। मन धरीमो बेराग अनूपरे, जे तारे भव कप रे ।। ४ ॥ श्री राग : श्रीराम गावत सारंग परी॥ नाचती नीलजसा रिषभ के यागे। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गौत सरोगमपधु-निव-पम-गरी ॥१॥ मूछगता म बंधान साउi . ठेया ठेवन के जू तार मान मृदंग करी ।। धूनीत प्रघरी वाजे देखत संवर लाजे, ___नोसत धीराग सोहे सुन्दरी ॥ २ ॥ संगीत रंगीत रूप निरखीन घलो भूप, जय जय जय जिन प्रानंद भरी ॥ नोलजसा बिहादी पेखी करी करुना, रतनकीरति प्रभु देखी करी ॥ ३ ॥ राग वसंत पारवं गीत वणारसी नगरी नो राजा, अश्वसेन गुणधार । वामादेवी राणी ए अनम्यो, पार्श्वनाथ भवतार ।। विमल वसंत फूल लेई पूजो, श्री संकट हर जिन पास । दर्शन प्ररितमघ निवारे. पहोचे मन नी प्रास ॥१॥ नब कार उन्नत जिनवर राय, इंद्रनील मणि काय । इंद्र नरेन्द्र नित्य नमें पाम, समरे संकट जाय ॥ ६ ॥ मदन गहन पहन दावानल, क्रोधसर्प सुपर्ण । मान मत्त मातग केसरी, भव्य जीव ने सर्ण ॥ ३ ॥ मिथ्यातम नाशन तू सूर्य सम, लोभ दवानल मेह । दुर्द र कमठ वरी मद मूकी, पाय नम्यो तुझ तेह ।। ४ ।। धरणेन्द्र पदमावती करे सेव, भव्य कमलवर भान ।। संसार पावागमन निवारो, हूँ तुम्ह माग मान ॥ ५ ॥ श्री हासोट नगर सोमा कर, संकलसंघ जयकार । रतनकीरति सूरि अनुदिन प्रगमें, श्री जिन पास उदार ॥ ६ ॥ प्रय बलभद्र नी पोनति : (३७) प्रणमी नेमी जीनेन्द्र, सारदा गुण गण मंडणीये । गौतम स्वामीय पाय वंदन करु भव संरणीये ।। मोरठ देश विशाल इंद्र नरेन्द्र मनोहर' ए। सोमाबत अपार नर नारि तिहा सुदरु ए ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारफ रत्नकीर्ति एवं वुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व . . -.--. - - नगर द्वारिका राय रुपकला गुण वारिधि ए। कामिनी रूप विसाल रोहिणी नाम सुखोमीये ए॥ साली क्षेत्र वर में ....... ... चन्द्र परमोहतीए । . .......... ..... ...... ... ... ....... ॥ २ ॥ स्वपन दीठा ते नार देव पपरमुगल ए। अवतरीया वलदेष त्रीभोवन मोहन पर यल ए ।। देव की पुत्र उदार नारायण मंध पसरणेए । माहाराज वर तेह. त्रीण खंडना सुधर्म ए॥ ३ ॥ पद्मनाम बलभद्र चितवसा सुख पामोए । कीधा राज महंत भोगवे पुन्य वरवारिणये ए॥ थीयो द्वारिकां नां सवे बांधव सव निसगए। को नौरभव मानवत दुग्ण वीसऱ्या ए॥ ४ ॥ सर्व प्रचलनो राय तुगो गिरवर सोमतोए । कोर नवारण सीध्द ते जे श्रीभोवन मोह तोए ।। श्री नारायण भंग नैराग पामी धीर मन । चारी लीधू धन्य ध्यान ऐ त बन ॥ ५ ॥ राम नाम गुणवंत पूजता भव नासीये ए। नामे रोग समूह नाग गजेंद्र सु घासी ॥ भूत पिसाच ... ... ... झाकनी डाकनी रोग हरे ॥ ६ ॥ लक्ष्मी नारि सुरूप पुत्र पुरंधर नादीये ए। सकल कला गुणवंत अभय नंदि गुरु वांदीमे ए । वीनति राम नरेन्द्र रतनकीर्ति भरणे भाव धरी। स्वर्ग मोक्ष नर नारि लहे भणे जे सुभ मन करी ॥ ७ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति की कृतियां Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भरत-बाहुबलो छन्द मंगलाघरण : स्तुत्वा श्रीनाम सुरनरखचरालि रानिपदकमलं । रोद्रोपद्रवशमनं वक्ष्ये छंदोति रमणीयक ।। १ ।। पणविचि पद आदीश्वर केरा। जेह नामे छूटें भवफरा । ब्रह्मसुता समरु मविदाता । गुरणगरगमंडित जग विख्याता :। २ ॥ बंदवि गुरु विद्यानंदि सूरि । जेहनी कीत्ति रही भरपूरी । वस पद कमल दिवाकर जाणु। मल्लिभूषण गुरु गुण बखांणु ।। ३ ।। तस पट्टे पट्टोधर पण्डित | लक्ष्मीचन्द्र महाजश मण्डित । अभयचन्द्र गुरु शीतल वायक । सहेर वंश मंडन सुखदायक ।। ४ ।। प्रभमनंदि समरु मनमांहि । भयभूला बलगाडे बांहि । तेह सरिंग पट्टे गुणभूषण | वंदवि रस्नकीरवि गत दूषण ॥ ५ ॥ भरत महीपति कुरा महीरक्षण । बाहुवली बलवंत विपक्षण । । तेह तरणो करसु नत्र छंदं । साभलतां भगतो प्राणदं ।। ६ ।। देश मनोहर कोशल सोहे । निरखंतां सुरनर मन मोहे । से मांहि गाजे अति सुन्दर । शाकेता नगरी नत्र मन्दिर ।। ७ ॥ महाराजा ऋषमवेव का शासन : राज्य करे तिहां वृषभ महाभुज | सुख सुखमा जितहसि तनवानुज । जुगलाधम निवारण स्वामी । भव भय भंजन शिव पद गांमी ॥ ।। अंग सुरंग अनूपम राजे । रूप सुरू रतिपति लाजे । कनक कांति सम काय कलाधर । धनुष पांचसे उच्च मनोहर ॥ ६ ॥ ज्ञान पण्य शोभे प्रति बहनें । कोण काला उपदेशे तेहने । कल्पवृक्ष क्षय जाता जागी । जेणे सर्व संतोष्या प्राणी ॥ १० ॥ जैनधर्म जेणे उपदेश्यो। जीव जन्तु कोई नवि रेस्यो । दीनदयाल दयानो सागर । भाववभंजन भूरि गुणाकर ।। ११ ।। रानी यशोमति का वर्णन : गजगामिनी कामिमी ऋशभंगी। नयन हरामी बालकुरंगी । सारद थारु सुधाकर वदनी । कृ'द कुसुमसम उज्जल रदमी ।। १२ ।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भरत बाहुबली छन्द वजुल वेणी वीणा वाणी । रूपरसें जीती रति राणी । अधर अनुपम चिद्र म राता । नलवट केसर तिलक विभाता ।। १३ ।। नासा सरल सभर कुच सारा । मंजुल रुचि मुक्ताफल हारा। कदली सार सुकोमल जंघा । कटि सट लक लजावित सिंषा ।। १४ ॥ प्रथम यशोमलि प्रति अभिरामा । बीजी रम्य सुनन्दा भामा । मात जसोमति जे जाया सुत । परत मादि सो ब्राह्मी संयुत ।। १५ ।। जनम्यो वीर सुनन्दा मायें। बाहुबली सुन्दरी तनुजायें। सहु परियण सुराज्य करता । हास विलास विशेष वहता ॥ १६ ॥ प्राशी लाप पूरय संवच्छर । विविध बिनोदेव्योलाविस्तर । एक समय नीलजस रूपं । देषी मति चमक्यो वृष भूपं ।। १७ ।। । लिपीचर: ऊठ्यो प्रति वगग्य विचारी । छंडी लछि बहु अतिसारी । राज्य तरण प्राबर प्राप्यु । भरत महीपति नामज थाप्यु ।। १८ ।। भारत को राव देना : पोतनपुरी भुजबली बेंसारया | अवर यथोषित तनुज वधाऱ्या । ध्यार हजार महीपति साथें । लीको संयम त्रिभुवन नाथें ।। १६ ।। पंच महायत पंच समितिसु । पाले जिनपति अण्य गुपति सु। अति कम भटवी म्हां रहेता । हो. सबल परोसह सेहेंता ॥ २० ॥ एक दिवस ते राज्य करतो । बैठो भूप सभा सोहतो। स्यारे नण्य वामणी प्रावी । सांभलिता सहुनै मर्ने भावी ॥ २१ ॥ वृषभानधनें केवलरणाएं । प्रगटयु चक्ररयरण जिमभारणं । पुत्र अग्म सांभलीयो नरपति । कीधो मंच स मली शुभमति ।। २२ ।। धर्म कर्म कीजे ते पेहेलु । जिम नवंश्रित सोझे बेहेलु। स्यारें भूपति भावधरीने । केवलबोध कल्याण करीने ।। २३ ।। परच्यु चक्र करयुं प्राइम्बर । पुत्र जन्म उच्छव करी सुन्दर । मही साधन संचरीयो नायक । मलीया गजरथ तुरग सुपायक || २४ ।। भरत द्वारा दिग्विजय : पूछवि पंडित ज्योतिष जाणा । बर मंगल दिन का पयाणा । चाल्या अतुर महीपति मोटा । शूर सुभट अति चांगरण चोटा ॥ २५ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जीत्या जोर खंड श्रखंडा | बेरी बहु कीधी बहुरंड्या । दंड्या पंड्या गढपति गांठा | श्राठा नाहागजे उपराठा ॥ २६ ॥ गिरि गह्वर जलथल खंखोल्या | व्यंतर विद्यावर झकझोल्पा । साठ हजार वरसवरे धाव्यो । लच्छि सुलक्षण ललना लायो || २७ ॥ दिन जोड़ नगरी वसेको। पङ्क्त न मरुले सुर ठेलंता | त्यारे वचन चवे ते चकी । बोलाव्या मतिसागर मन्त्री ॥ २८ ॥ १५१ कहो किम चक्र न पेसें पोलें । ते मन्त्री बोल्या श्रध बोलें । स्वामी सांभलि वचन अम्हारां । प्राण न मानें बन्धु तम्हारा ॥ २६ ॥ तेव्हां बाहुबली बल पेपे । कोन्हें नवि मन माहें लेवे । धीर वीर गम्भीर महाबल । वेरी गज केसरी प्रति चंचल ।। ३० ।। निज तेजें तरणी पण भयो । एह्रां वचन सुखीनें कंप्यो । रहेष चढयो राजा ते बोले । कोण महीपति म्हारे तोले ॥ ३१ ॥ माय मान उतारु तेनुं । रणरभलावु बहुदल एहनु । त्यारे ते मन्त्री सुविचारी । बोल्या भूपति ने हितकारी ।। ३२ ॥ रहो रही स्वामी रोश न कीजे । तेहनु पेहेलो लेख लखीजे | लेई विचारु चर जाये । वादें कहीं खोटि नवि थाये ॥ ३३ ॥ जेम तिहांजईने बेहेलो आवे | जोईये साज पडूतर लावे | एह विचार सभी मनें भाग्यो । प्राप्यो लेख सुदूत चलायो || ३४ ॥ बाहुबली के पास बूत भेजना : । बायो द्रुत गयो ते तत्क्षण । भेट्या राजकुमार सुलक्षण। आप्यो लेख सभा सङ्घ बेठां यांची वचन वयें ते रूठों ।। ३५ ।॥ कहे रे बरतें किस पग धार्यो । स्यारे बोले बोल विचार्यो । मानो छाण महीपति कैरी । श्रायें भूमि दली प्रधिके ।। ३६ ।। त्या द्रुत वचनें कलमलीया । चलतां वचन चवे ते बलीया । मां अम्हें तेही शिर वहीये । जेह थी भवसागर ऊतरीये ॥ ३७॥ एहवु' कहि चढीमा कैलाशे । लीधो संयम स्वामी पासें । त्यारे ते वर पाछो दीयो। प्रावीनें राजा विनयीयो ।। ३८ ।। स्वामी तेणें सुऋद्धि छंडी । सेवा प्रादि जिनेश्वर मंडी | एह बचन सुणी तह सीयो । मनमा वैराग न बसीयो ॥ ३६ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुबली छन्द आर्या कोहं केयं वसुधा, बभूवुरस्यां कियंत ईशगणाः । त: साक न गप्ता सा, यास्पति कथं मोति सह ॥ १।। ४० ।। बोल्यो वमन वली वसुघापति । बाहुबलीनी सीज मनोगति । चारु सो एक दूत चलावो । तेह्नो प्राशय वेगें अणावो ।। ४१ ॥ त्यारे ताणें मंत्र विचारी । दूत चलाव्यो बहुमति धारी । चाल्यो दूत पयारणे रेहेतो । बोड़े दिन पोयणपुरी पोहोतो ॥ १२ ॥ पोदनपुर का वैभव: दीठी सीम सधन करण साजित । वापी कूप तहाग विराजित । कलकारंजो नल बल कुडी। निर्मल नीर नदी अति ॐशी ।। ४३ ।। विकसित कमल प्रमल दल पंती। कोमल कुमुद समुज्जल कती।। वन वाडी माराम सुरंगा। अंब कदंब उदंबर तुगा ॥ ४४ ।। करणां केसकी कमरष केली। नवनारंगी नागर वेली। मगर तगर तरु तिदुक ताला । सरल सोपारी तरल तमाला ॥ ४५ ॥ बदरी बकुल मदाम बीजोरी। जाई जूही जंबु जंभीरी। चंदन चंपक चाउर ऊली। वर वामती बटबर सोली || ४६ ॥ रायणारा जंबू सुविशाला । दाडिम दमणो दाल रसाला। फूल मुगुल्ल अमुल्ल गुलाबा। नीपनी वाली निबुक निया ।। ४७ ।। करणपर कामल' लंत सुरंगी। नालीयरी दीदो प्रति घंगी। पाडल पनश पनाश महाधन । लवली लीन लवंगलता घन ।। ४८ ।। बोलें कोयल मोर कीगरा। होला हंस करें रपसारा । सारस सूडा च'चु उसेगा। लावा तीतर चारु विहंगा || ४६ ॥ कोष चकोर झपोत सरावा । भ्रमरा गुजारव रस भावा । कृसुम सुगन्ध सुवासित दिग्मुख । मंद ममत उत्पादित पतिसूख ।। ५० ।। दूत चल्यो धन वन निरखंतो। पेठो पोल विषय हरतो । दिठी ऊची पोल पगारा। अति कडी साई जल फारा' ।। ५१ ॥ कोशीसें मंडिल बहुमारा। गोला तालन लागें पारा । नगर मझार चल्यो निरखंतो। मन सु देवनगर लेखंतो ॥ ५२ ॥ शिखर बद्ध जिग मंदिर दी। जोगों लोचन प्रमीम पठा। सुन्दर सत्तम्लए प्रावासा । मृगनयरणी मंडित सुविलासा ॥ ५३ ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीति एवं शुमुदचन्न : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मेडो मण्डप बहुमत वारण । घरे घरे लेहेके मंगल तोरण ।। ५४ ।। ते जोतो मनें धयो अचंभित । चाल्यो घर चहुदे अविलम्बित । दीठो माणिक चोक मनोहर । च्यारे पासे विराजित गोपुर ।। ५५ ॥ मणिमोती हो वालः । गाली देने पर प्रतिकला : चोराशी चहुटा हट शाला। चित्र-विचित्र न झाक भमाला ।। ५६ ।। कुकुम कस्तुरी करा । नुश्रा चन्दन चभर सु चीरा । मखमल लालम सज्ज रसेसरु । बढु शकलात दुरंगीटशरु || ५७ ।। ने सह नगर तमासा जोतो। राज दुपार जइ घर पोहोतो। पूछवि पोल धणी गयगतीनें । अवर जइ मलीयो रतिपत्तिनें || ५ || बाइबली को राज सभा : त्यारें भूपति प्राप्य प्रासन । कुशल प्रश्न कीधुभासन । बोल्यो दूत वचन ते वलतु । स्वामी साभलीये कहु चर तु ।। ५६ । आज कुशल सपिशषे तेहनें । तम्ह सरषा बांधव के जेहनें । तो पण तेहनें मलवा जईये । जेम जगमाहें मोटा थईये ।। ६० ।। तम्ह थी ते बांधव पण मोटो । ते सु मान धरो ते खोटो। ते माटे सु फोकट तरणो। ते छे त्रण्य दुषंडह राणी ।। ६१ ।। सांभलि सर्व कहु ते मांडी। मुको रोब हईयानो छांडी।। सांध्यो विजयारच अतिसुन्दर । ध्र जाव्या विद्याधर वितर ॥ ६२ ।। म्लेछसय मारी वश कीधा । तेह तणे शिर दण्ड जदीधा। नेमि विनेमि नमाव्या चरणें । मागष वतुं न प्राच्या शरणे ।। ६३ ।। तरल' तरंग पयोनिधि तरीयो बारणे भूरि प्रभासविडीयो। गंगासिंधु नदी प्रति डोहोली। आपो भेट अनूपम बोहोली ।। ६४ ॥ इट बढ़ीयो हिमवंगहराव्यो। नट्टमालि निज सेव कराव्यो । पुण रमतो वृषमामल प्राध्यो । जुगति करी तिहां नाम लिखाव्यो ।। ६५ ॥ लाट मोट कर्णाट कस्या बस । मेदपाठ मार लीधा घस । मांची मरहट्ठा ऊजाड्या । लोगल सौर घो पाया ।। ६६ ।। मालव मागधने मुलतानं । कन्नड वाविड मोड्या लान । जाहल मलबारं सवराई । कामरूप नेपाल सलार्ड ।। ६७ ।। अंग बंग कंबोज तिलंगा। कुकरण केरल कोर कलिंगा । पंचाला बंगाला बम्पर । जालंधर गंधार सुगजर ॥ ६८ ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत बाहुबली छन्द पारस कुरजांगल पाहोरं । कोशील काशी लका तीरं । छम सम हर मजहद कीघां। कच्छ बच्छ बर मुदा दीधा ।। ६६ ॥ भक्त र देश पड्या मंगाणां । हलफलीया हेलाहीदुपागा। एवनादि बत्तीश हजार । देश मनाबी प्रारण अपार ॥ ७० ॥ नमणा सोल हजार मुगटधर । गाजे लक्ष घोराशी गयवर । तरसमान रण पाचक चल्ले । पाद प्रहारे मेदिनी हल्ले ।। ७१ ।। छुन्नु सेहेसर माललिअंगी। कोड अपर तुरंग सुरंगी । बें अडतालीमा कोडि सुगामं । सुन्धरस र शोभित बरचांमं ॥ ७२ ।। कर्बट खेट मटंबकः राज्ञे । पतन द्रोण मुखादिक छाजे । नवनिधान मनवंछित पूरे । चउर रयण दालिद्दवि पूरे ।। ७३ ।। जीवं लच्छि करी घरे दासी। कीति कलाक कुबंतान दासी। यक्रपति सु बंक न थक्ष्ये । तेसु मानधरी नबि रहीये ।। ७४ ।। सार यजी शरण : वली राहीपति गुसरीथे । नहीं तर तस कोपानल चढस्ये । ताहार भुजबल' दल मलस्ये ।। ७५ ।। देशे विषय अंगाणु' पडस्य । सुन्दर पोयणपुर उजडस्य । त्रिते भौंत पडि प्राथडस्ये | गढ़ पाडी में दानज करस्ये ।। ७६ ।। मरिणमोती हाटक लूटास्ये । बंदि पड माणस विघटास्ये । नाशी नर देशांतर जास्ये । तीहारु लोकह सारथ थास्ये ॥ ७७ ।। ते माटे डब-इन सह मूको। भरतपतिनी सेवमं धुको । एहवा दूत वचन बहू बोल्यो । तो पण मन माहि नवि डोल्यो । रोस चढ़यो बोले रतिनायक । नोटु दूत भवेसु वायक ॥ ७८ ।। पायों पूज्योग्रजोत्रभुबने रोत्यापि न मान्यते मयेति नृपः । बाहुबलीत्यभिरुपैः संज्ञा संकथ्यते हि वृथा ।। २ ।। ७६ ॥ बाहुबली का उत्तर: जे जनपद मुझ प्राप्यो जिनवर । ते लीयो किम जाये नरवर । अण्यलोक माहारें दशवति । एहनें खण्ड छखण्डज घरती ।।०॥ तो एड्नी किम प्राणज मानु । साहां मुहु' वेसारु कानु । इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र नमा। दानव देव दिनेश भमात् ।। ११ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुद चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १५५ मद करता मय गय संघारु । धसमसता भटयट र दार। हरगहणतां हयवर झकझोलु । रणसावर कल्लोलें रेलु ।। २ ।। भूतपिशाच परत हकार। व्यंतर विद्याधर चक्कार। लडथडतां भड़धड़ नच्चा९ । सुत्तो यमराणो जग्गाड ।। ५३ ॥ भूख्या राक्षस ने संतोष । क्षेतल्लो घरे बल पोषु । रोस चट्यो रग अंगणे पाडु । गड़गड़ता गिरि चरते पाडु ॥ ८४ ।। मुकटबद्ध राजाने मारु। छत्रभंग करी नाद उत्तार ।। शाकेता नगरी उज्जाडु। म्हारे को नवि पाये प्राडु' ॥ ५ ॥ विद्याधर बाजीगर माया । व्यं तर अन्तर चंचल छाया । ए जीलें किम शूर वखाणु । मुझसु आणि भढे तो जाणु' || ८६ ।। व करी कुम्भारज' कहीये। दण्ड धरे दरवानज लहीये । यमबाहन गजवेशर वाजी । बाल रमति सरषी रथ राजी ।। ८७ ।। पायक पूतलडां समभासे । ते सारु किम मझने मासे । प्राण बहुहु तेहनी माथे । जे सुरगिरि ग्रंथ्यो हरि हाथे ॥ ८८ ।। ते विरण प्राण चहै जे केहनी । तो लाये जननी जग तहन। । जा जा दूत जवानी करतो । एके बोल न बोले नर तो || ८६ ।। घातो जाय धणी में केहेजे । मुझ पहलो रण पावी रहे । नहीं तर हुं आबु बु वहेलो । चांपी भुमि पडुतझ पहिलो || ६० वीर वचन सावु हूं माणू। पुट करी जगें नाम उ राख्न। त्यारे दूत गयो शाकेतां । जाइ बीनवीयो भरत विनता ।। १ ।। दूत कर वापिस भरत के पास प्राकर निवेदन करना बाहुबली तझ प्राण न मानें । तहनां बोल न पोथे पाने । जो बली आतो दहेला जाऊ । नहीं तर बैठा गीत जगाऊ ।। ६२ ।। ते सांभलो ने राजा रूठो । हाव' ढील कसी ते ऊठो । साजो कटक शटक सु' चालो । बाहुबलीनी षड्भर टालो । १३ ।। त्यारे सैन्य-सजाई कीधी। रण जापाने फेरी दीधी। मदमाता मयगलमलयता। सिंजतरल' नेजा झलकता ॥ १४ ॥ सेना की तैयारी: घम-घम घुघर वाला । गुम-गुम गुजंताल भगराला । घण्टा टंका रख रणकन्ता । लकती ढाल घसा लेहे कंता ।। ६५ ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ भरत बाहुबली छन् मग मगता मद जल महर्कता। उत्तगा अजनगिरि वन्ता । हस्त खडग गहि कर कर भाला। दंतूशान्न मुशल सम चाला ।। ६६ ।। गुलगुलंत मद गलता धाता । सांदूरे कुम्भस्थल राता । चंचल' घमरालाशुडाला । उद्दडा चंडा ऊडाला ।। ६७ || हिलि-हिलि कलित-कलित है पारा । जलथलगामिकछी सारा । नीला पीला धवल तुरंगा । काला कविला याबल सुरंगा ॥ ६ ॥ रणभाता गल कंदल चंगा। रंग विरंग मनोरम मत्तगा। प्रांपुर बांकुड माकड़ी पाला। कसम सभाकी तलर ठीग्राला || ६ || ते उपरें चढी आठ कराला । मारु मरह ढाडही माला । टाकचंदेलाने चहुयाण। । सोलंकी राठौर सुराणा ।। १०० ॥ दहियाडा मीनें बोडाणा । परमारा मोरी ममठाणा । रोमी मुगल मल्या मुलतानां । घांन मलिक साथ सुलताना ।। १०१ ।।। हबशी हड फरंगी फालका । चपल बलोच पलठाण सुठलका। वाल्यां कटक चिकट अति केहरी । अंगा टोप शिल्हे सहु पेहरी ॥ १०२ ।। भास्यों षचरषजोनें पेटी । 'भरी प्राभार बईल्ल' झपेटी। ऊँट कस्वां प्ररडाता वाषर । तम्बू वाङ तबेला पाषर ॥ १०३ ॥ भेसा मार भरा प्रति मारी। शलकी शांढकजादेफारी । बाल्या चित्त तारहवर । तारणं तरल तुरंगम रनभर ।। १०४ ॥ देता डोट झपेटा पाला। छूटा भट छोटा छोगाला । दडेवडसा दोगां ठमेटाला। मारे गाल फटाकाठाला ॥ १०५ ।। फड़छया कुछाला मुछाला । भगझगता झाल्या त भाला। षे द्धा खा. गदा फरशी धर । चक्र चाप तोमर मुद्गर कर || १०६ ।. खपुत्रा धुरी वादारी मुशल | डीगां डांग च जाड़े चंचल । होकर नाल हवाइ हाथे। बहु बन्धूक चलावी साथे ॥ १०७ ।। विद्याधर निज्जर मनोहारी । रचित विमान विनोद विहारा । देखी सैन्य अङगाईबर । हरख्यो भरत धराटमरणीवर || १०८ ॥ चढीयों छत्रपति सुनिला गं ! चोषा चमर ढले ते पास । कीधू कृज दमागा वाजे । नादे गड़गड़ अम्बर गाजे ॥ १०६ ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व १५७ दम-डम जंगी ढोल धस्कें । सांभलतां कायर मुख सुकें । दो-दों मद्दल तवल नफेरी । के के झल्लरी सम्भः मेरो ।। ११० ।। बाजे काहल ताल कशालं । पूरे शंस सुवंश विशालं । वोले भाट घटाइ गाळे । खहखरीचा श्रागल यी काळें ॥ १११ ॥ एहत्रि अधिक दिवाजे जाये । वोहोला दल पोहोवी नवि माये । रुनकटीआ आागल थी बाधर कांपी भाइ करेले पाधर ।। ११२ ।। कड अडारा मोटा पाडी । वांकी वाद समारेखाडी । अंति अलगार करे ते मोटी बातें कहीथाये नवि खोटी ॥ ११३ ॥ चोंप करी चात्यां चकोवल । नेगें ज पोहोता अतुली बल । ते पहेलो आयो बाहुबली । दीवों चांपि खड्यो रणभूतल ।। ११४ कर मुकाम रह्या ते रजनी । उग्यो दिनकर वाली धजिती । त्यारे रणवाजित्र ज बागां । सांभलता कायर भन भांग ।। ११५ ।। शूर सुभट रहबट खलभनीया | मेहेतारण अंगणे जमली । मांडयु युद्ध महीपति चढीओ छूटे पावोरगीर सायें | I चोर वीर ग्रागल थी बढीया ।। ११६ ।। का िकटारी झीसे हाथ । थामें धनुष चढावी पाला । अहमहमिकया न दीये टाला ।। ११७ ॥ झग भगता भाला भल भोके भक भक्तां होदी मुखें ऊके । छूटे नाल हवाई हेका । बन्धूके मारे बहु लोका ॥ ११८ ॥ मोढ़े मुगर शिल्हे सह फोडे । चंचल व चमर वर थोड़े | मात्रे घड़ बाजे र तुरा। सुम्दर मारि करें चकचूरा | ॥ ११६ ॥ मदगे लागज कल शुड़े । पाछल थी हाला पर गुडे । सत ss नाखेते कटकी ! झटकेशटकक ते कटकी ॥ १२० ॥ नाना धाय पड्यो बहु प्रारणी बलबलता वह मांगे वाणी । हरव्या भूत पिशाच निशाचर । व्यंतर बेताला शंकाकुलर ।। १२१ ॥ नदी दोघे विकराला । गुड रण भूमि कराला । रुधिर नेजा तेज करता मारे तो पण नवि को जीले हारे ॥ १२२ ॥ आर्या सदयः समरं घोरं कृतवंतो वर्जिता भटाः सचिवैः । 2 कार्यं नृपतिनियोग, विनानि कर्त्तुं युक्त मिति विचित् ।। ३ ।। ११३ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुबली छन्द त्यारे महिमति मन्त्री मलीना। मन्त्रपिचार विषय प्रतिकलीमा । ते सहु मन्त्र विचारो मोटा । जेहना मोल न थाये खोटा ॥ १२४ ॥ स्यान्हे क्षत्रिय भट संहारो। चारू एक विचार विचारो। ए बेहु चरम शरीरी राजे ।एहने नवि कांटो पण साजे ॥ १२५ ।। ए सुन्दर नर संयम पामों । कर्महणीने शिवपद गामी। ते थी बात विचारो वेहेली। जेम भाजे सघलीए जे हेली ॥ १२६ ।। परस्पर में तीन प्रकार के युद्ध करने का निर्णय : प्रण्य युद्ध त्यारे सह थेठां। नीर नेत्र मल्लाहव परठ्यां । जे जीते ते राजा कहीये । तेहनी प्राण विनय सु वहीये ।। १२७ ।। बह विचार करीने मरवर । पाल्या सह साथे मच्छर भर । दी चारू सरोवर बिमलं । भरी नीरह सित सित कमलं ॥ १२८ ।।। जलयुद्ध अति गम्भीर तरल तरने हरि । पेंटा भूप अपर पट पेहेरी । झीले भूप भया बहु ऑटें | माहा माहे रमें जल छांटे ॥ १२६ ॥ रमतां भरत तणायो रेलें । हारमो सहु जोतां जल बेलें । स्पारे बाहुबली दल हरस्यु । मरत कटक मन मठ प्रतिनिरष्यु ॥ १३० ।। नेत्र युद्ध नेत्र युद्ध करता पण हार्यो । बामली महाबल जयकारयो ।। १३१ ।। चाल्या मल्ल प्रसाई बलीमा । सुरनर किन्नर जोवा मलीना। काछ्या काछ कशीकर तांगी। बोले बांगड़ बोली वाणी ॥ १३२ ।। मल्ल युद्ध भुजा दण्ड मन मुड समाना । ताडता बंषोरे नाना । हो हो कार करि ते घाया। बच्छोवच्छ पड्या ते राया ॥ १३३॥ हरकारे पव्वारे पाडे । बलगा अलग करी ते पाडे । पग पडघा पोहो वीतल बाजे। कड़करता तम्बर ते भाजे ॥ १३४ ।। नाठा वनचर पाटा कायर । छूटा मन गल फूटा सायर । गड़गड़ता गिरिवर ते पडोनां । फलकरंता फरिगपति उरीमा ।। १६५ ।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नफीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कृतित्व १५६ गह गड़ गड़ीसा मंदिर पड़ीया । दिगन्तीव मझ्या चलचलीमा। जन खल भलीमा बालक छलीमा । भय भी अबला कलमलीया ॥ १३६ ।। तो पण ते धरणी घबडू के। लड़यता पड़ता नवि कें । भरत द्वारा चक्र फेंकना । त्यारे बाहुबली नवि डोल्यो। हलसें चझी हींदोल्यो । १३७ ।। देखी बाहुबली भट हसीनों। भरत तणां भट प्रति कशमशीया। वलतें रीश करी ने मुक्यु । चक्र बाहुबली करें ढुक्यु ॥ १३८ ।। मान भग दीटो नृप रागें। बाहुबली चढ़ीयो बेरागें निग धिन यह संसार असार । कदलो गर्भ समान विचारं ॥ १३६ ॥ बाहुबली का वैराग्य विषय तणां मुम्न विष सम भासें । तन धन योयन दिन-दिन मासें । सज्जन सहु मलीमा निज कांमें । सु कीजे हय गय वर धामें ।। १४० ।। घर धंधे पड़ीयो ते प्राणी । पाप अनन्त करे ते जागी । मेते मूढ पणु सु कीधु । ज्येठा बंधवने दुप्सा दीषु ॥ १४१ ।। पहबो मनि देराग धरीनें । भरतपती सु प्ररन करीनें । निज राजे महाबल वेसारयो । क्रोध लोभ मद मदन निवार्यो - १४२ ।। छंडी ऋमि गयो जिन पास 1 लीधी संयम भव भय त्रासें । बरस एक मरयादा कीघी। मन उदकनी बाधा लीधी ।। १४३ ॥ बाहुबली की सपस्था प्रतिमा योग धरयो मनमाहें। उमा रही पालंबित बाहे। ध्यान घरे बह जीव दया पर । नवि बोले नदि चालें मुनिवर ॥ १४४ ।। अषि न फरके रोम न हर । वनसावज वीने निरखें । बनचर तनुऊ धसता दीसे । तो पण मुगिन चढ़े ने गैसें ।। १४५ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० देह चढीं नाना चिव बल्ली | नख सुभिल्ल घसें ते भल्ली । विष विकराल भुजंग भयंकर । लचित गल कंदल अति सुन्दर ।। १४६ ।। कान विषय माला ते कीषा | वरसाले बहु बीज बूके सघन घनाघन अम्बर गाजे लांबी भइ मांडीने दरवे । तो भरत बाहुबली खन्द पंषीय बहुपरे पण ध्यान थकी महेलो बाजे । माता मोर करे रंगयेनं । खलबल नीर बहेते कोतर भर-भर बरसे रात अंधारी जेरे तो वर चित्र प्रायें । तं कभी बाहेर चोमासें ॥। १५० । झंझावात दादुर जल देषीनें हरषे ॥ १४८ ॥ बांपीयडो बोले पीज बोलं । भरीयां वारि सरीवर दुस्तर ।। १४६ ।। भूरे विरही नर नवनारी | जे वनचर जाभी टालें | नीलू वन न रहे हिम साढें । वि सूये बेसे संर नविक नदि पेरे अम्बर ।। १५१ ।। जे सूतो निणि ललनां संगें । ते शीयाने सहे हिम अंगें । जे षड़ रस नव भोजन करतो ते वनवासी अनशन धरतो ।। १५२ ।। प्रति उन्हाने लू बहु बाजे । तरस थकी नवि पायो भाजे । दाझे देह तपे रवि मस्तक । तो पण न चले बोल्यु पुस्तक ॥। १५३ ।। त्रय काल की तप दुर्द्धर । तो पण मान न थाये जर्जर | वरस दिवस पूगाते जे ह्न । प्राबी भरत नम्यो पदते ॥ १५४ ॥ जंपे भरत विनय मनें श्रांणी को मान हुईयासु जांणी । मुझ राखा पोहोवीतल केता | हवा हसे नेले अरण देता । १५५ ।। तु मुनि मण्डन मझ मद खण्डन | जनमनरंजन भव कर करुणा करुणामय सागर । दुख दीघां । नवि चुके ॥ १४७ ।। भय तंजन | मुझ अपराध क्षमो गुण श्रागर ॥ १५६ ॥ मन थी शल्य तजो मुनिनायक । जिम प्रगटें केवल इम क्षमाषी चोल्यो नरवर । जग वेगें पोहोतो सुखदायक | कोशलपुर ।। १५७ ।। बाहुबली को केवल ज्ञान होना धरयुं ध्यान हुने मुभि ज्यांरे । केवल प्रकट भयुं ते त्यांरे । भाव घरी भवियरण सम्न्रोने । कर्म कलंक कला न दिॐ ॥ १५८ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारका रत्न नीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जय-जय भुजबलि नमित नरामर । सकल कलाधर मुगति वधूवर । रखना काल संवत सोलसमें सतसहे। ज्येष्ट शुकल पा तिथि छहें ॥ १५६ ।। कविवर बारें घोषा नपरें। अति उत्त'ग मनोहरु सुघरें। अष्टम जिनवर तें प्रासादे । सांभलीये जिन गान सुसादें । रतनकीरति पदवी गुण पूरे । रचिया छंद कुमुद शशि सूरे ॥ १६ ॥ कला उत्कट विकट कठोर र गिरि भंजन सत्पदि । विहत कोह संदोह मोह्तम अघ हरण रवि । विजित रूप रति भए चार गुगा रूप विनुत कदि । धनुष पांचस पंचवीश वर उव्य तनुछवि ।। १६१ ॥ संसार सरित्पति पार गप्त, विध वृन्द बन्दित चरण । कहे कुमुदचन्द्र भुजबली जयो, सफल संघ मंगल' करण ।। १६२ ।। इति श्री बाहुबली छंद प्रक्षरी समाप्त Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ विवाहलो समरवी सरसति घो मुझ शुभमति, करो वर वाणी पसाउ लोए । प्रथम तीर्थकर प्रादि जिनेश्वर वरणवू तास विवाहलोए । जे नर नारिए भासए सारिण, सांभलसे मन नीरमलीए । पांमसे सुख धरणां वांछित मनतरणा, भवि भवि नवल वलीए ।। १ ॥ उलाबो बलीय धरणूसु' बखांणीए जागीए भूतले नामए । सरस सीम सोमणि धन बन अनुपम गामए । झलहले नीर भर्या सरोवर, कमल परिमल महे महे । हंस सारस रमें रंगे, नदी नीरमल जलबहे ।। २ ।। चाल नाभिराजा एवं मत्येवी राणी : देश कोशल वर तिहां सुरपति पुर, सम मोहे नगर रलीयां मरणुए। कोशला सुन्दर सतखणा मन्दिर, सुरे वरचारण फरु गद तराए।॥ ३ ॥ माणिक चोकए चतुर सुलोकए, बहुटा चोराशी जिहां नव नवाए !! भोग पुरंदर नर स्पं रतिवर, कामिनि कठे कोयलपिय ।। ४ ॥ राज रंगे करे महिपति माभि राजा नय भलो। चउदमो कुचकर सकल सुखकर जगत जाणे गुण निलो । सस पटरानी कविवर-बाणी चतूर मरुदेवी भली । अति मधुरवाणी परवागी रति हरायि रसकली ।। ५ चाल ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वप्न वर्शन : एके समे सुन्दरी पाछली सखी शरवरी, सोलसपन रूडा नीरखती ए। पहिलोए गजबर मदझर गिरिवर. सरषों देवीने मनि हरपतीए ॥ ६ ॥ बीजे धुरंधर सबल चपलतर अक्ल नवस त मनोहरए । सहज सोहामणो पामीए त्रीजले हरी बरए ॥ ७ ॥ हसित पदमासने जेठी हस्त पदने सोहए। सपन चौथे लाछि दीठी जगत जन मन मोहए ।। लहिकति लांबी फूल माला भबर गुबारव करें। पांच में परियल मनमगाटमें नाशिकाने सुख करे ॥ ८ ॥ छन्न रजनीकर अमीझर सुखकर सोल कलाकरः छाजतोय । कुमुद विकासए दश दिशा भासए, अहेव रजनो राजतोय ।। उगतो दिनकर सकल तमोहर कमल सोहाकर सातमेंए । मछ युगल जलमांहि रमें झल झलते अवलोकिनु पाठमोए ।। || ग्रंभ पुरा कलश नवौ सरोवर दशम भर । लहे लहें लहरि नीर निरमल, कमल के पार पीजर ।। लोल जल कल्लोल गाजे, वारि राशी अग्यारमें । वर हेम धनी रयराजीडनु सिंहासरण ते बारमें ॥ १० ॥ देव विमानए चित्र निधानए, रचना मनोरम तेरंमेए । नाग भुवन जन जोतां हरे तनु मन, __ समणे सोहामगे चउदभेए ॥ ११ ॥ राशी रतन तणी पंच वरण गणी, जगमग करतीए पनरमेए । अनल प्रघमए तेजे धा धूमए. च शिखायें दीने सोलमेए ।। १२ ।। मरुदेवी जागी प्रिय कह गद सपन फस' पुछू बली । नरपति कहे तब पुत्र जिनवर हसे मनगों होती रली ।। समिली राणी सफल जारणी मलयती था कि गइ । नाना विनोदे दिवस जांता न जाणे हफ्त थइ ।। १३ ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ऋषभ विवाहलो हषि मास झाषाब तो बीजो वदि पक्ष । तिथि बीज मनोहर वार विराजित कक्ष || १४ ।। चवियो अहमिदर मतरीयो जिनराज, । मरदेवी कषि धम सफल दिन प्राज ।। १५ ।। बेत्रियों द्वारा माता की सेवा---- इन्द्रादिक प्राध्या कीचू गर्म कल्याण । मति थोड़ी सारु सुकरीये रे ते बखासा ॥ १६ ॥ गया हरि निज थानकी मूकी छपन कुमारी । जिन माय तरणी सेबा करवा मनोहारी ।। १७ ।। एक नित नहरावे, एक पखाले पाय । एक वीजगडे चटकावे सटके नांखे वाव ।। १८ ॥ एक वेणी समारे, नयणे काजल सारे । एक पोयल काढे एक अमरी सणगारे ।। १६ ।। एक चोसर गुथे, एक प्रापे तंबोस । एक पगते पीले, कुकम सुरंग रोल ॥ २० ॥ एक पाछा अंबर पहराव सुरनारी। एक नलवटि केशर तिलक करे ते समारी ॥ २१ ॥ एक रयण अरी सो देखारे जिनमा | एक वेगवजोडे एक सु करि गाय ।। २२ ।। एक नगरस नाटक नाचे ने नव रंगे। एक बात कथारस कहे सकल सहेली संगे ।। २३ ।। ईम हसतां रमतां पूगाते नवमास । मधुमासे जनम्यां पहोप्ती सहुनी प्रास ॥ २४ ॥ हाल दो इस्त्र एवं देवताओं द्वारा जलाभिषेक : प्रासम कंपीयां इन्द्रनाएं, जाणीयो जिन तगो जनम ! _ नमो नमो जय जिर्णेद ॥ १ ॥ इन्द्र एरावरा. गजि बड्या ए ॥ साथि चाल्या सुरवृद || नमो० ॥ २ ॥ मादेवि मदिर प्रांगणेए, प्रावीया सकल सुरेन्द्र । नमो० ।। ३ ।। इन्द्र प्रादेश लेई सचीइए, गई जिन मातने पास । नमो० ।। ४ ।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १६५ आणीया जिन जी इन्द्राणीइए, पापीया इन्द्र तें हाथि । नमो ॥ ५ ॥ इन्द्र उसंगे बेसारीयए, चामर छत्र सोहत । नमो० ॥ ६ ॥ प्रागीले अमर विलासनीय, गायती परीय प्राणाद । नमो० ॥ ७ ॥ धवल मंगल बहु मंगल गावतीय, बाजता काजिम कोडि । नमो ॥ ८ ॥ मेरु शिखरे पषरावीयाए, कोषलु जनम विधान | नमो० ।। ६ ॥ क्षीर सागर तरणे जले भरयाए, कनक कलशा सुविसाल । नमो० ।। १० ।। जिन प्रभु उपरि ढालीयाए, नहवण करयु मनरंगी ॥ नमो० ॥ ११ ॥ जय जयकार अमर करे ए, दोधलू वृषभ जी नाम || नमो० ॥ १२ ॥ अमल अंबर मणि मण्डनेए, मचीये करो सणगार || नमो० ॥ १३ ॥ स्प भनपम पेखतीए, नयण नुपति नर्षि थाय ॥ नमो० ॥१४॥ जन्म महोलय हरी करीए, हाडलें हरष न माय ।। नमो० ॥ १५ ।। मेरु थकी ते पाछा ल्याए, प्राविया जिनपुरी चन्द्र ॥ नमो० ॥ १६ ॥ जिन प्रभु जननी ने पापीयाए, स्तुति करी गया सुरराम ।। नमो० ॥ १७ ॥ जनम महोछव जिन तगोंए, हरषीया सूरि कुमुदचन्द्र ॥ नमो० ॥ १८ ॥ हाल तीन बाल क्रीडा प्रावो रे जोवा जइये, सखि मरुदेवी मल्हारे रे । गुण सागर रलिग्रामरो, ए विभुवन तारणहाः रे ॥ १ ॥ सो भूरज सो चांदलो, स्यो रतिराणी भरतारे रे । सुर नर किनर मोही रखा, काई रूप अनोपम सार रे ॥ २ ॥ सोहामणि सुर सन्दरी, जिन हरषधरी इलरावे रे । भामरणडलि भामिनी, काई गीत मनोहर गारे । सो० ॥ ३ ॥ रमत करावें रंगस्यु सुरनारि के सिगारे रे । दे प्राशीस से रुपडी, तु जय जय जगदाधारे रे ॥ सो० ॥ ४ ॥ दिन दिन रूपे दीपतो, कांई बीज तणो जिम चन्दरे । सुर बालक साथे रमें, सह सज्जन मनि माणदरे । सो० ॥ ५ ॥ सुन्दर पचन सोहामणां, वोले बादपठो बाल रे ।। रिम झिमवाजे धूधरडी, पगे बाले बाल मरालरे ।। सो० ॥ ६॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जीन सेहजे विद्या सीखीयी, कोई सकल कला गुण जाणोरे । योवन बेस विराजतां, कांई तेजे जीत्यो भाग रे || सो० ॥ ७ ॥ एक समें सुत देखीने नामि राजा करे विचार रे । रिषभ कुंवर परगावीयो, , जिन सफल थाये अवतार रे || सो० त्यारि बोल्यां नाभि नरेन्द्ररे तेडीय मन्त्री श्राणंदरे । म मनें एलो उमाहरे कीजे रिषभ विवाह ॥ ६ ॥ जो जो कन्या सुगुरण सुहृपरे, इम कही रह्या भूप रे । वचन चवें परधान रे, सांभलो चतुर सुजाए रे ।। १० ।। कद्र महाकछ रायरे, जेहनू जग जस गायरे । यशोमति सुनन्वर की सुन्दरता : ऋषफ विवाहलो तस कुतं श्ररी रूपे सोहेरे, जोतां जन मन मोहेरे ।। ११ ।। सुन्दर वेरणी विशाल रे, अधर शशि सम भाल रे । नयन कमल दल छाजेरे, मुख पूरण चन्द्र राजे रे ॥ १२ ॥ नाक सोहे दिलनु फूल रे, प्रधर सुरंग तगू नहीं मूल रे । धन धन कनक कलश उतंग, उदरे राजे श्रीबली भंग रे ॥ १३ ॥ बाहुलता लांबी लेह केरे, हाथे रातडि रुही झल केरे । 1 कुछ कदली सरखी चंगरे, पगपानी अलतानी रंग रे ॥ १४ ॥ रूपे रम्भ हवी रे, जेहने तोले रति पनाबे रे । प्रथम यशोमति नाम रे, बोजी सुनंदा गुण भभिराम रे ॥ १५ ॥ तेणे जइ विनबीया राय रे, हरयां अंतेर परिवार रे, ॥ ८ ॥ तेने रिवभ कुंअर परणाबोरे, मोकली मांस नरत करावो रे । एह विचार सभा मन भाव्योरे ततक्षरण वाह दूत चलावो रे ॥ १६ ॥ T वात सांभलता हरष न माय रे । सज्जन कोधो जय जय जयकार रे ॥ १७ ॥ कीधू विवाह वचन प्रमाण रे, चरतें प्राप्यु कुलट बान रे । येहेलो दूत जइने आव्योरे पाणी प्रहरण वषामणी लाब्योरे || जय जय रत्न कीरति मुनिन्द्ररे, पाठ कमल रवि कुमुदचन्द्र रे ॥ १८ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक एवं रत्नफीति : कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व पांचवीं डाल हवि साजन सह नहींतरीमा प्राध्या परवारे पररुरीया । इन्द्र प्राध्या तेध सप्त सता, सूर गुरुने साथे ससा ॥ १ ॥ विवाह मण्डप : पावी इन्द्राणी तरनारी, करे हास विनोद ते मारी। चारु मण्ड़प जन मन मोहें, बहू मूल चन्दु रुया सोहे || २ ॥ टोडे तलीमा तोरण ते लहे के, हेम यंभ तेजें बहु मलके । वेदी वारु करीने समारी, चोरी चित्र महा मनोहारी ॥ ३ ॥ दीशे चारु मोतिनि माला नाना रवणनो झाक मसाला । रभा रोपि मण्डपने प्रागलि, पवने फरके ध्वज अवलि ।। ४ ।। हवे जमणवार सांमल ज्यो, चित देह उरमा लोमा करज्यो । पोल्या घोषा कंचोले भरीया सकटं बासह नोह्र वरीमा ।। ५ ।। भांगणे मण्डप सुविशाल, रि च्यार पासे पटशाल । तिहां चतुर सोहासपी नारो, मांड्यां बेशरणां ते मह हारी ।। ६ ।। मोटा पाटला नहीं डग ङगता, सोहेते कीया वेपासे लगता । मांडी पाडणी रूपा केरी, थाली बावन पलनीसुनेरी ।। ७ ।। मूक्या रजत कंचोला पाणी, सोहे सखर सुनानी चलाणी । चारु विनय करि तेडाबीजे, चालो चालो असूरन कोजे ।। ८ || देव पूजीया प्रथम अंघोली, पाव्यु साजनु सहमली टोली। घर चित्र पीसाम्बर पेहेरी, हाथे भारी सोहे रूपेरी ।। पग धोई करीन लगते, बेट' साजन ते यथा गुगतें। ध्यार पीज भली परि बेठी, श्रीसवामि पदमनि पेठी ।। १०॥ विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन : पाप्यां हाथ परयालषा नीर, प्रीसे नारी नवल पेहेरी धीर । सांजां षांजा ताजा घी गसता, झोणो फीणी गेठा परिमलता ।। ११ ।। देल्लीहे समीहे इट्ठ, हीसे, वेसरणीये जलेनी प्रीसे । रदि लागे घेवरने दीठा, कोलहापाक पतासा मीठां ॥ १२ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ऋषभ विवाहलो दूध पाक चरणा सकरीया, सारा सकरपारा कर करीया । कोटा मोति थमोदक लावें, दलीया कसमसा भावे ।। १३ ।। प्रति सुरवर से बरु सुन्दर, श्रारोगे भोग पुरन्दर । श्री पापड़ मोठा तलीया, मुरी प्राला प्रति उजलिया ॥ १४ ॥ सीरे सरसीय राई दीघी, मेल्हे के अथाये कीधो । श्राप्यां केर काकड़ स्वाद लागे लिंबू जमतां जीभ रस जायें ।। १५ ।। नीलू मातीला छम काव्या, मूकी तेल भरी कम काव्या । लांबी चीरी करीने मोल्यां ॥ १६ ॥ रसनाइ भयो रसलीषो । श्री सोड़ां धणु करो खोल्या, रूडो राइये वधारते दोषो भगी श्रादाल्हो लबधरी, जमतां फली लागे सारी ॥ १७ ॥ वृताकनु शाक समा राई तुम धरे हहि वास्तू' । 1 लाचे सेवनु माई सटके, मांगा करतां नामें श्री मांडा मोटी मोठि क्षीर खाँड खोबा भरि भूके लेखे ।। १८ । खलके, भय डाबरिया ते झलके । पाली, जमे रसिया झबोलो भबोली ।। १e ती नेहमी वांकटाल्यो, मम गमते बड़े श्राक वाल्यो । लापसीये मन ललचाये, धारी पूरीयें नृपति न बायो ॥ २० ॥ भोग कमोनो र जीरा साल सुगंधतो पूर चोखी दाल सुव परिनी सोहे, टून सरषी पीली मनमोहे ।। २१ ।। वारु बाट राईत मतमतां, कढ़ी मांहि मरीचमचमतां । पाँका कूट जीरा सुं बघारयां, बीजां शाक ते भागलू हास्यां ॥ २२ ॥ सथरां वंही कातली मालां, बोलुया मोहि लवण जीरालः । दुध कढी प्रचलाणी भरीया, गले घट घट ते उत्तरीयां ॥ २३ ॥ चलु लोघांसह साये, मुख शुद्ध करी सली हाथ । श्राव्या मांडवे साजनु हसता. वारें बारे वारण ते करता || २४ ॥ खेर सार सोपारी ते रंग, पानएलची सखर लविंग । महि मुक्यू कपूर रास जिन प्रावे मोटे स्डो वास || श्राद्ध अनुम कीधी, नाभि राजायें प्राग्यना दीवी || ढा || २५ | Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्रः व्यक्तित्व एवं कृतित्व छठवीं ढाल जिन इन्द्राणीये नह्वारावीया, पछे कोषोरे बरने सिणगारके वर दारु सोभतो, ॥ १ ॥ प्राधिनाय का श्रृंगार माथे रेषू व भर्यो भन्नो, रडु नलवटेरें सोहे तिल के अपार के ॥ २ ॥ प्रांखिरे काजल सारीयां, गाले कोषलु रे रक्षानु इंधारण के ।। ३ ।। कांन रे कुडल झलकता, तेजे जितीबारे पूरण शशि भाण के ॥ ४ ॥ बाजु-प्रबंध विराजता, हइये लहेक तोरे मरिण मोतीनो हार के ॥ ५ ।। हाय बांदी सडी राखडी, प्रांगलीये रे घाल्या बेढबे च्यार के ॥ ६ ॥ के कगीदोरो बेसतो, पगे झांझरे करे रण झणकार के ।। ७ ।। सेहे जे रुप सोहामरण, बलीये हत्यारे बहु भूषण सार के ॥ ८ ॥ रूपेरे त्रिभुवन मोहीउ, हवे करीयेरे बनी धरणु सु बखाण के ॥ ६ ॥ इंद्र अमरी मलु साजनु, आडि चांदलोरे करे सजन सुजाण के ।। १० ॥ केशरनां करयां शेटणा, वली छोटेरे ते गुलाबना नीर के ।। ११ ।। फोफल पान पाये घरणां, मरदनी यारे नाले शीतल समीर के ।। १२ ॥ सातवों डाल इन्द्र प्रणान्योरे घोड़ली सोहे । पंचवरण वारु अंग ॥ रिषभ घोड़े चढ़े ॥१॥ विवाह के लिए घोड़ी पर चढ़ना जोवा मलीया छे प्रासुर नर बृन्द । रिषभ घोड़े चढ़े ॥ २ ॥ कनक पलाए विराजतु, जेर बन्छ अनोपम तंग ॥ रिषभ ।। ३ ।। चोकड ले चित चोरीयु, गेले रण भणकतो चंग ॥ ४ ॥ रंग विरंग सोली घणी, जग मोहे ते वाग प्रमूल ।। ५ ।। रत्न जड्यु मषीमा रड्यु वचे झलके सु' नाना फूल || ६ ।। शीस भरीरे सोहासरिंग, सोहे सुन्दर श्रीफल हाथ ।। ७ ।। इन्द्र प्रभूकरि लीधला, घोड़े सटक चया जगनाथ ।। || माथेरे छत्र विराजसु, हरि द्वाले चमर बेस पास ।। ६ ।। लुग उतारति वेहेनडी, सह विघन गया ते नासि ।। १० ।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ऋषभ विवाहलो एरावण सण नारियो, चाल्यो भागल झाक झमाल ॥ ११ ॥ कोटेरे घटारण कति बाजे, घम श्रम चूषर माल ।। १२ ।। अमर अमरी नाचे रंगसू, माहो मांहि करै पपी केलि ॥ १३ ॥ गंघव राग करे घरणा, वाजे ताल-परवालज म दग ॥ १४ ।। बांशलि' वेग मनोहर वाजे नाना छन्द सुरग ।। १५ ।। ढोल दमां मारे गड़ गई, रुड़ा सारणाइ नासाद ॥ १६ ॥ वाजे पंच सबद ते सोहामणा, प्राहे तबलन फेरीना नाद ।। १७ ॥ भूगल मेरी मदन भेर, ते सांभलतां सुख थाय ।। १८ ॥ भाट भणे धीरदावली, स्यारि दान अनेक देवाये ॥ १६॥ रंग विरंग वे साजनु, तोहं साबे लांनो पार ।। २०॥ इम उछप करताते घणो, वर प्रावीयो तोरण बार ।। २१ ।। दोखी उलद मन मों घरे, बहु भव्य कुमुवचन्द्र राय ।। २२ ।। पाठवीं ढाल विवाह मोड़ इन्द्राणीए बाधीयोए, नोमालीरे पोकीमा परषीया देव । साहेलीयेपों कीया पारधीया देव, नाफ साही वर निरखीयोए ।। १ ।। घाट घाल्यो तत क्षेव, मांहि दामाहि वेसारीए ॥ २ ॥ अन्तर पड़धरु जाम, कन्या बेसारिए बीजटिए ॥ ३ ।। लगन वेला अइ नःम, सकल प्राचार गुरुयें करयोए ।। ४ ।। काली गाँठी सांवधान हस्ते' मेला .. ....... वह्वोए ।। ५ ।। कीधा अवर विधान, देव याजिश्च ते वाजीयाए । फुलनी वृष्टि अपार गीत गाये सुन्दरी ए॥ ६॥ सुर करे जय. जयकार, चोरीये रीति सह कोषलीए । वरती मंगल च्यार, विनम वारु कस्यो जुग सिसुए ।। ७ ।। आपोयो अढलिक दान, लोक व्यवहार ते सहु को ए॥८॥ सज्जन दीघलां मान, अधिक माडम्बर श्रावीना ए ॥ ६ ॥ बहुयर मापरणे घेरि, मनना मनोरष सह फल्याए ।।१०।। उधव थयो भलिपेरि, इन्द्र उछव करि घरि गयाए ।। ११ । मन माहि हरष न माय हास विनोद करे घणाए ॥ १२ ॥ राज्य करे जिन राय, वाहेलोये कोया, परधीया देव ।। १३ ।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्ननीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नवीं डाल पादिनाथ का परिवार पाले अनूपम न्यायरे जोन्हा सेवे सुरनर पाय | परिण भुवन जस गायके, अभिनवो राजीयोरे ।। १॥ भोगवे मनोहर भोगरे, नाना विध सुख संयोग । घन घन कहे छे सह लोग के. जगे जश गाजियोरे ॥ २ ॥ बसोमतीये जाया पुत्ररे भरतादिक सो सुचित्र।। ब्राह्मी तनया पवीत्र के, जगमाहि जाणीयेरे ॥ ३ ॥ बाहुबली बलवन्त रे, सुन्दरी बेहनें सोहंत । जनम्यो सुनन्दामें संतके, रूप घरवाणीयेरे ।। ४ ।। सेवे त्रिभुवन सर्व रे मन माहि न घरे गर्व । ध्याशी लाख पूरव के, व्येल्या भोगसु ए ।। ५ ।। चिन्सन एवं वराव एक समयते भूपरे, दीखी नीलजश रूप । जाणी प्रथिर सरूप के, मन घयुं योग स्यु रे जी ।। ६ ।। धिग घिग एह संसार रे, बहु दुस्ख तणो भण्डार । जुठो मल्यो सह परिवार के, को केह नहीं रे ।। ७ ।। राज्ये नहिं मुझ काज रे, सुक्रोजे सेना साज । भोगे त्रपति न घाज के, लग ऐवनी सहीरे ।। ८ ।। क्षण क्षरण। स्टे पायरे, योवन राख्यु नवि जाय । स्यु कीजे महीराय के, तणी पदवो मलीरे ॥६॥ काले पडसे कापरे, नहि रासे बापने माय । न बसें कोई सहाय के, नरक जतां वली ।।१०।। नाना योनि मझार रे, भमीयो भव धरणी एक बार । न लह्यो धर्म विचार के, लोभ न पर हरर्यो रे ॥ ११॥ नहीं पालो व्रत आचार रे, जीव कीधा पाप प्रपार । विषय वनधो गमार के, हा हुतो फरर्यो रे ।। १२ । इम घरी मन वैराग रे, कर्यो मोह तणो परित्याग। कोसु लाग न' भाग उदासी जिन भयो रे ।। १३ ।। भरत ने प्राप्यू राजरे, महिपतिनु मुक्यु' साज । चरित्र लेवाले फाज के, प्रखय बड़े गयारे ॥ १४ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ विवाहलो नसी हाल तपस्या च्यार हजार राजस्युए, मास्हंतो लीधलो संयमचार। सुणे सुन्दर, लीधलो संयमभार || १॥ राज मुक्युवरा' लोकनुए ॥ मा ॥ सफल कीयो श्वतार || सु ॥ २ ॥ प्रावीणा इन्द्र पाणंद सुए || मा ।। सुर करे जय जयकार || सु ।। ३ ॥ जय जग जीवन जग धणीए |मा ।। जय भय सागर तार || सु॥४॥ श्रीजु कल्याणक तपत तणुए । मा ।। करि गया हरि सुरलोग ॥ सु ॥ ५॥ संयम लेइ छमासनोए ॥ मा || लीघलो स्वामीये योग ।। सु ॥ ६ ॥ पारणें भामरें उताऱ्याए । मा ।। कोइ न जाणे प्राचार | सु ॥ ७ ॥ इम करतां छह महीना मयाए । मा ।। नहीं मलें शुद्ध माहार ।। सु।। || एकदा द्वेचरी ने गयाए । मा । श्रेयांस राबने धामि ।। सु ॥ ६ ॥ प्रांहारनी प्रगति दीठी भली ए, तिहां रहा जिभुवन स्वामि । एक बरसें कर्ये पारणु' ए, ईक्षुरस प्रमीय समान ॥ १०॥ भाहार लेइ माहार जिनवरे कर्यु ए ॥ मा।। रुयडलुपक्षयदान ।सु ॥११॥ श्री जिनवर पछे वने गया ए ॥ मा | योग लीयो अणफाल ।। सु ॥१२॥ बार प्रकारे तर करे ए ।। मा || जिम माहारनु यू गति दीठी ॥ १३ ॥ तिहो रह्या त्रिभुवन स्वामी सू टल' कर्म जंजाल ।। १४ ।। ध्यान घरे अति नीमलुए ।। मा । प्रचलमन मेरु समान || सु ॥ १५ ॥ कैवल्य प्राप्ति घातीया कम्मनो क्षय करीए ॥ मा ।। अपनु केवल ज्ञान ।। सु ॥१६॥ समोसरण अमरें 'रच्युए ॥ मा || बार सभाने सोहंत । धर्म उपदेश दे उजलोए । मा || सुरनर चित मोहंत ।। सु ॥१७॥ निर्वाण विहार करीने संबोधायाए ॥ मा ।। मव्य प्राणी तणा व ॥ सु ||१८|| प्रबल अष्टापदे जाइ चढ्याए ।। मा ।। केवली प्रादि जिनेंद्र ।। सु ॥१६॥ तिहां जई स्वामीयें टालीयुए । पाकता कर्म नु नाम ।। सू ॥२०॥ निर्वाण कल्याएक सुर करु'ए ।। मा || पामीया मुगति वर ठाम ॥ सु ।।२१।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक ररनकौति एवं कुमुदचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व १७३ रचनाकाल एवं रचना स्थान : संवत सोल अठ्योतरे ए॥ मा ॥ मास प्राषाढ़ धनसार ।।२२।। उजली बीजरनीयां मरीए । मा ।। अतिभलोते पाशिवार || सु ॥२३॥ लक्ष्मीचन्द्र पाटें निरमलाए । मा ।। अभयचन्द्र मुनिराय ॥ सु ।।२४।। तस पदे अभयनन्दि गुरुए ।। मा ॥ रत्नकीरति सुभकाय ॥ सु ॥२५॥ कुमुदचन्ने मन उजलेए ।। धोधा नगर मझारि ॥ सु ॥२६॥ रिपन विवाहलो कोषलोए ।। मा ।। सीखसेजे नर नारि ।। सु ॥२७॥ तेहने घरे पाणंदह स्येए ॥ म! ।। पोहोचसे मनतणी प्रास ॥२८॥ स्वर्ग तणा सुख भोगविए । मा || पांमसे मुगति विलास ।। सु ॥२८॥ इति ऋषभ विवाहलो समाप्त । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ का द्वादश मासा भाषाढ़ मास : मास प्रासाद सोहामणो जी धन बरसे घोर अंधकार जी। नीदयें नीर बहे घणा वारु मोर करे किंगार जी ।। १ ।। मंदिर प्रानो मोहन मुझ उपरि घरिय' सनेह जी एकलड़ी धरि किम रहु माहरी पल पल छोजे देहजी ॥ २ ॥ सावन मास : श्रावण नाले सरवड़ा त्यारि थर थर धूजे शरीर जी । राति अंघारि भूरता किम करी मनि धरी धीर बी। मंदिर ।। ३ ।। मापन मास: भाद्रबड़ो भरि गाजियो लवे बीजली वारी बार जी । त्यारि सांभरे थारो धार जी त्यारि समिरे प्राण प्राधार जी ॥४॥ प्रासोज भास : पासो दिवस सोहामणो, नहीं कादवनो लवलेश जी। वाटलड़ी रलिया मणी, किम नाविया नेम नरेश जी ॥५॥ कात्तिक मास : कातिय विन दिवालिना सखि घरि-घरि लील विलास जी । किम कर कंतन प्रावियों हस्यु' करिये घरि वासि जी ।। ६ ।। मंगसिर मास : मागशिरे मन नवि रहे. किमरि मोकल' संदेस जी। मनि जाणू जे जई मिल, घरि योगण करो वेस जी ।। ७ ।। पोष मास : पोसिउ सपड़े घणी पीउडे माग्यो तप सोस जी। कोणस्युरोस घरी रहुँ, करमने दीजे दोस जी ॥ ८ ॥ माथ मास : माहि न पाणी मोहनी. क्रिम निकोर थया यदुराय जी । प्र में पधारो पम्हणा, हूं लागु ९ लालन पाय जी ।।६। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एव कृतित्व श्रावण मास : फागुण केस फलियो नरनारी रमे वर फाग जी । हास विनोद करे घरणा, किम नाहें धर्मो वेराग' जी ॥ १० ॥ चैत्र मास : कोयलड़ी टूहका करे, फल लहे अम्बा डाल जी । चैत्रे चतुर चित चालिये, किम तजीइ अबला काल जी ।। ११ ।। वैशाख मास : वैशाखें तड़को पछे लयु, दाझे कोमल काय जी। ते मादियाउ धारिये एह योवन्या दिन जाय जी ।। १२ ।। जेठ मास : नीट जेठोडी नथि रहे, धरि पबियडा सहु आवे जी । नेमि न भाव्या क्रिम कर, मुन्हें धरियण न सुहाये जी ॥१३॥ उजल जिन जर मल्या, रह्या ध्यान विषय चितलायजी। जय जय रत्नकीर्ति प्रमु, सूरी कुमुदचन्द्र बलि जाय जी ॥ १४ ।। { ४ ) नेमिश्वर हमची श्री जिनवाणि मनि घर रे, नापो वचन विलास । नेमिकुमर गुण मायस्यु तो, हैडे धरी उल्हास !| हमचडी ।। हमचड़ी हलि हेलि रे, घरि करिये नवरंग केलि । राजमती वर नमिकुमरते, गातां मनि रंग रेलि रे ।। १ ।। हमची हमची सहिय साहेली, पाचो करि सिंणगार । समुद्र विजय सुत रंगे माइये, जिम तरीये संसार रे ॥ २ ॥ सोरठ देश सोहांमयो रे, वन बाडी पाराम । गोधन कलि करता दीसे, रधिया रुहा गांम रे ॥ ३ ॥ निरमल नीर भर्या ते सरोवर, फुल्यां कमल मपार । परिमल ना लीघा ते भमरा, उपरि करें गुजार रे ॥ ४ ॥ सुन्दर सोहे सारडा रे, बगला बेठा टोले। हंसा हंसी केलि करंता, चकवा चकवी बोले रे ॥ ५ ॥ वाटलडी रलिया मणी रे, पंथियडा पंथि पाले। सयत सीस सोहामणी तो, अगमतुं नहीं चाले रे ॥ ६ ।। से मांहि नवरंगी नगरी द्वारयती वर ठाम । गढ मढ मंदिर मालियां, तो निरखंता अमिराम रे ॥ ७ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ नेमिश्वर हमची जेहनें पासें सागर राजे, गाजे कुल कल्लोल। मरिण मोती पर वाली भरीयो जल चरना भक झोल रे | ८ ॥ राज करे तिहां राजीयो रे, रूपे रति भरतार | सालियो बलियो अति, कलियो पातलियो सकुमाल रे ।। ९ ॥ त्रण्य खण्ड नो रिपो ज्ञापो, नारायण तस नाम । बलभ बन्धन मनी सोहे, सोभागी गुण घांम रे ।। १० ॥ नेमि जुबरम परंतां, क ना सु : अहं निसि गीत विनोद यह ता, धडियन के पास रे ॥११॥ बमकोडा के लिए माना तेह तणी रमरगी सुर रमणी सारखी सोलह हजार । तेहस्यु हास विलास करता, सफल करे अवतार रे ॥ १२ ।। पहेवे शरद समे ते पायो, खेले प्रवला बाल 1 निरमल कमल-कमल बन सोहे, बोले बाल मराल रे ॥ १३ ।। त्यारि नैमि कुअर कान्हुयलो, बलग हलधर हाथि । सत्यभाभा राहीने खमणी, प्रतेउर सह माथे रे )। १४ ।। वन क्रीडा करवाने चाल्या, वाटे रमता रहेता । मनरंगे मनोहर नामे, कमला कर जई पुहता रे ।। १५ ।। झटकस्यु झीली नि कलिमा नेमिकुवर ने पहेला। मोतियडु नानी ने पहेर्या बीजा यंबर हेलारे ॥ १६ ॥ हसता हसता टोलि करता नेमिकुमर महाराजे । पोतीयहूनी चोवा पाप्पु सत्य भामा ने कांजेरे ॥ १७ ॥ ते तो रोस करनी बोली, सत्यभाभा अति गहेलो । एवह होसू न कीजे मझस्यु हूँ पटराणी पहेली रे । १८ ॥ जेणे सारिंग धनुष चढाध्यु, हेला शंख बजाइयों। नागतरणी सेजड़िये सूतों, नागिनहीं बीहाल्यो रे ।। १६ ।। तेहनू पोतीयडु नीचौऊ अथर न जाए कोई । मोटा सरिसू' मान न फीजे, मनस्यु विमासी गोई रे ।। २० ॥ नेमिकमारे सांभलीयू रे, तेहनू बचन अटारू । मनस्यु एह विचार कर्यो जी, एहनु मान उताशे रे ॥ २१ ॥ तिहाँ थको ते पाछा बलिया प्राध्या नगर मभारि । नेमियुर प्रायुधशालाई पेठा मच्छर भारि रे ।। २२ ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मिमाय द्वारा शस्त्र बल दिखामा सटके धनुष बहाव्यु लटके, नाग शय्या सूता । पूरयो शंख निशंक करीने, लोग करया भय भूता रे ।। २३ ।। तरु कटू कडीया गोपुर पडिया गई मोटा गड गडिया । भट भउ भडिमा भय लड़ लिया, दो गति दब बड़िया रे ।। २४ ॥ गिरि थर हरिया फरिण सल सलिया कायर ते कारण कणिया। सुर खल भलिया ससि रवि चलिचा, सायर ते झल हलियारे ।। २५ ॥ कुमार मार मारा, 41: ल नाट। हण हणता यबर ते छुटा माता मयगल बाठा रे ॥ २६ ।। राज समाई बैटो गमा, सभिल ने कल मलियो । नगर विष कोलाहल करीमो कोण महीपति बलिगोरे ।। २७ ।। तेहन वचन सूरणी बलभद्र मल तो उत्तर दीधी।। सत्यभाभा ना बचन थकी ए, नेमिफुमारे कीधु ।। २८ ।। त्याहारि ते मन माहि संक्यो कीमो मनस्यु विचार । राजा प्रहमारु' लेस्ये बलियो, करस्ये मान उतार रे ॥ २६ ॥ बलता हलधर बंधव मोल्या ए राजेस्यु करस्ये ।। वर वेराग तरण ए कारण, पामीय संयम लेस्यै रे ।। ३० ।। ते सामलीने मनस्यु रचीयो संयम लगा संच । उग्रसेन कुअरिस्यु कीघो, तस ह्वीला परपंचारे ॥ ३१ ।। घरि आबीने मण्डप रचियो सज्जन सादर करीया । अप्पन कोडि यादव नो हतरिया परिवारि परिवारिमा रे ॥ ३२ ॥ जमगणवार कोघी ते युग ते, संतोख्या नरनारी । जान जवाने काजि हवी, नांदरणी सिणगारि रे ॥ ३३ ।। राजमाती का सोन्दर्य रुपे फूटठी मिने झूठडी, बोले मीठडी वांगी । विदम उठड़ी पल्लष गोठडी, रसनी कोटडी वरवाणी रे ॥ ३४ ।। सारंग वयणी सारंग नपरणी, सारंग मनी श्यामा हरी। लंकी कटि भमरी बंकी, शंकी हरिनी मारिरे ॥ ३५ ।। सिंथडलो सिंदूर भरियो, केसर टोला करिया 1 पानतणी बीडीयें मुखडा, भरिया ते रंग बरिया ।। ३६ ।। झग मग कांनि झालि झबूके, उनिया नग जटिया । अवला सबला नाग वलाया, सदर सुनें घडियां रे ।। ३७ ।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैमिश्वर हमको सार पदकडी कछु कोठडी, मोटडी फूली फाये । सेस फूलन मूल न थापे, सिंघडलो सोहावेरे ।। ३८ ।। भूमकड झमके ते झांझ, जोता मनडु मोहे । वाक बोटी मिली अंगूठी नल पट टोली मोहेरे ।। ३६ ।। पकली पीला रत लिया मापसिया मचकाला। मोती केरो हार मनोहर भूमकडा लटका लारें ।। ४० ॥ राखडली रदियाली जालि जोता है? हरवी । स्त्रींटलाडी मोटल डीराली, खते, जोवा सरीखो रे ।। ४१ ।। हाथे चूडी रंगे रुडी, काकरण चांगण चोटा । बाहोडली सरीखा बेहरखड़ा, मलिया बलिया मोटा रे ।। ४२ ।। कर करि यालिका रेली रे, मोरली मोहन गारी। मारिणक मोती जडी मनोहर बेसरनी बलिहारी रे ।। ४३ ।। धम बम धम के घुघरडारे, बीछीमडा ते वाजे । रमझम रमझम झांझर झमके, का बीपल के राजे || ४४ ।। किसके पहेरा पीत पटोली नारी कुबर चीर । किसके पाछां छापल छाजे सालू पालव हीर रे ॥ ४५ ॥ किसके अमरी रंग सुरंगी किसके नीला कमषा । किसके धुनडियाला चमके किसके राता सरिषा रे ।। ४६ ।। किसके पहिरण जाद रचायो किस के चोली चटकी। किसकी अतलस उधी उपे, रंग तो ते कटको रे ॥ ४५ ॥ किसकी चरणा धरियाला, किसका वे' वषीयाला । किसका कमल बना कनियाला, किसका ते मतियाला रे ॥ ४ ॥ मयगल जिम मलयती वाले, कोयल सादें गाये। धबल मंगल दीये मनरंगे, मुनि जनवि चलावे रे ।। ४६ ।। बारत का प्रस्थान हरवर गयवर रथ सिणगार्या, पायक दस नहीं पार । बाकी वहेले हरि जोतरिया, चंग तरणो झरणकार रे ।। ५० ।। पालखड़ी चकडोल' सूखामण बेक्षा भोग पुरन्दुर । चाली जाँन कर्यो आइबर, मलिया सुरनर किन्नर रे ॥ ५१ ।। समुद्रविजय सिब देवी राणी, हरि हलधर सह मोहे। नेमिकमर ने परणादानां भरिया ते उग्राले रे ॥ ५२ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भट्टारक रत्नोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नेमियर हाथीयडे चढिया, माथे खुप विराजे । कांने मणि कुउल देखौने, वीर जनीकर लाजे रे ।। ५३ ॥ बेनडली बेठि ते पासें भाभण्डां उतारे । रूप कला देखी ने जेहनी, रविपति हैडे हारे रे ॥ ५४ ।। गाये गीत सोहामरिण रे, दीये वर पाशीस । जय जगर्जीवन बर जय जग नायक, जीवो कोडिबरीस रे ।। ५५ ।। धन धन मात पिता से धन धन, धन धन यादव वश | जिहां जग मंडण पत्र 'मय उन, अवतरिया जिन हंस रे ॥ ५६ ॥ हमके ढोल दमामा मद्दल, सरणाई वाजंत । पंच शब्द भेरी न फैरी, नादि नभ गाजत रे ।। ५७ ॥ घाटि हास विनोद करता, चाल्या यादव वृद।। वहेला जई जूनेगढ पहोता, सज्जन मन पाणंद रे ।। ५% || उग्रसेन आदरस्यु' साहमू कीधे ते मल मासे । लाजते माजते घारू पहोता ने जनवासे रे ।। ५९ ॥ धसम सती पाई ते त्याहारि साधे सहीप र वाल्ही । गोखि बढी ते वन जोवाने, राजामतीमानि झाल्ही रे ।। ६ ॥ बरात देखने को उत्सुकता राजमती बोली ते त्याहारि, सांभलि सहीयर मोरी रे । जो तु नेमिनुअरि देखाडे, हूं बनिहारि लोरी रे ॥ ६१ ।। पामर छत्र टलेबे पासें रूपे मोहन गारो। हाथिडा उपरि जे बैठो उपेलो वर ताहरो रे ॥ ६२ ॥ राजीमती ने वचन सुशीने, साहमू जोवा लागी । नेमिकुमर वर देखि हरषि,प्र मे मनस्य॒ जागी रे ।। ६३ ।। त्यारि ते तेडाची माये 'राजीमती न्हवरायी। सरणगारी सहूंने मन गमती, रूपे रंभ हावी रे ।। ६४ ॥ तेहवे तेज मणी प्रांखडसली बहेल कदेतां मटकी ।। राजीमतीना मन माह ते बारे बारे मटकी रे ।। ६५ ।। जेहवे लगन समय थमो जारणी, हरष सह हल फलिया । नेमिकुअर परणका चढिया, साहह्मासोनी मलिया रे ।। ६६ ।। से देवी संका ता बाल्या, मन मांहि बस चम्निया। प्रामलि श्री पाढेगां गरता, रडता पशुओं सांपलिया रे ।। ६७ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिश्वर हमची वाडि भरी राख्या ए स्याहने, पूछु ते जग धीशों। ता गोखनें कारगि स्वामी, ते सघाला मारीसेरे || ६८ ।। तहन' वचन सूरणी ने स्वामि, मन माहि कल मलिया। धिन धिग परणे व ने माथे नेमिजी पाछा वलिया रे ॥ ६६ ॥ मेमिनाथ का राग्य मन माहि बेराग धरीने, मूक्यों सह संसार । नेमिकुयर संयम लेवाने, जई चडिया गिरनारि रे ।। ७० ॥ सहसा वन मां संयम लीधू, की प्रातम काज । त्यारि तप कल्याणक कोषु प्राध्या ते सुरराज रे ।। ७१ ॥ कोलाहल बाहिर सामलिने, सुसु करती रही । प्रछी सजनी वल तु बोली, नेमि गया गिरि रूठी रे ।। ७२ ।। तेरे बचने पुहवीतलि, लोटे जंग अछाडे । हेलताडे चोली फाडे, रहती गढि बाडेरे ।। ७३ ।। राजुल का बिलाप रोसें हार एकाबल प्रोडे, चटमें चूडी फोडे | कंकरण मोडे मन मचकोडे, प्रापण पूव खोडेरे ।। ७४ ।। के में प्रगल पाणी नाल्यां, के तर चोडी डाल । साधु तशी निंद्या में फीधी, जूठा दीधा माल रे ।। ७५ ॥ के में रजनी. भोजन कीधा,के में उबर खाधा । के में जीव दया नहीं पाली, बन माहिं दव दीघा रे ।। ७६ ।। के में बहुयर बाल विछोहा, के में परधन हरियां । कंद मूलना' बख्यण करियां कि मे व्रत नहीं धरिया ॥ ७७ ।। के में कूड़ा लेख! कीघा, खोटी माया मांडी । छाना पाप करयां ते माटे, नेमि गया मझ छाडी रे ॥ ७८ ।। इम कहेती लडपडती पटत्ती, प्रडवलती वल वलसी । प्रग बलू रे मनस्यु' भूरे, प्राखि प्रांसू ढलती रे ॥ ७९ ॥ लावी नहीं बोले बाला रातिपण नवि सूये । मनुस्य भूख तरस नहीं वेदे, जिन जिन जपति रोवे ।। ८० ।। फिम करी दिननि गमस्युपीजडा तुम पाखि कम करस्यु । जिम जल पाखे माछल डी तिम विलखी थइने मस्यु रे ।। १ ।। वाडि बिना जिम मेलि न सोहे, अ बिना जिम वाणी । पंडित विन जिम सभा न सोहे, वामल बिना जिम पाणी रे ।। २ ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १८१ राजा विण जिम भूमि न सोहे, चंद्र विना जिम रजनी । जीउडा विन जिम प्रबला न सोहे, सांभलि मोरी सजनी ॥ ३ ॥ ते त्याहिरि सजनी ते बोली शोक न कीजे गहेली। एह थी रुडो वर पररणाबू उठिखूसो था वहेली रे ।। ४ ।। राजीमती वल चौते बोली. फटि मुंडीस्यु बोली। नेमि विना नर संघला बीजा, माहरे बंधव तोले रे ॥ ८५ ।। सहीयर सहू समझावी थाकी ते मनमा नवि भावे । उजल गिरि जई संयम लीधु, ते संधलों जगि जाणे रे ॥ ८६ ।। राजीमति ते व्रत पाली ने, पहोसी स्वर्ग दुवारि । नेमि पिनेश्वर भुगति गया ते, कुमुदचंद्र जयकारे रे ।। ७ ।। भट्टारक श्री कुमुदचंद्र कृत श्री नेमिश्वर हम'ची गीत समाप्त राग मादरणी गीत : गीत नेमजी ने बालो रे भाई, जादव जीने वालो रे भाई ॥ हु तो योवन भरि किम रहेम्युरे, बस्ति विरह तणां दुख सहेस्यु रे । घरि कोरण थकी सुख लहेस्यु रे, हसी बात को जइ कहेस्युरे॥१॥ तह्म जू जू मनस्यु' विचारी रे कोई नारि तजे निरधारी रे। पूछो वाटे जतां नर नारी रे, कोई कहेस्ये ए बात न सारी रे ॥ २ ॥ तु तो बण्य भुवन केरो गणो रे, रखेरी सहयामां प्राणो रे । अह्मस्यु एवछु तन्हा ताणो रे, भी दासी तह्मारडी जाणो रे ॥ ३ ॥ जूउ भावे छे यादव राय रे, बली रोवे शिवा देवी माय रे । बिलखी थई पूठई घाय रे, वछ तुझ बिना में न रहे वाय रे ।। ४ ।। तो मोहन दीनदयाल रे, तो जीबन दया प्रतिपाल रे । किम छांडों छो प्रवला बाल रे, इणि वाते देसे मझुगाल रे।। ५ ।। तो जग जीवन प्राधार रे, ती मन बांछित दातार रे । ताहरा गुणनो न लाभे पार रे, ताहरा वचन सुधारस सार रे ।। ६ ।। ताहरा सुरनर प्रणमें पाय रे, ताहरु नाम योगीश्वर ध्याय रे । ताहरा गुए इन्द्रादिक गाय रे, सूरी कुमुदचन्द्र बलि जाये रे ।। ७ ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ पद एवं गीस राग सारंग : सखी री अब तो रह्यो नहिं जात ॥ प्राणनाथ की प्रीत न विसरत, क्षुनु क्षुनु क्षीजन गात ।। सखी री० ॥११॥ नाहि न सूख नहीं तिस त, परहि माहि पुरयत। मन तो उरम रह्यो मोहन सु सोबन ही सुरझात ।। सस्त्री री ||२|| नाहि ने नींद परती निनिवासर होत बीसुरत प्रात । चन्दन चन्द्र सजल नलिनीदल मंद मरुत न सोहात !। सखी री || मह प्रांगन नु देख्यो नहीं भावत दीन भाई विललात । विरही वाउरी फिरति गिरि, गिरि 'लोकन ते न लमात ।। सखी री॥ पीउ बिन पलक कल नहीं जीसन रुचत रसिक जु बात । कुमुदचन्द्र प्रभु सरसदरस कु नयन चपल ललचात || सखी री || राग सारंग : (७) किम करी राम्नु माहारु मन्न । जिन तजी गयो रे सेसा वन्न ।। मयण वृथा मुन्हे अन्न न भावे, सामलिया वीण झूरू । आसडली मुन्हें नेम मलानी कोण जुगति करु पुरु ।। किम ।।१।। भूषणभार कर अति अंगे, काम कथा न सहाबे। कुमुदचन्द्र कहे लेम करो जेम, नेमि नवल घर पाने || किम० ॥ २ ॥ राग मलार: पालीरी पा वरला रित प्राजु पाई। पावत जात सरली तुम की तह, पीज प्राव न सुध पाई ।।प्रा०।। १ ।। देखीत तस भर दादुर घरकार, बसत हे झरलाई । बोलत मोर पपईया दादुर, नेमि रहे कत छाई । प्रा०|| २ ।। गरजत मेह कूदीत अरु दामिनि, मोपे रहो नहीं जाई। कुमुदचन्द्र प्रभु मुगति बधुसु, नेमि रहे वीरमाई मा०॥ ३ ॥ राग मिदनारायण: प्राजु में देखें पास जिनेन्द्रा ।। टेक ।। सावरे गात सोहामनी मूरत सोभित सीस फलंदा ॥आजुन १ ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २/कमठ माहामद भंजन रंजन, भविक चकोर सुचन्दा । १/पाय तमोपह भुवन प्रकासक उदित अनूप दिनंदा ग्राजु०।। २ ।। भुषिज दीजिपति दिनुज दिनेसर सेवित पद परवेंदा । कहन' कुमुदचन्न होस सबे सुख, देखत वामानन्दा ॥प्राजु०॥ ३ ।। राग भैरव: बम जय आदि जिनेश्वर राम, जेहने नामे नव निषि थाय । मन मोहन मरदेवी मल्हार, भवसागर उतार पार ॥जय०॥ १ ॥ हेमवरण अति सुन्दर काय, यरसण दीठे पाप पलाय ||जय० ॥ २ ॥ युगमा धरम निवारण देव, सुपर किंनर सारे सेद ॥ ३ ॥ दीनदयाल करे दुख दंद, कुमुद चन्द्र बादे भारद ॥जय०॥ ४ ॥ राग भरन चन्न वरण वांदो चन्द्रप्रभ स्वामी रे। मन्द्रवरण पंचम गति पामीरे ॥ १ ॥ मोह महाभट मद दल्यो हे लार । काम कटक माहि कीधा जेणे भेला रे ।। २ ।। विघन हरण मन वांछित पूरे रे। समऱ्या सार करे अध चूरे रे ।। ३ ।। घोघा मण्डन चन्द्रप्रभ राजे रे । जेहनो जस जग माहि वारु गाजेरे ।। ४ ।। परम निरंजन सुर नमे पाय रे। कुमुदचन्द्र सूरी जिन गुण गाय रे ॥ ५ ॥ राम कल्याण: (१२) जन्म सफल भयो, भयो सुकाज रे। सन की तपत टरी सब मेरी, देखत लोप पाम प्राजरे जम्मा १ ॥ संकट हर धीपास जिनेसर, वदन विनिजिते रजनी राज रे ।। अंक प्रनोपम अहिपति राजित, श्याम वरन भव जल धिपान रे ।। २॥ नरक निवारण शिवसुख कारण सब देवनी को हे शिरताज रे । कुमुदचन्द्र कहे वांछित पूरन, दुस्ख चूरन ही गरीबनिवाज रे || ३ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ पद एवं गीत राग कल्पारा; (१३) चेतन चेतत किउंचावरे। विषय विषे लपटाय रझो, हा दिन टिम छीजत जान पायरे !! १ ।। तन धन योवन अपल सपन को, योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे ।। काहे रे मूड न समझत प्रज', कुमुपचन्द्र प्रभु पद यश गाउ रे ॥ २ ॥ राग कल्याण धरी: थेई थेई येई नृत्यति अमरी, धुथरी सुधमकार । भभरी अमर गण नचावे । सगम धुनि सुसप्त स्वर विराज सग रंग। तान मान मिलित वेणु बंसरी बजावे ॥थई।। १ ।। घुघुमि धुधुमि ध्वनी मदंग चंग तालवर उपांग । श्रवण अति सोहावे ।। जय जिनेश नत नरेश शची सुरचित चार वेण । __देश देश कुमुदचन्द्र, वीर ना गुण गावे ।।थेई।। २ । राग कल्याण पर्चरी : वनज वदन रुचिर रदन काम कोटिरूप कदन । श्रुणु सुवचो रटति राज नन्दनी ।। वनज' ।। १ ।। स्वीकृतं यदि तज्यते यद्भवति कि कुल धर्म एष इति । मुदा निधान तदनु मन्द स्कंदीनी । कृपा कुप बिनत भूप प्रिया धुनानु गलतां । कुमुदचन्द्र स्वामी मुदा सुधा स्पंदनी ॥ २॥ राग कल्याण चर्चरी : श्याम वरण सुगति करण सर्व सौख्यकारी ॥ इन्द्र चन्द्र मानन्ध वन्द चार चचरी की चुबित चरणार'द पाप ताप हारी ।।श्माम।। १ ।। सकल विकट संकट हरन हेस तट । सुहर्ष कारण शेष अंक धारी ।। पास परम पास पूरी कुमुदचन्द्रसूरी। जय जय जिनराज तुभववारि राशि तारी ।।श्याम।। २ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एव कुमुद चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १५ राय देशाख: प्रास्यरे इम कीधु माहरा नेमजी पण समझे किम जाय । तोरण बढीने पाया बलतां लोक हसारत थाय ||मांचली।। १ ॥ अझने पास हृती मतिमोटी, नैमिकुमार परणीये । मास अधमास इहां राखीने, मन गमतु' ले करीस्मे ||प्रा०॥ २ ॥ श्रापासे अति उची मेडी, पालि छे हाट श्रेणी । ते उपरि थी नगर तमासो, जो इस्ये जालिये हेरी ॥ ॥ ३ - बोली टोली टोल करता गीत साहली माये । हास विनोद कथा रस कहे तां, दिन जातो न जगाइ प्रा०॥ ४ ॥ प्रावो प्रावो रे मोहन मंदिर माहरे, रोझ मन माहरु । घालेक प्रांखहली मचकावत सूजाये छे ताहरु -प्रा० ५ ॥ तह्मने सू वलि वलि बीनबीइ तम्हे छो अन्तरयामी । रहो रहो रसिक बलो तुहा पाछा, कुमुदचन्द्र ना स्वामी या ६ ॥ राग धन्यासी : में तो नरभव बाधि गमायो । न कीयो तप जप व्रत विधि मुन्दर । काम भलो न कमायो ।.मैं०॥ १ ॥ विकट लोभ त कपट कट करी । निपट विष लपटायो। विटल कुटिल शठ संगति बेठो। साधु निकट विघटायो 11मैं तो०॥ २ ॥ कृपण भयो कसु दान न दीनो। दिन दिन दाम मिलायो ।। जब जोवन जंजाल पड्यो तब | पर त्रिया तनु चित लायो । मैं तो०॥ ३ ॥ अन्त समे कोउ संग न प्रावत । झूठिहि पाप लगायो । कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोहि । प्रभु पद जस नहीं गायो ।म तोमा ४ ।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ राग बन्यासी : प्रभु मेरे तुम कु एसी न चहीये || सघन विन घेरत सेवक कु । विधन हरन सुख करन सबनिकु । ( १६ ) हम तो हाथ विकाने अशरण शरण अवन्धु बन्धु । राग परयासी : मौन धरी किच रहीये ॥ प्रभु || १ || चित चिन्तामनि कहीये ॥ तो फुनि कुमुदचन्द्र कहे शरणागति की । राग श्री राग : कृपासिंधु को बिरद निवद्दीये ॥ प्रभु || २ || प्रभु के 4 अब जो करो सोई सहिये || ( २० ) आजु सबनी मिडू बड़भागी। लोडण पास पाय परसन कु मन मेरो अनुरागी ॥ श्राजु ॥ १ ॥ J पद एवं गीत राग बसाउ : भुसम्म जु गहीये ॥ | प्रभु || ३ || वामा नन्दन बृजिनि विहडन जगदानन्दन जिनवर । जनम जरा मरणादि निवारण, कारण सुख को सुन्दर || प्राजु० ॥ २ ॥ J नीलबरल सुर नर मन रंजन. भव भंजन भगवन्त । कुमुदचन्द्र कहे देव देवनीको, पास भजहु सब संत ॥ श्राजु || ३ | ( २१ ) वन्दे हूं शीतल चरणं ॥ सुरनर किन्नर गीत गुणावली, मतुलं रूपं भव भयहरणं || बन्दे || १ | निज नख सुखमा चित द्विजपति चय, मुदित मुनि निश्चित शरणं । जन्म जरा मरणादि निवारण नत कुशुदचंद्र श्री सुख करणं ॥ वन्दे ० || २ | ( २२ ) अवसर श्राजू हेरे वेदान पुण्य कोई कीजे । मानव भव लाहो लीजे ॥ श्र० ॥ १ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १७ भव सागरनां भमंता भमंता, नर भव दोहिलो मनियो रे । संपत्ति मति रुडूकुल पाम्यौ, तो धर्म विषय थी रलियो रे ।।अव॥ २ ॥ योवन जाय गरा नितु व्यापे, क्षण क्षरण प्रायुस धावे रे । .. रोग शोग माना दुख देखी, तोस्ये नहीं सान न आवे रे भव०॥ ३ ॥ क्रोध मान माया सहु मूको, परधन परस्त्री वर जोरे । चरचो चरण कमल प्रभु केरा, जिम संसार न सरजो रे ॥०॥४॥ दृढ पणे जप जप नहीं थाये, जीवन वय जाल विये रे। घर लागे कूउ खोदीने तो कहो किम घर उल्हविये रे प्रव०॥ ५ ॥ बहु परिवार घणी हुँ मोटो, मूरिख मोटि संझखी रे। स्वारथ बीते कोई नधि दीखे, तो जिम तरुवर ना पंजी रे ॥सव०॥ ६ || में में रत्तोरा माए तो, बृह्म तिजनिवारो रे। मन मरकट नो हठ वपि धारणो तो, नरभव कोकम हारो र अब ।। ७ ।। पर उपगार करी जस लीजे, पर निंदा नषि करीये रे। कुमुदचंद कहे जिम लीलाई, तो भवसागर उतरीये रे ॥अव०॥ ८ ॥ राग गोडी : लालाद्यो मुझ चारिष चूनडी, येराग करारी रंग रे । व्रत भात भली घणी सोभती, वास समकित' पोत सुचंगरे ।। १ ।। रुडी सोहें माहि तप फूदडी, छ बयालि दयानि वेति रे । दशलक्षण शालि दीपती, शिल' पत्र तणी रंगरेलि रे ।। २॥ मूल गुणनी विराजे मंजरी, पंच समिति पांखडी सोहंत रे। उंची अण्व गुपति रेखा भजे, जेह्र जोता मन मोहंत रे ॥ ३ ॥ वर संवरनी तिहां चोकडी, वे ध्यान 'पालव सोहाय रे। रटिमालि रत्नत्रय कोर रे जोता मनुस्युतृपति न थाय रे ।। ४ ।। एह उही राजीमती सोचरी, तेरो मोरा सुरनर राय रे । मोही मुगति साहेली रूपनें, सूरो कुमुदचन्द बलि जाय रे ।। ५ ।। इतिगीतः (२४) ए संसार भर्मतहारे न ल ह्यो धर्म विचार || में पाप कर्म की धांधणी ते थी पाम्यो दुल अपार रे । मन मोहन ल्वामी मोरा अंतरयामी, नमु मस्तक नामी देवरे ।। १ ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत १८८ ए तो कष्ट करीने पामीयोरे, मानव भव अवतार । ते निष्फस में नीगम्यो कहु साभली तेहनी बात रे ॥ २ ॥ में कपट कीधा अति पाडुमा रे, रचियों प्रति परपंच । मम मो सालि बोलिया, बलि पोस्यां इंद्रिय पांच रे ॥ ३ ॥ शोध पिशाचि हुँ नम्यो रे, इसियो काम मुजुग। लहेरखाजी महा मोहनी, हुँ तो राथ्यो पर त्रिय सगरे ।।४।। लोभ लंपट थयो प्रति घणु रे, धन परियण ने काजि | जोवन मद मातो थयो, तिणे प्राण्यो घणू एक वाजिरे ॥ ५ ॥ या पंखा अधिरे, झोपी परनी ताति । कूडा प्रालि चहावियो, थयो उन्मत्त दिनराति रे ॥६॥ मन वांछित सुख कारणे रे, कीषा पाप अधीर | मति उज्जलना कारणे, धोयो कादय मांहि चीर रे ॥ ७ ॥ कम कीधा प्रण जाणता रे, ते के कहेता थाय से लाज । ए मन मादा में घणु कहु ते कोहने जई प्राजार ॥ ८ ॥ हवे तु जग गुरु मझने मल्योरे जगजीवन जगनाथ । सूरी कुमुदचन्द करे वीनती, निज सेवक कीजे सनाय रे ॥ ६ ॥ राग परजीरः बालि वालि तु वालिम सजनी, विण अवगुण फिम छडी नारि । तोरण थी पाछो जे बलियो, जइ चढियो गिरि गठ गिरिनारि ॥१॥ लीधो संयम श्री जिनराज सुन्दर सहेसावन्न मझारि । सुरनर किनर को महोछव, जिम बलता नावे संसार ।। २ ।। रोम हवेस्यु करियो पोफट, ते यदुनंदन नावे बार। कुनुदचन्द्र स्वामी सामलियो, उतारे भव सागर पार ।। ३ ॥ राग परजोयो: लाल लाल लाल लाल तु माजासरे। तोरण थी पाछो बल्यो ताहरी लोक करस्ये हास । यदुनंद रे, सुख कंदरे, नेम एक सालो माहरी बीनती। जिम वाधे ताहरी माम। लोधा बोलज मूकता स्यु रहस्ये ताहरू नाम ।यदु। १ ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक बार तु जो पाछो वले तो किजे हास विलास । सखी सहुने भूमखे रमतो, फूलडा राडा मास्य ।। २ ।" कर जोडी ने वीनबू, वाल्हारथ पाछो बालि । जो श्रम मुन्हे बाडी जसे, ताहरे माथे चढस्ये गालि ॥ ३ ॥ रहे रहे रे यादवा जो डग भरे तो नेम । योवन वेशें एकली, घेर तुझ बिना रहु किम ॥ ४ ॥ रहे उभी जो पाशु बली, तु सांभलि सुन्दर वा रिण । श्रावे यादद मंडली तेहनी, जांण ह्यास्यु कारण ।। ५ ।। हवे प्रेम करी पाछावलो, हठ नुको नेम नरेन्द्र | दीन दयाल दया करो, इम बोले कुमुदचन्द ॥ ६ ॥ राग धन्यासी : ( २७ } 1 संगति कीजे रे साधु तणी वली, लीजे ते अरित नाम । जेह थी सीओ रे मन नू चींतव्यु जिम लहो अविचल ठाम ।। १ ।। जीवडा तुम करे सिमाहरु, माहरु मनस्यु विमांसी रे जोग । स्वारथ जोणी रे सह प्रावी मल्यु, लक्ष चोरासी रे जोनि भ्रमंतडा, इस जाणी रे तप जय की जोई, तन धन यौवन जीवन थिर नाहीं अंत समे नहीं कोय ॥ २ ॥ माणस जनम दुर्लभ । घडियन करिये विलंब || ३ || विघटी जास्ये सुजांग | ते माटइ करी सीख श्रह्मारडी पाल तो जिनवर प्रांण ॥ ४ ॥ पापज कोषां ते प्रति गहुआ, रड चड़िया संसार । कष्ट घणू करो, मूरख फोकम हार || ५ | रोहिली ते जाये जिन चंद | धर्म ज पायो रे जे दुखदोठा ते प्रति हवं है यास्यु रे धमंज कीजीये, जिस छूटो भव फंद ।। ६ ।। रामा रामा रे घन वन भखतो, पढियों तु मोहनी जाल । विषय विलूघो रे जिन गुण विसर्यो दिन दिन श्राने छे काल ॥ ७ ॥ सगा सह मेरे संग पर कारिम् सगो ते सही जिनराज । तेह नामइ थी रे त्रिसुख पामीर सरे ते जीवनू काज ॥ ८ ॥ जोता जोला रे जग गुरु भीमोयो तेहथी मरहसि दूरि । जनम मरण नाजिम दुख सहुटले, कहे कुमुदचन्द सूरि ॥ ६ ॥ r १८६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत राग गुज्जरी : [ २८) म करीस परनारी नो संग ।। टेको । हाव भाव करे ते खोटो जेह वो रंग पतंग ।। म० करीस ।। १ ।। पेहेलु मन संताप चटपटी, सोका संताप ने प्रावे । जेम लागो होये भूत ममता, ते मते चित' ममावे ।। म० ॥ २ ॥ भूखत रस नवि लागे तेहाथी, अल उदक नवि भावे ।। न रुच यात विनोद कथा रस, नहि निसि निद्रा प्रावे ।। म० ॥ ३ ॥ लंपट लोक कही बोलावे, सह सज्जन पिसाबे । माथे पाल' चढे पतजाय, लोकह सारथ पाते ।। म. ३ ।। राज दण्ड धन हारण विगुचणा, नरक माहे दुख कारी। कुमुद चन्द्र कहे करी वीमासण, त जो चतुर परनारी || मंकरीस ॥ ५ ॥ राग सारंग : नाथ अनायनी कु कछु दीजे । विरद संभारी छारीहउ मन ति, काहे न जग जस लीजे ।। नाथ ।। १ ।। तुम तो दीनदयाल ही निवाज, कीयो हूं मानुष गुग्ण अब न गणीजे ।। घ्याल वाल प्रतिपाल सविषतरु, सो नहीं पाप हसीजे || नाथ ॥२॥ में तो सोई जोता दीन हूंतो आ दिन को न टूई जे 1 जो तुम जानत उस भयो हे, वाधि वाजार बेचीजे ॥ ३ ॥ मेरे तो जीवन धन सबहु महि, नाम तिहारे जीजे । कहत कुमुदचन्द्र चरण सरण मोहि जे मात्र सो कीजे ।। ४ ।। राग सारंग: जो तुम्ह दीन दयात कहावत ।। हमसी अनाथ नि हीन दीन कु काहे न नाथ नीवाजन || जो० ॥ १ ॥ सुर नर किंनर असुर विद्याधर, जब मुनि जन अभ गावत। देव महीरुह कामधेनु ने, अधिक जपत सच पावत ।। जी ।। २ ।। चन्द चकोर जलद ज्यु सारंग मीन मलिलज ध्यावत । कहित मुदपति पावन तुहि, त हिरिदे मोहि भावत ।। जो० ॥ ३ ।। (३१ ) मुनिसुनत्त गीत मुरत मोहन वेलडी रे, दर्सण पाप पलाय । मुख बीछे दृग्व विसरे रे, सवे छ मधे सुरासुर पाय । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक एवं रत्नकीति : मुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व गज गामि प्रावो भामिनी ए: पुजेवा पुजेका सुव्रत पाय ।।गज॥ तात सुमीत्र मनोहर रे, जेहनी पोमादेवी माय । मुख सोहे जेहबो चांद लो, रे, स्यामल स्यामल वर्ण सुकाय ॥ २॥ उचया प्रति जेहनुरे, वीमा धनुष परमारण । मोर मादाम निमोरे, माणघण मनाच्यो प्राण ग||३|| नयर राजगुह उपना रे, जग गुरु जगदानंद । ध्यान करे नित जेन रे, मुनिवर मुनिवर केव' वृद ।।गज०॥ ४ ॥ प्रगट्यु तीर्थ जेणे वीसमुरे, मनवांश्रित दातार । गुणसागर प्रति रुवडारे, जेहनां वचन अतिसार |गज। ५॥ दीनदयाल सोहमणी रे, सुदर करुणा सींधु । जगजीवन जग राजोयोरे कारण कारण वीणए बंधु ॥गज०॥ ६ ॥ रोग सोग नामे टले रे सहान वीषन हरे दूर । सेवो भविक तम्हे भावसुरे, विनवे विनवे कुमुदचंद सूर ।।गज०॥ ७ ॥ ॥ इति मुनिसुव्रत गीत समाप्त । ( ३२) हिन्बोलना गीत विनय करीने बीनबू हीदोली डारे, भगवति भारति माय । बेह नामि मति पामीये हिन्दोलीडारे वलि रे विमलमति थाये ॥ एक समय सू हिन्दोलहारे हीवती सखिय वे च्यार । चन्द्र किरण सम उजलो ॥ इखले झलके तोहार राति रुडी अजूवालड़ी ॥ हि ॥२॥ धरि परि उछल रास || गाय ते गीत सोहामणी कामिनी करे रे विलास ।। ३ ।। स्थारि राजुल' कहे हे सखी. साभलो एक सन्देश। जाउ सखी जइ बीनवो, सुन्दर नेमि नरेश ॥ ४ ॥ माहरी पती को बीमती, प्रणमीय तेहना पाय । तुझ बिना पल एक मुझने घडीय बराबरि थाय ।। ५ ॥ घड़ी एक पहोर समानडी, पहोर दिवस दिन मास । मास वरस दिन जेवटी घरस युगांतर तास ॥ ६ ॥ राति दिवस राजीमती समरै छ तम तखो नेह । जिम सरोबर हसलो, बापियडा मन मेह ।। ७ ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गौत धर्मिनू मन जिम धर्मसु, गुरिणनी मंगति गुणवंत । जिम चक्रबाक मनि रवि बसे, कोयल बिम रे बंसत || ८ || याचक जिम समरे दातार ने, दातार पात्र उदार। जिम निज धरि समरे पंधियो, सती समरे भरतार ।। || जिम तुषातुर नीरने, तिम तुह्म रायुल नारि । क्षरिण-क्षणि वाट नीहालती, निज पर अगरण बार ॥ १० ॥ पूछे पोपटने पांज रे, बोलो ने पोपट राज । कहो क्यारि नेम जी अावस्यो, जम सरे ब्रह्म तणां काज ॥ ११ ॥ वलिय पारेवाने वीनवे, सांभल्यो तु तो सुजाण । ताहरि गगन गति रूडि, करि पिउ पाव्यानु जाग ।। १२ ।। सकुन बघावी जोवता, छति पंथि ३ बात । जे कहे नेमनी पावता, ते मोरी बांधवा वात ॥ १३ ॥ घर बन जाल सगू सहू, विरह दवानल झाल । हु हिरणी तिहां एकली, केसरि काम करास ।। १४ ॥ मात पिता सहू वीसा , नहीं गये परिजन नाम । वाहलो मने एक नेम जी, जेहो हमारो प्रातम राम ।। १५ ।। हेविहिगां मागु तुझ कह्न , अह्मने तुमा सर जेस । जो सरजे अझने वली, माणस जनम म देशि ॥ १६ ॥ जो भव दे मानव तणो, तोम करेस संयोग । संजोग जो सर जे लेई, तोम करे सवियोग ।। १७ ।। इष्ट वियोग दुख दोहिला, ते दुख मुखें न कहवाय । थोड़ा मांहि समझो घणू तम विना में न रहे वाय ॥ १८ ॥ भोजन तो भावे नहीं, भूषण करे रे संताप । जोह मरिस्य विलखि थई, तो तय लागस्ये पाप ॥ १६. पशु देखी पाछा वल्पा, मनस्यू थयारे दयाल । मुझ उपरि माया नहीं, ते तो स्या रे पास ॥ २० ॥ तो सयम लेवा सांचर्या, जायो 'पम्यो हवे मम । एकस्यु रुसो एकस्यु तुमो, अवलो तुम्हारो धर्म ।। २१.।। हिन्दोलना गीत का परिचय पृष्ट पर देखिये । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्न : व्यक्तित्व एवं कृतित्व राज रछु त्रण्य लोकन, मड़ो हमारो योवन वेश । जो सरगे जस्यो तप करी, तिहां तो एहवन लेहसि ॥ २२ ।। हवे प्रभु पांछा वलो, करिये छे विनय अनेक । अति ताप्यु छूटे नेम जी, मन माहि करो रे विवेक ।। २३ ।। स्यारि दिवस हुई पाथरा, त्यारि संगू सह कोय । ज्यारि वांका थाये दीड्डा, त्याहारि सज्जन बेरी होय ॥ २४ ।। अथवा करम करयु ब्रह्म तर, तो तह्मास्यु करयो रोस । जेहव बीघू तेव पामीये, कोहे दीजे नहीं दोस ।। २५ ॥ रायल अमीने इम कहीउ बलि-वलि जोडिने हाथ । प्रीछवो जो पाछा वले, जिम अह्म थाउ सनाथ ।। २६ ।। लेई संदेशो चालो सहुँ सखी जइ चढी गिरिवर ग । घरणीय जुगति करी प्रीछव्या, मन दीठ तेनू अभंग ।। २७ ।। प्रावी ते सखि पाछी वली, बात कही तिणिधर । ते तो बोले-चालें नहीं, मनस्यु निठोर अपार ।। २८ ।। त्वारि राजुल उठी संचरी, तजिय संपति तसकाल । संयम लेई तप प्राचरयो जिम न पड़े मोह जाल || २६ ।। व्रत्त रडा पाली करी पामी ते अमर विमान । कर्म तजी केवल सही, नेमि पाम्या निरवाण ॥ ३० ।। ए भगतां सुख पामीर, विधन जाये सह दुरि । रतनको रति पट मंडणो, बोले कुमुदचन्द्र मूरि ।। ३१ ।। ( ३३ ) त्रय रति गीत दश दिशा बादल उनमा दम्पति मनि उल्हास । दोसे ते दिन रलियां मरणा, घन बरसे रेलवे बीज प्राकाम के ।। वर्षा ऋतु वरषा रति अादि आबी, पादि बरषा रति बाधे बहु रतिराज । न पान्यो रे पीउडो घरि प्राज, न आरसी रे मनि निज कुल लाज || स्यू कीजे रे नहीं पीउ सूख माज के. बरपा रति अाज अाबी ॥ १ ॥ . पंथीयडा भूरे घर सामली दादुर मोर । वापीयो पिउ-पीउ लवे पापीयडोरे बोले कलरव मोर के ।। २ ।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत पंखीगडे माला फस्या मनि धरी पावस प्रेम । 'काली ते मेहण रातड़ी, बालूयडा विण सुने धरि रहीये केम के ॥ ३ ॥ गगन भक्ति गड़गडे बाजसे झंझावात । कुज बिहगंम मंडली गीरि कन्दर रे, गुजे हरि कपि जात के ॥ ४ ॥ गाजे ते अम्बर छाहिउ, झड़ बादल बल भांति । अगियो अंधार ते तग तगें बोले तिमिरा रे भरिमा भिम राति के ।। ५ ।। सुख समे प्रीउडो नामियो मनि धयो प्रतिहि नीडोर । कोई भाभिनीहं भोलथ्यो, करि कांमण रे मार चितड़ानो चोर के ॥ ६ ।। शीत ऋतु : सोहमणा दिन शीसना गाये ते गोरी गीत 1 धीतनो भय मनिधरी हवे मानिमि रे मुके मन तणा मान के ।। ७ ।। हिम रित रे बीजी नाबी बीजी हिम रति रे सखि हरष निधान । ना होलियो रे वसे गिरि गुहरांन, वियोगे रे वरणसे देह बान ।। ८ ।। योबन जाये रे पीउने नहीं मान के ।। हिमरतें हिम पड़े हे सखी दास ने धन वन राय । तुझ बिना ए दिन दोहिला ह्यारी दाझेरे पति कोमल कायरे ।। ६॥ वाजे ते शीतल वायरो, बाझे ते वाहिर ठार।। घूजे ते बनना पंखिया, किम रहस्ये ते वनि प्रियसुकुमार के ॥१०॥ बन छोडि दवं भय कमलिनी, जले रहे मनि घरीनातेष । तिहां थकी परिण हीमें दही नहीं, छुटियेरे वति रातिरा लेख के ।। ११ ।। तेल तापन' तुला तरणी ताम्र पट तंदोल ।। तप्ततोयते सातमू सुखिया नेरे हिम रति सुख मल के ॥ १२॥ शीयालो सघलो गयो, पणि नावियो यदुराय ।। तेह बिना मुझने झूरता एह दीहडारे वरसां सो थाय के ॥ १३ ॥ कोयल करे रे टहुकडा लहे केसे मंया डाल । बेलि ते पोपट पाढउ तेह सांभली रे स्ये न पाव्या लाल के ॥ १४ ॥ प्रीम ऋछु : ग्रीसम रित श्रीजी प्रावी, पीजी ग्रीसम रति किम जास्ये एह ।। घरे नाश्योरे माहोलो धरी नेह, सामलिया रे मनि समरो गेह ।। १५ ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रश्नकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नहीं तर रे प्राणत जस्ये देह के ग्रीसम रति ।। फल्या ते चंपक केवडा फल्यु ले वन सह कोय । पानडा परिंग नहीं करने, पुण्य पानि किम रुडी सम्पति होय के ॥ १६ ॥ तहको पडे प्रति दोहिलो, रवि तपे पर्वत शृग । प्रति झाल लागे लु तरणी हयै प्रावों रे मुझ, फज मृगाक ।। १५ ।। कर्पूर वाशित वारिस्यु चन्दने चरच अंग । केसर धसी करु छ। टणा, जो तु राखेरे हमारा मन तपो रंग के ॥ १७ ।।। कामिनी करि शृगार, सरसी करे वन जल केलि । सामला मूको मायला मुझ सरिसोरे प्रिय मनडू मे सिके ॥ १६॥ इम झरती राजीमती, जई चठी गिरिनारि । सूरी कुमुदचन्द्र प्रमु नैमि ने धन्यासी रे पायो है बलिहार के ।। २५ ॥ ( ३४ ) बणजारा गीत यण जारा रे एहू संसार विदेस भयीय ममीतु उसनो । तेरी घणी घणी बार ज्यारे गीस पुर जोइयां ।। १ ।। 'लख्य चोराफी योनि माम मांहि तु सत्रम्रो । ___मनस्य विमांसी जोय खोटे वणजे राणयो थयो ।॥ २ ॥ मूल गयु तिरिणु वार खोटि प्रावी दुखियो थयो। जीब तु चतुर सुजाण गोह ठगा रे भोल व्यो ।। ३ ।। कीघा कुसंगति प्रीति सात व्यसन ते सेवीया ।। पाप कर्या ते अनन्त जीव दया पाली नहीं ।। ४ ।। सांधो न बोलियो बोल मरम मोसाबहु बोलिया । पर निदा परतीति ते करी पण जासते वणजारा रे ॥ ५ ।। प्राप खाण्यु अपार, अवगुण ते सहु उलया ।। कुड कपटनी स्वाणि, परधन से चोरी लिया ॥ ६ ।। उलवी विसरी वस्तु, थापिज मूफी ससवी ।। विषय विलूधो गमार, परनारी रंगे रम्यो ।। ७ ।। योवन मद श्रयो अंघ, हुहुहु करतो फिरयो॥ , रीस करी पण काज, गुरण नवि जाण्यो अमा तणो || || इंद्रिया पोस्यां पांच, पाप विचार को नहीं ।। पुत्र कलर ने काजि, हा हा ह तो हीडीयो ॥ ६॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत मजन कुटंब ने भित्र प्राप सवारथ सह मल्यु ।। कीयां कुकर्म अनंत, धन धन रामा झंख तो ॥ १० ॥ घर परियरण ने लोभ, वणज' पणा त के लच्या । तेवो न लाधो लाभ, जेणे लाभे सुख पामीये ।। ११॥ मरवु छ निरचार, तो फोकट फूले कस्यु । कोई न पायेस्ये साथि हाथि दीधू साथै प्राबस्थे ।। १२ ।। ते माटेस्यो रे जंजाल, करतो हीडेतकारिमु । सभिल ये तु सीमा, ममना मनोरथ जिम फले ॥ १३ ॥ साज तु सुन्दर साक्ष, मन रूपी रुड़ों पोठियो ।। वारु बेराग पल्हाण, मुगति पटी तु भीडजे ॥ १४ ।। समकित रासडि बाधिजे, उवट निम जाये नहीं ।। संयम गुरण पहारण धर्म वसाणे तु भरेव ।। १५ ।। लीजे दगा व्रत सार, शील तपो संग्रह करे ।। अनुप्रक्षा ते संभालि, अण्य रतन नु जतन करे ॥ १६ ॥ पंच महाव्रत भार, समित गुपति ते रास्त्र जे ॥ साधु तरणो गुरगवीर, जीव तणी परिजालवे ।। १७ ॥ संभारये नवकार, जिन जी तपा गुण मनिधरे ।। ग्रन्थ पुरोग विचार, धर्म शुक्रल ध्यान चिन्तवे ।। १८।। सहे गोरनो उपदेश, एक घड़ी नयि विसरे ।। तपनी तुम करेसि कागि, जेणे कर्ममल सहु टले || १६ || मधुर मोदकं उपवास, गांठि सुडली बांध जे ।। निर्मल शीतल नीर ज्ञान घुटइला तुमरे ॥ २० ।। सत्य वचन पत्र सारण, ते सुखवास तु बादरे || म करेसि तु परमाद, वाटे जालव तो जजे ॥ २१ ।। खडग क्षमा करे हाथ, चोर परिग्रह नास से ॥ साधम ने साथ, मुगति तुरी वहेलो पुहपर्यो || २२ ।। सिद्ध तथा गुण प्रांठ, मुगति वधू तेणें राचस्ये ।। जन्म जराना पास, मरण बली-बली नहीं न है ।। २३ ।। काल अनंतानंत सौख्य सरोवरि झीलस्यो । ए वणजारा नू गीत, जे गास्ये हरष सही ॥ २४ ।। ते तरस्ये संसार अजर अमर थई महा लसे ॥ रतनकीरति पद धार, कुमुदचन्द्र सूरी इम कडू ।। २५ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (३५) शोल गीत सुणो सुणो कता रे सीख सोछामणी । प्रीति न कीजे रे परनारी सणी ॥ त्रोटक: परनारि साथि प्रीतडी, श्रीउडा कहो किम कीजिये। उघ पापी प्रापरणी उजागरो किम लोजीइ ।। काजी गुटो कहें, लंपट लोक मांहि लीजीइ । कुल विषय खपण न खार लागे. सगामा किम गाजिये ॥१॥ हास : प्रीति करता रे पहिलू वीझीमे । रखे कोई जाग रे मन मा धुजिये ।। नोटक: प्र जीये मनस्यु झूरिये परा' योग मिल योग नहीं । ए राति दिन पलपतां जाये, पावटी भरवसही ।। निज नारी श्री संतोष न बल्यो, परनारी थी तोस्यू हस्ये । जो भरे भाणे नुपति न वली, एठ चाटेस्यु थस्ये ।। २ ॥ मग तृष्णा श्री तरस्य नहीं टले । __बालू केसू पीले रे तेस न नीसरे ॥ घौटक: नवि नीकले पाणी विलोक्ता लेस मांखण नों क्ली। छुकता वाचक भरा फारणे, तस्यां बात न सांपली ।। ते मनारी रमतां पर तरणी, संतोष तो न वले घड़ी। चटपटी ने उचाट लागे, आँछि नावे निष्दसी ।। ३ ।। जेवो खोटो रे रंग पतंग नो। तेहवो चटको रे पर श्रिय संग नो ॥ प्रोटक : परत्रियां केरो प्रेम प्रिउड़ा रखे को जाणो खरो। दिन च्यार रग सुरंग डों, पछे न रहे निरघरो ।। जे घणा साये नहे माडे, छाडि तेहस्यु बातडी। इम जागी मम करि नाहला, परनारि साथै प्रीतडा ॥ ४ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पद एवं गीत हाल: जे पति वाह तोरे वचे पापिणा । परस्यु प्रोते रे रांचे सापिणी ।। पोटक: सापिणी सरखी वेरिण निरखी, रख्ने शील पकी चले। माखिने मटके अंगि लटके देव दानव ने छले ।। मांडकालि प्रति रसाली, वाणि मीठी सेलही। साभली भोला रखे भूले जाण जे विष बेलडी ॥ ५ ॥ हाल: संग निवारो रे पर रामा तो। शोक न कीजे रे मन भलवा घणो ॥ प्रौटक: शोक स्याह ने करो फोकट, देखा छू परिण दोहिलू । क्षण सेरीइ क्षण मेडी. भमता न लागे सोहिलो ।। उसास नई नीसास प्रावे, अंग भाजे मन भमे । वलि काम तापे देह दाझे अन्न दो नवि गमे ।। ६ ॥ हाल: जाय फलामो रे मनस्य कल मले । उदमादो थह रे अलन फराल लवे ।। नोटक: तेलवे अस्लल फस्नल अजागो मोह गहेलो मनि डरे । महा मदन बेदन कठिन जाणी मरण वारु वडे | ए दश प्रवस्या काम केरडी कंत काबा ने दहे। हम चित जारणी तजो रांणी पारकी जिम सुख लहे ॥ ७ ॥ दाल: परनारी ना पर भथ साभलो। कंता कीजे रे भाव ते निरमलो ।। निरमले 'भावे नोह समझो, परवा रस परिहारो। पापियो कीचक भमिसेने, शिला हेठलि सांभलो । रण पड्यां रावण दो मस्तक र बड्या ग्रन्थे कह । से मुझपति दुख पुज पाम्यो, अजस जग माहि रहो ॥ ८ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १६ शील सलूणारे माणस सोहिये । विरण याभरणे रे मन मोहीये ।। प्रोटक मोहिये सुरवर करे सेवा, विष अमीसायर घल । कोसरीसिंह सीमाल थाये अनल प्रति शीतल जल ।। सापथ ये फूलमासा लच्छि घरि पाणी भरे । परनारि परिहरि शील मनि धरि मुगति बहु हेलावरे ॥ ६ ॥ स । ते माटई हुरे वालि भवीन । पागि लागी नेरे मधुर बचने चबू । प्रोटक : वचन माहरु मानिये परिनारी यी रहो वेगला । अपवाद माथे चढे मोटा, रंक थइये दोहिला ॥ धन धान्य ते नर नारि जे हठ शील पाले जगतिलो । ने पामसे जस जगत माहि, कुमुदचन्द्र समुज्जलो ।। १० ॥ गीत राग धन्यासी : प्रारती गीत करो जिन तणी प्रारती, पण सुख बारती। विघन उसारती भविक तणा ॥ १ ॥ याम बर सोहती, सकल मन मोहती । पशु भव्य मोहती, तेज पूजा करो ॥ २ ॥ पुण्य प्रजू पालती, पापतिमर टालती । अमर पद पालती, मण प्रयासे ।।३।। भव भय मंजती, भाव टिंगलती। सुरमन रंजती, राज्य मानती ॥ ४॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० वाजित्र वाजता, अबर गाजता | नरवधू नाचता, मनह रंगे || ५ || जिन गुण गावतां शुभ मन भावता । चिन्तामणि पार्श्वनाथ गीत मुगति फल पावता, चतुर चंग ॥ ६ ॥ सुगन्ध सारगद, पाप ते नवि रहे । मन वाछित लह, कुमुदचन्द्र करो जिन भारती ॥ ७ ॥ ( ३७ ) चिन्तामणि पार्श्वनाथ गीत बालो चन्द्रमुखी सखी टोली, पहेरो पटोलि चोलि रे । पूजिये पावन पास जिएसर, पीमीये सपत्ति बहोली रे ॥ १ ॥ सन्दर बासव रास कपूरे, वासित जलें जिन पूजीई । जप कोगे, पर यकी नवि बीहीजीए ॥ २ ॥ केरो राय रे । चन्दन केशर ने रसि चरमो त्रप्य भुवन " पाप तो संताप टले सहू, अत पूज करो प्रभु आगलि, नव निधि उदह रतन श्रति रुवड़ा, जिम लहीं निजधामें रे ॥ ४ ॥ त्रिम मनि वंछित थायेरे || ३ | पंच परम गुरु नामि रे । श्रानंद रे ॥ ५ ॥ बोली रे । जाई जूइ सरवर से यंत्रे, कुंद कमल मचकु दे रे । चम्पक तरणी चम्पक लिइ चरचो चरण कूरदालि बडावर व्यंजन, पोलिय घोर पासलडी पकवान चढ़ाबो, रची रचना वर उली रे ॥ ६ ॥ दीवडलो अजू वालो रे झाली. प्रारती उतारे । प्रारतडी भाजे जिम मननी पाप तिभिर सहु वारो रे ॥ ७ ॥ सुन्दरी ससिबदनी प्रभु चरणे कृष्णागरड खेबोरे । पावन धूम शिया परिमलना छूटिये करमति सेवोरे ॥ ८ ॥ सखिय चढावो सारी रे | दाडिम प्रति मनोहारी रे ॥ & ॥ 2 कमरख कदली फल सोनारी, रायण करमदा बदाम बीजोरा जल चन्दन प्रक्षत वर कुसुमें, परु दीवली घूपे रे । फल रखना सू प्ररक्ष करो सल्ली जिम न पड़ो भव कूपे रे ।। १० ।। इस अनूपम भाव धरीने, पूजता पास जिद रे । रोग शोग नवि ते श्रंगे, न हुई को दस्यु देव रे ।। ११ ।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक एवं रत्नकीर्ति सुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व २०१ भूत प्रेत पिशाचर पीडा, वाध घर नवि अडकेरे। पास प्रभू तणु नाम जपता, नदि हैड़े दुख वड़के रे ॥ १२॥ सघन विधन वेगलड़ा जाये, नवि' साणे बहु पाणी रे । कुमुवचन्द्र कहे पारा पसाई, राचे गुगति महाराणी रे ।। १३ ।। । ३८ ) दीपावली गीत याज दीवालि रे बाई दीवाली. तो पहेरो नव रंग फालि । धन-धन गिल तेरसि नो दिन. पूज्य धारा चानी रे ॥१॥ गाऊगी तब धावो गोरने, मोतीयड़े परी थाली । चरचो अंग चतुर सोहामणी, चरण कमल सु पखाली रे ।। २॥ बुद्धि सिद्धि प्रापी अति ममी, कालि च उदसि काली । प प हरग लीजे ते पोसो मननामल सहु टालि रे ।। ३ ॥ चउदशिनी पाछल ही राति, कर्म तणां मद गाली।। महावीर पहोता निर्वाण, अजरामर सुव शाली रे ।। ४ ।। गोतम गुरु वल दोवडलों, लोकालोक निहालि । सुरनर किंनर को महीन्यव, जय-जव रव देना ताली रे ।। ५ ।। तेज अमांस पग्व दीवाली, परठी भाक झमाली। घरि-घरि दीवदना त झलके. राति टीमे अजुवाली रे ॥ ६ ॥ पडवे राति जुहार पटोला, निरुडी मम चाली। श्री सदगुरुना चरण जुहारो, पामो रवि रद्धि माली रे ।। ७ ॥ बोजें हेजे द.रे ते भाविज वेहडली अति वाली । ए पाने पीहा जान्होता, आवो पायो रपे चालि रे || ८ || हास विनोद करे गृग नयगी. शशि क्यसी रूपाली । कुमुदचन्द्र नी कारिण मनोहर, मीठा अमिय रसाली रे ।। याज दीवाली बाई दीवाली || राग बन्यासी गोत : मकरस्यो प्रीति ज एक रूनि । एक करिन बेदन नवि जाणे, एक मरे विलखी ।। १ ।। जल विन मीन मरे टल बलि ने, जलने काई नहीं । बापियहां ने प्रिउ बिक रटता, जलघर जाय यही ।। २ ।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ नेमिजिन गीत सरस्यो ते मन जल जल झो, जल जड थईज रहे । दीवे पडेय पतंग मरे परिण दीवो ते न लहे ।। ३ । प्रेम भरी जोतो चन्दनि हरषे मनस्यु चकोर । ते चांदलडो चितन जाणे, पिंग-धिग नेह निठोर ॥ ४ ॥ विकसे कमल दिवाकर देखी, ती मने न धरं । मोर करे प्रतिसोर सनेहे. मेह न नेह करे ।। ५ ॥ काया मन भाया प्राणी ने, जीवें रहीं बलगी। जीव जतें सटके झटकीने, ते नाखी अलगी ।। ६ ।। नाद निमित मरे मृग गहेलो, नाद निगुण निगरोल । त मांटह मन राखों रुयड़ा, कुमुदचन्द्र ना बोल ॥ ७ ॥ राग पन्यासी गौत : (४०) सखि किम करिये मन धीर रे, नेमि उज्जल गिरि जई रह्या हो रे हां ॥ १ ॥ जूउ नाथ नीउरनी पर रे, विरा बांके किम परहरी हारे हां ।। २ ।। मन हुती मोटी पास रे, नाथ निरास करी गयो ।। ३ ।। सखि कहे ज्यो सांची वात रे, मोह राखयु मां बोलस्थो ॥ ४ ॥ कुणे कीष एह ' काम रे, तोरण जई पाछा बल्या ।। ५ ।। घरों किम न करी मन लाज रे, छोकर बादी सीकरी ॥ ६ ॥ जेणें रहती मूकी मात रे, वचन न मान्यु तात नु ॥ ७ ॥ तो कुरण प्रहमारी पांत रे, फोकट झाझू झूरीये ॥ ८ ॥ हवे घरीये संयम भार रे, जिम मन वांछित पामीये || ६ | जय जिनवर तु पासीस रे, कुमुदचन्द्र ना नाय हा रे हां ।। १० ।। ( ४१ ) नेमि जिम गीत बचन विवेक वीनवे वर राजुल राणी । साभलिये प्रिय प्रेमस्यु क मधुरी वाणी ॥ १ ॥ फिम परणेवा पानीमा सहु यादव मेली । तोरण थी किम चालियो रथ पाछो वेली ॥२॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ भट्टारक एवं रत्नकीति फुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व विण बांके किम छांडियो, अबस्ला निरधारी । बोल्या बोल न चूकीए, जिन जी मनोहारी ।। ३ ॥ पशु प्रवाडि देखी फर्या ए मसि सहु खोटु । विगर संभारे आपण ये जगमा मोटु ॥ ४ ॥ दीन दयाल दया करो, रथ पाछो वालो । समुद्र विजयनी प्रणि तले जो प्राधा चालो ।। ५ ।। मन मोहन पाछा चलो गृह पावन कीजे 1 मोयन वय प्रति रुपडू तेह्नो रस लीजे ।। ६॥ हास विलास करो घणा, रमणीस्यु रमतां । सुख भोगषीइ सामला सुन्दर मनि रमतां ।। ७ ।। प्रिय पाखि दुर्जन हसे घरि किम करी रहीये | बिरह तरणां दुध दोहिला कहु किम सहीये ॥ ८ ॥ अन्न उदक भाये नहीं, विष सरिन लागे । मंडन मान-मनि नहीं, कामानल जाये ।। ६ ।। इम कहेनी रडति थकी राजुल ते थाकी । नेम निदुर माने नहीं गयो गिरिरथ हाकी ।। १० ।। कुमुदचन्द्र प्रभु शामलो जेरणे संयम धरीयो । मुगति वधु अति रुबडी तेहने जई वरियो ।॥ ११॥ गीत : (४२ ) करो तम्हे जीव दया मनोहारी, हिंसा नो मत जोरे प्राणी । जिम पामो भव पार ।। १॥ पिष्ट शिखंडिक नीहि साथी, लागु पाय अपार । जूउ यशोघर चन्द्रमति बेहु, भमीयां भवत्रण च्यार ।। २ ॥ भव पहेले भुपति के कीमा, स्वान तरणो अवतार । धीजें भवे बन मांहिं सेहलो, श्याम भुजंगम स्फार ॥ ३ ॥ मीन थयो त्रीजे चंचल, सिन्धू विषय शिशुमार । जाल बन्ध प्रति खेदन भेदन दुक्खा तरणो भण्डार ॥ ४ ॥ भव चौथे अज अजा परणें न हुउ सुक्ख लगार । जनम पांच में अज भैसो थई, दह्यो प्रलेख भार ।। ५ ।। भव छठे चरणायुघ पक्षि बेहने जीब अहार । सातमें भवें कुसुमावलि गर्ने, युगल हवा ते उदार ।। ७ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु गीत एह संसार जाहि रड़ वडतां, दोहिलो फर्म विचार । जेहवां दुख लहे छे प्राणी. ते जाणे कीरतार ॥ ७ ॥ कृत्रीम जीय तणी हिंसा थी लागु पाप अपार । हिंसा नवि कीजे रे, प्राणी मुदचन्द्र कहे सार ।। ८ ।। (४३ गुरु गीत सकल सजन मली रे, पूजो कुमुदचंद ना पाय रे । पाट प्रद्योत कर्यो रे, जारणे ऋषिवर केरो राय ।। गरुज गोर अवतर्यो रे, दीठे दालिट्र पातिक जाय । उपदेशे उच्छवे रे संघ प्रतिष्ठा बहु विध पाय ।। मंत्र जपे रे यतीयचार पंचाचार ॥ १ ॥ सुमति गुपति आदि ए पाले चारित्र तेर प्रकार। क्रोध कपाय तजी रे वेगे, जीत्यो रति भरतार । शील शृंगार सोहे रे, बुद्धि उदयो अभय कुमार ।। २ ॥ सखी में दीठहो रे, मोटडो सोल कला जस्यो चंद । जीव रज्या करे रे, अनोपम दया तरुघर कंद ।। विद्यालि बरी रे, प्रोण मनाच्या आदि वृद। जस बहु चिस्तरयो रे, चरण कमल सेवे नरेन्द्र ।। ३ ।। पाखडी कज पांखड़ी रे, अघर रंग रह्यो परवाल । वाणी साभली रे, लाजी गई गोयल वन अंतराल ।। शरीर सोहामा रे, गमने जीन्यो गज गुणमाल । को कह गुरु अवतारे देउ, दान मांन मोती माल ॥ ४ ॥ गोपुर गाय भलू रे, वसूबा मध्ये छे विख्यात | मोढ वंशमां रे. साह सदाफरन' गोरयो तात ।। शील सोभागवती रे, सुदरी पदमाबाई जेहनी मात । पुत्रम ....... योरे लक्षण सहित पवित्र सुजात ॥ ५ ॥ संषपति कहांन जी रे संघ वेण जीवादे नों कंत । सहेसकारण सोहे रे तरुणी तेजल दै जयवंत । मलदास मनहरु रे मारी मोहन दे अति संत । रमा दे वीर भाई रे गोपाल वेजलदे मन मोहंत ।। ६ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकौति एवं सुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २०५ बारडोली मध्ये रे, पाट प्रतिष्ठा कोष मनोहार । एक शत पाठ कुभरे हाल्पा निर्मल जल अतिसार ॥ सूर मम प्रापयो रे सकल संघ सानिध्य जयकार । कुमुदचंद्र नाम महसू रे, संघांव कुटंब प्रतापो उदार ।। ७ ।। (४४) घालि--मोटो मुनि जी मोहन रूपे जाणिए । गीत : मुखमंडल जी पूरण शशि सोहामणो। रूप रंग जी करुणावंत कोडामणहो ।। नोटक---कोडामणो ए रूप रंगि रतनकीरत सूरीराय जी । एक ते बिते अनुभव्यो, पूजो ते ए गोर पाय जी ।। पाय पूजो गुरु तणा जिग पामो सम्व भंडार जी । सूदर-दीसे सोभतो भवियण नो प्राधार जी ।। वालि-क्रीयां . .... . .... पतिपाले भलो। अभिनंदह जी पाटि, यो गुण निलो ।। विद्यायंत जी शास्त्र सिद्धान्त सहूं ला । संगीत सार जी पिंगन' सह पाठे कहे ।। बोटक-पिंगल सह पाठई कहेने बागी विबुध विशाल जी। पर उपकारी पुण्यवंत भलो जोव दया प्रतिपाल जी ।। जीव दया प्रतिपाल सूरिगए गोर गच्छपति सार जो। मूलसंध माहि महिमा बरणो सरस्वती गच्छ सिणगार जी ।। चालि-गिहउ भोर जी क्षमावा माधु जॉणीए । माया मोह जी मच्छर मनमानाणीए । एहयो गोर जी तप लेजे सो जीपतो । अवनि माहि जी दिन दिन दीस दीपतो ।। प्रोटक-दिन दिन दीसे दीपतो ने हबंड व माज जी । सिंहासरण सोहे भलो लीना लावन्य लाऊ जी || लील लावण्य खाज कहोइ रतनकीरति सूरीराज जी । कर जोडी ने यमुद चन्द रोचक गारयां काज जी ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत (४५ ) दशलक्षरिण धर्म व्रत गीत श्रमं करी ते चित उजले रे, जे दस लक्षण सार । स्वर्गत: सुप नगर, जम सो संसार ! क्रोध न कीजे प्राणिया रे. शोध करें दुख थाम । बारु क्षमा गुण आरिणयां रे, जग सचलो जस गाय ॥ २ ॥ कोमलता ते गुण साहिए रे, कटिन तजो परिणाम । सप जप संयम सह फले रे, पामो अविचल ठांम् ।। ३ ।। सरल पणा ची सुख उपजे रे, मूको पन नो मान । मन नो मेल न रस्त्रीय रे, पामीय केवल ज्ञान ।। ४॥ [छु बचन नवि बोलिये रे, बोसियो साचो बोल । मुख मंडन भट्ट रे, सु करिये तंबोरन ।। ५ ।। शोच पण ते वली पामीए रे, बाह्य अभ्यंतर भेद । भ्रष्ट पणा थी दुग्न पामीइ रे, जीणे धर्म उछेद || ६ ॥ सुन्दर संयम पालोइ रे, टालिये सर्व विकार । इंद्रीय ग्राम उजाडिये रे. ताड़िये दुद र मार ॥ ६ ॥ बार प्रकारे तप कीजीइ रे, निर्मल थवे रे देह । मुगति तणां ते सुख पामीह रे, जेइ तणो नहीं छेह ।। ८ ।। दांन मनोहर दीजीये रे, कीजिये निर्मल चित । अन्म जरा ना दुख सहु टले रे, पामीय लोख्य अनंत ॥ ६ ॥ ममता मोह न कीजीये रे, चितवीइ वेराग। साथे कोई न प्रावसरे, मूकीये मन नो राग ॥ १० ॥ प्रेम करीने पालीये रे, अहमचर्म गुण खारिण । साभलनां सुख पामोहरे, कुमुदचन्द्रनी वाणि ॥ ११ ॥ ( ४६ ) व्यसन सातनं गीत साते व्यसने वसुधी प्राणी, कीघा कर्म कुकर्म । लक्ष पोरासी योनि भमंता, न लायो घमं नो ममं रे ।। जीव भूके व्यसन असार, जीव छुटे तू संसार ॥जीव । मांचली ।। व्यसन पहेलू नू बटु रमता, धन सघलू हारी जे । नाम जू पारी कहि बोलाये, लोब मांहिलाजी जे ।।जीव०॥ ५ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक ररनीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व बीजे व्यसने जीव हणी ने. मांस प्रशन थई खायो । तेहर्ने नरक माहि रड बडता, दुल धरणी परिथारे जीव०॥ ३ ॥ श्रीजे व्यसने सुरा जे पीये, तेहनी मति सहु जाये । झखे पाल पंखाल' प्रसुद्धे, जाति मांहि न समाये ।।जीव०॥ ४ ।। वेस्था सन तओ स चोए , दुख भण्डा । घन जाये लंपट कवाये, नासे कुल प्राचार ॥जीव०॥ ५ ॥ व्यसन पांचम जीव भाखेटक, रमता जीव सताये। मारे जीव अनाथ अवाचक, ते बूढे भव पाये । जीव०॥ ६ ॥ सांभलि सीख ब्रह्मारडी छ? में करिस्य केहनी चोरी । ते सघला मलीने स्वासे, पडसे तुझ उपरि जमदोरी ||जीव०।। ७ ।। म करिस्य मूरन व्यसन सातमें परनारी नो संग । हाव भाव करस्ये ते खोटो, जे हवो रंग पतंग ।।जीव ०।। ॥ जूमा रमता पांडव सीदाये मांस थकी बक भूप । मद्यपान थी यादव खोज्या, पणस्यां तेना काज ||जीव ।। ९ ।। चारुदत्त दुख अति या पाम्यो, राज्यो वेण्या रूप । ब्रह्मदत्त चक्री प्राहेडे, ते पडियो भव कप जीव०॥ १० ॥ चोरी पकी शिवभूति विहव्यो, जी शीके चढी रहे तो। परनारी रस लंपट रावण, ते जग मांहि विगतो ॥जीव०॥ ११ ॥ व्यसन एक ने कारण प्राणी, पाम्या दुख समूह । जे नर सघना व्यसन विलूधां, टेहनी सी कहूं बात ॥ जीव०।। १२ ॥ इम जाणी जे विसर्जे, मनि घरी सार विचार । श्री कुमुदचंद्र गुरु ने उपदेशो ते पामें भव पार ।। जीव मूके डसन प्रसार, जेम छूटे तु संसार |जीव०॥ १३ ॥ (४७) अठाई गीत गौतम गणघर पाय नमीने, कहेस्यु मुझ मति सारुगो । सांभलियो भविषरण ते भावी, अष्टाह्निका विधि वारु जी ।। १ ।। मास अषाढ मनोहर सोहे, कार्तिक फागुण मासि जी । प्राठमी धरी उपवास जी कीजे, मनुस्यु अति उल्लास जी ।। २॥ नाम भलू नंदीश्वर तेहनू, टाले झवना फंद जी । एक लक्ष उपथास तगा फल, बोले वीर जिणेंद जी ।। ३ ।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत नवी दिन पकासन कीजे महा विषय लग नाम जी। दश हजार उपवास तगू', फन पांमे शिव पद काम जी ।। ४ ।। दशमीने दीहाडे ते कोजा, कांजि कनों ग्रहार जी। त्रैलोक्य सार शुभ नाम गनोहर, पापे चलोका सार जी ।। ५ ।। साठि हजार उपवास फलेते. टाले मन ना दोष जी। एकादशीइ एवाल या नोमुखे तप संतोष जी ।। ६ ।। पांच लक्ष दश गण उपवासह जे थे पुण्य गण्डार जी । बारसिने दिवसे ले कीजे, अशागार सुभकार जी ॥ ७॥ पांच लाख तप नाम चोरासी, लाख उपचास सफल कहोइ जी। तेरसि षटस अशन वारी जे, स्वर्ग सोपाने रहीये जी ।। ८ || च्यालिस लक्ष उषयाम तगा' फल, आप प्रति अगिराम जी । एक अन्न त्रिगण व्यंजन जमीद, चउदिश दिन सूप घाम जी ।। ६ ।। सर्व सम्पदा नाम महातप, कहिये कलिमल नाने जी । एक लक्ष उपास नगुफल, गौतम गणधर भासे जी ॥ १० ॥ पूनिम नो उपवास ज करिये इद्रकेतु कप भरणी जी । विण्य कोडि शिर लाख प्रमाणे, उपन्नासह फल गरिए जी ।। ११ ।। सर्व मिलीने पांच कोडि एकतालिस, लक्ष दश सहस्र जी । वर उपबास तगा फल तहीये, अष्टालिका ब्रत करेसि जी ॥ १२ ॥ मदन सुन्दरीइ मनने रंगे, श्रीपाल व्रत की जी । मन माहि अति भाव धरीने, मन बांछित तस सींधू जी ॥ १३ ।। जे नरनारी ब्रत करीस्थ, तेहनें घरि अाग्मंद जी। रत्नकीरति गोर पाट पटोधर, कुमुदचंद्र सुरिद्र जी ।। १४ ।। (४८) भरनेश्वर गीत श्री भरतेश्वर रायस्यां शुभ कीधला रे । कोण पुण्य कीधला रे । जिणे तात यादोशन र म्या । सुरमर सेवित पाय || १ ।। समोस रणजी रचना जेहने, अण्य शालि तिहां मागइ । मानस्तंभ च्यारे निसि सुपर, हथी मान उन्हामे ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वृक्ष अशोक अनोप पुष्पित शोभे श्री जिन पासे । जन्म जन्मना रोग शोक हुए, जे दीले सहु नासे ॥ २ ॥ परिमल भार अपार गगन थी. कुसुम वृष्टि महियाये उहरि मर करे गुजारव, जांगे जिन गुण गाये | सर्व जीवनी भासा मांहि संख्य सघला जाये | सामलता दिव्य ध्वनि जननी मन मा हर्ष न गाये ॥ ३॥ चचचचन्द्र मरीचि मनोहर, उपरि चमर हलाये । जे नर नमें जिनेश्वर चरणें तेहूनां पाप गुलाये || जिंक शोभा न कलापे । जोता तृप्ति न पायें ॥ ४ ॥ भामंडल प्रति राजे । रवि रजनीकर लाजे || श्रतिगम्भीर तार तरलस्टन क्षेत्र दुदभि वाजे । जाणे मोह विजय वाजिषज नादे अंवर भाजे ।। ५ ।। मंजुल मुक्ता जान विराजित, छाजे छत्र अनूप । जेहनी इंद्रादिक जस गावे. त्रण्य जगत नो भूप ॥ प्रातिहार्य वसु संस्व विभूषित, राजे रम्य सरूप | केवलज्ञान कलित भुवनयिक ते तारे भत्र ।। ६ ।। भव्य जीव ने जे संबोधे, चोवीस श्रतिशयक्त | युगला धर्म निवारण स्वामी महिमंडल विचरंत ॥ शेष कर्म ने जीते जिनवर थमा मुक्ति श्रीवंत । कुमुदचन्द्र कहे श्री जिन गाला, लड़िये सुत्र अनंत ॥ ७ ॥ देव सिंहासन उपरि बेला, च्यारे पासे चतुर्भुख दीसें दीन दयाल प्रभु तो पाछलि, तेजपुंज देखीने जेहन ! ( ५० ) पार्श्वनाथ गीत हांसोट नगर सोहामरणो जिन सुन्दर यामानं । गर्भ महोन जेहने सह, आव्या इंद्र आनंद | पासजी जपति प्रहोजी, संकटहर संकट चुरो जी ॥ १ ॥ बादल नहीं वरसा नहीं, नहीं गाजने बीज प्रचण्ड | अउछ कोडिं वररत्ननं निल बरमे धार अलण्ड ॥ २ ॥ नयादीठो नहीं सांभल्यो, कहीं रमण तो बलि मेंह | ते तु मानगृह यांगणे दो दिन दिन अतिशय येह ।। ३ ।। २०६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंघोली गीत जन्म जाप्यो जिन जी तणो, त्यारि मिलिया अमर सुजाण । मेरु शिस्त्रर लेई जाई सिंहां. कीचू जनम विधान ।। ४ ॥ सजल धनाधन सामली, अतिकाय कला मनोहर । रूप अनोपम जोवता, काम कोटि कीजे बलिहार ।। ५ ।। मन वेराग धरी करो, ती मूवयु महीपति साज । बाल तप प्रादर्यो, तह्म कोचू प्रातम काज ॥ ६ ॥ पछे योग जुगुति तीणें करी, धारी निर्मल श्रातम ध्यान । घाति कर्मनो क्षय करो, उपन वर केवल ज्ञान ।। ७ ।। लोक प्रलोक विषय फरी. हरे पाप तिमिर जिनराज । रवि छवि नवि शोभा लहे, चालि चन्द्र कला करी लाज ।। ८ ॥ जीतिय धातिय पकडी, तहमें पाम्या परम पद स्थान | अकल' स्वरूप कला तोरी, तु तो अमिन अमेरु समान || ६॥ श्रीरतनकी रति गुरुनें नमी, कीना पावन पंचकल्याए । सूरी कुमुदचंद्र कहे जे ... हे पामें गः: विन ।।:: (५१) अधोलडी गीत रमति करी घरि प्रावीया, कहे मरुदेवी माय । पावो बच्छ अंधोलवा, रडा, त्रिभुवन केरडा राय ।। ऋषभ जी अंघोलियो अंघोलडी अगि सोहाय । अंधोलिये प्रथम जिनेंद्र अंधोलिये त्रिभुवन चंद्र ।।१।। अंगि लगाडू प्रति भल, मत्र मच तु मोगरेल । सखर ये मुम्न चोपड घालू माथे सारु केवडेल || २ ।। केसर चंदन बावना भसू मांहि व रास । मगर तसो रंग जो करी, अंगे उगटणु सुवास ॥३॥ सुन्दर खल चोली करी, नतरावे सुरनारि । सूवर्ण कुडी जले भरी, नेमि खल-खल निर्मल धारि ॥ ४ ॥ जब अघोलि उठिया अंगोछि जिन प्रग । रंग सुरंग विराजितु पहेऱ्या नाहना पीतांबर चंग ॥ ५ ॥ प्रांजि प्रांखि सोहामणी, त्रिभुवन जन मोहंत । अति सुन्दर केलर तणु', नडु निलबट तिलक सोहंत ॥ ६ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुद चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतिस्त्र उठ्या कुपर कोडामणा, करो सुख डली सार । वेसी सुवर्ण वेसणे, मेहलू मेवा मीठा मनोहार ॥ ७ ॥ खारिक लह लेलानवां दाल बदाम प्रखो। पिस्तां चारोली भली, खाता मनस्यु थाये घा' कोड ।। ८ ।। घेवर फीरणी वाजली, सखर जानेबी जाणि । मोदकने तल सांकली चण्या साकरिया रस खाणि ॥ १ ॥ एम नाना विध सूखी, करी उठ्या नाभि मल्हार । खाधा पान सुरंगस्यु, मरुदेवी करे सिणगार || १० || झिरणो झगो विराजतो बांधी घटी पागद । नवल पछेडी सोमती मोह मोलियो सुरनर वृद ॥ ११ ॥ काने कुडल लहकता, हार हैए झलकत । कारदोरी कडि उपतो, पगे धुघरडी घमकंत ।। १२ ।। बाजू बंध सोहामणी, रावडली मनोहार । रूपे रतिपति जीतीयो जाने कुमुदचन्द्र वलिहार ।। १३ ।। (५२) चौबीस तीर्थकर देह प्रमाण चौपई मावि जिनेश्वर प्रणमो पाय । सुगला धर्म निवारण राय ॥ धनुष पंचसे उ'च शरीर । कनक कांति शोभित गंभीर ॥१॥ अजित नाथ प्राये सुर लोक । जनम मरण माटाले शोक ।। धनुष प्राए लेने पचास । च पणे हाटक सम भास ॥ २ ॥ संभव जिन सुख प्राये बहु।। अहि निमा सेव करे ते महू ।। धनुष च्यारसे दे प्रमाण । हेम वरण शोभे वरणाय ॥ ३ ॥ अभिनंदम ममता दुस्ख टले । मन नां वंश्रित संघ "..." || ....... ... उठते मंडित काय । हेग कांति दोठा सुख पाय ॥ ४ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ चौबीस तीर्थकर देह प्रमाण चौपाई समलिनाथ वर मति दातार । उतारे भव सागरनो पार ।। धनुष त्रिण से सोहे देह । जात रोचि पूजो जिन एह ॥ ॥ ५ ॥ पमकांति करुणा कर क्षेत्र । सुर नर फिन्नर सारे सेव ।। चाप अहीसे मूरति मान । अरुण अनुपम दीये बानि ॥ ६ ॥ से वो सुंदर देव सुपास । जि पूरे वर मननी प्रास ।। उच पणे तनु शत युग चाप । नील वरण टाले संताग || .७ ।। चन्द्रमास चंद्रानन भलो। शत मुख सेव करे लगतिलो ।। घनुप डोस मो मान जिगणंद । गोर कांति टाले भव फंद ॥ ८ ॥ पुष्पदंत सेवो मन शुद्धि। जे पाये अति निर्मल बुद्धि ।। सोज सरामान तनु उत्तग । ___ऊनलड्डू सोभे जसु अंग ॥ ६ ॥ शीतलनाथ सुशीतल यांगिा । जे जिनयर गुण गानी खाणि ॥ नेक चाप शरीर अनुज । हेम वरण सेवे जस भूप || १० ॥ सेको देव भलो याम । जे मापे मन बंछित दान ।। ऊंच पणे विमऊ .... । धनुष हेम सम तनु जगदीश ॥ ११ ॥ पामुपूज्ये पूजो मन रंग । जे पहिरे नवि भूषरण म || सित्यर चार अरूणस्यु रूप तेह नित्य उद्वेषो चूप ॥ १२ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्न कीति एवं नुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २१३ दोहा-पुण्य नारो रे मारिणया, पुण्य Vल संसार । पुण्ये मन बन्चित मिले, रूप रंगीली नारि ॥१३ ।। पाप न कीजे पाडुया, पाग यकी दुख थाय । पापी भार्यो प्राणियो, च्यारे गति में जाय ॥ १४ ॥ चौपाई-वंदो विमल बिमल गुणवंत । जेहना घरग नमें नित संत ।। साठि सराशन देहल करयो। हेम वरण मुर्गात बह रहयो । १५ ।। समरो देव दयान अनंत । अवर न कीजे सोटा तंत ।। देह शराशन बे पंच बीरा । हाटक सरखी छवि नवि रीस ।। १६ ।। धर्मनाथ ने मन मो धरो । जिन शिवरमणी हेला परो ।। श्रीस पनर धनुष सोहंत । हेमवरण सुर नर मोहंत ॥ १७ ॥ शांतिनाथ नू समरो नाम । जिन अपात टाले से टांग ।। विसुरणां बीस शरासन वैर । हेम वरण जागो नवि फैर ॥ १ ॥ कुथु जिनेश्वर करूया कंद । __ जेहना चरण नमे सुर वुद ॥ भनुष बीस पनर तन कायः हेम बरण सुर नर जस गाय ।। १६ ।। समऱ्या गिद्धि करे अरनाय ।। __मुगति पुरी नो जे जिन साथ ।। धनुष श्रीस ऊचा अति भला । गात कुभ नरषी तनु कला ॥ २० ।। मल्लि जिनेश्वर महिमा घणो । जह टाले फेरो भवतंगों । कच अग धनुष पंच बीस । हेम वरण सेवो निषा दीश ॥ २१ ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पूजो जिन मुनिसुनत सदा । धनुष बीस तनु कलि कांति । सेवो ममि नमि तस चरण । रोग सोग नव प्रावे कदा ॥ पन्नर चाप शरीर सु हेम । जेह नामे नासे भय भ्रांति ॥ २२ ॥ पूजो पद नेमीश्वर तरणा । महावीर बंदू सात हाथ सोहे चोबीसे सेवक जन में शिव सुख करन ॥ ए उंच पणे दश धनुष मुस्याम ! पामो अविचल afare सहू समरो जिन पास । वरण भस्म लो जयना क्षेम || २३ | प्रेह कठी गौतम नामि गौतम नांमे उच प दीसे नव हाज | तु पणा । काय कला दीसे अभिराम ॥ २४ जिम पहत सहू मननी श्रास ॥ हरीत वरण दीसे जगनाथ ।। २५ ।। त्रि‍ काल । जिस मेटे भन जग जंजाल || गौतम स्वामी चौपई जस तनू । हेम वरण शोभे प्रति घ ॥ २६ ॥ जिनवर नमो । जिस संसार विषे नवि भभो ॥ सुखनी खाणि । कुमुदचन्द्र कहे मीठी ( ५३ ) श्री गौतम स्वामी चौपई लियो गौतम नाम | जिम मन वंचित पाप गौतम नासे गौतम पलाय । नामि वारिण ।। २७ ।। सी काम || मावठिजाय ॥ १ ॥ रोग | नामे सुन्दर भोग ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोसि एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व गौतम नामे गुण संपले । गौतम नामे भूपति भजे ॥ २ ॥ गौतम कांगे पहले प्राद गौतम नामि लच्छि विलास ।। गौतम नमि सब प्रघ टले । गौतम नामे सजन मिले ।। ३ ।। गौतम नामे बाधे बुद्धि । गौतम नामि नब निधि सिद्धि । गौतम नामे रूप अपार । गौतम नामे हय गय सार ।। ४ ।। गौतम नामि मंदिर घणां । गौतम नामि सुख सहु तणा ॥ गौतम नामि गमती नारि । गौतम नामे मोहे " ...... ॥ ५ ।। गौतम नामि बहुदी करा। गौतम' नामि नावे जरा ॥ गौतम नामि विष उतरे। गौतम नामे जलनिधि सरे ॥ ६ ॥ गौतम नामे विद्या धणी। गौतम नामें निविष फणी ॥ गौतम नामि हरी नवि नरे। गौतम नामें नवि प्राखडे ॥ ७ ॥ गौतम नामे नोहे शोक । गौतम नामे माने लोक ।। सेवो गौतम गणधर पाय। कुमुधर कहे शिव सुख थाय ।। ८ ।। ( ५४ ) संकटहर पार्श्वनाथनी विनती गौतम गणधर प्रणमू पाय, जेह नामे निरमल मति थाय । गासु पास जीनेन्द्र ॥ १ ॥ अमवसेन कुल कमल नभोमणी, जग जीवन जिनवर श्रीभोवन धणी । वामा राणी नंदो ॥ २॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकटहर पार्श्वनाथनी विनत कमट महा मरकरी पंचानन, 'मीक कुमुद वन हिमकर भानन । भवं भय कानन दायो ।। ३ ।। नोल वरण अति सुन्दर सोहे. नियंता सुर नर मन मोहे । मनु मंगल भावो ।। ४ ।। नगर वराणसी जनम ज कहीये दरशन दीठे सिव सुत्र लहीये । महीयले महिमावंत ॥ ५ ॥ बाल पणे जर ... .... सीघो, मोह महाभटनो क्षय कीयो । लीषु पद अरिहंत ॥ ६ ॥ समोहसरण जीनवस्नु राजे, वेबिल ज्ञान कसा प्रति छाजे । ___ भाजे भव संदेह ।। ७ ।। वाणी मधुरी मनोहर गाजे, गण वाजा बाजि ज बाजे। लाजे पावस मह ।। ८ ।। देस बिदेस बीहार करीने, कर्म पलोन सहु दूर हरीने । पाम्या परमानंदो ॥ ६ ॥ तुम नामे सह भावे भाजे, तुम नामे सुख संपत्ति छाजे । छुटे भवना फंद ।। १० ॥ रोग सोग चिता सहु नासे, तुम नामे सही मत माजे । गारद अंग अपार ॥ ११ ।। तुम नामे मेवल भद जलझर, रोरा चढो केशरी अति दुद्धर । तेन करे कन धार ।। १२ ।। तुम नामे शीतल दाबानल, तुम नामे फणपति अति चंचल । नेह न करे मन सोस ।। १३ ।।। उद्धति अरियण थलम असाकर .... ., टले दुष्ट जलंधर । न हो बंधन सोख ॥ १४ ॥ मात पिता तुम सज्जन स्वामि, तल बांधव ती अंतर जामि । तमे जग गुरु मन्ने ध्याउ ॥ १५ ।। संकटहर :श्री पाश जिनेश्वर, हांलोट नयरे यतिसय सोभाकर । नित नित श्री जीन गाउ ॥ १६॥ जे नर नारि मनसु भएसे, तेहने घर नव निध संपसे । लहसे अविचल ठाम ।। १७ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक रतनकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व श्री रतनकोति सुरिवर अतिराय, तेह परमादे जिन गुण गाय । नम्मंड गुर जामि !! : ॥ { ५५ ) लोडरण पार्श्वनाथनी विनती समरू' सारदा देषि माय, अनिशि सुर नर सेवे पाय । पाये वचन विनास ॥ १ ॥ लार देस दीसे अभिराम, नगर उभोई सुन्दर ठाम । जाहा छे लोडण पाश ॥ २ ॥ प्रावे संघमली मनरंगे, नर नारि वांदे सहु संगे। पूजे परमानंदो ॥ ३ ॥ जय जयकार करे मन हरणे, जिन उपर कुसुमांजलि वरषे । स्तवन करे बहु छंदे ।। ४ ।। गाये गीत मनोहर सादे, पच सबद बाजे करि नादे।। ........ .... नारि दृद ।। ५ ।। बेलुनी प्रतिमा विल्यात, जाणे देस विदेसे वात । सोहे शीस फरसेंद ।। ६ ॥ सागरदत्त हतो वणजारो, पाले नियम भलो एक सांगे। जिन वंदी जय वानी ।। ७ ।। एक समय वाटे उतरीये, जम वावेला जित सांभरीयो । संच करें प्रतिभानो ॥ ८ ॥ बेलुनी प्रतिमा प्रालेखी, वांदी पूजीने मन हरखी। ते पथरावि कुपे || ६ || त्यारे ते वलुनी मूरत, जल मांहि थई सुन्दर सूरव । अंग अनोपम रूपे ।। १०॥ वजारो ते वेहेलो प्राव्यो, बलतो लाभ घणो एक लाग्यो । उतरीयो तेणे ठामे ।। ११ ॥ सागरदत करे सु बिचार, वाटे कुशल न लागी वार । ते स्वामिने नामे ॥ १२ ॥ राते सुपन हवू ते त्यारे, केम नांखी कूष मंझारे | काढ ईहा थी मझने ।। १३ ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ तुकाचे तांतरण साठे, काठे हु न वलागु मामारे । तुझने ।। १४ ।। बणजारो जाग्यो बेलक सु., उठो उलटकर वरीयो मनसु । गयो वहां परभाते ॥ १५ ॥ लोडरण पार्श्वनाथनी विनी ! सज्जन साधे बात करीने मुक्यो तांतरण जिन समरीने । सागरते जाते ।। १६ ।। कांचे तांतण जिनवर बैठा, लेहे कंता सह लोके दौठा । हलवा फूल समान ॥ १७ ॥ कोणे जुहा आप्पा उलट दान ॥ १८ ॥ नवि जाय । चित असंभम याय ।। १२ ।। बाहेर पधारावि से साऱ्या, जे जे जन सहु जो इसे हरष न भाय, वचने रूप कहु नानाविध वाजित्र व जाडे ' आगल श्री खेला न चाहे । माननी मंगल गाये ।। २० ।। r श्राया अधीक दीवाजा साथे बणजारे लोधा जिन हाथ . रम्य डंभोई गाम ॥ २१ ॥ रुहे दीन मूरत जोहने, बारु पूजा नमण करीने । पधराव्या जिन धामे ॥ २२ ॥ नाम धरु ते लोण पास, पंचम काले पूरे श्रास 1 arer विधन निवार ।। २३ ।। नामे चोर नडे नहीं वाटे, ऊजउ अटवी डूंगर घाटे । नदीमो पार उतारे ।। २४ ।। भूत पिशाच क्षणों भय टाले, वेडा मंश न संश्वन । डाकीणी दूरे से || २५ ॥ व्यंसर या पाणी थई जाये, जस नामे विषहर नवि खाये । बाघ न आवे पासे ॥ २६ ॥ भव भवनी भावे जे मंजे रा मांहि बेरी नवि गंजे । रोग न जाये गे ।। २७ ।। हने नामे नासे सोक, संकट सबला थाये फोक लक्ष्मी रहे नित संगे ॥। २७ ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कृतित्व २११ नाम जपंता न रहे पास. जनम मरण टाले संताप । पे मुहिगीरास ॥ २९ ॥ जे नर समरे लोढरण नाम, ते पामे मन यांछित काम | कुमुदचंद्र कहे भाषा ॥ ३० ॥ ( ५६ } जिनवर विनती प्रभु पाय लागु करू सेव ताहारी । तमे साभलो श्री जि नराव माहारी ॥ मन्हे मोह वेरी पराभव करे छ। घौगति तणा दुकाव नहीं वीसरे छ । १ || हूं तो ला चोरासिय योन माहि । भयो जनम ने मरण करे मभाहे ।। पूरा में कऱ्या कम जे धर्म छाडी। कबहु ते सहु साभलो स्वामी माडी ॥२॥ हूँ तो लोभ लपट यो कपट कीधा। पण मोलवी परतणा द्रव्य लीपा ।। बस्सी पंड पोस्यो करी जीव हंसा। करी पारकी कुतली निज प्रसंख्या ॥ ३ ॥ मे तो बालीया पार का मर्म मोसा । नहीं भासीया पापणा पाप दोसा ।। सदा संग कीचो परनारी केरो। नहीं पालीवों धर्म जिन राज तेरो ॥४॥ पद्मोधर तणे पास ..... ... ... । नहीं संभस्यो जिन उपदेस सुयो । हूँ तो पुत्र परिवार ने मोह मातो। नहीं जारणीयो जिनवर कास जातो ॥ ५ ॥ एहरिमनु पाप करी पंड मार्यो। माहा मुरखे नरभव फोक हार्यो । गयो काल संसार भाले भमंता। सह्मां ते प्रति दुर्गति दुख अनंता ॥ ६ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० प्रभाती घणे कष्ट जिनराज नु देव पाम्यों। हवे सर्व संसारना दुक्ल वाम्यो ।। जारे श्री जिनराज नु रूप दोष्ट। त्यारे लाचने ख्यढलु अमीय ल ।। ७ ।। प्रावी कामधेनु घर माहे चाली। भरी रत्नचितामणी हेम थाली । जाणू पर तरणों प्रागणे कल्पवृक्ष । ____ फलो पालव वाछित दान सोक्ष ।। ८ ।। गयो रोग संताप ले सर्व माठो । जरा जन्मने मरण नो बासना हाठो ॥ हथे सरणे प्राप्या तणो साज कीजे । __ कऱ्या जे अपराध सह स्वमीजे ॥ ६ ॥ घणु विन, नबू छु जगनाथ देवो । मने ग्राप जो भव भज स्वामि सेवो ।। एह वीनती भावसु जे भरणसे । कुमुदचंद्र नो स्वामि शिव सौख्य देसे ॥ १० ॥ ( ५७ ) राग प्रभाती जाग रे भवियण उघ नवि कीजे । थयुसु प्रभावित नोकार गणीजे ।। प्रांवली ॥ प्रथम परहंतनू लीजिये नाम । जेम सरेह अडलों वचित काम ॥ जागो० ॥ १ ॥ सिद्ध समरता प्रालस मूको । माणस जनम ते फोकम घूको । जा० ॥ २ ॥ पंच आपार पाले यतिराय । तेहर्ने बंदता पाप पलाय ॥जा० ॥ ३ ॥ जे उक्झाय साहे श्रुतवंत । तेह ध्यान धरिये एक चित ।। जा० ॥ ४ ॥ साधु संमरीई जे अत पाले। निर्मल ताप करी कर्ममल टाले ॥ ज० ॥ ६ ॥ पंच परमेष्ठि जे ए नितु ध्याई । कहे कुमुवचंद्र से नर सुखी थाये । बा ॥ ७ ॥ वह Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महारक रानकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ( ५८ ) राग प्रभाती जागि ही भविमण सफल विहाणु । वृषभ जिन अजित संभव सुखकारी । सुमिति पद्मप्रभ सागर गुण गाव' । जिनकी सुपासना गुरण नरण ध्याये ॥ ला० ॥ ३ ॥ चिसो चंद्रप्रभ देव जिनराज पुष्पदंत नमों जिन सरे काज ॥ जा० || ४ || सकल सुख खांरगी सीतल जिनदेव । समरी श्री मांस सुर नर करे सेव । जा० ॥ ५ ॥ पूजतां वासुपूज्य गुरण सार नाम जिनराज नूल्योखले भांण ॥ १ धर्म जिन शांति कुध भर महिल । राग प्रभाती : देव प्रभिनंदन प्रगट्यो भवहारी ॥ जा० ॥ २ ॥ नमो मुनिसुव्रत नमि दुःख चरण । उठो पछे विमल अनंत भवसागर पास जिन घास पूरे महावीर । एह चोवीस जिन जे नर नारी ए बीनती गास्ये । देव गूरु भंग कीवी जैसों कामनी मल्ल | जा० ।। ७ ।। नेमि जिनवर मनवांछित चली ॥ जागि हो भवियण उंधीये नहीं घणू । तार ।। जा० ॥ ६ ॥ पुरण | जा० ॥ ६ ॥ मेरु समधीरं ॥ जा० ॥ ॥ पंच कहे कुमुदचन्द्र ते नर सुखी थास्ये || जा० ॥ १० ॥ ( ५६ ) सु प्रभाति तू नाम ले जिन तर ॥ प्राचली ॥ १ ॥ जिम राजनें देहरे जहए | देव मुखि देखतां जिम सुख लहीये | जागि० ॥ २ ॥ पद बंदी श्री गोर क्रेग । छुटी जिम वली भवतां फेरा || जागि०॥ ३ ॥ साख्य समायक कोजे । परमेष्टी नाम जपीजे || जागि० ॥ ४ ૨૨૧ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ प्रभासी ते पछी गुरु वचनामृत पोजे । जिम भव दुख जलांजलि दीजे ॥जागि०॥ ५ ॥ कीजीये संगति साधुनी रही। जहथी उपजे नहीं मतिम ही जागि०।। ६ ।। क्रोध माया मय लोभ मूकीजे । हसीय सुपामने धानजदीजे जागि०।। ७ ।। बोलिये वचनते मर्व सोहात्। जेही उपजे नहीं दुख जातु ॥जागि०॥ ८ ॥ मूकीम मोह जंजाल सहू खोटु ।। जोडस्ये को नहीं मायुष बेटे जागि। ६ ।। जायछे योषन थाप तु डार्यो। तप जप करीस्ये ने लीजीये लाहो ॥ जागि० ॥ १० ॥ कहे कुमुदचन्द्र जे एह चितवस्य । तेहने परि नितु मंगल विलस्ये ।। जागि ॥ ११ ॥ राग प्रभाती आवो रे सहिय सहिलडी संगे । विघन हरण पूजीये पास मनरंगे ।। प्रांचली ।। नीलबरण तनु सुन्दर सोहे । मुनर किन्नरना मन मोहे ।। पादो० ॥१॥ जे जिन वंदिता बांछित पूरे। नाम लेता सह पातक बुरे ॥ पावो० ॥ २ ॥ जे सुप्रभाति उठी गुरण' गाये । तेहर्ने घरि नव निधि सुम्न थाये ॥ भावो० ।। ३ ।। भय भय वारण त्रिभुवन नायक । दीन दयाल ए शिव सुख दायक ।। भावो० ॥ ४ ॥ अतिशयवंत ए जगमाहि गाजे । बिधन हर बार विहद विराजे || पायो ।। ५ ।। जेहनी सेव करे धरणेद्र । जय जिनराज तु कहे कुमुदचन्द्र ।। प्राबो ॥ ६ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २२३ राग प्रमाती उदित दिन राज रुचि-राज सुविधाते । भाथ भावंच भावप मुभ जातं ॥ मुचहे मंद मंचकं नत सुरं। भज भगवंत ममि भूरि भाभासुरं ॥ १ ॥ स्यक्त तारुण्य पुत तरुणी बर भोगं । योग युक्ता यति ध्यान धूत योगं ।। मु० ॥ २ ॥ धृतह सित बदन कज भविक पात शातं । विगत र नम जन संपातं ३ ।। सुरवर तुलि मुख र मुख भूरि मुखमा करं | विश्व सुख भूमिनो वंधनत्व हरं ।। मु० ॥ ४ ।। विगत तारा वर विहत धन तेंद्र। हंस मासा प्रमुद कुमुदचन्द्र ।। मुपहें मंदत्वं मंचकं नत सुरं ।। मु० ।। ५ ।। राग पंचम प्रभाती पावोरे साहेलो जहए यादव यणी । पाउले लागीने कीजे कीनती घणी॥ आवडो पाउँबर करी सेहने ते प्राध्या। तोरण थी पाछा वली जाता लोक हसाव्या ॥ प्रा० ॥१॥ विण कि किम मूकी ने चाल्या रुड़ा सामला । मनुस्यु निमांसी जुयों मुकी धामला || प्रा० ॥ २ ॥ पीउद्धा पाखिरे किम मंदिर रहीद कुमुदचन्द्र नो स्वामी कृपाल कहीइ ॥ या० ।। ३ ॥ राग वैशाष प्रभाती जागि हो भोरु पयो कहा सोबत ।। सुमिरतु श्री जगदीश कृपानिधि जनम काधिक खोवत | जागि।। १ ।। गई रजनी रजनीस सिधारे, दिन निकसत दिनकर फुनि उक्त । सकुचित कुमुद कमलवन विकसत, संपति विपति नयननी दोउ जोबत ।।जागि०।। २ ।। सजन मिले सब पाप सवारथ, तुहि बुराई प्राप शिर ढोबत । कहत । मुदचन्द्र यान भयो तुहि, निकसत घीउ न नीर विलोबत जागि।। ३ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ चन्दा गौत (६) चन्दा गीत विनय करी रामुल कहे, चंदा ! वीनतडी अवधारो रे। उज्जल गिरि जई यीनवो, सदा ! जिहां थे प्राण प्राधार रे । गगने गमन साह बड, चंदा ! अमीय वरपे अनंत रे । पर उपगारी तू भलो, चंदा ! बलि बलि बीनवु संत रे ॥ १ ।। तोरण प्रावी पाछा यल्या, नथा ! कवरण कारण मुझ नाथ रे । अह्म तणो जीनन नेमजी, चंदा ! स्त्रिण खिए जोउछ पंथ रे ॥ २ ॥ विरह सणां दुख दोहिला, चंदा ! ते किम में सहे वाय रे । जल विनां जेम माछली, चंदा ! ते दुख में न कहे वाय रे ॥ ३ ॥ में जाम्बु' प्रीउ आवस्ये, चंदा ! करस्ये हाल विलास रे। सप्त भूमि नेउरडे, चंदा ! भोगवस्यु सुसराशी रे ॥ ४ ॥ सुन्दर मंदिर जालियां, चंदा ! झलके छ रत्ननी जालि रे । रत्नखचित सडी सेजडी, चंदा ! मगमगे धूप रसाल रे ॥ ५ ॥ म: सुशार लसी, जरथ तु प्रार रे। वस्त्र विभूषण नित नवां, दंदा ! अंग विलेपन सार रे ॥ ६ ॥ षट रस भोजन नव नवां, वंदा ? सूखडी नो नहीं पार रे । राज ऋघि सहू परहरी, चंदा ! जई चढ्यो गिरि मझारि रे ।। ७ ।। भूषा मार करे घणु' चंदा ! नग में नेउर झमकार रे । कटि तटि रसना नडे घनि, चंदा ! न सहे मोलीनो हार रे ।। ८ । झलकति झालिह नह, चंदा ! नाह विना फिम रहीये रे। खोटली खंति करे मुभनें, चंदा ! नागला नाग सम कहीये || दिली मोरु नलबट दहे, चंदा ! नांक फूली नडे नांकि रे। फोकट फरकै गोफणे, चंदा ! चोट लेस्यु' कीजे चाकरे ॥ १० ॥ सेस फूल मी नवि धम, चदा ! लटकती लन सोहावे रे। धम धम करता घुघरा, चंदा ! चोचीया विछि सम भाव रे ॥११ ।। जे सूतों चिश्रित सरडे, चंदा ! ते रहे आज अगासि रे । उन्हाले रवि दोहिलो. नंदा ! ते किम सहे गिरि वासे रे ।। १२ ।। वरसाले वरसे मेहलो, चंदा ! बीजलो नो भातकार रे। झंझावात ते वाज से, चंदा ! किम सहे मुझ भरतार रे ।। १३ ।। हिम' रले हिय अति पड, चंदा ! थर थर कंपे काय रे । ए दिन योग छे दोहिलो, चंदा ! स्यु कारस्ये यदुराय रे ॥ १४ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २२५ पोपटडो बोले पाबवू, नंदा ! भोर करे बहु सोर रे। वापीयडो पिट पिउ लबे, चंदा ! कोकिल करे दुस्ख घोर रे ।। १५ ।। कर जोडी लागू पाउले चंदा ! एटन करो मुझ काज रे । जाउ मनावो नेम ने, चंदा ! यापू वघामणी पाज रे || १६ के अंगुलि दश दंते धस, चंदा ! जई कहो चतुर सुजाण रे । जे मनमथ जग भोलवे, चंदा ! ते तुझ मनि ले प्रागा रे !! १ !! ते मांटें मनमय मोकली, चंदा ! कंतने करो प्राधार रे। सोल केला करी दीपतो, चंदा ! लु रहें हर शिर लोनो रे ।। १८ ।। मुझ विरहणी ना दौडा, चंदा ! वरस समान ते श्राव रे। जो तहह्म काम ए नवि करो, चंदा ! जगह सारण थाय रं ॥१९॥ संदेसो लेई संचरों चंदा ! गयो ते नेमि जिन पासे रे। पुगति करी घरगुप्रीव्या, चंदा ! मनस्यु भयो ते निरास रे।। २० ॥ पाशावली प्रावी का चंदा ! ते तो न माने बोल रे। सांभलि रायल सांचरी चंदा ! भकी मोहनो जंजाल रे ॥ २१ ॥ संयम लेई व्रत आचरी चंदा ! सोलवे स्वर्ग हवो देवरे । अष्ट महा ऋद्धि हर्ने चंदा ! अमर अमरी करे सार रे ॥ २२ ।। श्री मूलसंघे मंडणों चदा ! सुरिबर लखमीचन्द रे। तेह पाटि जगि जाणिये, चंदा ! अभयचन्द मुरिणद रे ॥ २३ ॥ पाटि अमय नदी ह्या चंदा ! रत्नकीरति मुनिराय रे । कुमुदचन्द्र जस उजलो, चंदा ! सकल वादी नमें पाय रे ।। २४ ।। तेह् पाटि गुरु गुरगतिलो, चंदा अभयचन्न कहे चांदो रे । जे गास्ये एह चदलो, चंदा ! ते जगमा घरगु नंदो रे ।। २५ ।। ॥ भ० अभयचन्द्र कृत चंदा गीत समाप्त ।। राग नट (७०) पेखो सखी चन्द्रप्रभ मुखचन्द्र ।। टेक ।। सहस किरण सम तनु को प्राभा, देखत परमानन्द पेखो०॥ १॥ समयसरण सूभभुति विभूषित, सेव करेत सत इन्द्र । महासेन कुल कंज दिवाकर, जग गुरु जगदानन्द ॥पखो०।। २ ॥ मनमोहन मूरति प्रभु तेरी, मैं पायो परम मुनींद । . . श्री शुभचन कहे जिन जी मोक्, खो चरन अरविंद पेखो।। ३ ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ मुभव हमची राग कल्याण मादि पुरुष मजो आदि जिनेंदा ।। टेक ॥ सकल सुरासुर शेख सु मंतर, नर खग दिनपति सेवित चंदा ।। जुग आदि जिनपति भये पावन । पति उदारण नाभि के नंदा ।। १ ।। दीन दयाल कृपा निधि सागर । मार करो प्रष तिमिट दिनेदा आदि।। २ ।। केवलग्यांन थे सब कछू जानत | काह कहू प्रभु मो मति मंदा॥ देखत दिन दिन चरण सरमा त : विनती करत यो सूरि शुभचन्वा प्रादि०।। ३ ।। राग सारंग कौन सखी सुध लावे श्याम की ।। कोन सस्त्री० ॥ मधुरी धुनी मुखचन्द विराजित, राजमति गुणगावे ।। श्यामः ॥ १ ॥ अंग विभूषण मनोमय मेरे, मनोहर माननी पावे । करो कयू तंत मंत मेरी सजनी, मोहि प्राननाथ मीलावे श्याम ॥ २ ॥ गजगमनी गुग मंदिर श्मामा मनमथ मान सतावे । कहा अवगुन मन दीनदयाल', छोरि मुगति मन भावे ।।श्याम०।। ३ ॥ सम सखी मिलि मन मोहन के ढिग, जाई कथा सु सुनावे । सुनो प्रभु श्री शुभचन्द्र के साहेब, कामिनी कुल क्यों लजावे ॥ ४ ॥ (५) शुभचन्द्र हमची पावन पास जिनेश्वर वंदु अंतरीक्ष जिनदेव ।। श्री शुभचन्द्र तणा गुण गाउं, वागवादिनी करि सेव रे ॥ १ ॥ शणि वयणी मृग नयणी पावो सुन्दरी सहू मलि संमें । गाऊ श्री शुभचन्द्र तणोवर पाट महोव रंगे ।। २॥ श्री गुजरात मनोहर देशे, जलसेन नगर सोहावे । गढ मठ मंदिर पोलिपगार, सबल खातिका भोवरे ।। ३ ।। 'हुनड' वंश हिरणी हीरा, सम सोहे मनजी धन्य । तस मन रंजन माणिक दे शुभ, जामो सुन्धर सष्ठ रे ।। ४ ।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रत्नकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एव कृतित्व बालपणे बुधिवत विचक्षण, विद्या चउद निधान । जैनागम जिन भक्ति करे एह, जिन सासन मह तान रे ।। ५ ।। व्याफर्ण तर्क वितझ अनोपम, पुराण पिंगल भेद । अष्ट सहस्री प्रादि गंथ अनेक जु, च्हों विद जाणो वेद रे ।। ६ ।। लघु दीक्षा लोधी मन, वाल जयकारी, नवल नाम सोहे अति सुन्दर, सहेज सागर ब्रह्मचारी रे || ७ || छण रजनी कर वदन विलोकित, प्रर्द्ध ससी सम भाल । पंकज पत्र समान सुलोचन, ग्रोवा कंबु विशाल रे ॥ ८ ॥ नांथा शुक चंचीसम सुन्दर अधर प्रवाली वृद। रक्तवणं द्विज पंक्ति विराजित, नीरखंता आनन्द रे ॥ ६ ॥ रूपे मदन समान मनोहर, बुद्ध अभयकुमार । सीले सुदर्शन समान सोहे, गौतम सम अक्सार रे ।। १०॥ एकदा अति प्रानंदे बोले, अभय चन्द्र जयकार । सुणयो सह सज्जन मन रंगे, पाट तरणो सुविचार रे ॥ ११ ॥ सहेज सिन्धु सम नहीं को पतिवर, जगमा जारगो सार । पाट योग छ सुन्दर एहने, प्रापयो मछ नो भार रे ॥१२॥ संघपति प्रमजी हीरजी रे, सहेर वंश शृगार । एकलमल्ल प्रखई प्रति उदयो, रत्नजी गुरण भंडार रे ।। १३ ॥ नेमीदास निरूपम नर सोह, अब ई प्रबाई वीर । दुबड़ वंश शृंगार शिरोमणि, बाधजी संघजी थोर रे ॥ १४ ।। रामजीनन्दन गांगजी रे, जीबंभर वर्द्धमान । इत्यादिक संघपति ए सात भावा श्रीपुर गाम रे ।। १५ ॥ पाट महोछव मांड्यो रंगे, संघ चतुर्विध लाव्या। __ संघपति श्री जगजीवन रासो, संघ सहित ते आव्या रे ॥१६॥ दक्षण देशनो गछपती रे, धर्म भूयण तेडाव्या । अति भाडंबर साथे साहमो करीने तप धराध्या रे ॥ १७ ॥ शुभ मुहरत जो जिन पूजा, शांतिक होम विधान । जमएवार युग ते जल जागा, प्रापे श्रीफल पनि रे ॥ १८ ॥ संवत् सत एक बीरोरे, जेठ वदी पडवे चंग । जय जयकार करे नरनारी, काले कन्नश उत्तग रे ।। १६ ।। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं गीत धर्मभूषण सूरी मंत्र ज प्राप्या, थाप्या थी शुभचन्द्र । अभयचन्द्र ने पाटि विराज, सेये सज्जन 'इसर २८ .. दिम दिम मद्दन तबलन फेरी. सत्ताथेई करंत । पंच शबद वाजिन ते वाजे, नादै नभ गज्जत रे ।। २१ ।। मनोहर मानिनि मंगल गावत, गंद्रव करत सुगांन । बंदीजन बिझदावली बोले, धापे अगणित दान रे ।। २२ ।। थी मूलसंघ सरस्वती गछे, विद्यानन्दी मुनींद । मल्लि भूषण पद पंकज दिनकर, उदयो लक्ष्मीचन्द्र रे।। २३ ॥ सहेर वंश मंडण मुकटामरिण, अभयचन्द्र माहृत । मभयनन्दी मन मोहन मुनिवर, रत्नकीरति जयवंत रे ।। २४ ॥ मोठ वंश भर हंस विचक्षण, कुमुदचन्द्र जयकारी । तस पद कमल दिवाकर प्रगट्यो, सेव करे नरनारी रे ॥ २५॥ प्रभयचन्द्र गस्यो गछनायक सेषित नृप नर वृद । तस पाटे गुरु श्री संघ सानिध थाप्या श्री शुभचन्द्र रे ॥ २६ ॥ परवादी सिंधुर पंचानन, वादी मां अकलंक । अमर मांहि जिम द्र विराजे, सरवरि मांहि ससांक रे ।। २७ ॥ दिवस मांहि जिम रवि दीपंतो, गिरि मां मेरु महंत । तिम श्री अश्यचन्द्र ने पाटि, श्री शुभचन्द्र सोहंत रे ।। २८ ।। श्री शुभचन्द्र तपीए हमची, जे गाये जिन धामे । श्रीपाल विवध वदे ए वांगी, ते मन वंछित पाये रे ।। २६ ।। ॥ इति श्री शुभचन्द्रनी हमची समाप्त ।। प्रमासि सुप्रभाति की श्री गोर गायो । जेम मन वंछित वेग ले पाउ | सूरी अभयचन्द्र नां पद प्रणमीजे । जमन जनम तराई दुख गमोजे ।। सु० ॥१॥ पंच महाव्रत सुध ला धारी । पंच समिति धरे अंग उदारी ।। सु० ॥ २ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व त्रय गुपति गुरु चरित्र पाले । क्रोध माया मद लोभ ने टाले || सु० ॥ ३ जेहने शील आभूषण सोहे । दोठडे भवित्रयाना मन मोहे ॥ सु० ॥ ४ ॥ वरण सुधारस पां प्रति मोठा । निरखतां लोचने श्रमिय पईठा || सु० || ५ | वचन कला करो विषव ने रंजे । वादी अनेक तरणा मद भेजे || सु० ॥ ६ ॥ श्री मूलसंघ मंडण मुनिराज । प्रगट्यो संबोधवा काजि ॥ सु० ॥ ७ ॥ अभयचन्द्र दीठे जगत मन मोहे ॥ सु ॥ ८॥ रत्नको रति पद कुमुद वाशि सोहे । तारण तरस गय अबधार नित नित वंदित विबुध श्रीपाल ॥ सु० ॥ ६ ॥ ( ७ ) प्रभाति नमो देव जिगंद | रत्नकीत सूरी सेवो ग्रानंद || चली || सुप्रभाति सबल प्रबल जेणें काय हराव्यो । जाला पोरमांहि यतीये वधाव्यो || सु० ॥ १ ॥ बाग्वादिनी वदने बसे एहने । एहनी उपमा गडपती गिरवो गुरण गम्भीर । शील सनाह ધરે कही से केहनें ॥ सु० ॥ २ ॥ मनधीर || सुरु || ३ | गणेश कहे ते शिव सुख पाये || सु० ॥ ४ ॥ जे नरनारी ए गोर गीत गायें । (5) प्रभाति श्रावो सालही रे सहू मिलि संगे । वादो गुरु कुमूदचन्द्र ने मनि रंगि || भावो० ॥ १ ॥ २२६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० छंद श्रागम अलंकार तो जाण । वारु चिन्तामरिण प्रमुख प्रमाण || श्रावो ॥ २ ॥ तैर प्रकार ए चारित्र सोहे | दोठडे भविथण जन मन मोह || वो० ॥ ३ ॥ साह सदाफल जेहनो तात । सरस्वती गछतरणो सिणगार । पद एवं गीत धन जनम्यो पदमां खाई मात || श्रावो || ४ || काल काफलनी मार || श्रावो० || ५ ॥ बेगस्यु' जोतियो दुर्द्धर विख्यात । महीयले मोढ बंझे हाथ जोडाविया वादी संघात || प्रावो ॥ ६ ॥ जे नरनारी ए गोर गुण गाये । संयमसागर कहे ते सुखी थाये || भादो० ॥ ७ ॥ गीत ( ६ ) श्री श्रादि जिन नमी पाय रे, प्रणमी भारती माय रे । गास्युं गछपति राय रे, गातां सुख बहू थाय रे ! श्रावो साहेली सहली नारि रे, वांदो कुमुदचन्द्र सार रे । रतनकीति पार्टि उदार रे, लघु पणें जीत्यो जिणे मार रे ।। श्रचिली।' गोमंडल नयर विशाल रे, तिहो बसे मोढ वंश गुणमाल रे । सदाफल साह गुणवंद्र रे धरि रामापदमा संत रे || मो० || ते बेह कुखि उपनो वीर रे, बत्तीस लक्षण सहित शरीर रे । बुद्धि बहोत्तरि छे गंभीर रे, वादी नग खंडन वच्च समधीर रे || श्रादी० ॥ श्री मूलसंघे गोवम समान रे, सरस्वति गछ महिमा निधान रे । मोटा महीपति मान रे || भादो ० ॥ त्रयोदश चारित्र छे अभंग रे | दरशन दीठे उपजे रंग रे || भावो० ॥ रश्न कीर्ति बोले वाणी रे, अमृत मीठी श्रमीम समाशिरे । बात देशांतरे जांणी रे, पाटि आप्यो सुख खांणी रे || श्रावो ॥ तनू कनक समान रे, पंच महाव्रत पाले चंग रे, बावीस परीक्षा सहे अंगिरे, ... कहांन जी सहसकरण महिलदास ने वीर भाई गोपाल पूरे आसरे । पाट प्रतिष्ठा महोत्सव की रे, जग मां यश बहु लीघ रे || श्रावो० ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रलकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व बारडोली नगरे मनोहार रे, प्राप्यो पदनो भार रे । तब हवो जय जयकार रे. हे संयमसागर भवतार रे ॥ प्रावो०॥ राग बन्यासी श्री नेमिश्वर गीत सखिय सहू मिलि वोनवे वर नेमिकुमार । तोरण थी पाछा वल्या. करीस्पी रे विचार ।। १ ।। राणीमती अति सुन्दरी गुणनो नहीं पार । इंद्राणी नहीं अनुसरे जेहनू रूप लगार ॥ २ ॥ वेणी विशाल सोहामणी जीत्यो श्याम फरिणव । __ भाल कला प्रति हबड़ी, परधो जस्योषन्द ।। ३ ॥ प्रांखडली कज' पाखडी, काली मरिणयाली । काम तणा शर हारिया जेहन सु नीहालो ।। ४ ॥ प्रानन हसित कमल जस्यु' नाक सरल उतंग । घण करीस्यु' वखाणीये सुद्धा चंच सुचंग ॥ ५ ॥ अरुण अधर सम जपता जेहवी पर वाली। वचन मधुर जांणी करी कोयल थई काली ॥ ६ ।। कंठे कंबु हरावीयो हेय. हरे चिन्त । बाहुलता प्रति लेहकती कर मन मोहंत ।। ७ ।। प्रधर अनोपम पातलू जेहन पोयण पांन । हरी लंकी कटि जाणिये उरूं रंभ समान ॥ ८॥ पान्हीस उची अति रातडी प्रांगलष्टी तेहवी। सर्व सुलक्षण सुन्दरी नहीं मलसे एहवी ।। ९॥ रहो रहो लाल पाछा चलो कस्य वचन ते मानो । ___ हास विलास करो ती अलि घणू माताणि ॥ १० ॥ एह वचन मान्यु नहीं लीधो संमम भार । ___ तप करीस्यां सुख पामिया सज्जन सुस्वकार || ११ । कुमुदचन्द्र पद बांदलो अभयचन्द उदार । धर्मसागर कहे नेमजी सहू ने जय-जयकार ॥ १२ ।। || इति श्री नेमिश्वर गीत ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . पद एवं गीत गीत राग सारंग प्रावो रे भामिनी गज वर गमनी । वांदवा अभवचन्द्र मिली मुगनमणी ।। आंचली ॥१॥ मुगताफलनी थाल भगैजे । गछ नायक अभयचन्द्र वधावीजे ।। श्रा० ॥२॥ कुकुम चन्दन भरीय कचोली। प्रेमे पद पूजो गोरना सहूमली 1। प्रा० ॥ ३ ॥ हुँबड़ वंशे श्रीपाल साह तात । जनम्योको कोडरमात '! मा: ।। ४ ।। लघु पणे लीयो महाबत भार । मन वश करी जीत्यो दुद्ध र मार ॥ प्रा० ।। ५ ॥ तर्फ नारक प्रागम अलंकार । अनेफ शास्त्र भण्यां मनोहार !! प्रा० ।। ६ ॥ भट्टारक पद एहने छाजे । जेह्नो यश जगमा वारू गाजे ।। प्रा० ॥ ७ ॥ श्री मूलसंधै उदयो महीमा निधान । पाचक जन करें गेह गुण गान 11 मा० ॥८॥ कुमुदचन्द्र पाटि जयकारी । धर्मसागर कहे गाउ नरनारी ॥ आ० ॥१॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रनकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कुमुवचन्द्रनी हमची सुन्दर नर एक निरुपम उदयो. अवनी अधिक उदार । मूलसंघ मुगटामणि दिनमणि सरसति गछ भंडार रे ॥ १ ॥ हमषजी माहरी हेलि रे, गोरनी बहो मोहन वेलि । रनकोरति पाटई कुमुदचन्द्र सोहे, सेवो सजन साहेल रे ॥ २ ॥ सकल' पर गुणे पारी मंख्ति, गण्डल धन पाय ! सदाफल सा तस नयरि, सुन्दर पदमाबाई धन पाय रे ॥३॥ एबेहू फूखे नर निपनो पावन पुरुष पवित्र । बास ब्रह्मचारी संग नहीं नारी, समकित चित सोहें वितरे ॥४॥ सामुद्रिक शुभ लक्षण सोहे, कला वहोत्तरि अंग । चतुर चउरलहे पंच प्रेमे बहे पण्य रयण हरे दंग रे ॥ ५ ॥ सील सोहागी ज्ञान गुणोकरी, कंदर्प वर्ष हरायो । माग्य मापणे सोहे गोर सजनी, उत्तरथी प्राहां प्राको रे ॥ ६ ॥ संपत्ति काहानजी सेहेस करण धमवीर भाई गूरो मल्लिदास । गुण मंडित गोपाल सहुमली, प्राध्यो पट्टोधर पास ।। ७ ।। कल्याणकीरति प्रचार प्रनोपम, उपम अवनी अपार । महिमाबत महीमा मुनिधर, माने मोटा महित रे ॥ ८ ॥ संवत् सोल छपन्ने संवत्सर प्रगट पटोधर थाप्या । वारबोली नयरे रत्नकीरति गोरे सुर मंत्र शुभ प्राप्या ॥ ६ ॥ दिन-दिन दीपे परमत जीये जति जिन शासन धन्द्र । श्रीसंघ सानिध नाम कहे, गोर कुमुदचन्द्र मुनेन्द्र रे ॥ १० ॥ पंस्ति पणे प्रसिद्ध प्राकमो वागवादिनी पर एहने । सेवो सुरतरु चित्यो चिन्तामणि उपमा नहीं केहने रे ।। ११ ।। परम पावन गोर पूजनां प्रेमे अस जो करे मझ मन । नयएँ नीरखी सजनी सहे गोर ते दिन कहिस्थ धन्य रे ।। १२ ।। साध पुरुस जेम नीजिन वांधे मधुकर मालति संग । माम सरोवर मराल वांछ, चतुरने चतुर सुरंग रे ॥ १३ ।। चकवी जिम दिन करने वांछे, चातुक मेह मन पाय । तिम पंछ हूं कुमुदचन्द्र गोर, पूजता पाय पलाय रे ॥ १४ ॥ सवाष्टके सोमतो सेहे गोर, वादी ए कही है सजनी । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवशिष्ट मनोरथ पहोचसे मन तणा रे, सफल फलस्ये दिन रजनी रे ॥ १५ ॥ विद्यानदि पाट मल्लि भूषण धन लखमीचन्द्र प्रभेचन्द्र । अभेनंदी पाट पटोधर सोहे रत्नकीरति मुनींद्र रे ॥ १६ ।। कुमुदचन्द्र तस पाट इ दिन मरिण घड़ी ख्यात अगि जेह । वदन तो सुन्दर वाणी जलधर श्री संथ साथे नेह रे ।। १७ ।। हर्ष हभत्री कुमुदचन्द्रनी गाये सुरणे नर नार । संकट हर मन पछित पूरे, गणेस कहे जयकार रे ॥ १८ ।। ॥ इति श्री कुमुदचन्द्रनी हमची समाप्त ।। अवशिष्ट ब्रह्म जयराज (४५) ये भट्टारक सुमति कीति के शिष्य थे । इनके द्वारा लिखा हुआ एक गुरु छन्द प्राप्त हुआ है जिसमें भट्टारक सुमतिकीति के पट्ट शिष्य भद्दारक गणकीति के पट्टाभिषेक का वर्णन दिया हुआ है । पूरे गुरु छन्द में २६. पद्य है जो विविध अन्दों वाले हैं । ब्रह्म जयराज ने और कितनी रचनाए लिखी इसकी गिनती अभी नहीं की जा सकी है। उक्त रचना में संवत् १६३२ में होने वाले पपीति के पाट महोत्सव का वर्णन पाया है । गुरु छन्द वा सार निम्न प्रकार है-- भट्टारक गुणकीर्ति सुमति कीति के शिष्य थे। राय देश में चतुरपुर नगर था। यहां हूंबंड जातीय श्रेष्टी सहजो अपार वैभाव के स्वामी थे। पत्नी का नाम सरियादे था | महजो ज्ञाति के शिरोमणि थे और चारों ओर उनका अत्यधिक समादर था। उनके पुत्र का नाम गणपति था जिसके जन्म पर विविध प्रकार के उत्सव प्रायोजित किये गये थे । युवावस्था के पूर्व ही उसने कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर लिया 1 में अत्यधिक सुन्दर थे । उनका शरीर अत्यधिक कोमल एवं आंखे कमल के समान थी । लेकिन गणपति चिन्तनशील थे इसलिये विवाह के पूर्व ही वे सुमतिकीर्ति के शिष्य बन गये । उनका नाम गुणकीर्ति रखा गया । साधु बनने के पश्चात उन्होने बागड देश के विविध गांवों में बिहार करना प्रारम्भ किया । डूंगरपुर में संघपति लखराज द्वारा प्रायोजित महोत्सव में इन्हें पांच महानत पालन का नियम दिया गया । इसके पश्चात शान्तिनाथ जिन चत्वालय में इन्हें उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। उपाध्याय जीवन में इन्होंने गोम्मटसार प्रादि ग्रन्यों का पठन पाठन किया। कुछ समय पश्चात् इन्हें १. इसका विवरण पहिले नहीं दिया जा सका। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रस्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २३५ प्राचार्य बना दिया | गुणकीति अत्यधिक प्रतिभाशाली एवं चतुर सन्त थे | ज्ञान एवं विज्ञान के वे पारगामी विद्वान थे। संघ व्यवस्था में वे कुमाल थे। उनके गुरु महारक सुमति कीति उनसे प्रतीत्र प्रसन्न थे और अपने योग्यतम शिष्य को पाकर अत्यधिक प्राशान्चित थे। इसलिये उन्होंने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । बागड़ देश में उन्होंने अपना पूरा प्रमुख स्थापित कर दिया। ___ डूगरपुर के उस समय रावल प्रासकरण शासक थे । वे नीति कुशल न्यायप्रिय शासक थे | उनके शासनकाल में जैनधर्म का घारों पोर प्रभाव था। नगर में भनेक संघपति थे जिनमें कान्हो, धर्मदास, रामो, भीम, पोकर, दिडो, कचरो, रायम आदि के नाम विशेषत: उल्लेखनीय हैं। इन्होंने नगर के बाहर महाराजा आसकरण से क्षत्रक्षेत्रीय बावड़ी के लिये स्थान माँगा और एक महोत्सव के मध्य उसकी स्थापना की गयी । इस समय जो जलयात्रा का सुन्दर जलूस निकाला गया था उसका वर्णन भी प्रतीय सजीव एवं सुन्दर हुमा है। संवत् १६३२ में इन्होंने भी एक विशेष महोत्सव में अपने ही शिष्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और उसका नाम पदमीति रखा । गुणकीर्ति ने इस समारोह को बड़ी धूमधाम से प्रायोजित किया। युवतियों ने मंगल गीत गाये । विविध प्रकार के बाजा बजे। देश के विभिन्न भागों से उस समारोह में भाग लेने के लिये संकड़ों व्यक्ति पाये। शान्तिदास ये कल्याणकीति के शिष्य थे। बल्लबलीवेलि इनकी प्रमुख रचना है जिसको लघु बाहुबली बेलि के नाम से लिखा गया है। इसमें २६ पद्य है। उक्त बेसि के अतिरिक्त इनकी अनन्तप्रस विधान, अनन्तनाथपूजा, क्षेत्र पूजा, भैरवमानभद्र पूजा प्रादि और भी लघु रचनायें मिलती है। हिन्दी के अतिरिक्त, संस्कृत में भी कुछ पूजा कृतियां मिलती है । लनु बाहुबली वेलि में इन्होंने अपना निम्न प्रकार परिचय दिया है भरतनरेश्वर प्राधीया नाम्यु निजवर शीस जी। स्तवन करी इस जपरा किंकर तूईस जी। ईस सुमनि खाड़ीराज ममानि पापीउ।। इम कही मन्दिर गया सुन्दर ज्ञान भवने व्यापीउ । थी कल्याणकीरति सोम मुरति, चरण देव मिनारिण कइ । शांतिदास स्वामी बाहुबलि सरण राख्नु प्रभु तुम्हतणी । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भट्टारक रसकीति एवं कुमुवचन्द्र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व (अ) अर्घ कथानक-१, ५, ७, १३, भारती गीत-५६, ६७, १६६ मादनाथ विवाहलो-६२ प्रादीश्वरणी विनती-७८, ७६ प्रादीश्वरनु मन्त्र कल्याणक गीत हादि पुरुष भजो प्रादि जिनेन्दा अनेकार्थ कोश-५ अध्यात्म बत्तीसी-६ अध्यात्म फाग-६ अध्यात्म गीत-६ अष्ट प्रकारी जिन पूजा-६ अवस्थाष्टक-६ अजित नाथ के छन्द-६ अध्यात्म पद-६ अष्ट पदी मल्हार-६ अक्षर माला-१२ अंकल कयति रास-१५ प्रमर दत्त मित्रानन्य रासो-११ अर्गलपुर जिन वन्दना-२० अम्बिका कथा-३३, ३४ पठारह नाता-३६ अध्यात्म कमल मार्तण्ड-२३ अंजना सुन्दरी-३६ अध्यात्म रस-२८ अध्यात्म बावनी-४० अनेक शास्त्र समुच्चय-४० अभय कुमार प्रबन्ध-४१ अठाई गीत-५, ८, ६५, २०७ अधोलड़ी गीत-५६, ६७, २१० अज्झारा पार्श्वनाथनी विनती आदिनाथ स्तवन-३ आदिनाथ गीत-८५, १४ आदिनाथनी धमाल-१० प्रादि जिन विनती-१०८ (उ) उपादान निमित्त की चिट्ठी-६ उपासकाध्ययन--८९. १० (ए) एकीभाव स्तोत्र-२६ (क) कर्म प्रकृति विधान-६ कल्याए मन्दिर स्तोत्र-६ करम छत्तीसी-६ कृपय जगावन हार-९,१०,११ फक्का बत्तीसी-१०, ११ कर्म हिंडोलना-१२ कंवरपाल बत्तीसी-२ कर्म घटवाली-३५ कनक कीति के पद-३५ कुमति विध्वंसन चौपई-३६ कलावति रास-४० (पद) कमल नयन करुणा निलय ५७-५१ (पद) कारण कोउ पीया को न जारों-५० (पद) कहा थे मंडन करू कजरा नैन भर-५० घुमुद चन्द्र नी हमची-५७ अभय चन्द्र गीत अरहंत गीत-१०८ (घा) आदीश्वर-१६ नादित्यवत रास २० आदित्यबार कथा-२३ नाराधना मीस-३३, ३४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थानुक्रमणिका २३७ चारुदत्त प्रबन्ध-१४ बम्पावती सील कल्याणक-२२ चेतन गीत-२३ चित्त निरोध कथा-२४ चौबीस जिन सग्या-३६ पउबीस जिप गरावर वर्णन-४० चिन्तामणी पाश्र्वनाथ गीत-५६, कौन सखी सुध ल्याने श्याम की-८३ कुमुद चन्द्र गीत-११५ कर्म कापड भाषा-१२० (ख) खटोलना गीत १३ खिचड़ी रास-२० (ग) गोरखनाथ के वचन-६ गुलाल पच्चीसी-१० गीत परमार्थी-१३ गूढ विनोद--३१ गौतमस्वामी स्तोत्र-३४ मोडी पार्वनाथ स्तवन-३७ गुण बावनी-३६ (पद) गोस्थि घडी जुए राजुल' रागी नेमी कुवर वर जावे रे-५१ पुर्वावली गीत-५५, ११५ गौतम स्वामी चौपाई-५६, ६६, सौबीस तीर्थकर देह प्रमाण षोपाई-५९. ६६, २११ चन्दा गीत-७८, २२४ चिन्तामरिण गीत-७५ चिन्तामणि पारसनाथनु गीत-८६ चूनडी गीत-६५, ६६ चौपई गीत-६८ चन्द्रप्रभनी विनती-१०६ चारित्र चुनड़ी-११०, ११३ चौरासी लाख जीय जोनि विनती गीत-५६, ७, ८५, ६, १०, १०४, १२०,१८१, २०३, २०५, २३०, २३२ गुरु गीत-५६, ११६, ११७, (ज) जिनसहस्रनाम-६ जलगालनक्रिया-१० जोगीरास-२०, २३ जम्बूस्वामी चरित्र-२२, २३ जखडी-२३, १२० जोगीरास मुनीश्वरों की जयमाल' गुर्वावली-६०, ६२ गणधर विनती-१०२ (घ) घृप्त कल्लोनी विनती-६०, ६४ (च) चातुर्वर्ण-६ चार नवीन पद-६ चौरासी जाति की जयमाल जम्बूस्वामी बेलि-२४ जिन प्रांतरा-२४ जिनराज मूरि कृति संग्रह-३६ जैसलमेर चंत्यप्रवाडी-४० जिनवर विनती-५६,१०८.२१६ जन्म कल्वारएक गीत-५६, ६७ चतुर्गति वेलि-१४ पहुंगति वेलि-१४ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ भट्टारक रसकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व जयो जिन पार्श्वनाथ भवतार--- ८३ जसोधर गीत-१८ जिन जन्ममहोत्सव-१०६ जयकुमाराख्यान-११०, १११ (छ) छहलेल्या वेलि छन्दोविधा-२३ छत्तीसी-३६ (झ) पद झोलते कहा कर यो यदुनाथ-५० (त) टंडारणारास-२० (ढ) ढोलामारू चौपई--३६ (त) तेरह काठिया-६ तीर्थङ्कर विनती-१६ तीर्थकर नौबीसना छप्पय-२५ तत्वार्थ सूत्र भाषा टीका-३४, धर्म सहेली-१२ धर्म रास गीत-२३ (न) नाम माला-५ नाटक समयसार-५, १३ नवदुर्गा विधान-१ नाम निर्गम विधान-६ नवरत्न कवित्त-६ नवसेना विधान-६ नाटक समयसार के कवित्त-६ नवरस पावसी-५ नेमिनाथ रास-१३, २४, २४ नेमिराल गीत-१४ नेमिश्रर गीत-१४, ५६, १५, १८, ११६. २३१ नेमिनाथ का बारह मासा-१४ ५१, ५८ नेमिराजुल संवाद-१६ नेमि जिनंद ब्याहलो-२४ नेमिश्वर का बारह मासा-२४ मिश्वर राजुल की लहरि-२४ नेमिनाथ समवसरन-३३, ३४ नषध काव्य-३६ नवकार छन्द-३७ (पद) नेम हम कैसे चले गिरनार- ५० (पद) नेम जी दयालुडारे तू तो यादव कुल सिराजार-५१ (पद) नेमि तुम भावो परिय घरे-५० नेमिनाथ फागु-५१ नेमिनाथ विनती-५१ नेमि राजुल प्रकरण-५३ नेमिश्वर हमची-५८, ६३, ३३. तेजसार रास-३६ (६) दश बोल-६ दश दानविधान-६ दश लक्षण रास-२० दो बावनी-२३ द्वादश भावना-३३, ३४ द्रौपदी रास-३४ देवराज बम्धराज चौपई-४. (द) देश लक्षण धर्मवक्त गीत-५८, ६५, २०६ दीवाली गोत-५६, ६८, २०१ दर्शनाष्टांग-१०६ दोहाशतक-१२० (घ) ध्यान बत्तीसी-६ धर्म स्वरूप-१० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमणिका नेमिजिन गीत- ५६, १६०, २०२ नेमिनाथ का द्वादशमासा -- ५६, ६३, १०२, १०४, १७४, नेमिनाथनी गीत - ६० नेमि गीत - १०१, १०३, ११५, ११७, १४२ नयचक्र भाषा - ११६ नेमिनाथ फाग - १२१ ( प ) पंच पद विधान -६ पहेली - ६ प्रश्नोत्तर दोहा-६ प्रश्नोत्तर माला-६ परमार्थं वचनिका६ परमार्थहिडोलना - ६ परमार्थी दोहा शतक - १३ पंचम गोत वेनि १४ पार्श्वनाथ छन्द-१४ पार्श्वनाथ रासो - १६, २० पखवाड़ा रास-२० प्रबोध बावनी- २३ पंचाध्यायी-२३ पंचास्तिकाय - २७ पाखण्ड पंचासिका - २ पार्श्व पुराण ३२ पवनदूत - ३२ पार्श्वनाथ विनती - ३३ पांडव पुराण- ३३, ३४ पार्श्वनाथ की आरती - ३५ पूज्य वाहन गीत- ३७ प्रीति छत्तीसी - ४० पार्श्वनाथ महात्म्य काव्य - ४० पार्श्वनाथ गीत- ५६, ६५, ११५, २०६ पद्मावती गीत - ७८ पंचकल्याणक गीत-७८ ६५, १८ (पखी बाग मुख सन्द्र ८३ (पद) पावन मति मात पदमावती पेत- ३ ( प ) प्रातः समये शुभ ध्यान धरोजे ८३ प्रभाती गीत - ८४ प्रभाती - ८५, प्रभावि (अभयचन्द्र ) - ९६ प्रभाति (शुभचन्द्र ) --=£ पद्मावतीनी विनती - १०६ ६५, ६७, २२८, २२१ पद एवं गोत- १०६. १०८, १३४ पीहर सासड़ा गीत - १०८, १०१ प्रमादी गीत - ११६ २३६ प्रवचन सार भाषा - ११, १२० पंचस्तिकाय भाषा - १२० परमात्म प्रकाश भाषा - १२० पार्श्व गीत - १४६ (फ) फुटकर कवित्ता - ६, १० फुटकर पद- १२ (ब) बनारसी विलास - ५०, २६ घड़ा कक्का-१२ बत्तीसी - १२ बीस तीर्थङ्कर जखडी - १४ बाहुबलि गीत - १६ बघावा - १६ बंकुचन रास-१८ बारह भावना - २३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक रसकीर्ति एवं कुमुदचान्द्र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व बालाबोध टीका-२३ बाहुबलि बेलि-२४ बाहुबलिनी छन्द-३३, ३४ बारहखड़ी-३५ बीस तीर्थर स्तुति-४० बलिभदनी विनती-५१, १६, बारहमासा-५२, १२६ बरगुजारा गीत-५६, ६६, १९५ बलभद्र गीत-७८, ८५ बावनगजा गौत--५, ८६ बलिभद्र स्वामिना चन्द्रावली- बाहुबलीनी विनती-६० बीस विरहमान विनती--50 (भ) भवसिन्धु चतुर्दशी-६ भूपाल पौबीसी-२६ भरत बाहुबलि छन्द-३४, ५८, महापुराण कलिका-१७ मगकिलेखा चरित-२० मुगति रमणी चूनडी-२० मनकरहारास-२० मालीरास-२३ मुनिश्वरों की जयमाल-२३ मेघकुमार गीत-३५ मोती कपासिया संवाद-३६ मुनिपति चरित्र चौपई-३६ मुगावती शस-३६ मदन नारित चौपई-३७ मधवानल चौपाई-३७ मनप्रशंसा दोहा-३६ महात्म्य रास-४० महावीर गीत-५१ मल्लिदासनी बैल-१५, १६ मीणारे गीत-१७८ मरकलडा गोस-११६ मुनिसुव्रत गीत-१६० (म) यशोधर चरित-१७, ३७, ३१, भविष्यदत्त कथा- ३५ भाषा कविरस मंजरी-३५ भजन छत्तीसी-३८, ३६ भरतेश्वर गीत-५८, ६६, ९०, भट्टारक रत्नकीर्तिना पूजा भूपाल स्तोत्र भाषा-१०६ (म) मागणा विचार-६ मोक्ष पंडी-६ मोहविवेक युद्ध-५. ७ माझा-५, ७ मनराम विलास-१२ मंगल' गीत-१३ मोरडा-१४ मुक्ति प्रबोष-२७ पोग बाबनी-३७ यशोधर गीत-९६ याबुरासो-११६ घर) रविव्रत कथा-१८, १०६, १०७ राजुल सझाय-२३ रतनचूद्ध चौपई-३६ (पद) राजुल गेहे नेमी जाय-५० (पद) राम सतावे रे मोही रावन-५० (पद) राम कहे प्रवर जया मोही भारी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यानुक्रमणिका (पद) रयढो नीहालती रे पूछति-५० (पद) सहे सावन नी बार-५० रत्न कीर्ति गीत (मराठी)-८६, रवचन्द्र गीत-८६ रत्नकीर्तिना पूजा गीत-६५ (ल) लघु बाहुबलि बेलि-१५ लघु सीता सतु-२० लाटी संहिता-२३ लोडणपार्श्वनाथनी बीनती-५६, ६६, २१७ खांशण गीत-७८ लष गीत-११५ लाल पछेडी गीत-११७ (ब) वेद निर्णय पंचासिका-६ वैद्य आदि के भेद-६ विवेक चौपई-६, १० वर्धमान समोसरण वन-१० वर्धमानरास-१५ वसुदेव प्रवन्ध-१८ वीर विलास फाग-२४ बंध विरहिणी प्रबन्ध--३६ व्यसन छत्तीसी-४० वैराग्य शासक-४० बौर विजय सम्मेद शिखर चैत्य परिपाटो-४० (पद) चंदेह जनता शरणं-५०, ५१ (पद) वृषभ जिन सेवो बह प्रकार-५० (पद) बरज्यो न माने नयन निठोर-५५ (पद) बरगारसी नगरी नो राजा अश्वसेन का गुणचार-५१ व्यसन सातन् गीत-५८, ६५, वासपूज्यनी धमाल-७८ विभिन्न पद-७८ वासुपूज्य जिन विनती-सुरणो वासु पूज्य मेरी विनती-८३ वृषभ गीत-८५ विद्यानन्दिगीस-६५, ६७ अषपहार स्तोत्र भाषा-१०६ वरिणयडा गीत-१० (स) सूक्ति मुक्तावलि-६, २८ सावु वन्दना-६ सोलह तिथि-६ सुमति देवी का अष्ठोतर शत नाम-६ समवसरण स्तोत्र-१० समवसरण पाठ-१३ सज्जन प्रकाश दोहा-१७ सीसाशील पताका गुण बेलि-१८ सीता सुत-२० सरस्वती जयमाल-२३ समयसार नाटक-२३ संबोध' सत्ताणु-२४ सीमंधर स्वामी गीत-२४ सगर प्रबन्ध-२५ समकित बत्तीसी-२६ सुक्ति मुक्तावली-२८ सुन्दर सससई-२६ सुन्दर विलास-२६ सम्यकत्व बतीसी-२८ सुन्दर शृगार-२६, ३० सहेली गीत-२६ सुदर्शन सेठ कथा-३१ सुलोचना चरित्र-३३ सम्यकत्व कौमुदी-३६ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ भट्टारक रसकौति एवं कुमुदचन्द्र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व सिंहासन बत्तीसी--३६ संघ गीत-९५, ६७ सोलह स्वप्न सज्झाय-३६ संकट हर पाश्र्वनाथ जिन गीत-- (स) सीता राम चौपाई-३६ समयसुन्दर कुसुमांजलि-३६ (स) साधर्मी गोत-१०२, १०३ सांबप्रद्युमन चौपाई-३६ सोलह स्वपन-१०६, १०७ स्थूलिभद्र रास-३६, ३७ सप्त व्यसन सर्वम्या-१०३ स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन-३७ सुकमाल स्वामिनी रास-१०७ सुदर्शन श्रेष्ठिरास-४० सोसहकारण रास-११० (ह) होली की कथा-२३ (पद) सारंग ऊपर सारंग सोहे सार हनुमचरित-२५ गल्यासार जी-५० हंसा गीत-२५ (पद) सुण रे नेमि सामलीया साहेब हरिवंश पुराण भाषा (पद्य)-२२ क्यों बर छोरी जाय-५० हरियाली-३६ (पद) सारंग सजी सारंग पर आवे-५० हिन्दोलना गीत-५८, ३४, १९१ सखी री साबन घटाई सतात्रे-५० हरियाली-१०२ (श) शलाका पुरुषों की नामावली-६ सरद की रनि सुन्दर सोहात-५० शिव पच्चीसी-६ सुन्दरी सकल सिंगार करे गोरी शारदाष्टक-६ शान्तिनाथ जिन स्तुति-६ " सुनो मेरी सयनी धन्य या रयनी शान्तिनाथ चरित-१७ " सखी को मिलायो नेम नरिंदा-५१ शील सुन्दरी प्रबन्ध-१२ " सखी री नेम न जानी पीर-५१ शत्रुजय रास-३६ शालिभद्र चौपई-३६ सुणि सखी राजुल कहे हैडे रुष शत्रु जय-४० न माम लाल रे-५१ . " सुदर्शन नाम के में बारि-५१ । शील गीत-५६, ६५, ३६७ शान्तिनाथ नी विनती-८,११५ सशधर बदन सोहमणि रे, गज गामिनी गुणमाल रे-५१ शुभका हमची-१०, ६०,६१, सिद्ध घुल-५१ संकट हर पार्श्वनाथनी विकती शान्ति नाथनु भवान्तर गीत५६, २१४ शुभचन्द्र गीत-८६ सूखडी-७४, ७६ शीतलनाथ गीत-११५ संघवई हरिजी गीत (ष) षट दर्शनाष्टक-६ २२६ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धानुक्रमणिका (ख) श्रेणिक प्रध-१५ श्रीपाल चरित्र-३१, ३२ श्रीपाल सौभागी प्रास्थान-३२ थ तसागरी टीका-३४ श्रीपाल स्तुति-६५ शृगार रस-३८ श्री रागगावत सुर किन्नरी-५१ श्री रागगावत सारंगधरी-५१ श्री जिन सममति अवतर या ना रंगीरे-५१ ऋषम विवाहलो-५८, १६२ । क्षेत्रपाल गीत-६५, ६८, १० () पन किया-१०, १४ श्रेपन क्रिया विनती-५६, ६२ वष्यरति गीत-५८, ६४, १९ (ज) ज्ञान बावनी-६ जान पच्चीसी-६ शान सूर्योदय नाटक-३२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलंक - ४४ अकबर - १, १७, १८, २२, ३१, ३६, ४१ श्रम्बाई- ८७ कम्पन -- १११ अभिचन्द्र - १०५ अगरचन्द नाहटा - ३८ प्रभिनन्दन देव- २११, २२१ कीर्ति - १११, ११२ संघवी प्रासवा ४३ आनन्द सागर-८२, १०६ भगवान मादिनाथ - १६, ६२, ६६,७६, ८० ८३, ८५ ६४, ११३, १६६, १७१ अमर कुमार - १५ अमरदत्त मिश्रा - १८ अमरसिंह - २८ ब्रह्मप्रचीत- ३, २४ पण्डित श्रमरसी८य प्रजितनाथ -- २११ अमीचन्द - -८८ पं० नामानुक्रमणिका ० अनन्तदास-८८ अरनाथ - २१३ प्रभयराज - २६, २७ श्रखयराज -४ अभयनन्दि- ४२, ४३, ३४, ६६, १००, १०२, १०३, १०४, १०५ १०७, ११३, ११६, १३०, १४३, १४६, २२५ भट्टारक अभयचन्द्र- ३ ७२, ७५, ७६, ७७० ७६, ८०,८१,५८, ६० ६१ ६२, ६३, ४, १०५, १०६, १०७, १०५, ११६, ११७, ११८, ११, १२६, १४६, १३२, २२५, २२७, २२८, २२६, २३१, २३२ अभयकुमार- ४१, ४३, ४४, १२७ अश्वसेन - १४६ संघवी प्रखई- ८७, ८, १०६ श्रासकरण - ३१ उदय सागर - ३७ उदय राज ४, ३८ उदय सेन - १६ महाराजा उदयसिंह - ३८ उग्रसेन - १२१, १२३, १७७, १७६ भ० कनक कीर्ति - ४, ६४ भ० कल्याण कीर्ति - ३, १४, १५ १६ ब्रह्म कपूरचन्द्र - ३, ६० कल्याण सागर-४ १०६ कबीर - ६६ संघपति कहानजी - ५७, २०४ भगवान कृष्णा-२, ५०, ५३, ५४, ८५ कालीदास - ३४, ७८ भट्टारक कुमुदचन्द्र- ३, ४, ४७, ५५,५६, ५६, ५८, ५६, ६०, ६२,६३, ६६,७१, ७२ ७३ ७ ७४, ६१, ६३,६४, १०१, १०२, १०५, १०६. १०७, १०६ । ११० १२२, ११४, ११५, ११६, ११७, ११८, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका २४५ .. . - ११६ १६१, १६५, १६६, १७०, १७६, १७५, १८१, १८२, १३, १४, १८५, १८६, १८७, १८, १९, १६०, १९१, १९६, १६६, गुणकीति-१ मुरुचरण-१५ गोविन्द दास-१७, गोपाल-४, ४६, ५७, ६७, ११९, २०४, फोरम ४६, २०१, २०७ प्राचार्य चन्द्रकीति-१, ४, ११०, चन्द्रभास-२१२, चन्द्रप्रभ-११३ चन्दन चौधरो-३१, चन्दा-३० चारूदत्त ६५, २०७ छीतर ठोलिया-२, २३ ब्रह्मा जयसागर-४१, ४७, ७२, ८२, ६५, ६६, ६७, ६८, ११० जयकुमार-१११, ११२ जगजीवन-४, ६, २५, २६, २७, २०४, २०५, २०६, २१७, २०८, २०६, २१०, २११, २१४, २१५, २१७, २२०, २२१, २२२, २२३, २२५, २२८, २२६, २३०, २३१, २३२.२७१ कुसुदकीति-१ कुमरपाल-४, २७, २८ प्राचार्य कुन्दकुन्द-२३, ४२, ७४ भ० कुथनाथ-२१३. कुशललाभ-४, ३७ कौरतसिंहकिशनचन्द्र-२० स्वरगसेन-५, २८ खेता-१७ खेतसिंह-२३ खेतसी-६, २४ कवि गणेश-४, ४३, ४४, ४५, ४७, ५७, ७६, ८२, ९, १००, १०१, १०२. ११०, २२६ गणेश सागर-७२ गरिशमहानन्द-४, ३६ गोगजी-८१ ब्रह्म गुलाल-३, ६ गुणभूषण-१४६ ग्यासदीन-६३ गुणचन्द्र-२० जफरखा-२७ आ. जयकीति-३, १५, १६ जगदा-२२३ पाण्डे जिनदास-३, ४, २२, २३ जिन चन्द्र सूरी-३४, ३५, ३६ जिनराज सूरी-४, ३६ जहांगीर-१, १८ राजा जसपतसिह-२० जिनचन्द्र-१७ प्राचार्य जिनहंस-४१ जिनसागर-३१, जीवराजजीवधर-८१, ११० जीवादे-८८ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ भट्टारक रस्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जोगीदास-२३ जमस-४५ जैनन्द-३, १७, १८ भट्टारक जगभूषण-१,२८ भट्टारक ज्ञानभूषण-३२, ३४, १०९ टोडरशाह-२२ ठाकुर-३, १७ तेजवाई-४६, ६७, १०० तानसेन-१. महाकवि तुलसीदास-१, २. ५०, घरणेन्द्र-१४६, २२२ धनमल-२७ धनजंय कवि-५ धनासाह-४ प्राचार्य नरेन्द्र कीर्ति-३, २५ नरहरि-१ नवलराम-८० संभवी नागजी-७५, १०५ नेमपन्द-२१ निष्कलंक-४४ गोरस - २८, भगवान नेमिनाथ-३, ६, २४, २५, ४१, ४८, ४६, दयासागर-३७, दामो-४, ३७ दामोदर-४, ४७, ७५, ७६, ७७, भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति-१, ३, १७, मुनि देव कीर्ति-१४, १६ देवीदास-४२, १६ देवदास-११६, देवजी-७६, ७७ दीपाशाह-२२, दीनदयास-७० धर्मदास-१७ प्रह्म धर्म रूचि-१०७ धर्मसागर-४, २७, ७७, ६, १०६, ११७, ११८, ११६, २३१, २६२ धर्मभूषण-२१, २२७, धमभूषण सूरी-२२८ धर्मचन्द-४, ११५, धर्मनाथ-२१३ ब्रह्म धर्मा-४ ५४, ५६, ६३, ६४, ७६, ६६, ६८, १०३, १०४, १०५, ११७, ११६. १११, १२२, १२३, १३०, १३३, १३८, १४२, १५३, १७७, १८०, १५, १६५, २१४, पं० नाथूराम प्रेमी-२३, २८, ३३ नाभि राजा-६२, १६२ भट्टारक पपनन्दि-१४, १६, १७, ६८, १०८, ११३ परिमल्ल-४, ३१ पपप्रम-भगवान-२२१ पपावती देवी-१०७.१४७ पपराष-३, ४१, परिहानन्द-३० Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका २४७ परमानन्द-२२५ पाश्र्वनाथ भगवान्-२१, २२, ६६, संघपति पाकशाह-४३ पमाबाई-५५, १०१, ११५ पुष्पदन्त भगवान्-२१२, २२१ पुष्परागर-४१, प्रेमचन्द-13, खा प्रेमसागर जैन-६, १० २२, २६, २६ ३०, भीमजी-७५, भरत-५६, ६२, ६२, १११, १४९, १५०, १५४, १५५, १५६, १५८, १५६, १६०, १७१ भद्रसार-३८ भरतेश्वर-६४ मतिसागर-१५१ मरूदेवी-१६२, १६३, १६४, १६३ मल्लजी-८१ महावीर भगवान्--१८, ६७, ८, २०१, २१४, २२१, मल्लिदास-४६, ५७, ६१, ६७, २३०, संधपति प्रेमजी-८१ प्रभचन्द-१६ बनारसीदास-१, ३, ४, ५, ६, ८, २६, २७, २८, ४०, पण्डित बणायग-८८ बल्लभदास-१८ बलमद-६५, १४७, १७७ वाघजी-७१ बाहुबलि-१५, ५६, ६०, ६१, ६२, ६६, १४६, १५०, १५१, १५३, १५४, १५५, १५७, १४८, १५६, १६०, १६१, मल्लि भूषण-४३, १०८, ११३, १४६, २२८ महीचन्द-१६ मनराम-३, ११ महेन्द्ररोन-२० संघवी मथुरा दास-२७ मथुरा मल-६ मानसिंह मान्-४, ३७ राजा मानसिंह-१७, २३, ३१ माणिक दे-८० माली सम-२३ मान बाई-४६ मास जी-७५ मारएक जी-८७ मोहनदास-२२, ७७ मीरा-३, ५३, ५४, ६६, ७३, ८३ मोहनसिंह-८७ मोहनदे- २६, २७, १६ डा. मोतीचन्द्र-५ ब्रह्मी-१५० १७१ बिहारीदास-१२ अह्मा-८६ बेजलेद-४६ भगवतीदास-३, ३६, २०, २७ भवालदास-२७ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व महोपाध्याय मेघ विजय-२७ मेषसागर-४, ११६ मेषजी-७५ घशोमति-१४६, १५०, १६६ यशोधर-१७,६८ यशः कीर्ति-१०, १६, १२६ रहीम-१ मट्टारक रत्नचन्द्र-३, ७४, ७७. ८४ ८५, ८६, ८७, ८, F६, ६०, ६१, १६६, २०५, २०८, २१०, २१७, २२५, २२८, २२६, २३०, राजवाई-४६, ६६, ६७ राजुल-४८, ४६, ५१, ५२, ५३, ५४, ६३, ६४, ७१, ७८, ७९, १०३, १.४, ११७, ११६, १२१, १२२, १२३, ११४, १३१, १६४, १३५, १४०, १४१, १४२, १४३, भट्टारक रत्न कीर्ति-१, ३, ४, १४, ५१, ५२, .५४, ५५, ५६, ५८, ७१, ७४, ७५, ८८, ८६, ६०, ६३, ६४, ६५, १६, १७, १८, ६९, १००, १०१, १०२, १०४, १०५, १०६, ११०, ११३, ११४, ११५, ११६. १२६, १३३, १३४, १३५, १३६, १३७, १३८, १३६, १४०, १४१, १४२, १४३, ब्रह्म रायमल्ल-४, २५ रत्नसागर-३६ रत्नाकर-३८ रत्नभूषण-१८ भगवान् राम-२, २७, ४९, ५०, १३५, १३६ मुनि राजपन्द्र-३, २२ रावण-२०७ संघजी रामाजी-४३, ६०, १०४ राधव-४, ४७, ११५, ११६ भट्टारक रामकीर्ति-१६, १८ महाराजा रायसिंह-३ राजमति-६६, १३६ रिखवदास-२२ रत्नहर्ष-३६ रामाबाई-८७ रामजीनन्दन-८१ रामदेवजी-७६ पांडे राजमल्ल-३, ४, ५, २३ रुपजी-७५ रुपचन्दजी-३, ४, १३, २२, ११९ १४७, १४८, १४६, १७३, १७५, १६३, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमणिका २४६ ब्रह्म रुचि-१६ रामदास-३१ लक्ष्मणदास-२२ लक्ष्मीवन्त्र-१, २४, ४२, ७४, १३, १०५, १०७, १०८, ११३, १४६, १७३, २५, २२८ वर्धमान-३, १८,८१, २२७ भट्टारक वादि भूषण-१८, २५ वादियन्द्र-४, ३२, ३३, ३४ भट्टारक विणाल कीर्ति-१७ विष्णु कवि-४ विक्रम-१०, १७ विश्वसेन-८६ विमलदास-८८ विजयसेन-१६ विजयाकर-१९ विद्यासागर-४, ८२, १०६, १०७ विद्यानन्दि-२५, ३२, १०८, ११३, संघवी शांति-७ भगवान् शीतलानाय-२१२ शिया देवी-१२१ भट्टारक सकल कीति-१, १६ समयसुन्दर-४, ३० सहलकी-, २८ सहेज सागर-८०, ८१ भ. सकस मूषण-२५ शहजादा सलीम-४० ब्रह्म सागर-७२ सदाफल-५५,११५ समुद्र विजय-१२१, १३६. १४२, १७५ सहजलेद-४१, ८८ सहस्रकरण-५७ सिद्धार्थनन्दन-६७ सूरदास-१, २, ३, ५०, ५४, ६६ संभवनाथ-२११ सयम सागर-४, ५२, ७२, ११०, ११४, ११५, २३०, भट्टारक वीरचन्द्र-३, २४, ३४ वीरसिंह-२४ विद्या हर्ष-३६ वीरबाई-८८ शिवभूति-२०७ भट्टारक शुभचन्न-३, ७४, २०, २१, १२. ८३, ४, ८६, ८८, ९, १०,६१, सालिवाहन-४, २८ सुन्दरदास-४, २८, २९ सुम ति सागर-४, १०२, १०३, १०४ २२५, २२६, २२८ शाहजहाँ-१, २, २९, ३६ शांतिदास-१५, २२ भगवान मांतिनाथ-१७, ७६, ११० सोमकोति-१८, १६ सागरदत्त-२१७ सुलोचना-१११, ११२ सुदर्शन-१७ सुरेन्द्र कौति-२५ सुमति कीति-१ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सुनन्दा - १५०, १७१ सुकुमाल स्वामी - १०७ सुमतिनाथ - २१२ कीति-३१४ भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतिरण - हीर विजय पूरी ३३.०० हेम जी - ७५ हेमचन्द-८७ डा. हीरालाल माहेश्वरी - ३६ राजा अणिक - १५, १६, १६, ६७ ब्रह्म हरखा - १८ हर्षभ-३५ हीरकलश-४, ३५ हीरराज - ६७ हीरानन्द-४, २६, २७, ४०, ४१ पांडे हेमराज -४, २७, ११९ होर जी-८१ विजय- ४, ४१ प्राचार्य हेमनन्दन - ३£ श्रीपाल - ७४, ७७, ८०, ८२, ८४, ८८८६०, ६१, ६२. ६३, ९४, ५, १०५ १०६. ११६, २२८, २२६ २३२ क्षेमकीर्ति-१८ भट्टारक त्रिभुवन कीति - १५, १६, २ डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी - ३७ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धाम एवं नगरें ग्राम एवं नगर चन्दवाद-६, चाँदनपुर-१४ चूलगिरि-८६ जयपुर--११, १२, १४, २४, २५, अंकलेपवर नगर-१६ अजमेर-११, २०, ३१ अम्बाला-१६ अलीगंज-११ मामेर-१, १४, १७, २३, २५, ३२ प्रानन्दपुर-२०, २१ पारा-३६ मागरा-३, ६, ६, १८, १९, २०, २३, २५, २६, २७, २८, ३१, ३६, ४० उदयपुर-१५, २२, २५, ३३, ३७ कंचनपुर-२८ काशी-१५४ केरल-१५३ कोशल मगर-६२, १६०, १६२ फोटा-१४,१६, १८, ३३ इन्दरगढ़-१४ गलियाकोट-४५ ग्वालियर-१०, ३०, ३१ गंग-११ गुजरात-२, ४, १८, ४२, ४४, ५२, ५५, ५६, ७२, ७३, ८०, ६५, १७, ११५ गिरिनार-११, ५८, १७, १४१ गोपूर ग्राम-५५ गौमुना ग्राम-३० धोधा नगर-४२, ४५, ५३, ५८, ६२, ६५, ६८.६६, १०८, जलसेन नगर-८० जालंधर-१५३ जालगा नगर-४३, १०१ जालोर-319 जैसलमेर-२८, ३४, ४१ जोधपुर-३८ जूनागढ़-११ टोंक-२० डुगरपुर-१७, ३३, ३४, ११० हूबाहर प्रदेश-३, ३४ देहली-२, १९, २०, २६, ३५, ११८, ११६ दौसा-२६ दादू नगर-४५ द्वारिका-१४७ नरसिंहपुरा-१६ नेपाल-१५३ नागौर-१, ३५ नंदीश्वर-२०७ पाटन-३२ पोरबन्दर-४५, ११ पोदनपुर-६०,१५२ फतेहपुर-१५, २४ बलसाई नगर-४६, ६६ बनारस-६६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 भट्टारक रस्नकोति एवं कुमुदचन्द्र-व्यक्तित्व एवं कृतित्व बड़ौत-२२ बारडोली-४७, 45, 56, 57, 58, 72, 75, 11, 105, बागड़ प्रदेश-१५, 28, 29, 44, 45, 55, 73, 71 बांसवाड़ा-४५ विराट नगर-२३ बीकानेर-३०, 34 भोंच-२५, 110 मदाबर प्रान्त-२८ भृगकच्छपुर-२५ भीलोड़ा ग्राम-१४ मगध-१५३ महावीरजी-१४ मपुरा-३० मध्य प्रदेश-२ महमा नगर-१७ मेवाड़-३ मालपुरा-२० मोजमाबाद-२३ मोरड़ा-१४ राजगह-१६ शाजमा -2, 3, 2.. 30, 40, 44, 56, 56, 63, 110 राजनगर-७ रामपुर नगर-३६ लवाण-१७ लंका-१५४ लाइ देश-६६ वाल्हीक नगर-३२ वाराणसी-१११, 216 शत्रुजय-४०, 67 शिवपुर-१०६ सांगानेर-३, 61 सांचोर-३६ सूरत नगर-६, 77, 78, 10,62 हरियाणा-२ हस्तिनापुर-१० हांसोट नगर-५२, 66, 68, 206 श्रीपुर-८१ .