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भट्टारक रत्नक्रीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१-तत्वार्थ सूम भाषा टीका २-बारहखड़ी ३-मेघकुमार गीत ४-श्रीपाल स्तुति ५-झाम घरवाली ६-पार्श्वनाथ की पारती
उक्त रनमानों के प्रांतरिक्त कनकनीति के पद, स्तवन, विनती अादि कितनी ही लघ वृतियाँ मिलती हैं। इन सभी कृतियों से कवि के दिगम्बर मतानुयायी होने का ही उल्लेय मिलता है ।
३१. विष्ण, कवि
विष्णबवि उन्जन के रहने वाले थे। संवत् १६६६ में इन्होंने भविष्यदत्त का को इज्जन में समाप्त किया था। इसी कथा की एक मात्र अपूर्ण पाण्डुलिपि श्री दिगम्बर जैन सरस्वनी भवन पंचायती मन्दिर मस्जिद नजर देहली में संग्रहीत है । पूरा काव्य ४०१ नौचई छान्दा में निबद्ध है। भागा बहुत सरल किन्तु सरस है। कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया ...
संयतु सोरहस हड़ गई, अघिका ताफर छारामि भई । गुरी उज्जैनी कविनि को वासु, विष्ण नहीं करि रहयो निवास । मन्न वच कम मुनौ सबु कोई, कन्या सुनै गुत्र फल हो । बहिरे. गुनं ति पाय कान, मूरिन हौहि चतुर सुजान । निर्धन सुन एक चित्त नाड, ता घर रिधि सभ भाद । जो लवधारे चितं मंझारि, रस रावण नहि नावे हारि । अचला हो स्य गुन रासि, जन्म न पर कर्म की पासि । और बहुत सुन बाह लगि गनी, धर्म कथा यहु मनु दे सुना जन्म त होइ ताहि अवसान, निश्चः। पदु पाव निवान ।।
श्वेताम्बर जैन कवि
३२. हरि कलश
हीर कला खरसर गन्छ के माधु थे । ये जिन चन्द्रमूरि की शिष्य परम्परा में होने वाले हर्पप्रभ के शिष्य थे। उनका साहित्यिक काल संवत् १६१५ से १६५७ तक का माना जाता है। इन्होंने बीकानेर एवं नागौर में सर्वाधिक विहार किया।