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भट्टारक रनकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वृक्ष अशोक अनोप पुष्पित शोभे श्री जिन पासे । जन्म जन्मना रोग शोक हुए, जे दीले सहु नासे ॥ २ ॥ परिमल भार अपार गगन थी. कुसुम वृष्टि महियाये उहरि मर करे गुजारव, जांगे जिन गुण गाये | सर्व जीवनी भासा मांहि संख्य सघला जाये | सामलता दिव्य ध्वनि जननी मन मा हर्ष न गाये ॥ ३॥ चचचचन्द्र मरीचि मनोहर, उपरि चमर हलाये । जे नर नमें जिनेश्वर चरणें तेहूनां पाप गुलाये || जिंक शोभा न कलापे । जोता तृप्ति न पायें ॥ ४ ॥ भामंडल प्रति राजे । रवि रजनीकर लाजे ||
श्रतिगम्भीर तार तरलस्टन क्षेत्र दुदभि वाजे । जाणे मोह विजय वाजिषज नादे अंवर भाजे ।। ५ ।। मंजुल मुक्ता जान विराजित, छाजे छत्र अनूप । जेहनी इंद्रादिक जस गावे. त्रण्य जगत नो भूप ॥ प्रातिहार्य वसु संस्व विभूषित, राजे रम्य सरूप | केवलज्ञान कलित भुवनयिक ते तारे भत्र ।। ६ ।। भव्य जीव ने जे संबोधे, चोवीस श्रतिशयक्त | युगला धर्म निवारण स्वामी महिमंडल विचरंत ॥ शेष कर्म ने जीते जिनवर थमा मुक्ति श्रीवंत । कुमुदचन्द्र कहे श्री जिन गाला, लड़िये सुत्र अनंत ॥ ७ ॥
देव सिंहासन उपरि बेला, च्यारे पासे चतुर्भुख दीसें दीन दयाल प्रभु तो पाछलि, तेजपुंज देखीने जेहन
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( ५० ) पार्श्वनाथ गीत
हांसोट नगर सोहामरणो जिन सुन्दर यामानं । गर्भ महोन जेहने सह, आव्या इंद्र आनंद | पासजी जपति प्रहोजी, संकटहर संकट चुरो जी ॥ १ ॥ बादल नहीं वरसा नहीं, नहीं गाजने बीज प्रचण्ड | अउछ कोडिं वररत्ननं निल बरमे धार अलण्ड ॥ २ ॥ नयादीठो नहीं सांभल्यो, कहीं रमण तो बलि मेंह | ते तु मानगृह यांगणे दो दिन दिन अतिशय येह ।। ३ ।।
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