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भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्रः व्यक्तित्व एवं कृतित्व
राग कल्याण वर्षरी :
राजुल गेहे नेमी प्राय । हरि वदनी के मन भाय, हरि को तिलक हरि सोहाय ।। १ ।। कबरी को रंग हरी, ताके संगे सोहे हरी,
ता टंक हरि दोउ अवनि ॥ २ ॥ हरि सम दो नयन मोहे, हरिलता रंग अधर सोहे,
हरिसुतासुत राजित द्विज चिबुक भवनि ॥३॥ हरि सम दो मुनाल राजित इसी राजु बार,
देही को रंग हरि विशार हरी गबनी ॥ ४ ॥ सकर हरि अंग' करी, हरि निरखती प्रेम भरी,
तत नन नन नीर तत प्रभु अवनी ॥ ५ ॥ हरि के कुहरि कुपेखि, हरिलंकी कु वेषी,
रतनकीरति प्रम देगे हरि जयनी ॥३॥ राग फेवारो :
राम । सतावे रे मोहि रावन ।। वस मुख दरस देखें डरती हूँ, वेगो करो तुम प्रावन ॥१॥ निमेष पलक छिनु होत चरिषमो कोई सुनादो जावन । सारंगधर सों इतनो कहीयो, अब तो गयो है पावन ॥ २ ॥ करुनासिंधू निशाचर लागत, मेरे तन कु दरवन ।
रतनकीरति प्रभु बैंगे मिलो किन, मेरे जीया के भावन ॥ ३ ॥ राग केवाएँ:
प्रक्षगरी करज्यों न माने भेरी । पा अनीत नीत काहे कृ करतरी,
प्रति मीन मृग खंजन धोरो ॥ १ ॥ कनक कदली हरि कपोत कंबु,
अरु कुभ कमल करी वारो " सारंग उरग अनेक संग मिलि,
देत उरानो तेरो ॥ २॥ चंदगहन होवत राका निशि,
रे है त्रिया निज गेह रो ।। रतन की रति कहेया लु' कलंकी,
राह गहत हे अनेरो ॥ ३ ॥