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भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
करु नीरा नेम जोरे, नीठोर न थाईथे ना होला नाट । धेर्गे चलो वाहला वनिता कहे, सो गिरनार नो घाट ।। १ ।। सांभलि सामला रे, प्रामला मे हलो मुझस्यु कंत। झीलतांस्यु कह रे महांतना बचन होये महांत ।। किम परणेवा अवीया रे, किंनर सुर सोहत । हवे मेहली बन जातां बाइला, सोभासी जर हंत ।। २॥ सुरिण राजमती रे युवती मुझ मन एतां वात । मुझ जोतांथ कारे, जिनधर्म जग मांहि वार विख्यात ।। एकेका भबने नातर रे अन्तर स्यां बांधवा मात तात । ते मादह प्रह्म ताँ सेवीये रतनकीरति मो नाथ ॥ ३ ॥
सखी को मिलानो नेम नरिंदा । ता बिन तन मन योक्न रजतहे चारु चन्दन अरु चन्दा ॥१॥ कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुःसह मदन को फन्दा । तात मात अरु सजनी रजनी, वे भति दुःस्त्र को कंदा ॥ २ ॥ तुमतो संकर सुख के दाता मारम अति काए मंदा । रतनकीरति प्रभु परम दयालु सेवत अमर वरिया ।। ३ ।।
। २५) सखी री नेम न जानी पीर ।। बहोत दिवाजे पाये मेरे घरि, संग लेई हलपर वीर ।। १ ।। नेम मुख निरखी हरषीयनसू अब तो होह मनधीर । तामे पसूय पुकार सुनी करी गयो गिरिवर के तीर ।। २॥ चन्द बदनी पोकारती हारती मण्डन हार उर चीर ।।
रतनकीरति प्रभ भये वैरागी राजुल चित किमो थीर ।। ३ ।। राग साजरी : प्राजो रे राम्लि सामलियो याहालो रथ परि रुडो भावे रे ।
अनेक इन्द्र अनंग अनोपम उपम एहनी न पावरे ।। १ ।। कमल वचन कमलदल लोचन, सुक घंची सम नासारे ।
मस्तक मुगट उगट चन्दन तन कोटि मूरजि प्रकाशां रे ।। २ ।।