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पं० श्रीपाल
शुभचन्द का पूरा इतिवृत्त निम्न दिया। संवत् १७२१ में शुभचन्द्र को भट्टारक पद पर अभिषिक किया गया था । णुमचन्द्र की सुन्दरता, महोत्सव में मिनिस श्रावको का गोगदान, भट्टारक पा शुभचन्द्र : प्रियंका की संगीत एवं नत्य का प्रायोजन प्रादि सभी का इसमें वर्णन कर दिया है। इसमें २९ पर' है । पन्तिम दो पद्य निम्न प्रकार है
दिवस माहि जिम रवि दीपंतो, गिरि मा मेरु कहत । तिम श्री अभयघात ने पाटि, श्री शुभचन्द्र सोहंत रे ॥ २८ |! श्री गुभचन्द्र तणों में हमची जो गाये जिन घाम । श्रीपाल विवध वंदे ए दाणी, ते मन बंछित गमे रे ।। २९ ।।
श्रीपाल ने भट्टारक प्रमपचन्द्र के गीत गाये. फिर भट्टारक शुभचन्द्र की प्रयंसा में गीत लिग्ने पौरु अन्न में रतन चन्द्र के मारक बनने पर उसका गुणानुवाद किया । इससे यह जान पहता है कि अनारकीय पंडित थे। संघ के साथ रहना तथा समय ममय भट्टारका का गुणानुवाद करना, संघ का इतिहास बिना' सराज को मंघ के सम्बन्ध में प्रवगत कराते रहना उनके प्रमुख कार्य थे । ये पंडित थे और वे भी गुस्तंनी पद्धित ।
संवत् १७२८ की एक प्रशस्ति मिलती है जिसमें पं० श्रीपाल के पढ़ने के लिये सुरत में ग्रन्थों की लिपिकी गयी जी । उस में भट्टारक गुमनन्त्र का उल्लेंब किया गया है जिनके उपदेश मे ग्रन्थ की प्रतिलिपि की गयी थी। प्रशस्ति निम्म प्रकार है
संवत सत र अठाइम : १७२८ : चा मार्गशोरमारो गुफलपक्ष पंचमी दिने गुमवारे श्रीसुर्यपूरे श्रीवामुपुजप पत्यालये थी मुलसष मरस्वतीगच्छे बलाकारगणे श्री कुन्दकुन्दान्वये भलीनिदेवा तत्प न कुमुदचन्द्रदेवा तत्त मा. श्री मायचन्द्र देघास्तम्पटे भ० श्री गुभचन्द्रोपदेशात संघपुराताते पडित जीवराज भार्याजीवादे तयो मन सि श्रीपाल परना।
गुर्शवनी में मट्टाफ विद्यानन्द की परम्परा में होने वाले भट्टारको का गुणानुवाद है । गुर्वावली रेमिहासिक बन गयी है । यदि संवत लिखने की उस समय परम्परा होती तो ऐसे गीत भी निश्चित ही इतिहास की मामयो बन जाते फिर भी इस प्रकार के गीत साहित्य की पमूल्य धरोहर हैं । इसमें ११ पथ हैं । पूरी गुणविली निम्न प्रकार है