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भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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भट्टारक मुरेन्द्रकीति के प्रशिष्य एवं भट्टारक विद्यानदि के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और इसी अवस्था में रहते हुये इन्होंने भगुकच्छपुर (मड़ोच) के नेमिनाथ चैत्यालम में हनुमचरित की रचना समाप्ति की थी। इस चरित की प्राचीन प्रति अामेर शास्त्र भंडार जयपुर में संग्रहीत है। हनुमच्चरित में १२ सर्ग हैं और यह अपने समय का काफी लोकप्रिय काव्य रहा है।
ब्रह्म अजित की एक हिन्दी रचना "हंसा गीत" प्राप्त हुई है यह एक उपदेशात्मक एवं शिक्षाप्रद कृति है जिसमें "हंसः' (आत्मा) को सम्बोधित करते हुये ३७ पञ्च है । गीत को समाप्ति निम्न प्रकार की है
रास हरा तिलक एह, जो भाव दिह नित्त रे हसा । श्री विद्यादि उपदेस, बोलि अह्म यांजत रे हसा ॥३७|| हंसा तू करि सयम, जमन परि संसार २ हंसा ।।
ब्रह्म अजित १७वीं शताब्दी के विद्वान सन्त थे । २१. प्राचार्य नरेन्द्रकीति
ये १७वीं शताब्दी के सन्त थे। भवादिभुपण एवं म. सकलभूषण दोनों ही सन्तों के ये शिष्य थे और दोनों की ही दम पर विशेष कृपा थी। एक बार धादिभूषण" के प्रिय शिध्य ब्रह्म नेमिदास ने जब इनसे "सगरप्रबन्थ लिखने की प्रार्थना की तो इन्होंने उनकी इच्छानुसार "सग र प्रबन्ध" कृति को निबद्ध किया । प्रबन्ध का रचनाकल सं० १६४६ असोज सुदी दशमी है। यह कवि की एक अच्छी रचना है। प्राचार्य नरेन्द्रकीति की ही दूसरी रचना "तीर्थ कर चौवीसना छप्पय" है। इसमें कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई परिचय नहीं दिया है। दोनों ही कृतियां उदयपुर के प्रास्त्र भंडारों में संग्रहीत है ।
२२. ब्रह्म रायमा
१७वौं शताब्दी के प्रथम पाद के महाकवि रायमल्ल के सम्बन्ध में अकादमी की घोर से प्रथम भाग -- महाकवि ब्रह्मरायमल्ल एवं भ० त्रिभुवनकीति प्रकाशित हो चुका है।
२३. अगोवन
कविवर जगजीवन बनारसीदास के समकालीन ही नहीं किन्तु उनके कट्टर प्रशंसक भी थे । मे प्रागरा के सम्पन्न घराने के थे लेकिन पूर्णत: निरभिमानी भी थे।