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भट्टारक रत्ननीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नवीं डाल पादिनाथ का परिवार
पाले अनूपम न्यायरे जोन्हा सेवे सुरनर पाय | परिण भुवन जस गायके, अभिनवो राजीयोरे ।। १॥ भोगवे मनोहर भोगरे, नाना विध सुख संयोग । घन घन कहे छे सह लोग के. जगे जश गाजियोरे ॥ २ ॥ बसोमतीये जाया पुत्ररे भरतादिक सो सुचित्र।। ब्राह्मी तनया पवीत्र के, जगमाहि जाणीयेरे ॥ ३ ॥ बाहुबली बलवन्त रे, सुन्दरी बेहनें सोहंत । जनम्यो सुनन्दामें संतके, रूप घरवाणीयेरे ।। ४ ।। सेवे त्रिभुवन सर्व रे मन माहि न घरे गर्व ।
ध्याशी लाख पूरव के, व्येल्या भोगसु ए ।। ५ ।। चिन्सन एवं वराव
एक समयते भूपरे, दीखी नीलजश रूप । जाणी प्रथिर सरूप के, मन घयुं योग स्यु रे जी ।। ६ ।। धिग घिग एह संसार रे, बहु दुस्ख तणो भण्डार । जुठो मल्यो सह परिवार के, को केह नहीं रे ।। ७ ।। राज्ये नहिं मुझ काज रे, सुक्रोजे सेना साज । भोगे त्रपति न घाज के, लग ऐवनी सहीरे ।। ८ ।। क्षण क्षरण। स्टे पायरे, योवन राख्यु नवि जाय । स्यु कीजे महीराय के, तणी पदवो मलीरे ॥६॥ काले पडसे कापरे, नहि रासे बापने माय । न बसें कोई सहाय के, नरक जतां वली ।।१०।। नाना योनि मझार रे, भमीयो भव धरणी एक बार । न लह्यो धर्म विचार के, लोभ न पर हरर्यो रे ॥ ११॥ नहीं पालो व्रत आचार रे, जीव कीधा पाप प्रपार । विषय वनधो गमार के, हा हुतो फरर्यो रे ।। १२ । इम घरी मन वैराग रे, कर्यो मोह तणो परित्याग। कोसु लाग न' भाग उदासी जिन भयो रे ।। १३ ।। भरत ने प्राप्यू राजरे, महिपतिनु मुक्यु' साज । चरित्र लेवाले फाज के, प्रखय बड़े गयारे ॥ १४ ॥