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भट्टारक रनकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
.. यद्यपि रत्नकीति ने पहले शास्त्रों का अध्ययन कर रखा था लेकिन भट्टारक अभयनन्दि इससे संतुष्ट नहीं हुए और पुनः उसे अपने पास रखकर सिद्धान्त, काव्य व्याकरण, ज्योतिष एवं प्रावुर्वेद विषयों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया। बालक व्युत्पनमति या इमलिय शीन ही उसने ग्रंथों पर अधिकार पा लिया। अध्ययन समाप्त होने के पश्चात् अभयनन्दि ने उसे अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया। बत्तीस लक्षणों एवं बहत्तर कलायों से सम्पन्न विद्वान युवक को कोन अपना शिष्य बनाना नहीं चाहेगा।
संवत १६३० के दक्षिण प्रान्त के शालणा नगर में एक विशेष समारोह आयोजित किया गया । समारोह के प्रायोजक थे संघपति पाक साह तथा संघणि रपाई तथा उनके पुत्र संघवी पासवा एवं संघवी रामाजी जो जाति से बघरवाल थे। समारो में म. अभयनन्दि ने संवत् १६३० वैशाख सुदि ३ के शुभ दिन भट्टारक पद पर रलकीति का पट्टाभिषेक कर दिः । उसका नाम रत्न .ति रखा गया । इस पद पर वे संवत १५ वा रहे : र: पाकिसे मामा दे सिद्धान्त ग्रंथों के परम वक्ता थे तथा प्रागम काव्य, पुराण, तर्क शास्त्र न्याय शास्त्र, छंद शास्त्र, नाटक अदि प्रथों पर वे अच्छा प्रवचन करते थे। आकर्षक व्यक्तित्व
संत रत्न कीर्ति के सम्बन्ध में अनेक पद मिलते हैं जिनमें उनकी सुन्दरता, उनकी विबुधता एवं स्वभाव के विस्तृत वर्णन किये गये हैं। इन पदों के रचयिता हैं गणेश जो उनके शिष्यों में से एक थे । ये पद उस समय लिखे गये थे जब वे मिहार करते थे। रत्नकीति की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि गणेशा लिखते हैं उनको पाखें कमल के समान थी, उनका शरीर फूल के समान कोमल था जिसमें से करुणा टपकती थी। वे पापों के नापक थे। वे सकल शास्त्रों के ज्ञाता थे और अपने प्रवचनों को इतना अधिक सरस बना देते थे कि जिसको सुनकर सभी श्रोता गद्गद् हो जाते थे । कवि ने उन्हें गोतम गणधर की उपमा दी है। इसी तरह एक दूसरे पद में उनकी सुन्दरता का व्याख्यान करते हुग गणेश कवि लिखते हैं कि उनकी कांति पन्द्रमा के समान थी। उन की दंत पंक्ति दाहम के समान थी। उनकी वाणी से मधुर रस टरकता था। उनके अधरोष्ठ विम्ब कल के समान थे । उनके हाथ पत्यधिक फोमल थे तथा हृदय विशाल था । वे पांचों महानतों के धारी, पांच समिति एवं तीन गुप्ति के पालक थे। उनका उदय पृथ्वी पर अभयकुमार के रूप में हुअा था वे दिगम्बर
बागम काम्य पुराण सुलक्षण, तक न्याय गुरु जाणे भो। छब नाटिका पिगत सिवान्त, पृथक पृथक पलाणे जी।
- गीत रजि० सं० ९/पृष्ठ ६६-६७