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भट्टारक रनकाति
धर्म के शृगार स्वरूप थे। उन्होंने कामदेष पर बालकपने से हो विजय प्राप्त कर ली थी। वे मान्यधिक विनयी, विवेकी, मानव पे और दान देने में उन्होंने देवतामों को भी पीछे छोड़ दिया था । विवत्ता में से प्रकसंक निष्कलंक एवं गोवर्धन के समान थे। कवि ने लिखा है ऐसे महान संत को पाकर कौन समाज गौरवान्वित नहीं होगा । एक अन्य पद में कदि गणेश ने लिखा है कि वे गोमटसार के महान ज्ञासा पे और अभयकुमार के समान व्युत्पन्न मति थे। उनके दर्शन मात्र से ही विपत्तियां स्वयमेव दूर भाग पाया करती थी।
बिहार
रत्नकीति २७ वर्ष तक भट्टारक रहे। इस अवधि में उन्होंने सारे देश में विहार करके जैन धर्म एवं संस्कृति तथा साहित्य का खूब प्रचार प्रसार किया। उनका मुख्य कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान का दागर प्रदेश पा। बारडोली में उनकी भट्रारक गादी थी इमलिये उन्हें बारडोली का संत भी कहा जाता है। उनकी गादी की लोकप्रियता प्रासमान को छूने लगी थी इसलिये उन्हें स्थान-स्थान से सादर निमन्त्रण मिलने धे । ये भी उन स्थानों पर विहार करके अपने भक्तों की बात रखते य। वे जहां भी बाते मारा समाज उनका पालक पाघर बिछाकर स्वागत करता मौर उनके मुख से धर्म प्रवचन सुनकर कृत कृत्य हो जाता । उनके बिहार के संबंध में लिखे हुए कितने ही गीत मिलने है जिनमें उनके स्वागत के लिये जन भावनामों को उभाग गया है । यहां ऐसा एक पद दिया जा रहा है
__ मत्री री धीगनकीरति जयकारी प्रमयनंद पाट उदयो दिनकर, पंच महाव्रत धारी। मास्त्रसिधांत पुगण ए जो मो तक वितर्क विचारी। गोमटमार संगीत सिरोमणी, जारणी गोयम प्रयतारी । साहा देवदास केगे मुन सुखकर रोजमदे जर भवतारी। गणेश कहे तुम्हें नंदो रे भविगरण कुमति कुमंग निवारी ॥
इसी तरह के एक दूसरे पद में और भी सुन्दर ढंग से रत्नकीति के व्यक्तिरव को उभारा गया है जिसके अनुसार ७२ कसानों से युक्त, चन्द्रमा के सपान. मुख याले गच्छ नायक, रलकीति विशाल पांडित्य के धनी है । जिन्होंने मिष्यास्वियों के मन का मदन किया है तथा वाद विवाद में अपने पापको सिंह के समान सिद्ध किया है । सरस्वती जिनके मुख में विराजती है। वह मान सरोवर के इस के समान, नम मंडल में पन्द्रमा के समान सम्यक चरित्र के धारी, तपा जैनधर्म के ममंश, बामणापुर में प्रसिद्धि प्राप्त, मेघादी, संधवी तोला, पासवा, मली के प्राराध्य ऐसे भट्टारक