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प्राचार्य चन्द्रक
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६१. माचार्य चन्द्रकोसि
म. रत्नकीर्ति ने साहित्य-निर्माण का जो वातावरण बनाया था तथा अपने शिष्य प्रशिष्यों का इस ओर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया था, इसी के फल-स्वरूप ब्रह्म-जयसागर कुमुदचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, संयमसागर, गणेश और धर्मसागर जैसे प्रसिद्ध सन्त, साहित्य-रचना की मोर प्रवृत्त हुए। "प्रा. पन्द्रकीर्ति" भ. रत्नकीति के प्रिय शिष्यों में से थे । ये मेघावी एवं योग्यतम शिष्य थे तथा अपने गुरु के प्रत्येक कार्यों में सहयोग देते थे ।
| "चन्द्रकीर्ति" के गुजरात एवं राजस्थान प्रदेश प्रमुख क्षेत्र थे । कमी-कभी ये अपने गुरु के साथ और कभी स्वतन्त्र रूप से इन प्रदेशों में बिहार करते थें। बसे बारडोली, भडोच, डूंगरपुर, सागवाडा आदि नगर इनके साहित्य निर्माण के स्थान हो । अब तक इनकी निम्न कृतियां उपलब्ध हुई है.
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१. सोलहकारण रास
१.
कुमाराख्यान
३. चार चुनड़ी,
४. चौरासी लाख जीवजोनि वोनती ।
उक्त रचनाओं के अतिरिक्त इनके कुछ हिन्दी पद भी उपलब्ध हुए हैं ।
१. सोलहकारण रास
यह कवि की लघु कृति है। इसमें षोडशकारण व्रत का महात्म्य बतलाया है । ४६ पद्यों वाले इस रास में राग गौडी देशी, दूहा, राग-देशास्ख त्रोटक, बाल, राग-धन्यासी आदि विभिन्न छन्दों का प्रयोग हुआ है । कवि ने रचनाकाल का उल्लेख तो नहीं किया है, किन्तु रचना स्थान "हाडोच" का भवश्य निर्दिष्ट किया है । " भडोच " नगर में जो शांतिनाथ का मन्दिर था वही इस रचना का समाप्तिस्थान था। रास के मन्द में कवि ने अपना एवं अपने पूर्व गुरुमों का स्मरण किया है । अन्तिम दो पद्म निम्न प्रकार है
श्री भरुच नगरे सोहामणू श्री शांतिनाथ जिनराय रे । प्रासादे रचना रवि, श्री 'चन्द्रकोरति' गुण गायरे ॥ ४४ ॥ एव फल गिरना जो जो श्री जीवन्धर जिनराय जी | भविण तिदां जइ भावज्ये, पातिग दुरे पालाय रे ॥ ४५ ॥