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भट्टारक रत्नकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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स्यामादि शशि काठीयो, वास्यो भतिशय सेस ।
सूर भली मेरु वरांसीयों, वासुदेव विसेस ।। ५२ ।।
के काल
शीतल शशि ते सहू कहे, विरहा दयानल झाल ।। ५३ ।।
ठाल
फाल मेहेले परशी करू, भव मांहि भव करु, एम बिलवन्ती जुवती, चतुर चिन्ता कसे माहीय,
धरुक ननका मन वीनती करे पीयू पासि । ताहरी रायुल दासि ।। ५५ ।। सीखामण श्रम तरि । संसार
असार अनेक ।। ५६ ।।
मालि वेशि ।
करे परमेस ॥ ५४ ॥
सांमलि सुन्दरि सीख, सूं जाणे ए सार तन धन गृह सुख भोगव्यां, ए भन मांहि पवार । नरके जाये जीव एकलो, एकलो स्वर्ग मा || ५७ ॥
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देवता दानव मानव तेह तरणा धरणा कररया भोग | तोहे जीव नृपति न पांमीयो, मानव भवनो सो जोग ॥ ५८ ॥ उपनी तृषा अति नीरनी, क्षीरधिने कीयो पान | तृपति न पाम्यो आतमा तृणु जल कोण समान ॥ ५६ ॥ तात माल सहू देखतां जीव जाये निरधार । धर्म विना कोई जीवनें, नवि तारे युल मन मनाविय आवो चढ्यो गिरिनारि । तप याचरे, प्राचरे
संसार ॥ ६० ॥
वार भेव
पंचाचार ।। ६१ ।।
सुकुमालो परिसा सहे सहसा बन पनर प्रमाद दूरें करे शील सहस ध्यान बले कर्म क्षय करी, अनुसरो केवल ज्ञान । लोकालोक प्रकाशक भासक तत्व' विधान ।। ६३ ।। राघुले तो परतो करो, मनघर रही वेराग । भूषा अंगना मू किय, शरीर सोहाग ॥ ६४ ॥ मध्य जीव प्रतिबोधिय, कोषो शिवपुर वास । तब बले स्त्रीलिंग येदिय रायुल स्वर्ग निवास ॥ ६५ ॥
ममारि ।
पठार ।। ६२ ।।
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