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भट्टारक रस्नकीति एवं कुमुवचन्द्र - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मान मूकाम्या मिथ्यातिया रे, हाथिया ते वादी गजनी सोह । मूलसंघ मुनि माहि सरस्वती गछ माहि लोहरे ।।३।। चारित्र रंग सोहे खडो रे, समकित सुमति मोहंत रे । वागवादिनी मुखे स्वडी रे, अडला भविक जन मोहंत रे ।।४।। मान सरोबर सोहे हंससुर, तारा माहि सोहे जिम चन्द रे । रनकीति सोहे सीनसूरे, मुडी नगीना केरा दाद रे । जिनमत जाणे जासि युगलस्यु रे, जालणागुर प्रसिज रे । संघवी सोला पासवा माली रे, गणेश कहे पाट सिद्ध रे ।।६।।
भट्टारक रत्न कीति के गणानुवाद के अतिरिक्त भट्टारक कुमुदमन्द्र की प्रशंसा में लिखा हुपा एक गीत मिलता है जिसका न T गुरु स्तुति है। संवत १६५६ में बारडोली नगर में कुमुदचन्ः को भट्टारक पदे पर अभिषिक्त किया गया था प्रस्तुत भीत में उसी का उल्लेग्य किया गया है। कुमुद चन्द्र मोढवंश के श्रावक थे उनके पिता का नाम समापन ए माता पदमाबाई था। ये दर्शन जान एग पारित्र से सम्पन्न थे। परी स्तुति निम्न प्रकार है
माई रे मन मोहन मुनिवर ग़रपती ग सोहा रे । कुमुदचन्द्र भट्टारक उदयो भविपण मन मोहंत रे ।।माई॥१॥ गुरा गम्भीर गरउ गछ नापक वायक झंडा रसाल रे । रत्नकीति गोर पाटि पदोधर मानदं भला भूपाल रे ॥माई।।२।। संघपति श्री कहानजी भाइयो भान वीर रला जयवंत रे । करे प्रतिष्ठा पाट महोत्सव गो थाणे गुणयंत रे॥माई।।३।। वित्त विनसे उलट भरे ..............धाम मल्लिदारा । कुमुदचन्द्र गछ नायक भापा, गोपाल पुहवी ग्रास रे | माई।।४।। संवत सोल छपन्ने, वैशास्त्रे, प्रगट पटोधर थाप्या रे । रत्लकीर्ति गोर वारडोली वर, सूर मन्त्र शुभ प्राप्या रे ||माई।।५।। मूलसंघ प्रगट मणि माहत, सरमति गच्छ सोहावे है। कुमृदचन्द्र भट्टारक प्रागलि वादि को धादे न माये रे ॥६॥ मोठवंश शृगार शिरोमणि, साह सदाफल तात रे। . आयो यतिवर जुग जयवंतो पदमाबाई सोहात रे॥ ॥7॥ शोल तपो रंग अंग अनोपम दर्शन मान चारित्र रे॥ ॥८॥