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कविवर गणेश
कनक वरण तन सुरूप रे, महि तले माने मोटा बहु भूप रे । विनय विवेकी नर परधान रे, अमर महीमह सम प्रापे दान रे ॥७॥ जग जस निर्मल अमल सरीर रे, गिरिव र समधार जलधी गंभीर रे । तुझ वीठड़े मुख समिरे नेह रे, अलक निकलंक मोवरधन जेहरे ।।८।। अभेनन्द पाटे पटोधर एह र, सुगुण सणो रुचु म सनेह रे । धर्म भूषण धन सूरी मंत्र प्रापारे, गणेश कहे गोर गछपति थाप्या रे ||९||
उक्त गोत में रत्नफोति के सम्बन्ध में कितना ललकर लिखा है पाठक उसका प्रास्वादन कर सकेंगे। कवि ने उनको प्रत्येक बात पर प्रकाश डाला है यहां तक कि उसके स्वभाव की चची को डाली है । मी तरल के कम अथवा प्रधिक रूप में और गीतों में प्रकाश डाला गया है। जो पूर्णत: सत्य घटनाओं के प्राधार पर ही प्राधारित है।
कवि कोलोत नेबाब नाम माते। इसने संवत १६४३ में भट्टारक रलकीति से दीक्षा धारण की थी। गणेश कवि ने इस घटना को भी छन्दोबद्ध किया है।
गुणानुवाद को शिव
एक प्रशस्ति में गणेश कवि ने भट्टारक रत्नको सुख का साधन माना है। पूरी प्रमाति निम्न प्रकार है
सुप्रभाति नमो देव जिगन्द । रनकोति सूरी सेबो प्रानन्द ।। सबल प्रबल जेणं काम हादप्रो, जालणा पोरगाह एतीये बधाग्यो। वागवादनी बदने बसे एहले, एहनी उपमा कहीसे पहनें ॥२॥ गछपति गिरवो गुण गभीर, शील सनाह घरे मन धीर ॥३॥ जे नरनारी ए गोर गीत गासे, मंगेश कहे ते शिव मुख पासे ॥४॥
एक दुसरे गीत में गणेश वधि ने रलकीति की अनेक उपमापों से प्रशंसा
काला बहोत्तरि कोडामणो रे, कमल बदन करुणाल रे । गछ नायक गण अागलो , र-नकी रति विबुध विशाल' रे ।। आवो रे भामिनी गज गामिनी रे, स्वामी जी वाणी विख्यात रे ।। अभयनन्द पदकंज दिनकरु रे, धन एहना मातने तात रे ।