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भट्टारक रत्नफीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कृतित्व
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गह गड़ गड़ीसा मंदिर पड़ीया ।
दिगन्तीव मझ्या चलचलीमा। जन खल भलीमा बालक छलीमा ।
भय भी अबला कलमलीया ॥ १३६ ।। तो पण ते धरणी घबडू के। लड़यता पड़ता नवि कें ।
भरत द्वारा चक्र फेंकना । त्यारे बाहुबली नवि डोल्यो। हलसें चझी हींदोल्यो । १३७ ।। देखी बाहुबली भट हसीनों।
भरत तणां भट प्रति कशमशीया। वलतें रीश करी ने मुक्यु । चक्र बाहुबली करें ढुक्यु ॥ १३८ ।। मान भग दीटो नृप रागें। बाहुबली चढ़ीयो बेरागें निग धिन यह संसार असार । कदलो गर्भ समान विचारं ॥ १३६ ॥
बाहुबली का वैराग्य विषय तणां मुम्न विष सम भासें ।
तन धन योयन दिन-दिन मासें । सज्जन सहु मलीमा निज कांमें । सु कीजे हय गय वर धामें ।। १४० ।। घर धंधे पड़ीयो ते प्राणी । पाप अनन्त करे ते जागी । मेते मूढ पणु सु कीधु । ज्येठा बंधवने दुप्सा दीषु ॥ १४१ ।। पहबो मनि देराग धरीनें । भरतपती सु प्ररन करीनें । निज राजे महाबल वेसारयो ।
क्रोध लोभ मद मदन निवार्यो - १४२ ।। छंडी ऋमि गयो जिन पास 1 लीधी संयम भव भय त्रासें । बरस एक मरयादा कीघी। मन उदकनी बाधा लीधी ।। १४३ ॥
बाहुबली की सपस्था प्रतिमा योग धरयो मनमाहें। उमा रही पालंबित बाहे। ध्यान घरे बह जीव दया पर ।
नवि बोले नदि चालें मुनिवर ॥ १४४ ।। अषि न फरके रोम न हर । वनसावज वीने निरखें । बनचर तनुऊ धसता दीसे । तो पण मुगिन चढ़े ने गैसें ।। १४५ ॥