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मट्टारक अभयचन्द्र
व्याकगं छन्द अलंकार रे अष्ट सहस्त्री उदार रे पिलोक गोम्मटसार के भाव हृदय धरे ॥
जब उन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया तो त्याग एवं सरस्या के प्रभाव से उनकी मुखाकृति सत्यमेव अाकर्षक बन गयी और भक्तों के लिये वे प्राध्यात्मिक जादूगर बन गये । इनके नचासों शिष्य बन गो उनमें गणेश, दामोदर, धर्मसागर, देवजी, रामदेवजी के नाग विदोपतः उल्लेखनीय है । इन शिप्यो ने पदमारक प्रभयचन्द्र की अपने गीतों में भारी प्रशंसा की है । लगता है उस समय चारों ओर अभयचन्द्र का यशोगाथा फैल गयी थी। जब वे विहार करते तो इनके शिष्य जन-साधारण को एक विशेषतः पहिला समाज को निम्न बच्चों में प्रा करते थे
पायो रे भामिनी गाज वरगमती
बांदवा अानन्द मिली मृग नयनी । मुगताफलनी लाल भरी जे
गच्छनायक अभयचन्द्र वाचावी । कूकुम चन्दन भरीय कोली
गेगे पर पूजो गो ना ग भनी ।। ३ ।।
अभयचन्द्र के साबन्ध में उनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा कितने ही प्रशंसात्मक गीत मिलते हैं जिनसे कितने ही नवीन तथ्यो की जानकारी मिलती है । इन्हीं के शिष्य वर्मसागर ने एक गीत में जन के यश की प्रगामा करते हुए लिखा है कि देहली के सिंहासन तक उकफी शंमा पहुच गयी थी और वहां भी उनका सम्मान था । चारों मोर उनका यश फैल गया था।
दिल्ली र सिंहासन से मजियो रे गाजियो यश विभवन मन्दिरे ।।
इसी तरह उन है एक गिा दामोदर ने अपने एक गीत में भक्तो से निम्न प्रकार का प्राग्रह किया है -
जांदो वांदो सखी री श्री अभयचन्द्र गोर वांदो । मूलसंध मंडल दुरित निसन मदनन्द पाटि वांदो ।। १ ।। शास्त्र सिद्धान्त पूरण । जाण, प्रतिबोटो भत्रियण प्रनेका सकल कला करी विशः। में रंजे भंजे वादि अनेक ।। २ ।। हूंबड़ वंशे विख्यात सुधा, श्रीपाल सावन तास । जामो जननी मती यशवंतो कोडमदे धन मात ।। ३ ।।