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भट्टारक रनकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व कृतित्व
मदन महामद मोडेए मुनिवर, गोयम सम गुणधारी क्षमावंतषि गंभीर विचक्षण, गुम्यो गुण भंडारी ।।
अभयचन्द्र अपने गुरु भट्टारका कुमुदचन्द्र के योग्यतम शिष्य थे। उन्होंने भट्टारक रत्नकीति भट्टारक कुमुदचन्द्र का समय देखा था और देखी थी उनको साहित्यिक साधना इसलिये जब वे स्वयं भट्टारक बने तो उन्होंने भी उसी परम्परा को जीवित रखा। बारडोली नगर में इनका पट्टाभिषेक हुआ था। उस दिन फाल्गुण सुदी ११ सोमवार संवत् १६८५ था । पाट महोत्सव में समाज के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे। इनमें मगनी, गटी, मे::ी, हो, गाजी, भीमजी आदि के नाम उनलेवनीय है । नाविवर दामोदर ने गाट महोत्सव का निम्न पादों में वर्णन किया है
बारडोली नयरि उन सीधो, महोछ्व अन्त अधारी । सधवी नाग जी अति प्राणा, हेगजी हरष अपार । माधवी व वर जी लाडल, भाजी महिमावत रूपजी मालजी मनोहारु, मह सज्जन मन मोहंस । संधर्व भीमनी गायस्यु', नुन जीवा मने उल्हास मंचचाई जीवराज उन घणो, पहोतीछे मन तणी प्राम । संवत सोल पच्यामी ये, फागुण मुदि एकादणी सोमवार नेमिनन्द्र' सुर मंत्रज, प्राप्पा बरतयो जयकार ॥
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अभयवन्द्र का जन्म सांवत् १६४० के लगभग हंवड़ वंश में हुआ था । इनके पिता का नाम श्रीपाल एवं माता का नाप को डमदे पा । नचपन में ही बालक अभय चन्द्र को साधनों की मंडली में रहने का सूनवरा र मिल गया था। हेमजी कुवर जी इनके भाई थे । ये गम्मन्न पराने न थे। युवावस्था के पूर्व ही उन्होंने पांच महावतों का पालन प्रारम्भ कर दिया था।
हंबड वंशे श्रीपाल माह लका, जनम्यो रुडी रतनदे कोडगदे मात । लघु गणें लीधो महावा भार, मनवण करी जीत्यो दुर्धरि भार 1
इसी के साथ इन्होंने संस्कृत प्राकृत के ग्रंथों का उच्च अध्ययन किया । न्याय शाम में पारंगता प्राप्त की तथा अलंकार शास्त्र एवं नाटकों का तलस्पर्शी अध्ययन किया । इसके साथ ही प्रष्ट महली, श्रिलोकसार, गोम्मटमार जैसे ग्रन्थों का गहरा ज्ञान प्राप्त किया।