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पर से अपना कब्जा छोड़ने की नहीं है, दूसरे उनके साथ प्रब एक खतरनाक व्यावसायिकता भी जुड़ गयी हैं। इन ऐसी करिनाइयों से जूझते हए अकादमी ने जो कुछ किया है और जो कुछ वह अपने सीमित साधनों में करने के लिए संकल्पित है, उससे भारतीय संस्कृति और साहित्य का मस्तक गौरव से उँचा उठेगा इतना ही नहीं बल्कि राजस्थानी हिन्दी साहित्य समृद्ध भी होगा । विज्ञान की कृपा से ग्राज ऐसे साधन उपलब्ध हैं कि हम दुष्प्राप्य पाण्डुलिपियों को मध्ययन के लिए सुरक्षित, व्यवस्थित प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु मेरी समझ में अभी ऐसा कोई सुसमृद्ध अनुसघान-वेन्द्र जैनों का नहीं हैं जहाँ सारे ग्रन्थ एक साथ उपलब्ध हों या उनके उपलब्ध कर दिये जाने की कोई कारगर व्यवस्था हो ताकि कोई शोधार्थी बिना किसी बाधा/प्रसुविधा के कोई तुलनात्मक अध्ययन कर सके । श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, हमें विश्वास है, जल्दी ही उस मभाव को पूरा करेंगी और हमारे स स्वप्न को यथार्थ में बदल सकेगी।
प्रस्तुत ग्रन्थ अकादमी का चतुर्थ प्रकाशन है। प्रथम में महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक विभवनकीति, द्वितीय में करियर बुचराज एन उनके समकालीन कवि मोर तृतीय में महाकत्रि ब्रह्म जिनदास, के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार किया गया है। ये तीनों ग्रन्थ क्रमश: 1978, 79, और 1980 मेंप्रकाशित हुए हैं। इन ग्रन्थों में जो बहुमूल्य सामग्री संकलित/संपादित है, उससे साहित्य का भावी अध्येता/ अनुसं पित्सु अनुगृहीत हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्ध में भट्टारक रत्नकीर्ति एवं मट्टारक कुमुदचन्द्र' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर व्यापक गह्न अभिमन्थन हुया है। कहा गया है कि 1574-1643 ई० का समय भारतीय इतिहास में शान्ति समद्धि का था। इस समय भट्टारकों ने साहित्य समाज-रचना के क्षेत्र में एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह किया । भ . रत्न कीति गुजरात के थे, किन्तु उन्होंने हिन्दी की उल्लेखनीय सेवा की । उनके प्रमुख शिष्य कुमुदचन्द्र हुए जिन्होंने जैन साहित्य धर्म को तो समृद्ध किया हो, किन्तु हिन्दी साहित्य को भी विभूषित किया । ग्रन्थान्त में उनकी कृतियाँ संकलित हैं, जिनसे उन दिनों के हिन्दी-का पर तो प्रकाश पड़ता ही है दोनों गुरु-शिष्य की साहित्य सेवाओं का मी मलीभांति योतन हो जाता है । कुल मिलाकर महावीर ग्रन्थ अकादमी जो ऐतिहासिक कार्य कर रही है नागरी प्रचारिणी सभा' वाराणसी; हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; और हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद जसी साधन-संपन्न संस्थानों के समान, उससे उसकी सुगंध दिगदिगन्त तक फैलेगी और उसे समाज का सरकार का जन-जन का सहयोग सहज ही मिलेगा।
-डा. नेमीचन्द्र जैन इन्दौर,
संपादक "तीर्थकर" 21 सितम्बर 1981
कृते सम्पादक मंडल