________________
अवशिष्ट
मनोरथ पहोचसे मन तणा रे, सफल फलस्ये दिन रजनी रे ॥ १५ ॥ विद्यानदि पाट मल्लि भूषण धन लखमीचन्द्र प्रभेचन्द्र । अभेनंदी पाट पटोधर सोहे रत्नकीरति मुनींद्र रे ॥ १६ ।। कुमुदचन्द्र तस पाट इ दिन मरिण घड़ी ख्यात अगि जेह । वदन तो सुन्दर वाणी जलधर श्री संथ साथे नेह रे ।। १७ ।। हर्ष हभत्री कुमुदचन्द्रनी गाये सुरणे नर नार । संकट हर मन पछित पूरे, गणेस कहे जयकार रे ॥ १८ ।। ॥ इति श्री कुमुदचन्द्रनी हमची समाप्त ।।
अवशिष्ट ब्रह्म जयराज
(४५) ये भट्टारक सुमति कीति के शिष्य थे । इनके द्वारा लिखा हुआ एक गुरु छन्द प्राप्त हुआ है जिसमें भट्टारक सुमतिकीति के पट्ट शिष्य भद्दारक गणकीति के पट्टाभिषेक का वर्णन दिया हुआ है । पूरे गुरु छन्द में २६. पद्य है जो विविध अन्दों वाले हैं । ब्रह्म जयराज ने और कितनी रचनाए लिखी इसकी गिनती अभी नहीं की जा सकी है। उक्त रचना में संवत् १६३२ में होने वाले पपीति के पाट महोत्सव का वर्णन पाया है । गुरु छन्द वा सार निम्न प्रकार है--
भट्टारक गुणकीर्ति सुमति कीति के शिष्य थे। राय देश में चतुरपुर नगर था। यहां हूंबंड जातीय श्रेष्टी सहजो अपार वैभाव के स्वामी थे। पत्नी का नाम सरियादे था | महजो ज्ञाति के शिरोमणि थे और चारों ओर उनका अत्यधिक समादर था। उनके पुत्र का नाम गणपति था जिसके जन्म पर विविध प्रकार के उत्सव प्रायोजित किये गये थे । युवावस्था के पूर्व ही उसने कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर लिया 1 में अत्यधिक सुन्दर थे । उनका शरीर अत्यधिक कोमल एवं आंखे कमल के समान थी । लेकिन गणपति चिन्तनशील थे इसलिये विवाह के पूर्व ही वे सुमतिकीर्ति के शिष्य बन गये । उनका नाम गुणकीर्ति रखा गया ।
साधु बनने के पश्चात उन्होने बागड देश के विविध गांवों में बिहार करना प्रारम्भ किया । डूंगरपुर में संघपति लखराज द्वारा प्रायोजित महोत्सव में इन्हें पांच महानत पालन का नियम दिया गया । इसके पश्चात शान्तिनाथ जिन चत्वालय में इन्हें उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। उपाध्याय जीवन में इन्होंने गोम्मटसार प्रादि ग्रन्यों का पठन पाठन किया। कुछ समय पश्चात् इन्हें
१. इसका विवरण पहिले नहीं दिया जा सका।