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मट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अपना लक्ष्य रखा | वे संघ के साथ विहार करते और जन जन का हृदय सहज ही जीत लेते। वे प्रतिष्ठा महोत्सवों, व्रत विधानों आदि में भाग लेते और तत्कालीन समाज से ऐसे प्रयोजनों को करते रहने की प्रेरणा देते ।
माया
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कुमुदचन्द्र की कृतियों की भाषा राजस्थानी के अधिक निकट है। लेकिन गुजरात एवं बागड प्रदेश उनका मुख्य बिहार स्थल होने के कारण उसमें गुजराती का पुट भी आ गया है। मराठी भाषा में भी वे लिखते थे। 'नेमीश्वर हमरी' मराठी भाषा की सुन्दर रचना है। कृतियों से उनके पदों को षा अधिक परिस्कृत हैं और कितने ही पद तो खड़ी बोली में लिखे गये जंग लगते हैं और उन्हें तुलसी, सुर श्री भोरा द्वारा रचित पदों के समक्ष रखे जा सकता हैं। भाषा के साथ साय भाव एवं शैली की दृष्टि से भी कवि का पद साहित्य उल्लेखनीय है। रचनाओंों में यारी, म्हारी, पाछे यो, जैसे शब्दों का प्रयोग बहुत हुआ है। इसी तरह माब्यू, जापू, हरख्यां सुक्या जैसे क्रिया पदों की बहुलता है। कभी-कभी कवि शुद्ध राजस्थानी शब्दों का प्रयोग करता है जिसे निम्न पद्य में देखा जा सकता है
कालिय दिन दिवालिना मखि परि घरि लील विलास जी किस कम कवयो वेस्सु करिये घरिघरि वासि जी । नेमिनाथ बारहमासा
इसी तरह राजस्थानी भाषा का एक और पद्य देखिये
बचन माहरु गानिये, परितारी थी रहो बेगला | अपवाद भाथे नढ़े मोटा रंक यह दोहिला |
श्रील गीत
छों का प्रयोग
कुमुद की विविध रचनाओं से ज्ञात होता है कि वे छन्द शास्त्र के अच्छे वेत्ता थे इसलिये उन्होंने अपनी कृतियों को विभिन्न छन्दों में निबद्ध की है। कवि को सबसे अधिक घटक काल एवं विभिन्न राग रागनियों में काव्य रचना करना प्रिय रहा। गीत लिखना उन्हें चित्र लगता था इसलिये इन्होंने अधिकांश कृतियां गोतारमत्रता शैली में लिखी हैं। वे अपनी प्रवचन समानों में इन गीतों को सुनाकर अपने भक्तों को भाव विभोर कर देते थे ।