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मट्टारक कुमुपचन्द्र में लगे रहते थे और अपनी छोटी बड़ो कृतियों के माध्यम से समाज में पवित्र वातावरण बनाने में लगे रहते थे । वास्तव में उनका सगस्त जीवन ही जिनवाणी की रोवा में समर्पित रहता था। उनका पद साहित्य एवं अन्य कृतियां उनके हृदय का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे दिन रात तीर्थकर भक्ति में स्वयं डूबे रहते थे और अपने भक्तों को सुबोया रम्बले थे । वह समय ही ऐसा था। चारों ओर भक्ति ही भक्ति का वातावरण था । ऐसे समय में कुमुदनन्द्र ने जनता की मांग को देखते हुए साहित्य सर्जना मे अपने ग्राप को समर्पित रखा। उनका माहित्य पढ़ने से उनके हृदय की चुभन का पता लगता है । उनको सारे समाज को विभिन्न प्रकार की बुराइयों एवं दूषित वातावरण से दूर रखते हुए जीवन का विकास करना था और इसके लिये साहित्य सर्जन को ही अपना एक मात्र साधन माना । जे यपने गुरु रस्नकोति से भी दो कदम आगे रहे और अनेकों कृतियों की रचना करके उस समय के भट्टारकों साधु सन्तों के समक्ष एक नया प्रादर्श उपस्थित किया।
शिष्य परिवार
वैसे तो गट्टारकों के अनेक शिष्य होते थे। उनके सम्पर्क में रहने में ही लोग गौरव का अनुभव करता थे । लेकिन तुमुदचन्द्र ने अपने सभी शिष्यों को साहित्य सेवा का व्रत दिया और अपने समान हो साहित्य सर्जन में लगे रहने की प्रेरणा दी। मही कारण है कि उनके शिष्यों की भी अनेक रत्तनाए मिलती है। कुमुदचन्द्र के प्रमुख शिष्यों में- अभय चन्द्र, ब्रह्मराागर, घर्मसागर, संयमसागर, जयसागर एवं गणेशसागर के नाम उल्लेखनीय हैं । इन सबने मुदचन्द्र के सम्बन्ध में भी कितने ही पद लिखे हैं जिसमें उनके विशाल "क्तित्व एवं अपने गुरु के प्रति समर्पित जीवन का पता लगता है। इनके सम्बन्ध में आगे विस्तृत रूप से प्रकाश डाला जावेगा।
बिहार
___ गुजरात का बारडोली नगर इनका प्रमुख केन्द्र था। इसलिये इन्हें बारडोली का सन्त भी कहा जाता है। यहीं पर रहते हुए ये सारे देश में अपने जीवन, त्याग एवं साधना के प्राधार पर लोगों को पाचन सन्देश सुनाते रहते थे । ये प्रतिष्ठाओं में भी जाते थे और वहा जाकर धर्म प्रचार लिया करते थे।
भट्टारक काल
कुमुदचन्द्र भट्टारक गादी पर संवत १६५६ से १६८५ तक रहे। इन २६-३० वर्षों में उन्होंने समाज को जाग्रस रखा और सदैव साहित्य एवं धर्म प्रचार की भोर