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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतिस्थ
विकट लोभ तं कपट कूर करी, निपट विष लपटायो विटल कुटिल पाठ संगति से, साह, लिस्ट
इसी पद में ऋवि आगे कहते हैं कि हे मानव तु दिन प्रतिदिन गांठ जोड़ता रहा और दान देने का नाम भी नहीं लिया और जब यौवन को प्राप्त हुआ तो दूसरी स्त्रियों के चक्कर में फंसकर अपना समस्त जीवन ही गवां दिया । जब संसार से विदा होने लगा तो किसी ने साथ नहीं दिया और पापों की गठरिया लेकर हो जाना पड़ा तब पश्चाताप के प्रतिरिक्त शेष कुछ नहीं रहा । इन्हीं भावों को कवि के शब्दों में देखिए -
कृपण भयो कुछ दान न दीनों दिन दिन दाम मिलायो ।
जब जोवन जंजाल पडयो तब परत्रिया ततु चित लायो || मैं तो || अंत समें कोच संग न भावत, झूठहि पाप लगायो । कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही, प्रभु पद जरा नहीं गायो । मैं तो ॥
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महेंद्र भक्ति एवं पाश्वं भक्ति के अतिरिक्त भट्टारक कुमुदचन्द्र ने अपने गुरु भट्टारक रत्न कीर्ति के समान राजुल नेभि पर भी कितने ही पद निबद्ध करके राजुल की विरह भावना के व्यक्त करने में वे आगे रहे हैं। राजुल की विरह भावना को व्यक्त करते हुए वे "राखी से प्रत तो रह्यो नहि जात" जैसे सुन्दर पद की रचना कर डालते हैं और उसमें राजुल के मनोगत भावों का पूरा चित्र प्रस्तुत कर देते हैं । राजुल को न भूख लगती है और न प्यास सताती है तथा वह दिन प्रतिदिन मुरझाती रहती है। रात्रि को नींद नहीं श्राती है और नेमि की याद करते करते प्रातः हो जाता है | विरहावस्था में न तो चन्द्रमा अच्छा लगता है और न कमल पुष्प | यही नहीं मंद मंद चलने वाली दवा भी काटने दोड़ती हैं इन्हीं भावों को कवि के शब्दों में देखिये
नहि न भूख नहीं तिसु लागत, घरहि घरहि मुरझात ।
मन तो उरमी रहयो मोहन सु सेवन ही सुरक्षात ॥ सखी || नाहिते नींद परती निसि वासर होत बिसुरत प्रात । चन्दन चन्द्र सचल नलिनी दल, मन्द मरुत न सुहात ||
अब तक 4.वि के ३८ पद उपलब्ध हो चुके हैं लेकिन बागड़ प्रदेश के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत गुटकों में उनका और भी पद साहित्य मिलने की संभावना है। कुमुदचन्द्र के पदों के अध्ययन से उनकी गहन साहित्य सेवा का पता चलता है । ये भट्टारक जैसे सम्मानीय एवं व्यस्त पद पर रहते हुए भी दिन रात साहित्याराधना