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महाकवि बनारसीदास
नहीं सुजोनि जनम कुन कोइ, जित बल झांती पासी, सोलर लान सभक परास? ॥२॥
कचा कोदि मवासा कब लग, हक दिन परभव' जाना। जो जम अखे पार ले जावे, चले न जोर धिंगाणा । दास बनारसी दुवे भारवे, जम वस अमर रंग न राणा ||४|| राणा रंक अमर चिर नाही, सब कोई चलन हारा । भरी साह परमोले खाली जो जग चलसी सारा । जो धरि आगो इक दिन भजसो, प्रायो अपनी बारा । तनु सोत्त नहीं पर भवरा, पाय बैठो पसारा ॥५॥ पाय पसारी बैठ न जूठी, तू भी चलण भाइ। मात पिता गत बन्धु तेरी सात न कोई सहाइ । सुख विष खांवण देस बसेगी, दुख विच कोन धुरा । भली बुरी संगति के लकती, जीतो मोती पाइ ।।६।।
झोली पाय चल्यो कछु करनी, छिनह तुफा जेहा । कंचन छॉड के कप विडाजो, तु बियारी कहा । खोटा खरा परस ने जानो लखे न लाहा देता । अगे खाली बलीयो ईवे, पिछे आहो जेहा ।।७।। सुनहो बानी सुतगुरुबानी, ते बसत अमोलह पाई । बीरज 'फोर' भयो वहभागी, कर परमाद न राइ । जव लग पंथ न साधे, सिबदा, तेडी पुरी गर न काइ । चेतन चेत समाचेतन का, सद्गुरु यो समुझाइ ।।
सद्गुरु समुशावे तेरे हित कारन, मूरख समझ कि माहीं । जिन राहे लोक लुटीदा, पचे तिना ही राही ।
राग दोष पयो बाम ठगी, रा सीधा उषाही ।। बहु चिरकाल लुटायो सया, कुण मूरस्थ समझ कि माही II कदी म समझो सो कित झारन, मोह घमारा साया : झठी शडी में में करदा, अन्ध ले जनम गंवायो । कामिन कनक दुहु सिर तेरे कोई माय भले रा पाया । चुरा चुण कनक ते गलीचा विच, कमला नाव घराया ॥१०॥