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भट्टारक रत्न कीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
था, तब से समय में जैन समाज भी कसे अछूता रहता। उस समय सम ज में । दो घाराचे वहने नगी! एक अध्य त्म की और दूसरी भक्ति की। एक धारा के यमुना थे महाकवि बनारसीदास जिन्होंने समयसार नाटक के माध्यम से अध्यात्म की लहर को जीवन दान दिया। स्थान-स्थान पर अध्यात्म संलिमा स्थापित होने लगी जिनमें बैठ कर पात्म-चर्चा करने में समाज का जुना वर्ग अत्यधिक रस लेने लगा । सांगानेर, आगरा, मुलतान जैसे नगर इन अध्यात्म नैलियों के प्रमुख केन्द्र थे। इन गलियों में भेद-विजाग, आत्म रहस्व, निमिन उपादान प्रादि विषयों पर चर्चा होती थी। वास्तव में ये सैलियां सामाजिक संगठन की भी एक प्रकार से केन्द्र विन्दु बन गई थी । दूसरी पोर मेवाड़, बागड़ एवं राजस्थान के अन्य नगरों में अहंदु भक्ति की गंगा भी बहने लगी । तत्कालीन जन कति नेमिनाय' को लेकर उसी तरह के भक्ति एवं शृगार परक पदों की रचना करने लगे जिस तरह सूरदास एवं मीरा के पद र वे गये । इस तरह के साहिल के निर्माण करने में भट्टारक रत्नकीर्ति एवं भट्टारक कुमुद चन्द्र का विशेष योगदान रहा । इन्होने अर्हद् भक्ति की गंगा बहायी तथा आगे होने वाले वादियों के लिये दिशा निर्देश का कार्य किया।
हिन्दी जैन साहित्य के लिये संवत् १६३१ से १५०० तक का समय प्रत्यघिक प्रगतिमोल रहा । इस ५० वर्षों में राजस्थानी पर निन्दी भाषा में जितने जेन कवि हुए है उतने इसके पहिले कभी नहीं हुए। ढूढाड, बागड़, घागरा, आदि क्षेत्र इनके प्रगुल केन्द्र थे । ऐसे राजस्थानी एवं हिन्दी जन कवियों की गंध्यां साठ से भी अधिक है जिनके नाम निम्न प्रकार हैं:---
१. महाकवि बनारसीदास २. ब्रह्म गुलाल ३. मनाम
४, पाण्डे रूपचन्द १. हर्गवीति
६. पत्यारणीति ७ ठायर बावि
८. देवेन्द्र ६. जनन्द
१०. वर्धमान कवि ११. प्राचार्य जयफीति १२. पं. भगवतीदास १३. १० कपूरचन्द
१८. मुनि रात्रचन्द १५ पाण्डे जिनदारा १६. पाण्डे राजमन्न १७: श्रीतर टोलिया १६. भट्टारक वीरनन्द्र १६, खेतखी
२०. ब्रा प्रजित २१. ग्रा० नरेन्द्र कीति २२. ब्र० रायमल्ल २३. जगजीवन
२४. कुभरपाल २५. सालिवाहन
२६. सुन्दरदास २७, परिहानन्द
२८. परिमल्ल