SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व पीठिका में उनके इस प्रभाव ने भट्टारक संस्था के प्रति जन साधारण में श्रद्धा एवं प्रादर के भाव जागृत करने में गहरा याग दिया। इन भट्टारकों के प्रत्येक नगर या गाव में केन्द्र होते थे जिनमें या तो उनके प्रतिनिधि रहते थे या जब कभी वे विहार करते तो वहां कुछ दिन ठहर कर समाज को धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में दिशा निर्देशन देते थे । वे धार्मिक विधि विधान कराते एवं पंच कल्याणक प्रतिष्ठा के प्रतिष्ठाच : बन कर उसकी पूरी विधि सम्पन्न कराते । धार्मिक क्षेत्र में उनका प्रखण्ड प्र था। समाज के सभी वर्गों में उनके प्रति सहज भक्ति थी। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश के अधिकांश क्षेत्र में भट्टारक संस्था का पूर्ण प्र या । वास्तव में समाज पर उनका पूर्ण वर्चस्व था। जब वे किसी ग्राम या नग प्रवेश करते वो सारा समाज उनके स्वागत में पलक पावड़े बिछा देता था गद्गद् होकर उनकी भक्ति एवं अर्चना में लग जाता था । र १७वीं शताब्दी प्रर्थात् सं० १६३१ से १७०० तक का ७० वर्षों का काल हमारे देश में भक्ति काल के रूप में माना जाता है। उस समय देश के सभी भागों में भक्ति रस को धारा बहने लगी थी। इस काल में होने वाले महाकवि सूरदास एवं तुलसीदास ने भी सारे देश को भक्ति रूपी गंगा में डुबोया रखा और अपना सारा साहित्य भक्ति साहित्य के रूप में प्रसारित किया। एक शोर सूरदास ने अपनी कृतियों में भगवान कृष्ण के गुणों का व्याख्यान किया तो दूसरी ओर तुलसीदास ने राम काव्य लिखकर देश में भगवान राम के प्रति भक्ति भावना को उभारने में योग दिया। ये दोनों ही महाकवि समन्वयवादी कवि थे। इसलिये तत्कालीन समाज ने इनको खूब प्रश्रय दिया और राम एवं कृष्ण की भक्ति में अपने आपको डुबोया रखा । जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। उसे त्याग धर्म माना जाता है । इसलिये जनधर्म में जितनो त्याग की प्रधानता है उतनी ग्रहण की नहीं है । उसमें प्रात्मा को परमात्मा बनाने का लक्ष्य ही प्रत्येक मानव का प्रमुख कर्तव्य माना जाता है । तीर्थ कर मानव रूप में जन्म लेकर परम पद प्राप्त करते हैं उनके साथ हजारों लाखों सन्त उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर निर्वाण प्राप्त करके जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं । इसलिये जनधर्म में भक्ति को उतना अधिक उच्च स्थान प्राप्त नहीं हो सका । यद्यपि ग्रहंदू भक्ति से अपार पुण्य की प्राप्ति होती है और फिर स्वर्ग की उत्तम गति मिलती है। संसारिक वैभव प्राप्त होता है लेकिन निर्वाण प्राप्ति के लिये तो भक्ति के स्थान निवृत्ति मार्ग को ही अपनाना पड़ेगा और तभी जाकर संसारिक बन्धनों से मुक्ति मिलेगी। 17वीं शताब्दि में जब सारा उत्तर भारत राम व कृष्ण की भक्ति में समर्पित
SR No.090103
Book TitleBhattarak Ratnakirti Evam Kumudchandra Vyaktitva Evam Kirtitva Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy