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भट्टारक कुमुद
पश्चात मालम होता है कि अभी उनके छोटे भाई बाहुबलि ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं है सो सम्रा मन को 17 को सजते हैं । दूत और बहुबलि का उत्तर-प्रत्युत्तर बहुत सुन्दर हुना है ।
अन्त में दोनों भाइयो में युद्ध होता है, जिसमें विजय बाहुबलि की होती हैं। लेकिन विजय श्री मिलने पर भी बाहुबलि जगत से उदासीन हो जाते हैं और वैराग्य धारण कर लेते हैं। घोर तपश्चर्या करने पर भी “मैं भरत की भूमि पर खड़ा हुया है" यह शल्य उनके मन से नहीं हटती । लेकिन जब स्वां सम्राट भरत उनके 'चरणों में प्राकर गिरते हैं और वास्तविक स्थिति को प्रगट करते हैं तो उन्हें तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है। पूरा का पूरा खण्ड काव्य मनोहर शब्दों में पित है। रचना के प्रारम्भ में कवि ने जो अपनी गुरु परम्परा दी है वह निम्न प्रकार है
पणनिवि पद यादीश्वर केरा, जेह नामें छुटे भव-फेरा । ब्रह्म सुता समरु मतिदाता, गुरण गरण मंडित जग विख्याला ।।
नंदवि गुरु विद्यानंदि सूरी, जेहनी कीति रही भर पूरी । तस पट्ट कमल दिवार जाणु, मल्लिभूषण गुरु गुण बखाणु । तम पट्टोधर पंरित, लक्ष्मी चन्द महाजस मंडित । अभयचन्द गुरु शीतल वायक, सेहेर वंश मंडन सुखदायक ।। अभयनंदि समरु मन माहि. भव भूला बल गाडे बाहि । तेह सरिण पट्टे गुणभूषण, बंदवि रत्नकीरति गत दूषण ।। भरत महिपति कृत मही रक्षण, बाहुबलि बलनंत विचक्षण ।
बाहुबलि पोदनपुर के राजा थे। पोदनपुर धन धन्य, बाग बगीचा तथा मीलों का नगर था ! भरत का दूत जब पोदनपुर पहुंचता है तो उसे शारों मोर विविध प्रकार के सरोवर, वृक्ष, लता दिखलाई देती है । नगर के पास ही गंगा के समान निर्मल जल वाली नदी बहती है । सात-सात मंजिल वाले सुन्दर महल नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुमुदचंद्र ने नगर की सुन्दरता का जिस रूप में वर्णन किया है उसे पहिये
चाल्यो दूत पयाणे रे हे तो, थोड़े दिन पोयणपुरी पोहोतो। दोठी सीम सधन करण साजित, बापी कप तडाग विराजित ।।
कलकारं जो नस जल कूडी, निर्मल नीर नदी अति ॐडी। विकसित कमल अमल दलपती, कोमल कुमुद समुज्जल कती ।।