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भट्टारक रलकीति एवं कुमुदषन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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बारडोली नयर सोहामण', चंद्रप्रम जिनधाम रे । पाटि महोछव तिहा हवी, सरसा संघना काम रे ||प्रायो।।५।। संवत सोल पच्यासीई, फागुण सुदि एकादशी सोमवार रे । कुमुदचन्द्र पाटि थापिया, अभय चन्द्र गुरु भार रे ॥प्रायो।।६।। तप तेजो दिनकर समो, मिथ्या मत कीधो दुरि रे । मध्य जीवने प्रतिबोधया, दीठे आदि पुर रे । प्रावो॥७॥ श्री प्रभयचन्द्र गुण गाइये, घरी हरष अपार रे ।
मेघसागर ब्रह्म इम कहे, सकल संघ जयकार रे मावो।।।। ६६. धर्मसागर
ये मट्टारक प्रभयनन्द्र द्वितीय के संच में ब्रह्मचारी थे तथा भट्टारक के प्रिय शिष्यों में से थे । वे अपने गुरु के साथ रहते और बिहार के प्रवसर पर उनका विभिन्न गीतों के द्वारा प्रशंसा एवं स्तवन किया करते । नेमिनाथ एवं राजुल भी इनके प्रिय थे इसलिये उनके सम्बन्ध में भी इन्होंने कितने ही गीत लिखे हैं। प्रव तक इनके निम्न गीत प्राप्त हो चुके हैं ।
१. नेमि गीत २. नेमीश्वर गीत ३. लाल पछेडी गीत ४. मरकलका गीत ५. गुरु गीत ६. विभिन्न गीत
धर्मसागर ने नेमि राजुल के सम्बन्ध में अपने पूर्व गुरुषों के मार्ग का अनुसरण किया और राजुल के सौन्दर्य एवं उसकी विरह वेदना को व्यक्त करने में उनसे भी गाजी मरने का प्रयास किया। उनके द्वारा निबद्ध एक नेमीश्वर गीत देखिये
सखिय सह' मिलि बीनये, वर मि कुमार। तोरण थी पाछा बल्या, करीस्यो रे विचार ॥१॥ राजीमती प्रति सुन्दरी, गुणनो नहीं पार । इंद्राणी नहीं अनुसरे, जेह नू रूप लगार ॥ २ ॥