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बेरणी विशाल सोहामणी, जीत्यो श्याम फरिद
भाल कला प्रति स्पष्टी, भरवो बस्यो चंद ॥ ३ ॥
खिडली कज पाखडी,
काली
श्रणियाणी ।
काम तथा शररिया
में
पानन हसित कमल जस्यु' नाक सरल घणुभ करीस्युं मवाणीये, सूका चंच
पर
.
नोहा ॥
उत्तंग |
सुचंग ॥ 5 ॥
भई
हरे
मन
पोमण पोन ।
ग्रहण अधर सम उपता जेवी वचन मधुर जांणी करो, कोयल कंठे कंबु हराबीयो है यई बाहू लता प्रति लड़कती कर मधर अनोपम पातलू, जेहबू हरी लंकी करि जाणिये, पर रंग पान्हीस उची मति रातडी प्रांगलडी सर्व सुलक्षरण सुन्दरी, नहीं मलसे रही लाल पाछा चलो का वचन ते हास विलास करो तुम्हे, प्रति घृणं मा एह वचन मान्यु नहीं, लोधो संयम तप करीस्यां सुख पामियां, सज्जन सुखकार ।। ११ ।। कुमुदचन्द्र पद चांदलो, धर्मसागर कहे नेम जी, सहूने जय जय कार ।। १२ ।।
मानो ।
J
तानि ॥ १० ॥
भार
श्रभयचन्द्र
उदार ।
वाली ।
काली || 6 ||
चित ।
मोहत ॥ ७ ॥
समान ॥ ८ ॥
तेहदी ।
एहवी ॥ ९ ॥
धर्मसागर
इस प्रकार कवि ने राजुल की विरह गत भावनाभों को अपने गीतों में संजो कर हिन्दी जगत में एक नयी सामग्री प्रस्तुत की है।
धर्म सागर ने भट्टारक श्रभयचन्द्र का भी खूब गुणानुवाद किया है। एक गीत में तो भट्टारक जी लाल पछेवढी धारण करने पर कितने सुन्दर लगते थे इसका भी वर्णन किया गया है और लिखा है कि "लाल विशेवटी अभयचन्द्र सोहे, निरखतां भविकयनां मन मोहे" । भट्टारक ग्रहायचन्द्र की प्रशंसा में लिखा है कि इनका देहली दरबार तक व्याप्त था तथा वहां इनकी प्रशंसा होती थी।