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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदच न्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उन्होंने भट्टारक रहते हुए ही की थी। इसका रचनाकाल संवत् १६८५ है। इस सम्बन्ध में ग्रंथ की प्रशस्ति पठनीय है
कथा सुणी बंकबूलनी श्रेणिक घरी उल्लास । वीरनि वांदी भावसु पुहुत राजग्रह वास ॥१॥ संबर जो' मा गुर्जर देर मझार । कल्पवल्लीपुर सोभती इन्द्रपुरी अवतार ।।२।। नरसिंधपुरा वाणिक अमि दया धर्म सुखकंद । चैत्यालि श्री वृषभवि प्रावि भवीयण वृन्द ।।३।।
काष्ठासंघ विद्यागणे श्री सोमकीति मही सोम । विजयसेन विजयाकर यशकीति यस्तोम ।।४॥
उदयमेन महीमोदय त्रिभुवनीति विख्यात । रलभूषण गछपती हवा भुवन रयण जह जात ||५|| तस पट्टि सूरीवर भलु जयकोति जयकार । ज भवियन' भवि सांभली ते पामी भदपार ।।६।।
रूपकुमर रलीया मण बंकचूल बीजु नाम । तेह राम रन्यु रूबडु जयकीर्ति सुखधाम ||७||
नीम भात्र निर्मल हुई गुरूबचने निधार । सांभलतां संपद् मलि ये मणि नरतिनार ||८||
यादुसायर नव महीचंद सूर जिनभास । जय कीर्ति कहिता रहुँ बंकचूलनु रास ।।६।।
इति बंचल रास समाप्तः ।
१२. पं. भगवतीदास
पं. भगवतीदास १७वीं शताब्दी के हिन्दी के कवि थे । उनका जन्म अम्बाला जिले के बुढिया नामक ग्राम में हुअा था लेकिन बाद में प्रागरा एवं देहली इनकी साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुग्न केन्द्र बन गये थे। देहली में मोती बाजार के माश्वनाथ मन्दिर के पास ही इनका निवास था। ग्रागरा में रहते हुए इन्होंने 'अर्गल