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ब्रह्म कपूरचन्न
पर जिन वंदना" निबध्द की थी। इसमें प्रागरा के सभी जैन मन्दिरों का परिचर दिया हुआ है। रचना इतिहास कोट सेभ दरमखनीय
मगवतीदास अग्रवाल जाति के बंसल' गोत्रीय श्रावक थे। उनके पिता का नाम किशनदास श्री जिन्होंने वृद्धावस्था में मुनिव्रतधारण कर लिया था। भगवती दास भट्टारकीय पंडित थे तथा भ. महेन्द्रसेन के शिष्य थे। महेन्द्र सेन दिल्ली गाई के काष्ठासंघ माथुर गाछीय भट्टारक गुणचन्द्र के प्रशिक्षण एवं सकलचन्द्र के शिष्य थे। कवि ने अपनी अधिकांश रमनानों में महेन्द्रसेन का स्मरण किया है।
कवि की अब तक २५ से भी अधिक कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं। अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भंडार में एक गुटका है जिसमें कवि की अधिकांश रखनामों का संग्रह मिलता है। इनमें सीतासतु, अर्गलपुर जिन बन्दना, मुगति रमणी चूनड़ी, लघुसीतासतु, मनकरहारास, जोगीरास, टंडाणारास, मगाकलेखाचरित, प्रादित्यवतरास, पखवालारास, दशलक्षणरास, खिचड़ीरास आदि के नाम उल्लेखनीय है।
कबि का विस्तृत परिचय एवं मूल्यांकन अकादमी के किसी अगले भाग में किया जावेगा। १३. बम कपूरचम
ब्रह्म कपूरचन्द मुनि गणचन्द्र के शिष्य थे। ये १७वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान थे। अब तक इनके पार्श्वनाथ रास एवं कुछ हिन्दी पद उपलब्ध हुमे हैं । इन्होंने रास के प्राप्त में जो परिचय दिया है, उसमें अपनी गुरु-परम्परा के अतिरिक्त प्रानन्दपुर नगर का उल्लेख किया है, जिसके राजा जसवन्तसिंह थे तथा जो राठौड़ जाति के शिरोमणि थे। नगर में 36 जातियां सुखपूर्वक निवास करती थी। उसी नगर में ऊचे ऊचे जैन मन्दिर थे। उनमें एक पाश्र्वनाथ का मन्दिर था । सम्भवतः उसी मन्दिर में बैठकर कवि ने अपने इस रास की रचना की थी।
पाश्वनाथ रास की हस्तलिखित प्रति मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) के पौधरियों के दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध हुई है। यह रचना एक गुटके में लिखी हुई है, जो उसके पत्र १४ से ३२ तक पूर्ण होती है। रचना राजस्थानी भाषा में निबद्ध है, जिसमें १६६ पद्य हैं। "रास" की प्रतिलिपि बाई रत्नाई की शिष्य श्राविका पारवती गंगवाल ने संवत् १७२२ मिती जेठ बुदी ५ को समाप्त की थी।
श्रीमुल जी संघ बहु सरस्वती गछि । भयो जी मुनिवर बहु चारित स्वछ ।।