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भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्रः व्यक्तित्व एवं कृतित्व
छठवीं ढाल जिन इन्द्राणीये नह्वारावीया, पछे कोषोरे बरने सिणगारके
वर दारु सोभतो, ॥ १ ॥
प्राधिनाय का श्रृंगार
माथे रेषू व भर्यो भन्नो, रडु नलवटेरें सोहे तिल के अपार के ॥ २ ॥ प्रांखिरे काजल सारीयां, गाले कोषलु रे रक्षानु इंधारण के ।। ३ ।। कांन रे कुडल झलकता, तेजे जितीबारे पूरण शशि भाण के ॥ ४ ॥ बाजु-प्रबंध विराजता, हइये लहेक तोरे मरिण मोतीनो हार के ॥ ५ ।। हाय बांदी सडी राखडी, प्रांगलीये रे घाल्या बेढबे च्यार के ॥ ६ ॥ के कगीदोरो बेसतो, पगे झांझरे करे रण झणकार के ।। ७ ।। सेहे जे रुप सोहामरण, बलीये हत्यारे बहु भूषण सार के ॥ ८ ॥ रूपेरे त्रिभुवन मोहीउ, हवे करीयेरे बनी धरणु सु बखाण के ॥ ६ ॥ इंद्र अमरी मलु साजनु, आडि चांदलोरे करे सजन सुजाण के ।। १० ॥ केशरनां करयां शेटणा, वली छोटेरे ते गुलाबना नीर के ।। ११ ।। फोफल पान पाये घरणां, मरदनी यारे नाले शीतल समीर के ।। १२ ॥
सातवों डाल इन्द्र प्रणान्योरे घोड़ली सोहे ।
पंचवरण वारु अंग ॥ रिषभ घोड़े चढ़े ॥१॥ विवाह के लिए घोड़ी पर चढ़ना
जोवा मलीया छे प्रासुर नर बृन्द । रिषभ घोड़े चढ़े ॥ २ ॥ कनक पलाए विराजतु, जेर बन्छ अनोपम तंग ॥ रिषभ ।। ३ ।। चोकड ले चित चोरीयु, गेले रण भणकतो चंग ॥ ४ ॥ रंग विरंग सोली घणी, जग मोहे ते वाग प्रमूल ।। ५ ।। रत्न जड्यु मषीमा रड्यु वचे झलके सु' नाना फूल || ६ ।। शीस भरीरे सोहासरिंग, सोहे सुन्दर श्रीफल हाथ ।। ७ ।। इन्द्र प्रभूकरि लीधला, घोड़े सटक चया जगनाथ ।। || माथेरे छत्र विराजसु, हरि द्वाले चमर बेस पास ।। ६ ।। लुग उतारति वेहेनडी, सह विघन गया ते नासि ।। १० ।।