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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
(३५) शोल गीत सुणो सुणो कता रे सीख सोछामणी ।
प्रीति न कीजे रे परनारी सणी ॥
त्रोटक:
परनारि साथि प्रीतडी, श्रीउडा कहो किम कीजिये। उघ पापी प्रापरणी उजागरो किम लोजीइ ।। काजी गुटो कहें, लंपट लोक मांहि लीजीइ । कुल विषय खपण न खार लागे. सगामा किम गाजिये ॥१॥
हास :
प्रीति करता रे पहिलू वीझीमे ।
रखे कोई जाग रे मन मा धुजिये ।।
नोटक:
प्र जीये मनस्यु झूरिये परा' योग मिल योग नहीं । ए राति दिन पलपतां जाये, पावटी भरवसही ।। निज नारी श्री संतोष न बल्यो, परनारी थी तोस्यू हस्ये । जो भरे भाणे नुपति न वली, एठ चाटेस्यु थस्ये ।। २ ॥
मग तृष्णा श्री तरस्य नहीं टले ।
__बालू केसू पीले रे तेस न नीसरे ॥
घौटक:
नवि नीकले पाणी विलोक्ता लेस मांखण नों क्ली। छुकता वाचक भरा फारणे, तस्यां बात न सांपली ।। ते मनारी रमतां पर तरणी, संतोष तो न वले घड़ी। चटपटी ने उचाट लागे, आँछि नावे निष्दसी ।। ३ ।।
जेवो खोटो रे रंग पतंग नो।
तेहवो चटको रे पर श्रिय संग नो ॥
प्रोटक :
परत्रियां केरो प्रेम प्रिउड़ा रखे को जाणो खरो। दिन च्यार रग सुरंग डों, पछे न रहे निरघरो ।। जे घणा साये नहे माडे, छाडि तेहस्यु बातडी। इम जागी मम करि नाहला, परनारि साथै प्रीतडा ॥ ४ ॥