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भट्टारक रत्नशीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तन मन धन योवन नहीं मावत ।
रजनी न भावत भोर ।। रतनफीरति प्रभु बगे मिला।
तुम मेरे मन के बोर ।। ३ ।।
राग केवारी :
झीलंते कहा कर्यो यदुनाथ । पही रुक्रमणि सत्यभामा श्रीरकत मिली सबु साथ ॥ १ ॥ छिरकतें बदन छपात इतउत, व्याहान को दीयो हाथ ।
रतनी रति प्रभु कैसे सीधारे मुगति बधू के पाय ॥ २ ।। राग केवारो :
सरद की रपनि सुन्दर सोहाल' । राका शशत्रर जारत या तन, जनक सुता बिन भात ।। १ ।। अब याके गुन प्रावत जीया में, बारिज बारी बात । दिल बिदर की जानत सीमा, गुपत मते की बात ।। २ । या विन या तन सहो न जावत, दुःसह मदन को पात |
रतनकीरति कहें बिरह सीता के, रघुपति रह्यो न जात ।। ३ ।। रग केदारो :
(१४) सुन्दरी सकल सिंमार करे गोरी । कनक वदन कंचूकी कसी तनि, पेनीले प्रादि नर पटोरी ।। १ ।। नीरखती नेह भरि नेमनो साहकु र बेले आयेंसंग हलधर जोरी। रतनकीरति प्रभु गिरखी सारंग वेग गिरी गये मान मरोरी ।। २ ।। सुन्दरी ॥
राग मामणी :
(१५) सारंग उपर सारंग साहे सारंग व्यासार जी। से तल पर सारंग एक सुन्दर एवी राजनार॥
तरुणी तेजे मोहे जी ।। १ ।। सारंग सारंग' हरी मोहे सारंग माहे। सारंग मुकी सारंग पति ने जोवे ।। तरु० ॥ २ ॥ सारंग करीने सारंग बैठो कोटे सारंग समान जी । सारंग उपर थी सारंग उतरी सारंग सु करे मन ।। त० ।।३।।