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भट्टारकं कुमुदचन (६) प्रण्यरति गीत
यह भी विग्हात्मक गीत है और राजुल की तीनों ऋ तुओं में पति वियोग हो पाती दशः ॥ ३द किया गया। इसमें मुख्यतः प्रकृति वर्णन अधिक हुन है 1 लेकिन ऋतु वर्णन का पालंबन राजुल ही है । शीत ऋतु प्राने पर राजल कहत है कि वह बिना पिया के कैसे रहेगी--
बाजे ते शीतल वायरा, बाझ ते नाहिर हार । धजे त बनना पंखिया, किग रहेस्बे रे पनि पिय शुकुमार के ।।८।।
इसी तरह हिम ऋतु में निम्न सात प्रकार के साधन सुख का मूल मान गये है
तेल तापन तुला तरुणी ताम्रपट तंबोल' । तप्ततोय ते सातमू सुखिया मेरे हिम रिति सुख मूल के।
इस प्रकार गीत छोटा होने पर भी गागर में सागर के समान है।
(७) हिन्योला गीत
यह गीत भी राजल का सन्देश गीत है जिसमें वह नेमि के विरह से पोहित होकर विभिल सन्देश वाहकों से नेमि के पास अपना सन्देश गेजती रहती है । गीत में कवि ने राजुल की मात्मा को निकाल कर रख दिया है राजुल कहती है--
घर बन जाल रांग सहू, विरह दवानल शील । हूं हिरणी तिहां एकली, केसरियाम कराल ।। १४ ।। वह फिर संदेश भेजती है भोजन तो माने नहीं, भूपण करे रे संताप जो है मरिस्य दिलखि थई, तो तस सागस्ये पाप ॥ १९ ॥ पशु देखी पाछा वल्या, मनस्सु थया रे. दयाल मझ उपरि माया नहीं, ते तम्हेस्या रे कृपाल ।। २० ।। सम्हे संयम लेवा संचरया, जाण्यो गम्बो हुई मम ।
एकस्यु रुसी एकस्यु तुसी अवलो तुम्हारी धर्म ।। २१ ।। गीत में ३१ पद्य है । अन्त में कवि ने अपने नाम का उल्लेख किया है
ए भगता सुस्व गामीइ, विघन जाये सहु दुरि। रतनकीरति पर मंडणो, बोले कुमुदचन्द्र सूरि ।। ३१ ।।