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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र - व्यक्तित्व एवं कृतित्व (८) बशलक्षण धर्म व्रत गीत
इस गीत में दश लक्षण धर्मों पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। कवि ने गीर का प्रारम्भ निम प्रकार किया है
धर्म करो ते चित उजले रे जे दस लक्षण ।
स्वर्गतणा ते सुख पामोइ जिम तरीय संसार ॥१॥ (९) अठाई गीत
वर्ष में तीन बार अष्टाह्रिका पर्च पाता है जो कार्तिक, फागुन एवं प्रपात मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पुणिमा तक पाठ दिन तक मनाया जाता है । प्रस्तुत गीन में प्रष्टाहिका व्रत करने की विधि एवं कितने उपवास करने पर कितना फन मिलता है उसका वर्णन किया गया है। पुरा गीत १४ पद्यों का है जिसका अन्तिम भाग निम्न प्रकार है--
जे नर नारी अत करीये. तेहर्ने धरि प्राणंद जी रत्नकीरति गौर पाट-पटोधर, कृमूदचन्द्र सृरिद जी।
(१०) व्यसन सातन' गीत
कवि ने प्रस्तुत गीत में मानव को सात व्यमनों के त्याग' की सलाह दी है कोंकि जो भी प्राणी इन व्यसनों के चकार में पड़ा है उसी का जीवन नष्ट हुग्रा है । सात व्यसन है- जुना खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन करना । कवि ने पहिले ८ पद्यों में व्यसनों की बुराई बतलाई है और फिर प्रागे के चार पद्यों में उदाहरण देकर इन व्यसनों में नहीं पड़ने की सलाह दी है। परनारी संगम --म करिस्य गुरख न्यान मातमें परवारी री संग ।
हाव भाव दरस्थे ते खोटी, जे हवो रंग पतंग ।
जीव भूके व्यसन असार, जाव छूट तु संसार ॥ उदाहरण-चारुदत्त दुख अति गा पाम्यो, राज्यो वेश्या रूप।
अहादत चक्री आहेडे, ते पडियो भव कप । जीव मूके व्यसन असार, जीव छूट तु संसार ।।